Newslaundry Hindi
इलेक्टोरल बॉन्ड: जो पैसा राजनीतिक दलों के खाते में जा रहा है उसका बोझ करदाता उठा रहा है
राजनीतिक चंदे की लेनदेन में काम आने वाले बैंकिंग चैनलों, खातों और मुद्रक को मिलाकर समूचे इनफ्रास्ट्रक्चर के रखरखाव और सुरक्षा पर गोपनीय अरबपति या प्राप्तकर्ता राजनीतिक दल एक पैसा अपनी ओर से खर्च नहीं करते. इसके बजाय यह लागत भारत सरकार के एक खाते कंसोलिडेटेड फंड आँफ इंडिया से वसूली जाती है जिसमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों से आने वाला राजस्व जमा होता है. इसके ठीक उलट आम भारतीय नागरिकों द्वारा किए जाने वले बैंकिंग विनिमय पर उससे बैंकिंग शुल्क और कमीशन वसूला जाता है.
भारतीय करदाता के इस बाध्यकारी औदार्य का सबसे बड़ा लाभार्थी अब तक कोर्इ रहा है तो वह है सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी, जिसने योजना के लागू होने के बाद से अब तक सबसे ज्यादा पैसे बनाए हैं. इस माह की शुरुआत में आई रिपोर्टें बताती हैं कि 2018-19 में चंदे से जुटाये गए बीजेपी के कुल फंड का 60 फीसद यानी 1450 करोड़ इलेक्टोरल बॉन्ड से आया था.
बुरी बात यह है कि दानदाता के लिए यह राजनीतिक चंदा करमुक्त होता है, यानी जब कंपनियां और धनकुबेर अपनी पसंद की राजनीतिक पार्टी को चंदा देते हैं तो भारत के राजकोष में कम टैक्स आता है. यह बात किसी और ने नहीं, खुद वित्त मंत्रालय ने 2017 में कही थी जब बीजेपी ने योजना को लाने के लिए अवैध लेकिन कामयाब तरीके से मनी बिल का रास्ता अपनाया था.
न्यूज़लॉन्ड्री द्वारा वित्त मंत्रालय की फाइल नोटिंग, पत्राचार, आंतरिक नोट और मेमो की पड़ताल में सामने आया है कि राजनीतिक चंदे की लेनदेन में सरकारी फंड के इस्तेमाल का निर्णय विवादास्पद इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के आरंभ में ही ले लिया गया था.
कागज़ात बताते हैं कि सरकार शुरू में इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के नियमों में भुगतान के प्रोटोकॉल को सार्वजनिक रखना चाहती थी, लेकिन आखिरकार यह तय हुआ कि इसे सार्वजनिक नहीं किया जाएगा और यह सरकार के आंतरिक रिकॉर्डों और योजना को लागू करने वाले सरकारी क्षेत्र के भारतीय स्टेट बैंक के पास ही सुरक्षित रहेगा.
हाल ही में सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी को देने से एसबीआई ने इनकार कर दिया था जिसमें पूछा गया था कि मार्च 2018 में योजना कें लागू होने से लेकर अब तक कुल 14 राउंड के इलेक्टोरल बॉन्ड विनिमय की देखरेख के एवज में बैंक ने सरकार से कितने पैसे लिए हैं.
कमोडोर लोकेश बत्रा (सेवानिवृत्त) द्वारा लगायी गयी आरटीआई में पता चला था कि मार्च 2018 और मई 2019 के बीच 5832 करोड़ मूल्य के इलेक्टोरल बॉन्डों की दस खेप की बिक्री पर एसबीआई ने वित्त मंत्रालय से 3.24 करोड़ रुपये का शुल्क लिया था. हजार रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री पर बैंक सरकार से साढ़े पांच रुपया शुल्क वसूलता है. इसके अलावा डिजिटल बॉन्ड के हर विनिमय पर बैंक सरकार से अतिरिक्त 12 रुपये लेता है जबकि भौतिक रूप में बॉन्डों की खरीद पर प्रत्येक के हिसाब से 50 रुपये वसूलता है.
इसके अलावा, नासिक में स्थित इंडियन सिक्योरिटी प्रेस (सरकारी कंपनी सिक्योरिटी प्रिंटिंग एंड मिंटिंग कॉरपोरेशन का अंग) प्रत्येक इलेक्टोरल बॉन्ड को छापने के बदले 25 रुपया चार्ज करता है. इसके बदले में प्रेस हर प्रकाशित बॉन्ड को एक गोपनीय संख्या और विशिष्ट सुरक्षा प्रदान करता.
यह धनराशि देखने में भले छोटी जान पड़े लेकिन यह सवाल जरूर पूछे जाने योग्य है कि इन चंदों पर आने वाला खर्च खुद राजनीतिक दल या उनके दानदाता क्यों नहीं भर सकते.
रिजर्व बैंक का रुख
वित्त मंत्रालय ने जनवरी 2017 में पहली बार इलेक्टोरल बॉन्ड पर भारतीय रिजर्व बैंक की राय मांगी. उस वक्त आरबीआई ने इस योजना का भीषण विरोध किया था. (कारण यहां देखें) शिकायती रवैये के बावजूद जब आरबीआई सितंबर 2017 तक योजना के समर्थन में आ गया, तब वित्त मंत्रालय ने 18 सितंबर, 2017 को एक आंतरिक नोट जारी करते हुए सवाल पूछा, “इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने और उसका रखरखाव करने के एवज में बैंकों/आरबीआई को कितना कमीशन भुगतान किया जाए?”
उस वक्त मंत्रालय ने सुझाव दिया कि आरबीआई जिन बैंकों को यह योजना चलाने के लिए चुनेगा, उन्हें खुद हैडलिंग शुल्क और कमीशन का भुगतान कर सकता है.
सरकार ने आरबीआई को अपना आखिरी फैसला भले सुना दिया हो, लेकिन आरबीआई वित्त मंत्रालय द्वारा तय की शर्तों पर योजना को चलाने पर सहमत नहीं हुआ. तब जाकर मंत्रालय ने एसबीआई का रुख़ किया और उसे इलेक्टोरल बॉन्ड योजना का प्रबंधन और परिचालन करने का जिम्मा सौंपा.
वित्त विभाग में संयुक्त सचिव (बजट) प्रशांत गोयल ने 28 अक्टूबर, 2017 को एक आंतरिक नोट में लिखा, “चूंकि कागज़ी इलेक्टोरल बॉन्ड के रखरखाव की लागत इतनी मामूली नहीं होगी और उसे दानदाता से वसूला जाना होगा, लिहाजा र्इबी को उच्च मूल्यों तक ही सीमित रखा जाना चाहिए, मसलन एक लाख से अधिक.”
यह पहली बार था जब आधिकारिक रिकॉर्ड में योजना की परिचालन लागत को महंगा स्वीकारा गया था.
इसके बाद मंत्रालय के भीतर आगामी चर्चाओं में बहुत जल्द इस विचार को तिलांजलि दे दी गयी कि राजनीतिक दलों को हजारों करोड़ का चंदा दान करने वाले दानदाताओं से कमीशन वसूला जाए, जो जाहिर तौर से उनके चंदे की रकम के मुकाबले ऊंट के मुंह में ज़ीरा होता. यह तय हुआ कि केंद्र सरकार बैंकों यह शुल्क अपने खज़ाने से देगी. दूसरे शब्दों में, यह पैसा जनता की जेब से लिया जाएगा.
नवम्बर 2017 में इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के ताज़ा ड्राफ्ट नियमों में इसे स्पष्ट रूप से शामिल कर लिया गया.
ड्राफ्ट कहता है, “अधिकृत बैंक को आने वाली शुद्ध लागत, यदि हो तो, केंद्र सरकार द्वारा चुकायी जाएगी.”
वित्त मंत्रालय और कानून व न्याय मंत्रालय के बीच 19 दिसंबर, 2017 को हुर्इ चर्चा के बाद ड्राफ्ट नियमों के अगले संशोधन में यह तय किया गया कि प्रकाशित नियमों में इस तथ्य का ज़िक्र नहीं किया जाएगा कि सरकार एसबीआई को कमीशन चुकाने के लिए कंसोलिडेटेड फंड आँफ इंडिया से पैसा लेगी. इसके बजाय, यह सूचना प्रशासनिक आदेश के माध्यम से प्रदान की जाएगी, चूंकि ये आदेश सावर्जनिक निगरानी के दायरे में नहीं आते.
ड्राफ्ट नियम कहते हैं, “बॉन्डों की खरीद के एवज में खरीदार की ओर से कोर्इ भी कमीशन, ब्रोकरेज, या बॉन्ड जारी किए जाने के बदले अन्य कोई भी शुल्क देय नहीं होगा.” इसमें अलग से यह नहीं बताया गया है कि भुगतान कौन करेगा.
अपने स्तर पर एसबीआई ने इस बात का आग्रह किया था कि निमावली में सरकार की देनदारी को स्पष्ट रूप से दर्ज किया जाए.
एसबीआई में रुपी मार्केट्स डिवीज़न के मुख्य महाप्रबंधक जी. रवींद्रनाथ ने 7 दिसंबर, 2017 को वित्त मंत्रालय को एक नोट लिखा था, “पैरा (10) में सब पैरा (बी) को मिटा दिया गया है जिसमें इस बात का जिक्र था कि बैंक को आने वाली शुद्ध लागत की भारपार्इ केंद्र सरकार करेगी.” उन्होंने लिखा था, “हमें लगता है कि उक्त उपबंध को शामिल किया जाना चाहिए. विकल्प के तौर पर यह लागत बॉन्ड के खरीदार से वसूले जाने की अनुमति दी जानी चाहिए.”
एसबीआई की नहीं सुनी गयी. नियमावली के अंतिम खाके में इसका जिक्र नहीं किया गया कि न तो दानदाता और न ही राजनीतिक दल योजना के परिचालन की लागत का भुगतान करेंगे. नियमों में यह भी नहीं लिखा गया कि सरकार बैंकों को राजकोष से भुगतान करेगी.
बॉन्डों की पहली खेप मार्च 2018 में बिक्री के लिए खुली. एसबीआई ने वित्त मंत्रालय को 4 अप्रैल, 2018 को पहली बार लिखकर योजना को चलाने में आने वाली लागत और कमीशन चुकाने को कहा. फिर हर राउंड की बिक्री के बाद बैंक ने सरकार को बिल भेजना शुरू किया. हमारे पास जो आखिरी बिल है, उस पर 27 मई, 2019 की तारीख पड़ी है.
सिक्योरिटी प्रिंटिंग एंड मिंटिंग कॉरपोरेशन आँफ इंडिया लिमिटेड ने भी मुद्रण शुल्क भुगतान के लिए वित्त मंत्रालय को पत्र लिखा. अक्टूबर 2018 तक उसका कुल बिल 1.67 करोड़ का हो चुका था जो आखिरकार मंत्रालय को चुकाना ही पड़ा.
इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री के 12 में से 10 राउंड अब तक पूरा होने के बाद एसबीआइ ने सरकार पर कुल 3.24 करोड़ रुपये का बिल ठोंका है. यह एक ऐसी लागत है जो हर बार जनता की जेब से वसूली जाती है जब सरकार गोपनीय चंदे का दौर शुरू करती है. इसका तेरहवां राउंड दिल्ली चुनाव के ठीक हफ्ते भर पहले खोला जाना है. जनता की जेब पर इसकी कितनी मार पड़ेगी, इसका पता तो फरवरी 2020 में ही लग सकेगा बशर्ते एसबीआई इस संबंध में की गयी आरटीआई का जवाब दे.
Also Read
-
The polarisation of America: Israel, media and campus protests
-
‘1 lakh suicides; both state, central govts neglect farmers’: TN farmers protest in Delhi
-
Mandate 2024, Special Ep: The 4 big distortions in the PM’s ‘infiltrator’ speech
-
एनएल चर्चा 316: पीएम की ‘हेट स्पीच’, इलेक्शन कमीशन की ‘चुप्पी’ और सूरत का ‘फिक्स’ चुनाव
-
Hafta 482: JDS-BJP in Karnataka, inheritance tax debate, issues with PMLA