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एक महीने बाद जामियाकांड की याद
15 दिसंबर 2019, जामिया मिल्लिया इस्लामिया के इतिहास का वह काला दिन है जब सारी हदें तोड़ दी गईं. हक़ के लिए उठने वाली आवाज़ को आंसू गैस के धमाकों से दबा दिया गया. ये आवाज़ें उठ रहीं थीं सरकार के उस फैसले के खिलाफ जो देश के संवैधानिक मूल्यों के ख़िलाफ़ है, जो देश की शांति व्यवस्था भंग करने वाला है.
नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का ज़िम्मा उठाया था जामिया मिल्लिया इस्लामिया के हज़ारों छात्रों ने. 11 दिसंबर की रात से शुरू हुए इस आंदोलन ने जल्द ही सरकार की नींदे उड़ा दीं. 13 दिसंबर को विरोध प्रदर्शन करने वाले छात्रों को पुलिस ने मार्च करने से रोका और उन पर लाठियां बरसाईं. कई छात्रों को अस्पताल पहुंचाया.
मगर यह आवाज़ें रुकने वाली नहीं थीं. अगले ही दिन दोगुनी ताक़त के साथ छात्रों ने जामिया में जमा होकर ज़बरदस्त विरोध प्रदर्शन किया. नतीजे में यूनिवर्सिटी में होने वाली सभी परीक्षाएं स्थगित कर दी गईं. 5 जनवरी तक प्रशासन की ओर से छुट्टियों की घोषणा कर दी गई.
फिर आया वह दिन जब इस हमने सरकारी हिंसा का तांडव देखा. सुबह के साथ ही छात्र छात्राएं कैंपस में जमा होने लगे थे. 12 बजे जामिया के गेट नंबर 7 से शुरू हुआ शांतिपूर्ण मार्च बटला हाउस की गलियों से होता हुआ जामिया वापस आया और वहां अपना प्रदर्शन जारी रखा. 4.30 बजे पुलिस के जामिया की तरफ आने की ख़बर मिली. छात्रों को निर्देश दिए थे कि कोई कैंपस के बाहर नहीं जाएगा.
एक ऐसे देश में जहां लड़कियां आए दिन बलात्कार और हत्या की शिकार होती रहती हैं वहां हमने इस कैंपस की दीवारों के भीतर ही सबसे ज्यादा सुरक्षित महसूस किया. किसी बात पर विश्वास हो, न हो मगर इस बात पर पूरा विश्वास था कि बाहर कुछ भी हो जाए जब तक हम कैंपस के भीतर हैं, महफूज़ हैं. पुलिस बाहर कितनी ही लाठियां बरसा ले, आंसू गैस के गोले दाग़ती रहे मगर इन दीवारों के अंदर कभी नहीं आ सकती.
वह यक़ीन उस दिन चूर-चूर हो गया जब बाहर से आता हुआ आंसू गैस का एक गोला मेरी आंखों के सामने गिरा और फट गया. बिखरे हुए भरोसे को लेकर भागते छात्र और धुआं-धुआं कैंपस, जहां सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था.
अभी लग रहा था कि पुलिस पूरी तरह अंदर नहीं आई है, बस गोले ही अंदर आ रहे हैं इसलिए सभी छात्र लाइब्रेरी के आसपास जमा हो गए. ऐसा लगा कि हम यहां महफूज़ हैं और अब भी पुलिस के अंदर न आने का यक़ीन बाक़ी था. हमारी सारी कोशिश बस आंसू गैस के गोलों से बचने की थी.
तभी ख़याल आया कि दोनों छोटी बहनें भी यहीं आस-पास थी. जल्दी से फ़ोन लगाकर उनकी खबर ली तो पता चला कि वह भी यहीं लाइब्रेरी के पास हैं. दिल को राहत मिली, दोनों को पास बुलाया और हाथ थाम कर खड़े हो गए.
अचानक पुलिस के अंदर घुसने की सूचना मिली. खुद देखा नहीं था मगर दूर से आती आवाज़ें और भागते बच्चे विश्वास दिला रहे थे. हम और अंदर की तरफ भागे. देखा कि एक डिपार्टमेंट की बिल्डिंग का ताला खुला था. जल्दी से बहनों को अंदर किया और अब दोस्तों का ख़याल आया जो भागते समय बिछड़ गए थे. बहुत देर फ़ोन से कोशिश करने के बाद जब संपर्क नहीं हो सका तो खुद भागते हुए लाइब्रेरी की तरफ गई.
यूनिवर्सिटी में तीन साल से ज़्यादा समय बिताने के बाद इतना साहस आ चुका था कि पुलिस सामने भी आ जाए तो उसका सामना कर लेंगे. मगर फ़िक्र उन दो कश्मीरी लड़कियों की थी जिन्हें आए अभी कुछ ही महीने हुए थे. इस प्रोटेस्ट में वो हमारी जिद पर शामिल हुई थीं.
इसी हौसले को लिए मैं और मेरी दोस्त उस अंधेरे में उन दोनों को ढूंढते रहे. जब ख़तरा ज़्यादा महसूस होता तो आड़ लेकर खड़े हो जाते और एक दूसरे का हाथ मज़बूती से थाम लेते. जब लगने लगा कि वो दोनों अब नहीं मिलेंगी तो वापस उस बिल्डिंग का रुख़ किया जहां बहनों को छोड़ा था. जब तक वहां पहुंचते अंदर से ताला लग चुका था. हम दोनों तन्हा और बेबस खड़े थे और सामने से पुलिस आ रही थी. लगातार गोलों की आवाज़ें डरा रहीं थी, समझ नहीं आ रहा था कि अब किस ओर भागें. तभी पीछे से आवाज़ आई जल्दी इधर आओ. हम दोनों वापस लाइब्रेरी की तरफ दौड़े.
ज्यों ज्यों आगे बढ़ रहे थे आंसू गैस का असर बढ़ रहा था. आंखों के सामने अंधेरा था तभी वो दोनों लड़कियां नज़र आईं. भागकर दोनों का हाथ खींचा और साथ लाकर चिल्लाई, “अब हिलना मत यहां से.” मगर उस भगदड़ में बिना हिले कहां काम चलने वाला था. बच्चे रीडिंग हॉल की तरफ़ जाने का इशारा कर रहे थे, बाहर निकलना तो अब मुमकिन था ही नहीं क्योंकि चारों ओर से पुलिस वालों ने घेर रखा था. इसलिए रीडिंग हॉल में जाना ही ठीक समझा. वहां अब भी कुछ बच्चे पढ़ाई कर रहे थे. हम कभी एक दूसरे के आंसू पोंछते तो कभी चेहरे पर नमक लगाते. उस वक़्त आंसू गैस से बचने के लिए यही एक रास्ता था.
वह वक़्त भुलाए नहीं भूलता जब दिल्ली पुलिस किसी दहशतगर्द की तरह व्यवहार कर रही थी. सेंट्रल लाइब्रेरी के उस छोटे से रीडिंग हॉल में उस दिन मामूल से ज़्यादा लोग थे. आज न कोई कुर्सी का झगड़ा था न बैठने की जगह की तलाश. भीड़ रोज़ाना से ज्यादा और ख़ामोशी रोज़ से ज्यादा. बत्तियां बुझा दी गईं थीं कि कहीं किसी पुलिस वाले की नज़र न पड़ जाए और हमारे यहां होने की खबर मिल जाए. यहां तक कि कोई फ़ोन का इस्तेमाल भी नहीं कर रहा था. क़दमों की आहटों ने भी चुप्पी साध ली थी.
थोड़ा संभलने के बाद रीडिंग हॉल की खिड़की से झांककर नीचे देखा. वहां पुलिस की लाठियां कभी जामिया के बेगुनाह छात्रों पर तो कभी इमारतों के शीशे पर पड़ रही थीं. कैंपस में जो पुलिस के हत्थे चढ़ रहा था उसे कॉलर पकड़कर ले जा रही थी. उस डर और दहशत के माहौल में समय बीत ही रहा था कि पुलिस रीडिंग हॉल में घुस आई. जिसे जिधर जगह मिली कुर्सी और मेज़ों के नीचे नज़र आया. उन पुलिसवालों को इतने क़रीब देखकर घिन आ रही थी.
निहत्थे छात्रों को वो हाथ ऊपर उठाकर लाइब्रेरी से ऐसे निकाल रहे थे जैसे खतरनाक मुजरिमों को निकाल रहे हों. ज़रा सा हाथ नीचे हुआ तो लाठियां पड़ने को तैयार थीं. ये वही छात्र थे जो इस दशहतगर्दी से कुछ मिनट पहले हाथों में अमन का पैग़ाम लिए खड़े थे. अब “पीस” और “नो वायलेंस” जैसे शब्दों से सजे वे प्लेकॉर्डस टूटे हुए कांच के टुकड़ों के बीच बिखर चुके थे.
हमें नहीं पता था कि हमें कहां ले जाया जा रहा था. लग रहा था हमें हॉस्टल जाने देंगे. यूनिवर्सिटी के गेट पर पहुंचे तो देखा कि कुछ छात्रों को पुलिस ने अपनी हिरासत में ले रखा है. वे सभी ज़मीन पर बैठे हुए थे. उन छात्रों के बीच हमारा एक वह भी साथी था जो कुछ देर पहले हमारे साथ खड़ा शांति का सन्देश दे रहा था. हम उसके सामने से ले जाए जा रहे थे मगर कुछ कर नहीं सकते थे. बस बेबसी से देख सकते थे.
चारों तरफ से घेरे हुए वे पुलिस वाले हमें लिए चले जा रहे थे. वे कभी व्यंग्य करते हुए कहते, “और… मिल गई आज़ादी?”, “और चाहिए आज़ादी?” वे हंस रहे थे हमारी वीडियोज़ बना रहे थे और हम खामोश रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे.
जब सामने हॉस्टल जाने वाला गेट नज़र आया तो मैंने चिल्लाकर कहा, “मुझे हॉस्टल जाना है.” मगर वे कहां सुनते. हम सबको ले जाकर जामिया की सरहद के बाहर धकेल दिया गया.
रात के उस वक़्त हॉस्टल के अलावा कहीं और कैसे जा सकते थे. बहनों को भी कहा था और खुद भी यह फैसला कर लिया था कि जब तक हॉस्टल नहीं पहुंच जाते घर पर बात नहीं करनी है. अंदाज़ा था हमें कि यहां से सैंकड़ों मील दूर बैठे माता पिता जब सुनेंगे कि रात के इस समय हम सड़क के किनारे खड़े सुरक्षित जगह तलाश रहे हैं तो उन पर क्या गुज़रेगी. अभी यह सोच ही रहे थे कि उन पुलिस वालों ने फिर से दौड़ाना शुरू कर दिया. हम समझ नहीं पा रहे थे कि ये चाहते क्या हैं.
आखिरकार एक सीनियर के घर पर जाना तय हुआ जो पास में ही था. वहां पहुंच कर पता चला कि बहनों समेत और लड़कियों को प्रॉक्टर के आदमियों ने हॉस्टल पहुंचा दिया है. आधी फ़िक्र ख़त्म हुई अब अपने जाने का जुगाड़ करना था.
यूनिवर्सिटी कैंपस के पीछे एक ईसाई क़ब्रिस्तान है जो हॉस्टल से दिखाई देता है. उस क़ब्रिस्तान का रास्ता हम जानते थे. पता चला कि क़ब्रिस्तान के रास्ते से होकर जाने वाला कैंपस का गेट जो हमेशा बंद रहता था तोड़ दिया गया है. हमने एक दूसरे का हाथ थामा और बिना किसी देरी के उस सुनसान रास्ते की तरफ दौड़ लगा दी. डर भी था कि कहीं किसी खाकी वाले की नज़र न पड़ जाए.
रास्ते में एक सवार हमें दौड़ता देख रुक गया. उसके क़रीब जाते हुए मेरी नज़रें अंधेरे में केवल उसके कपड़ों का रंग देख रही थीं।कहीं यह ‘ख़ाकी‘ तो नहीं? शुक्र है कि वह वो नहीं था जो हम समझ रहे थे. सवार को अपने भागने की तफ्सील दे ही रहे थे कि एक सफ़ेद कार रुकी और आवाज़ आई, “सिस्टर! हेल्प चाहिए?” हमने एक आवाज़ में कहा, “हां.” उस गाड़ी ने हमें कैंपस के पिछले गेट पर उतारा. वह गेट दिखने में बंद लग रहा था मगर टूटा हुआ था. हम एक के बाद एक अंदर गए और राहत की सांस ली.
अभी इम्तिहान ख़त्म नहीं हुआ था, वह पुलिस वाले हॉस्टल तक पहुंच गए थे. अब वह जगह भी महफूज़ नहीं थी. अब एक ही रास्ता था घर वालों को तसल्ली देने का, घर की तरफ़ रवानगी. तत्काल टिकट बुक किया और आने की ख़बर घर वालों को कर दी. यूं तो घर जाने की अलग ही ख़ुशी होती है मगर आज इस बेबसी की हालत में सब छोड़ कर जाना रुला रहा था. अगले ही दिन लड़कियों से भरा हुआ हॉस्टल एक खाली मकान बन चुका था.
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