Newslaundry Hindi
झूठ, कुतर्क, भटकाव: जेएनयू हिंसा में टीवी चैनलों द्वारा इस्तेमाल किए गए औजार
कुछ नहीं तो कम से कम भारतीय मीडिया के एक तबके को अपनी निरंतरता के लिए ज़रूर सम्मानित किया जाना चाहिए. मुद्दों, और मुद्दों के इर्द-गिर्द सूचना का चक्र बदलता रहता है लेकिन जो नहीं बदलता वह है इन चैनलों की ख़बरों में तोड़-मरोड़ की जड़ता, यह हमेशा बनी रहती है.
यह और भी तीव्र और महत्वपूर्ण हो जाता है जब जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की बात आती है. यह इन चैनलों का भय फैलाने का सबसे पसंदीदा ज़रिया है.
पांच जनवरी की शाम को नकाबपोश गुंडे हॉकी, सरिया, लाठियों से लैस होकर कैंपस में घुसते हैं, विद्यार्थियों और प्रोफेसरों को बेरहमी से पीटते हैं. दिल्ली पुलिस कैंपस के गेट के बाहर मूकदर्शक बनी खड़ी रहती है और मीडिया एवं अन्य लोगों को अंदर जाने से रोकती रहती है. इस हमले में कई छात्र औऱ शिक्षक घायल होते है, सड़कों की बिजली चार घंटों के लिए बंद कर दी जाती है, और पत्रकारों पर हमला होता है.
बीते कुछ दिनों में कौन, क्या और कैसे जैसे सवालों पर कई ठोस जानकारियां निकल कर सामने आयी हैं.
हमें मालूम है कि इस विवाद के केंद्र में जो व्हाट्सएप ग्रुप सामने आया, इस हमले की योजना बनाने के लिए, उसके ज़्यादातर एडमिन (कुल 14 में से 10) सीधे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए थे. पूरे हमले में खासकर कश्मीरी और मुस्लिम छात्रों के कमरों को निशाना बनाया गया. एम्स में भर्ती होने वालों में से अधिकांश प्रोफेसर और वामपंथी दलों से जुड़े छात्र कार्यकर्ता थे. टाइम्स नाउ पर एबीवीपी के एक सदस्य ने कहा कि वो लोग “आत्मरक्षा के लिए लोहे की छड़ें, पेपर स्प्रे और एसिड लेकर घूम रहे थे.”
अपराध हुए अब हफ्ते भर से ज्यादा बीत चुका है, लेकिन दिल्ली पुलिस अभी तक एक भी गुनाहगार को पकड़ने में असफल रही है, जिन्होंने पिछले हफ्ते जेएनयू में हिंसा की. इसकी जगह जेएनयूएसयू की अध्यक्ष आइशी घोष के खिलाफ दो एफआईआर दर्ज की जा चुकी है. इसी बीच दिल्ली पुलिस ने कहा है कि उन्होंने संदिग्धों के तौर पर आइशी घोष समेत 9 लोगों की पहचान की है. पुलिस का रवैया भी प्रसिद्ध न्यूज़ चैनलों की कहानियों की तरह बिल्कुल निरंतरता और सामंजस्य में है. जिसमें आइशी घोष को हर मुमकिन तरीके से खूंखार वामपंथी आतंकवादी- या फिर अर्बन नक्सलवादी के रूप में चित्रित करने की कोशिश की गई है.
दिसम्बर 2019 में जब छात्रों का विरोध नागरिकता कानून के खिलाफ शुरू हुआ, उस समय कई एंकरों ने विरोध कर रहे छात्रों को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. तो आइए सीधे उन दावों और तर्कों पर आते हैं, जिनके द्वारा जेएनयू हिंसा और आइशी घोष के खिलाफ कहानियां गढ़ी गईं.
…कि 5 जनवरी की हिंसा में वामपंथी छात्र नेताओं ने एबीवीपी पर हमला किया
5 जनवरी को हुई हिंसा से पहले रिपब्लिक भरत ने जेएनयू में हाथापाई के इस वीडियो को लगातार दिखाया. इस हाथापाई ने जेएनयूएसयू के फैसले की पृष्ठभूमि तैयार की कि वो नए सत्र के पंजीकरण का बहिष्कार करे, इसका इस्तेमाल ये साबित करने के लिए किया गया कि लेफ्ट से जुड़े छात्रों ने पहले एबीवीपी पर हमला किया. इसी हाथापाई के वीडियो ने रविवार की रात की हिंसा को वाम बनाम दक्षिणपंथी हिंसा के मुद्दे में बदल दिया.
ठीक इसी इरादे के साथ प्रसार भारती ने वीडियो को ट्वीट किया
तो क्या सच में लेफ्ट के छात्रों ने इस वीडियो में एबीवीपी के छात्रों के साथ मारपीट की? असल में ऐसा नहीं है. ऑल्ट न्यूज़ ने एक विस्तृत पड़ताल की और पाया कि लाल कपडे में छात्रों को पीटता हुआ व्यक्ति वास्तव में एबीवीपी का सदस्य है. लेकिन अभिजीत अय्यर मित्रा जैसे दक्षिणपंथी झुकाव के पत्रकारों ने उस वीडियो को ट्वीट किया. बाद में उन्होंने न तो लोगों को गुमराह करने के लिए माफी मांगी न ही ट्वीट को डिलीट किया.
इस बीच, प्रसार भारती ने अपने बचाव की एक बेशर्म कोशिश की.
मुद्दे से भटकाने की कोशिश: मुंबई में विरोध प्रदर्शन के दौरान ‘फ्री कश्मीर’ का पोस्टर
जेएनयू हिंसा ने मुंबई में भी विरोध की चिंगारी भड़का दी. इसके चलते मशहूर हस्तियों, छात्रों और नागरिकों ने ऐतिहासिक गेटवे ऑफ इंडिया और कार्टर रोड पर नारे, कविता और पोस्टरों के साथ अपना विरोध दर्ज किया.
हालांकि इतने बड़े विरोध के बावजूद एक विशेष पोस्टर ही मीडिया के कथानक के केंद्र में आया.
पोस्टरों और तख्तियों के समुद्र में इस एकाकी पोस्टर की ओर इशारा करते हुए, एंकरों ने तर्क दिया कि किस तरह से विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व “टुकडे-टुकडे गैंग” के लोग कर रहे थे, जो कि कश्मीर को भारत से अलग करना चाहते हैं.
इस बीच, पोस्टर को पकड़े हुए महिला ने एक वीडियो द्वारा अपना बयान जारी कर अपने पोस्टर के औचित्य पर स्पष्टीकरण दिया. उसका पोस्टर कश्मीर में महीनों से ठप पड़े इंटरनेट सेवा और वहां के नागरिकों को हो रही असुविधा से खुद को जोड़ने के बारे में था. अर्नब गोस्वामी चाहते तो इस वीडियो को खुद भी देख सकते थे जो कि उनकते ही चैनल रिपब्लिक टीवी ने दिखाया था.
ज़ी न्यूज़ के प्रधान संपादक सुधीर चौधरी ने इस जुगाड़ पर केंद्रित एक पूरा ब्यौरा दिया कि किस तरह से जेएनयू परिसर को दिल्ली से बाहर ले जाना चाहिए क्योंकि इसकी कुछेक मीडिया संस्थानों और राजनीतिक दलों से निकटता है. साथ में सुधीर चौधरी ने जेएनयू की जमीन की व्यावसायिक दर को लेकर भी अपनी जानकारी से देश को अवगत कराया.
पहले जेएनयूएसयू की अध्यक्ष आइशी घोष द्वारा छात्रों की भीड़ की अगुवाई करने का झूठ.
7 जनवरी को एक हैशटैग के साथ अर्णब गोस्वामी का प्राइम टाइम कार्यक्रम आया #हूस्टार्टेडजेएनयूवार यानि जेएनयू हिंसा किसने शुरू की. इसमें दावा किया गया कि “लटियंस मीडिया” गलत एवं समय से पहले निष्कर्ष निकाल रहा है. अर्नब ने सबूत के तौर पर नीचे दिया गया वीडियो दिखाया, जिसके बाद अर्नब ने घोषणा की कि इस “बर्बर, राक्षसी हमले” का नेतृत्व वामपंथी छात्रनेता कर रहे थे.
यह दिलचस्प है कि अर्नब गोस्वामी इस वीडियो के सूत्र उस वीडियो से जोड़ता है जिसमें नाकबपोश गुंडे असल में लोगों के ऊपर हमला करते और धमकाते हुए दिख रहे हैं. और अब तो उसमें से एक नकाबपोश की पहचान एबीवीपी कार्यकर्ता के रूप में हो चुकी है.
तो अर्नब असल में करते ये हैं कि दो पूरी तरह से अलग-अलग वीडियो को आपस में मिला कर ये दावा करते हैं कि जेएनयू परिसर में फैलाया गया आतंक वामपंथी छात्रों का था न कि एबीवीपी का. जबकि वास्तव में एक वीडियो पूरी तरह से एबीवीपी की हिंसा का वीडियो है.
अर्नब आइशी द्वारा भीड़ का नेतृत्व करने वाले वीडियो से अपने शो की शुरुआत करते हैं, “अब… हमारे पास वो दृश्य हैं जो वामपंथ की चरम क्रूरता को दर्शाते हैं.”
इससे पहले की आप उनके तर्क पर सवाल कर सकें वो नकाबपोश हथियारों से लैस गुंडों का दृश्य दिखाना शुरू कर देता है जिनकी पहचान एबीवीपी के सदस्यों के रूप में हो चुकी है.
अब उस वीडियो पर आते हैं जो अर्नब और सुधीर दोनों ने इस्तेमाल की है जिसमें आइशी एक समूह का नेतृत्व कर रही हैं.
उस वीडियो में हम देख सकते हैं कि आइशी एक समूह की अगुवाई कर रही हैं जिनमें से कुछ लोग अपने चेहरे पर नकाब लगा रखे हैं और किसी बिल्डिंग में घुस रहे हैं. क्या हमें मालूम है कि वो छात्रों पर हमला करना चाहते थे या नहीं? क्या कोई सबूत है जो शारीरिक हिंसा की पुष्टि करता हो? नहीं, नहीं और नहीं.
लेकिन यहां सुधीर चौधरी ने अपनी प्रतिभा दिखाई: वो उसी वीडियो को टिकर के साथ चलाता है जिसमें लिखा है कि “ज़ी न्यूज़ इस वीडियो की पुष्टि नहीं करता है.” लेकिन यह सुधीर को वामपंथियों के सर पर इल्जाम डालने के निष्कर्ष निकालने से नहीं रोकता.
ये बेहद आसान चाल है: बार-बार “भीड़” जैसे शब्दों का प्रयोग करें, कुछ घालमेल वाले दृश्यों के साथ इसे मिलाएं, ऊंची आवाज़ में उत्तेजित करने वाला आडियो ट्रैक उसमे जोड़ें, और फिर हथियारों से लैस नकाबपोश गुंडों की वीडियो को जेएनयूएसयू की अध्यक्ष द्वारा छात्रों के एक समूह की अगुआई वाली वीडियो के साथ मिलाकर दर्शकों को गुमराह करें.
और इतिसिद्धम: कहानी वाम बनाम दक्षिणपंथी हिंसा के बारे में है.
आइशी घोष द्वारा समूह की अगुआई वाली वीडियो और हथियारबंद गुंडों की वीडियो में से कौन सी वीडियो पर “बाहरी नकाबपोश” वाला विवरण सबसे सही बैठता है
लेकिन अर्नब के मामले में ऐसा नहीं है. उसने आइशी वाले दृश्य का इस्तेमाल किया और दूसरे वीडियो का विवरण उसमें डाल दिया.
दिल्ली पुलिस की मुसीबत का बचाव: व्हाटअबाउटरी
सत्ता समर्थक न्यूज़ चैनलों की निरंतरता सबसे अच्छी तरह तब देखी जा सकती है कि कैसे सत्ता के समर्थन में दक्षिणपंथी तंत्र द्वारा किए गए ट्वीट को अफसानों में गढ़ते हैं और फिर उस पूरे अफसाने को टीवी एंकर अपने शब्दजाल में पिरोते है.
बेशक, अर्नब ने भी इस पूरे मामले को इसी तरह से भटकाने की कोशिश की.
इस तथ्य के अलावा कि पुलिस कंट्रोल रूम को पहला कॉल 5 जनवरी को शाम 4.57 बजे किया गया था, पुलिस कैंपस में नहीं घुसी, हिंसा के वीडियो वायरल होने के बाद भी. एक विश्वविद्यालय जो “अर्बन नक्सल”, “देश विरोधी” और “टुकड़े-टुकड़े-गैंग” के स्वर्ग के रूप में जाना जाता है, क्या पीसीआर पर कॉल किये जाने के बाद भी पुलिस अंदर जाने के लिए किसी प्रकार के लिखित आदेश का इंतज़ार करेगी?
यहां याद रखिए कि दिल्ली पुलिस हमारे गृहमंत्री को सीधे रिपोर्ट करती है जिन्होंने घोषणा की थी कि यह समय है “टुकड़े-टुकड़े-गैंग” को सज़ा देने का.
आईशी घोष द्वारा वसंत कुंज के एसएचओ, इंस्कोपेक्टर संजीव मंडल, और स्पेशल पुलिस आयुक्त आनंद मोहन को भेजे गए मैसेज का स्क्रीनशॉट. सोर्स: इंडिया टुडे
दिल्ली पुलिस के पूर्व कमिश्नर नीरज कुमार ने द प्रिंट को बताया: “जब कुछ गैर कानूनी हो रहा हो तब, ऐसी कोई भी नियम, कोई भी कानून नहीं है जो पुलिस को किसी जगह दाखिल होने से रोक सके, चाहे वो कोई विश्विद्यालय परिसर ही क्यों न हो.”
क्या जामिया मिल्लिया इस्लामी में कोई गैर कानूनी गतिविधि हो रही थी जब दिल्ली पुलिस वहां घुसी थी? नहीं. फिर भी वे अंदर घुस गए, बदमाशों को पकड़ने के बहाने.
क्या जेएनयू में 5 जनवरी को हुई घटनाएं अवैध थीं, और वहां पुलिस हस्तक्षेप की आवश्यकता थी? जवाब है हां.
द इंडियन एक्सप्रेस की यह जानकारी महत्वपूर्ण है कि जेएनयू के कुलपति एम जगदेश कुमार ने पुलिस को जेएनयू गेट पर देर शाम 6.24 बजे तैनात होने कहा था लेकिन अंदर घसने से मना किया था. जेएनयू के रजिस्ट्रार के द्वारा एक आधिकारिक पत्र पुलिस को शाम 7.45 पर दिया गया था. वीसी ने पुलिस को गेट पर रुकने के लिए क्यों कहा? पुलिस ने इंतज़ार क्यों किया, जबकि उन्हें अनौपचारिक रूप से घंटो पहले हिंसा के बारे में बताया जा चुका था?
लेकिन नहीं, न्यूज़ चैनलों के एंकरों ने ट्वीटर पर चल रही बहस को तवज्जो दी.
गुमराह करने वाली सूचना: रविवार की हिंसा से पहले की घटनाओं के संदर्भ में
28 अक्टूबर से, जेएनयू के छात्र भारी शुल्क वृद्धि के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. उनका तर्क है कि, 40 प्रतिशत से अधिक छात्र कम आय वाले परिवारों से आते हैं और 999 प्रतिशत की बढ़ोतरी अनिवार्य रूप से सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों और समुदायों के छात्रों को बाहर निकाल देगी.
जेएनयू की कार्यकारी परिषद ने बढ़ोत्तरी के आंशिक हिस्से को वापिस लेने की घोषणा की थी लेकिन कॉलेज पूरी तरह से फीस कम करने के लिए हड़ताल पर बैठा रहा.
इसी संदर्भ में जेएनयूएसयू ने आगामी शैक्षणिक सत्र के लिए प्रवेश का बहिष्कार किया था, और पूरे कैंपस में सबको पंजीकरण करने से मना करने के लिए कैंपेन कर रहा था. पिछले हफ्ते, लेफ्ट नेताओं ने पंजीकरण के विरोध में विश्वविद्यालय के सर्वर रूम पर भी कब्जा कर लिया था.
जाहिर है, यह संदर्भ प्राइम टाइम शो के अधिकांश शुरुआती मोनोलॉग या बहस में कहीं नहीं देखने को मिलता है. यहां इसके बजाय क्या सुनने को मिलता हैं: 5 जनवरी को जो विरोध और हाथापाई हुई वो उन छात्रों के बीच की है जो पढ़ना चाहते हैं और जो “राजनीति करना चाहते हैं”, और कैसे लेफ्ट से जुड़े छात्र अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए दूसरे छात्रों का भविष्य बर्बाद कर रहे हैं.
किसी भी एंकर ने एक बार भी यह ज़िक्र नहीं किया कि लेफ्ट छात्र क्यों विरोध कर रहे थे, या किस तरह से बढ़ी हुई फीस गरीब परिवारों से आने वाले छात्रों पर प्रभाव डालेगी.
बगैर सोचे-समझे प्रतिक्रिया व्यक्त करना: इसे तब तक कहें जब तक यह डर पैदा न करे दे
सबसे प्रभावी और अक्सर उपयोग किए जाने वाले मीडिया रणनीति में से एक है कि, एक समूह को जनता की नज़रों में दुश्मन बना दो, एक हैशटैग बनाओ, और इसे तब तक दोहराया जाय जब तक उस शब्द मात्र के उल्लेख से भय और राष्ट्रवाद रुपी देशभक्ति न जगने लगे. “टुकड़े-टुकड़े-गैंग” पूरी तरह से मीडिया द्वारा निर्मित है. मत भूलिए- हमने फरवरी 2016 में जेएनयू में “राजद्रोह विवाद को विस्तार से कवर किया था, इसे आप यहां, यहाँ और यहाँ देख सकते हैं.
6 जनवरी को अर्नब के प्राइम टाइम शो #जेएनयू का युद्ध किसने शुरू किया और #टुकड़े-टुकड़े गैंग देखा गया, की बहस के बीच, अर्नब ने “लेफ्ट”, “लेफ्टिस्ट”, “लेफ्टिस्ट गुंडे” और “टुकड़े-टुकड़े” शब्द का 60 बार से ज्यादा इस्तेमाल किया.
अंदाजा लगाएं कि उसने “एबीवीपी” का ज़िक्र कितनी बार किया? चार बार जिसमें एक बार पैनल में एबीवीपी का नाम एबीवीपी प्रतिनिधि का स्वागत करने के लिए किया गया.
कैंपस में हाथापाई आम है. कई बार ये हाथापाई उग्र रूप ले लेती हैं. कोई इस बात को मानने से इनकार नहीं कर रहा कि वहां हाथापाई हुई, और उसमें एबीवीपी के छात्रों को भी चोट आई. जब न्यूज़लांड्री घटनास्थल पर पहुंचा तो हमें बताया गया कि कैसे कथित लेफ्ट से जुड़े लोगों द्वारा रविवार शाम 5 बजे एबीवीपी के छात्रों को भी निशाना बनाया गया था. तीन, चार और पांच की शाम में हुई हिंसा में लिप्त लोगों के लिए कोई बहाना नहीं है, चाहे वो राईट हों या लेफ्ट.
किसी को इस बात से भी इनकार नहीं होना चाहिए कि कैंपस में हाथापाई हुई थी जिसके बाद पांच जनवरी को बाहरी लोगों द्वारा सुनियोजित हमला किया गया जिसमें संभवतः कैंपस के छात्र भी शामिल थे. कुलपति को स्थिति को नियंत्रित करना चाहिए था, और पुलिस को मूकदर्शक बने रहने से इनकार करना चाहिए था.
बहुत सारे दबे हुए सवाल हैं जिन्हें टीवी मीडिया अपनी पहुंच, बयानों और ओवर-द-टॉप ग्राफिक्स से संबोधित कर सकता था. पुलिस कैंपस में इतनी देरी से क्यों घुसी? नकाबपोश गुंडे कैसे आराम से निकल गए जबकि हर दरवाज़े पर पुलिस खड़ी थी? पांच जनवरी की रात जब छात्रों और कर्मचारियों को पीटा जा रहा था, तब जेएनयू प्रशासन एक से चार तारिख को कैंपस मं हुई घटनाओं की एफआईआर दर्ज कराने में क्यों व्यस्त था? आइशी घोष के खिलाफ पहली प्राथमिकी रात 8:44 बजे और दूसरी प्राथमिकी हिंसा भड़कने के ठीक बाद 5 जनवरी को रात 8:49 बजे दर्ज की गई थी. मीडिया को अंदर क्यों नहीं जाने दिया गया? स्ट्रीट लाइट्स क्यों बंद कर दी गई थी? क्यों सड़क की लाइट घंटो तक बंद रखी गई? मीडिया रिपोर्ट्स द्वारा कई गुंडों की पहचान होने के बाद भी अभी तक दिल्ली पुलिस ने एक भी गिरफ्तारी क्यों नहीं की?
ऐसा होने पर सरकार या आईटी सेल से आप जो कुछ भी सुन रहे हैं, वह उनके अनुरूप तालमेल नहीं बिठा पाएगा.
अर्नब गोस्वामी और सुधीर चौधरी ने अपने मोनोलॉग में कहा था कि दर्शक उनकी राय और विश्लेषण का इंतजार करते हैं. हम अर्नब और सुधीर को दूर नहीं कर सकते हैं- हम बस इतना कर सकते हैं जागरूक बनकर उनकी बकवास को सुनना बंद कर दें.
Also Read
-
Adani met YS Jagan in 2021, promised bribe of $200 million, says SEC
-
Pixel 9 Pro XL Review: If it ain’t broke, why fix it?
-
What’s Your Ism? Kalpana Sharma on feminism, Dharavi, Himmat magazine
-
मध्य प्रदेश जनसंपर्क विभाग ने वापस लिया पत्रकार प्रोत्साहन योजना
-
The Indian solar deals embroiled in US indictment against Adani group