Newslaundry Hindi
एनआरसी से न भी जोड़ें तो भी सीएए क्यों बुरा है
‘आप क्रोनोलॉजी समझ लीजिए. पहले सीएबी (नागरिकता संशोधन विधेयक) आने जा रहा है. सीएबी आने के बाद एनआरसी (नेशनल रजिस्टर फ़ॉर सिटिज़न्स) आएगा. और एनआरसी सिर्फ़ बंगाल के लिए नहीं आएगा, पूरे देश के लिए आएगा.’ गृह मंत्री अमित शाह ने अपने इस मशहूर हो चुके बयान में यह भी कहा था कि ‘पहले सीएबी से सारे शरणार्थियों को नागरिकता दी जाएगी. उसके बाद में एनआरसी बनेगा. इसलिए जो शरणार्थी हैं उनको चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है. घुसपैठियों को ज़रूर चिंता करने की ज़रूरत है.’
दिलचस्प है कि अमित शाह का ये बयान तब उतना चर्चित नहीं हुआ था जब उन्होंने ये बयान दिया था. बल्कि इसकी असल चर्चा तब शुरू हुई जब देश भर में नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन होने लगे और इन प्रदर्शनों पर ही सवाल उठाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बयान दिया कि ‘मैं 130 करोड़ देशवासियों को कहना चाहता हूं. मेरी सरकार आने के बाद, 2014 से आज तक, कहीं पर भी एनआरसी शब्द पर कोई चर्चा नहीं हुई है, कोई बात नहीं हुई है. सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ने जब कहा तो सिर्फ हमें असम के लिए करना पड़ा. झूठ फैलाया जा रहा है.’
प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के इन बयानों को अब अगर साथ में देखा जाए तो लगता है कि जिस झूठ के फैलाए जाने की बात प्रधानमंत्री कर रहे हैं, वह झूठ तो खुद उनके गृह मंत्री ही फैला रहे हैं.
देशव्यापी प्रदर्शनों के दबाव में नरेंद्र मोदी ने भले ही अपनी सरकार का बचाव करते हुए कहा है, ‘नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) को एनआरसी से जोड़ना सही नहीं है और सीएए का देश के नागरिकों से कोई लेना-देना नहीं’ लेकिन गृह मंत्री अमित शाह संसद से सड़क तक कई बार सीएए और एनआरसी की ‘क्रोनोलॉजी’ समझाते हुए सरकार के इरादे स्पष्ट कर चुके हैं. अमित शाह लगातार कहते हैं कि शरणार्थियों को घबराने की ज़रुरत नहीं है लेकिन घुसपैठियों को बाहर खदेड़ा जाएगा. यहां शरणार्थी और घुसपैठिये में जो अंतर है उसका आधार सिर्फ धर्म है. चूंकि सीएए पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए तमाम गैर-मुस्लिम लोगों को शरणार्थी मानकर नागरिकता देने की बात कहता है तो साफ़ है कि सिर्फ मुस्लिम समुदाय ही बचता है जो घुसपैठिया ठहराया जा सके.
अमित शाह द्वारा समझाई गई क्रोनोलॉजी के अनुसार अगर भविष्य में देशव्यापी एनआरसी लागू होती है तो संभव है कि ज़रूरी दस्तावेज न होने पर एक गैर-मुस्लिम व्यक्ति तो शरणार्थी मान लिया जाएगा लेकिन मुस्लिम व्यक्ति घुसपैठिया कह दिया जाएगा. यह एक बड़ा कारण है कि शाहीन बाग से लेकर देश के कोने-कोने में जहां भी नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं, वहां लोगों में एनआरसी भी चिंता का विषय बना हुआ है. हालांकि फिलहाल केंद्र सरकार ने देशव्यापी एनआरसी की कोई रूप-रेखा तैयार नहीं की है और न ही इसका कोई आधिकारिक प्रस्ताव संसद में लाया गया है. लेकिन जब देश के गृह मंत्री ही कई-कई बार पूरे देश में एनआरसी करवाने का दावा कर चुके हैं तो ऐसे में प्रदर्शनकारियों की चिंता को नाजायज़ भी नहीं कहा जा सकता.
बहरहाल, एक बार को यदि मान भी लें कि देशव्यापी एनआरसी कभी नहीं करवाई जाएगी लिहाजा सीएए को इससे जोड़कर न देखा जाए, तब भी ऐसी कई वजहें हैं जिनके चलते सीएए का विरोध जायज़ लगता है. ये सही है कि अगर एनआरसी को हटा कर देखें तो सीएए का देश के मौजूदा नागरिकों पर कोई सीधा प्रभाव नहीं होता. ये कानून सिर्फ तीन पड़ोसी देशों से आए हुए कुछ चुनिंदा लोगों को नागरिकता देने की ही बात करता है. लेकिन ये सवाल तब भी अपनी जगह खड़ा ही मिलता है कि क्या सीएए भारत के संविधान की मूल भावना के अनुरूप है या नहीं?
इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए सीएए को दो पैमानों पर परखना ज़रूरी है. पहला पैमाना है सीएए को पूर्वोत्तर राज्यों की नज़र से देखना जहां इस कानून का सबसे मुखरता से विरोध हुआ है. यह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि पूर्वोत्तर में इस कानून के विरोध की वजहें शेष भारत से अलग हैं. असम में एनआरसी को स्थानीय जनता का ज़बरदस्त समर्थन मिला था. इसका मूल कारण यह था कि राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए जो ‘असम एकॉर्ड’ हुआ था, एनआरसी उसे धरातल पर उतारने का एक माध्यम था. इस एकॉर्ड के अनुसार मार्च 1971 के बाद जो लोग असम में दाखिल हुए हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, वहां की नागरिकता नहीं ले सकते. लेकिन अब सीएए लागू होने के बाद 2014 तक भारत आए तमाम गैर-मुस्लिम लोगों को नागरिकता दी जानी है. ऐसे में असम के लोग वाजिब ही सवाल उठा रहे हैं कि सीएए का लागू होना ‘असम एकॉर्ड’ में किये गए वादे को तोड़ देने के समान है.
असम के लोगों का तर्क है कि उनका राज्य पहले ही 1947 से 1971 के बीच वहां आए लाखों शरणार्थियों का बोझ झेल चुका है. मार्च 1971 की अंतिम तिथि भी उन्होंने लम्बे आंदोलन और कई शहादतों के बाद हासिल हुए ‘असम एकॉर्ड’ के जरिये तय करवाई थी. लेकिन अब सीएए का लागू होना इस एकॉर्ड को तोड़ रहा है और ये उनके शहीदों का अपमान है. कानूनी भाषा में समझें तो असम के लोगों तर्क है कि सीएए का लागू होना ‘सिटीजनशिप एक्ट, 1955’ की धारा 6 (ए) का उल्लंघन है जो कि ‘असम एकॉर्ड’ को संवैधानिक मान्यता देती है.
हालांकि नागरिकता संशोधन कानून में यह भी प्रावधान है कि ये पूर्वोत्तर के उन इलाक़ों में लागू नहीं होगा जो संविधान की छठी अनुसूची में शामिल हैं या जो बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन, 1873 के अंतर्गत ‘इनर लाइन’ में आते हैं. ऐसे में असम के लोगों का यह सवाल भी वाजिब है कि जो क़ानून पूर्वोत्तर के कुछ इलाक़ों के लिए अच्छा नहीं है वो कुछ अन्य इलाक़ों के लिए अच्छा कैसे हो सकता है.
पूर्वोत्तर राज्यों में सीएए के विरोध का कारण स्थानीय ज़्यादा है. लेकिन देश के अन्य हिस्सों में इस क़ानून का इसलिए भी विरोध हो रहा है क्योंकि यह धर्म के आधार पर नागरिकता देने की बात करता जिसे कि संविधान के मूल अवधारणा के विरुद्ध माना जा रहा है. प्रदर्शनकारियों का यह भी तर्क है कि सीएए अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है लिहाज़ा यह क़ानून असंवैधानिक है. गौर करने वाली बात यह भी है कि हमारे संविधान में दिए गए कुछ मौलिक अधिकार सिर्फ़ देश के नागरिकों को ही हासिल हैं जैसे कि अनुच्छेद 19, लेकिन अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 में दिए गए अधिकार सिर्फ़ देश के नागरिकों तक ही सीमित नहीं हैं.
ऐसे सवाल उठता है कि क्या नागरिकता संशोधन क़ानून अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए सबसे पहले बारीकी से यह समझना ज़रूरी है कि इस क़ानून के तहत किन लोगों को नागरिकता दी जा रही है और किन लोगों को इससे वंचित किया जा रहा है. पूर्वोत्तर के कुछ इलाक़ों को यदि छोड़ दें तो यह क़ानून ऐसी तीन शर्तें रखता है जिन्हें पूरा करने वालों ‘अवैध प्रवासी’ नहीं माना जाएगा और भारतीय नागरिकता दे दी जाएगी. ये तीन शर्तें इस प्रकार हैं:
पहली शर्त: वह व्यक्ति हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई धर्म का होना चाहिए.
दूसरी शर्त: वह अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से हो.
तीसरी शर्त: वह 31 दिसंबर, 2014 से पहले भारत में दाख़िल हुआ हो.
अनुच्छेद 14 सभी नागरिकों और विदेशियों को समानता का अधिकार सुनिश्चित करता है. हालांकि संविधान यह भी अनुमति देता है कि विशेष परिस्थितियों में कुछ व्यक्ति समूहों के बीच अंतर किया जा सकता है. लेकिन ऐसा सिर्फ़ तभी किया जा सकता ऐसा अंतर करने के पीछे कोई ठोस और वाजिब कारण मौजूद हों. लिहाज़ा सीएए की संवैधानिकता परखने के लिए यह परखना ज़रूरी है कि इसके अंतर्गत व्यक्ति समूहों में किया जा रहा अंतर वाजिब और तर्कसंगत है या नहीं.
उपरोक्त तीन शर्तें बताती हैं कि सीएए मुख्यतः तीन आधारों पर लोगों के बीच भेद भाव करता है – धर्म के आधार पर, उनके मूल देश के आधार पर और उनके भारत में दाख़िल होने की तिथि के आधार पर. अब देखते हैं कि क्या यह भेदभाव करना अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है या इस भेदभाव को जायज़ ठहराया जा सकता है. सबसे पहले बात करते हैं धर्म के आधार पर होने वाले अंतर की. मोटे तौर पर भी देखें तो यह अंतर करना असंवैधानिक लगता है क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है. हमारे संविधान की सिर्फ़ प्रस्तावना में ही हमारे धर्मनिरपेक्ष होने का ज़िक्र नहीं है बल्कि सर्वोच्च न्यायालय कई बार इसकी व्याख्या भी कर चुका है कि धर्मनिरपेक्षता हमारे संविधान के मौलिक स्वरूप का हिस्सा है जिससे छेड़छाड़ नहीं की जा सकती.
संविधान के लागू होने से पहले संविधान सभा में हुई बहसों में भी इसका ज़िक्र मिलता है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने धर्म को नागरिकता का आधार बनाए जाने को सिरे से ख़ारिज कर दिया था. सीएए का समर्थन करने वालों का तर्क है कि यह क़ानून अनुच्छेद 14 में दिए गए अपवाद पर खरा उतरता है क्योंकि जिन देशों के नागरिकों को यह नागरिकता देने की बात करता है वे तीनों देश ‘इस्लामिक’ हैं और वहां तमाम ग़ैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं जिनका धार्मिक उत्पीड़न होता रहा है. लिहाज़ा इन ग़ैर-मुस्लिमों को धर्म के आधार पर नागरिकता देना अनुच्छेद 14 में दिए गए अपवाद के अनुकूल है.
लेकिन ये तर्क तथ्यों पर पूरी तरह से खरा नहीं उतरता. पाकिस्तान में ही अहमदिया समूह के भी लोग रहते हैं जिन्हें पाकिस्तान में मुस्लिम नहीं माना जाता और जिनका धर्म के आधार पर वहां उत्पीड़न होता रहा है. इसी तरह बांग्लादेश में भी नास्तिकों को धार्मिक रुझान के चलते उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है. ऐसे में सिर्फ़ छह धर्मों को इस क़ानून में शामिल करना और अहमदिया, शिया जैसे तमाम समूहों को शामिल न करना अनुच्छेद 14 के अंतर्गत अंतर करने का ‘तार्किक आधार’ नहीं लगता.
धर्म से इतर यदि दूसरी शर्त की बात करें तो यह क़ानून सिर्फ़ तीन पड़ोसी देशों को ही शामिल करता है. इस कानून के ‘स्टेटमेंट ऑफ़ ऑब्जेक्ट्स एंड रीज़न’ यानी एसओआर के अनुसार इन तीनों देशों (जिनका राज्य धर्म इस्लाम है) से लोगों का धार्मिक उत्पीड़न के चलते भारत में प्रवास होता रहा. एसओआर में यह तो कहा गया है कि अविभाजित भारत के लाखों नागरिक पाकिस्तान और बांग्लादेश में रहते हैं. लेकिन अफगानिस्तान को इसमें शामिल क्यों किया गया है, इसका कोई तार्किक कारण एसओआर में नहीं मिलता.
ठीक ऐसे ही इस तथ्य का भी कोई जवाब नहीं मिलता कि सिर्फ़ इन तीन देशों को ही क्यों शामिल किया गया है. यदि देश का एक निर्धारित राज्य धर्म होना और वहां धार्मिक अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न होना ही नागरिकता देने का पैमाना है तो श्रीलंका को इसमें शामिल क्यों नहीं किया गया जिसका राज्य धर्म बौद्ध है और जहां तमिल भाषी हिंदुओं का लगातार उत्पीड़न हुआ है. ऐसे ही बौद्ध बहुल म्यांमार भी है जहां से रोहिंग्या मुसलमानों का बड़ा पैमाने पर क़त्ल-ए-आम हुआ है. पिछले कुछ सालों में श्रीलंका और म्यांमार से कई तमिल और रोहिंग्या शरण लेने भारत आए हैं. बल्कि इन समुदायों की स्थिति तो पाकिस्तान से आए हिंदू समुदाय के लोगों से भी ज़्यादा दयनीय है. ऐसे में श्रीलंका और म्यांमार को छोड़ सिर्फ़ पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के लोगों को शामिल करने का भी कोई तार्किक कारण इस क़ानून में ऐसा नहीं मिलता जो इसे अनुच्छेद 14 की परीक्षा पार करवाने में मदद कर सके. यदि इस क़ानून का उद्देश्य धार्मिक उत्पीड़न का शिकार हुए प्रवासियों को नागरिकता देना ही है तो सिर्फ़ रोहिंग्या, तमिल हिंदू, शिया, अहमदिया और नास्तिक लोगों को इसके दायरे से बाहर रखना कैसे न्यायसंगत कहा जा सकता है.
नागरिकता पाने की तीसरी शर्त यानी 31 दिसंबर 2014 की तिथि भी समुदायों के बीच अंतर करने का वाजिब कारण कैसे हो सकती है, इसका जवाब कहीं नहीं मिलता. जो लोग इस तिथि के बाद भारत में दाख़िल हुए हैं उन्हें किस तार्किक आधार पर नागरिकता से वंचित किया गया, इसका जवाब भी क़ानून या उसके एसओआर में नहीं मिलता.
ऊपर लिखे तमाम क़ानूनी पहलुओं से इतर यदि इस क़ानून के राजनीतिक संदेश पर गौर करें तो भी यह एक संकीर्ण और बुरा क़ानून होने का संदेश देता है. इस क़ानून से सीधा संदेश जाता है कि हमारे देश में मुस्लिम समुदाय के लोगों को आने का अधिकार नहीं है. यह एक ऐसा संदेश है जो देश के संविधान निर्माताओं ने कभी नहीं देना चाहा. लेकिन आज देश की कमान जिन लोगों के हाथों में है, उनकी राजनीति का आधार ही शायद ऐसा विभाजनकारी संदेश पर टिका है.
Also Read
-
A flurry of new voters? The curious case of Kamthi, where the Maha BJP chief won
-
Delhi’s demolition drive: 27,000 displaced from 9 acres of ‘encroached’ land
-
डिस्टर्ब्ड एरिया एक्ट: गुजरात का वो कानून जिसने मुस्लिमों के लिए प्रॉपर्टी खरीदना असंभव कर दिया
-
How Muslims struggle to buy property in Gujarat
-
Air India crash aftermath: What is the life of an air passenger in India worth?