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कोटा के जेके लोन अस्पताल में धोखे से लिया गया अभिभावकों से सहमति पत्र पर हस्ताक्षर
आखिरी बार आपने स्वास्थ्य बजट पर केंद्रित संपादकीय कब पढ़ा था या आखिरी बार आपने प्राइम टाइम पर कब जन स्वास्थ्य के विषय पर बहस देखी थी? आपको यह जरूर मालूम होगा कि पाकिस्तान या बांग्लादेश में हिंदुओं की जनसंख्या बहुत तेजी से घट रही है. इस बाबत आपने तरह-तरह की सूचनाएं, आंकड़ों सहित (बिना सोर्स जाने) आपने व्हाट्सएप पर देखी, पढ़ी और फॉरवर्ड की होंगी. लेकिन स्वास्थ्य को लेकर न कोई जन जागरण है, न प्राइम टाइम में “हेल्थ बजट इतना कम क्यों है?,” जैसे सवाल पर नसें तानते स्टार एंकर हैं.
राजस्थान के कोटा के जेके लोन मातृ और शिशु चिकित्सालय में दिसंबर 2019 से लेकर 6 जनवरी, 2020 तक 111 बच्चों की जान जा चुकी है. मामले ने तूल तब पकड़ा जब 23 और 24 दिसंबर को 48 घंटे के भीतर 10 शिशुओं की मौत हो गई. हालांकि जेके लोन अस्पताल के अपने आंकड़़ों के मुताबिक अकेले 2019 में 963 बच्चों की मौत हो चुकी है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब राजस्थान के एक सरकारी अस्पताल में साल भर बच्चों की मौत बदस्तूर जारी रही तो यह देश के लिए मुद्दा क्यों नहीं बन सका?
ज्यादातर बच्चे न्यूमोनिया, सर्दी और खांसी से पीड़ित थे. अव्वल बच्चों की मौत सरकारी उदासीनता की तो पराकाष्ठा है ही. लेकिन एक क्रूर तथ्य यह भी है कि 23-24 दिसंबर के पहले तक मीडिया के लिए बच्चों की मौत ‘खबर’ नहीं थी. विपक्ष भी शांत था. मीडिया में मामला गर्माने के बाद उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट, राज्य के स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा, लोकसभा अध्यक्ष और कोटा के भाजपा सांसद ओम बिरला और विपक्षी नेताओं के दौरे होने लगे. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने डॉक्टरों की टीम भेजी. नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) की टीम भी जांच के लिए जेके लोन पहुंची.
क्या मंत्रियों के दौरों और मीडिया के दबाव के बावजूद जेके लोन अस्पताल की स्थिति में कुछ तात्कालिक बदलाव हुए? इसे समझने न्यूज़लॉन्ड्री जेके लोन अस्पताल पहुंचा. मरीजों ने आंखों-देखी बदलाव बताया. मसलन, अस्पताल प्रशासन ने टूटी खिड़कियों में कांच लगवाए. शिशु ओपीडी वार्ड में नए रूम हीटर लगाए गए. अस्पताल में नियमित साफ-सफाई होने लगी. अस्पताल परिसर में घूम रहे अवारा पशुओं को हटाया गया. डॉक्टर सुबह और शाम दोनों वक्त आने लगे. नर्सों के व्यवहार में बदलाव आया. एनसीपीआर की टीम ने इंक्यूबेशन यूनिट, नेबुलाइज़र और जीवन रक्षक उपकरणों में गंभीर कमियां पाईं.
आलोचनाओं से बौखलाया अस्पताल प्रशासन अब अनैतिक तरीकों पर उतर आया है. अस्पताल में बीमार बच्चों को भर्ती करने के पहले खाली पर्ची पर उनके अभिभावकों के हस्ताक्षर लिए जा रहेल थे. कुछ की पर्चियों पर बच्चों को भर्ती करने के पहले ही अस्पताल प्रशासन ने लिख दिया था कि वे इलाज से संतुष्ट हैं. जब हमने परिजनों से यह पूछा कि उन्होंने हस्ताक्षर क्यों किए? ज्यादातर अभिवावकों ने बताया कि वे पढ़े-लिखे नहीं हैं. न ही अस्पताल प्रशासन ने उनके हस्ताक्षर लेने के पहले उन्हें पढ़कर सुनाया कि आखिर पर्ची पर लिखा क्या है. परिजनों को सिर्फ इतना बोला गया कि मरीज को भर्ती करवाना है तो पर्ची पर हस्ताक्षर कीजिए.
संतोष शर्मा
संतोष शर्मा के बच्चे का नाम है सिद्धू. उम्र है ढाई साल. खांसी और सर्दी की शिकायत होने के बाद सिद्धू को 3 तारीख को जेके लोन लाया गया. भर्ती करने के समय उनकी पर्ची पर अस्पताल प्रशासन ने “हाई रिस्क कंसेंट” शीर्षक देकर लिखा- “हम यहां अपनी मर्जी से बच्चे का इलाज कराना चाहते हैं. अत: होने वाली लाभ-हानि की जिम्मेदारी हमारी होगी” और इसके नीचे संतोष शर्मा के हस्ताक्षर लिए गए. “लाभ-हानि की जिम्मेदारी हमारी होगी” का मतलब है कि अस्पताल जिम्मेदार नहीं होगा.
जब इस पर रिपोर्टर ने संतोष से पूछा कि क्या वाकई उन्होंने अस्पताल को यह सहमति दी है? उन्होंने कुबूलनामे को पढ़ पाने में असमर्थता जताई. संतोष ने कहती हैं, बच्चे को भर्ती करवाते समय मुझे बस कहा गया कि पर्ची पर हस्ताक्षर कर दो. मैंने कर दिए. मैं पढ़ नहीं सकती इसीलिए मुझे नहीं मालूम कि इसपर क्या लिखा है.” संतोष ने यह भी बताया कि हस्ताक्षर करवाने से पहले उन्हें अस्पताल प्रशासन की ओर से किसी ने पढ़कर भी नहीं सुनाया कि आखिर लिखा क्या है.
सीता बाई
सीता बाई हर्ष की नानी हैं. हर्ष की उम्र है एक साल. हर्ष को 3 जनवरी को रात के साढ़े नौ बजे भर्ती करवाया गया. हर्ष को खासी, सर्दी और जुकाम की शिकायत है. उसकी पर्ची पर भी “हाई रिस्क कंसेट” शीर्षक देकर लिखा है – “हमें हमारे बच्चे की बीमारी के बारे में बताया गया है. हम यहां मिलने वाले इलाज से संतुष्ट हैं. इससे होने वाले सारी लाभ हानि के लिए हम जिम्मेदार हैं.” इस रिपोर्टर को सीता बाई ने बताया कि वे पढ़ी-लिखी नहीं हैं. उन्हें नहीं पता है कि पर्ची पर क्या लिखा गया है. न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में उन्होंने कहा, उन्होंने (अस्पताल प्रशासन) ने कहा कि आपका बच्चा एडमिट हो रहा है, आप यहां (पर्ची) पर साइन कर दो. हमने साइन कर दिया.”
जबसे उन्हें मालूम पड़ा है कि उनकी पर्ची पर अस्पताल ने लिखित में अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है, वे परेशान हैं. वे समझ नहीं पा रही हैं कि बच्चे का इलाज शुरू होने के पहले ही पर्ची पर इलाज से संतुष्ट वाली बात क्यों लिखवा ली गई. जहां एक तरफ हर्ष की नानी अस्पताल प्रशासन से लड़ने के मूड में हैं, वहीं हर्ष की मां शिवानी चिंतित हैं कि कहीं अस्पताल प्रशासन पर सवाल उठाने के बाद उनके बच्चे को कोई गलत दवा न चला दी जाए. दोनों में असंतोष की भावना है लेकिन वे मजबूर हैं जेके लोन में रूकने के लिए. “हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं कि हम अपने बच्चे का इलाज प्राइवेट में करवा पाएं,” शिवानी कहती हैं.
पुष्पचंद केवट
पुष्पचंद ने अपने चार साल के बेटे कुश को 4 जनवरी को जेके लोन अस्पताल में भर्ती करवाया. कुश को दौरे आते हैं. पुष्पचंद ने कहा कि जब वो बच्चे को भर्ती करवाने आएं तो उनसे पर्ची पर साइन करने को कहा गया. उन्होंने कर दिया. पुष्पचंद के साइन किए जाने के बाद अस्पताल प्रशासन ने पर्ची पर लिखा, “मेरे बच्चे को बार-बार दौरे आने की बीमारी है. हमारा बच्चा चल फिर नहीं पाता है. गंभीर अवस्था में भर्ती कर रहा हूं. हम यहां चल रहे इलाज से संतुष्ट हैं.”
जब अस्पताल प्रशासन ने आपकी पर्ची अपने मन पर यह लिख दिया तो क्या आपने उनसे सवाल किया? उनका जवाब था नहीं. “सबकी पर्ची पर ऐसा लिख रहे थे तो मुझे लगा कि यह अस्पताल का कोई नियम है इसीलिए मैंने कोई सवाल नहीं किया,” पुष्पचंद ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा
कविता
कविता ने अपनी छह महीने की बच्ची राधिका को 3 जनवरी को अस्पताल में भर्ती करवाया था. कविता भी पढ़ने या लिखने में असक्षम हैं. उनकी पर्ची पर भी हाई रिस्क कंसेंट शीर्षक देकर प्रशासन ने लिखा, “हमें हमारे बच्चे के तेज सांस चलने के बारे में बता दिया गया है. हम सब जानते हुए यहां इलाज करवाना चाहते हैं. अत: होने वाली लाभ हानि की जिम्मेदारी हमारी होगी.”
न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में कविता ने बताया, “हमें बच्चे की बिमारी के बारे में तो बताया गया है लेकिन ये नहीं बताया कि बच्चे को लाभ हानि की जिम्मेदारी हमारी होगी.”
कविता कहती हैं, ”मुझे सिर्फ इतना कहा कि यहां साइन कर दो. मैंने कर दिया.”
कविता
अस्पतालों में सहमति पत्र भरवाने की औपचारिकताएं तो होती हैं लेकिन क्या कोई भी अस्पताल बिना बताए ही कुबूलनामे पर हस्ताक्षर करवा लेगा?
बिना बताए हस्ताक्षर क्यों?
नियम यह कहता है कि अगर मरीज या मरीज के परिजन पढ़ या लिख नहीं सकते तो हस्ताक्षर करवाने के पहले उन्हें सहमति के बिंदू पढ़कर सुनाए जाने चाहिए और तब हस्ताक्षर लिया जाना चाहिए. जब इस बाबत न्यूज़लॉन्ड्री ने जेके लोन अस्पताल के अधीक्षक सुरेश दुलारा से सवाल किया तो उन्होंने कहा, जो बच्चे गंभीर रूप से बीमार हैं उनके अभिभावकों से सहमति (कंसेंट) ले ली गई है कि वे ज्यादा बीमार है और इसकी जानकारी अभिभावक को हैं.” जब इस पर रिपोर्टर ने सुरेश दुलारा को यह बताया कि मरीज के अभिभावकों ने कंसेंट पर अनजाने में साइन करने से बात कही है? दुलारा ने जवाब में पहले तो इसे मानने से इनकार किया और इसके बाद रिपोर्टर से बात करने से मना कर दिया. सुरेश दुलारा से हमने बातचीत करने की कई बार आग्रह किया लेकिन वे नहीं माने.
जेके लोन अस्पताल के एक सीनियर डॉक्टर ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि अस्पताल के पिछले दो वर्षों से गंभीर कुप्रबंधन से गुजर रहा है. “साल 2017 में डॉ. अमृत लाल बैरवा को पेडिएट्रिक विभाग का अध्यक्षक और डॉ. एचएल मीणा को अस्पताल अधिक्षक नियुक्त किया गया था. दोनों के आपसी रिश्ते ठीक नहीं थे. कई दफ़ा तो मामला इस हद तक बिगड़ जाता था कि अस्पताल के स्टाफ के सामने दोनों के बीच गाली-गालौच हो जाती. उनके रिश्ते की वजह से जीवन रक्षक उपकरणों के लिए अनुबंध की औपचारिकताओं में परेशानी बनी रही. नतीजा यह रहा कि हमलोग (डॉक्टर्स) जरा सी गंभीर बीमारियों को भी संभालने में असफल रहे,” उन्होंने कहा.
जब जेके लोन अस्पताल में सिर्फ दिसंबर में बच्चों की मौत का आंकड़ा सौ पार कर गया और मीडिया में खबरें आने लगी तो राजस्थान सरकार ने अस्पताल के अधीक्षक डॉ.एचएल मीणा को उनके पद से हटा दिया गया. मीणा की जगह डॉ. सुरेश दुलारा को अस्पताल का अधीक्षक बनाया गया है.
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के महासचिव डॉ. आरवी अशोकन ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “अगर कोटा के जेके लोन में बच्चों के अभिभावकों से अनजाने या धोखे से हस्ताक्षर लिया जा रहा है तो यह गलत तो है ही. अनैतिक भी है. यह मेडिकल एथिक्स के खिलाफ है. हमारे लिए मरीज प्राथमिकता होने चाहिए.”
हालांकि इसके साथ ही डॉ. अशोकन ने मीडिया से रिपोर्टिंग में वाजिब सवाल उठाने को कहा. उन्होंने कहा, “यह सही है कि जेके लोन की रिपोर्टिंग हो रही है. बतौर जिम्मेदार मीडिया आप सरकारों से यह भी पूछिए कि सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों और नर्सों की नियुक्तियां क्यों नहीं हो रही हैं. सरकारें अस्पतालों पर कितने पैसे खर्च कर रही है. क्या वह पर्याप्त है?”
“कुछ पल के लिए डॉक्टरों पर गुस्सा जाहिर करके सरकारें अपना पल्ला झाड़ लेना चाहती है. लेकिन जो जन स्वास्थ्य के बुनियादी सवाल हैं उसपर गंभीरता से सोचे जाने की जरूरत है,” डॉ. अशोकन ने जोड़ा.
राजस्थान में जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रहे दुर्गेश राठौड बताते हैं, ”सरकारी अस्पताल में धोखाधड़ी से कंसेंट लेना कानूनी अपराध है. हालांकि इस तरह के कंसेंट लिए जाने का कोई वैधानिक महत्व नहीं हैं. अगर जांच में यह मालूम पड़ता है कि बच्चों की मौतें अस्पताल की लापरवाही से होती हैं और सरकार मुआवजे का ऐलान करती है तो ऐसी स्थिति में पीड़ित बच्चों के अभिभावकों को भी मुआवजा देना होगा.”
दुर्गेश संदेह जताते हैं कि जेके लोन में धोखे से कंसेंट लेने का मकसद है कि गरीब अभिभावकों को डरा दिया जा सके ताकि वे कोई अनहोनी होने पर अस्पताल से जवाब न मांगें.
गौरतलब हो कि राजस्थान के हड़ौती क्षेत्र में जेके लोन अस्पताल इकलौता ऐसा अस्पताल है जहां कहा जाता है कि बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं. राजस्थान के बारां, बूंदी और झालावाड़ जिलों से लोग जेके लोन ईलाज के लिए आते हैं.
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बच्चों की मौत के आंकड़ों को तोलते हुए कहा कि बीजेपी सरकार के दौरान अधिक बच्चों की मौत हुई जबकि कांग्रेस की सरकार के दौरान बच्चों की मौत का आंकड़ा कम हुआ है. अस्पताल के अधिकारियों के मुताबिक जेेके लोन में वर्ष 2018 में 1,005 शिशुओं की मौत हुई थी और 2019 में 963 शिशुओं की मौत हुई है. मुख्यमंत्री गहलोत के अनुसार ये मौत के आंकड़ों में ‘सुधार’ है.
गहलोत सरकार की संवेदनहीनता तो तभी उजागर हो गई थी जब जेके लोन में बच्चों की मौत के मामले में राज्य सरकार की जांच कमेटी ने अस्पताल के डॉक्टरों को क्लीन चिट दे दी थी. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जिन बच्चों की मौत हुई उन्हें अस्पताल की तरफ से सही इलाज दिया गया था. कमेटी ने सिर्फ अस्पताल के आधारभूत ढांचे में कमी बताई थी और कहा था कि अस्पताल के काम काज के तरीके को बेहतर करने की जरूरत है.
हालांकि अशोक गहलोत के बयान को उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट ने खारिज किया. सचिन पायलट ने कहा कि जेके लोन के घटनाक्रम को लेकर राज्य सरकार और संवेदनशील हो सकती थी. “बच्चों की मौत की जवाबदेही भी तय की जानी चाहिए. गरीब लोग सरकारी अस्पतालों पर निर्भर होते हैं. उन्होंने अपने बच्चे खोए हैं और वे इस बात को मंजूर नहीं करेंगे कि पहले कितने बच्चों की मौत हुई और अब कितने बच्चों की मौत हुई,” पायलट ने कहा.
भले ही जेके लोन अस्पताल प्रशासन और राजस्थान सरकार सवालों के घेरे में हो लेकिन यह चुनौती जन स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर किए जाने की है. हिंदी अखबार दैनिक भास्कर के मुताबिक वर्ष 2019 में देश के 10 शहरों के बड़े अस्पतालों में 9336 बच्चों की मौत हुई है.
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