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नए साल पर जलते-बंटते मुल्क में मीडिया-रुदन

पिछले ही हफ्ते ओलिंपिक खेलों में प्रवेश के लिए मुक्केबाज़ी का ट्रायल हुआ था. मशहूर मुक्केबाज़ मेरी कॉम ने निख़त ज़रीन नाम की युवा मुक्केबाज़ को हरा दिया. इस घटना से पहले और बाद में क्या-क्या हुआ, वह दूर की बात है. मुक्केबाज़ी के इस मैच और उसके नतीजे की ख़बर ही अपने आप में जिस रूप में सामने आयी, वह मुझे काम की लगी. किसी ने ट्विटर पर किसी प्रकाशन में छपी ख़बर की हेडिंग का स्क्रीनशॉट लगाकर उस पर सवाल उठाया था. हेडिंग में लिखा थाः “इंडियाज़ मेरी कॉम बीट्स निखत…” ट्विटर यूज़र ने मेरी कॉम के नाम से पहले “इंडिया” लगाने पर आपत्ति जतायी थी और पूछा था कि इसके पीछे की मंशा क्या है.

विचार में लिपटी घटना

इधर बीच लंबे समय से ऐसा हो रहा है कि पहली बार जब कोई घटना नज़र के सामने आ रही है, चाहे किसी भी प्लेटफॉर्म पर, तो वह विशुद्ध घटना की तरह नहीं आ रही, एक ओपिनियन यानी टिप्पणी/राय के रूप में आ रही है. वास्तव में, मूल घटना ओपिनियन के साथ नत्थी मिलती है और ओपिनियन असल में एक पक्ष होता है, घटना के समर्थन में या विरोध में. ऐसे में मूल घटना को जानने के लिए काफी पीछे जाना पड़ता है. अगर आप दैनंदिन की घटनाओं से रीयल टाइम में अपडेट नहीं हैं, तो बहुत मुमकिन है कि सबसे पहले सूचना के रूप में उक्त घटना आपके पास न पहुंचे बल्कि आपके पास पहुंचने तक उक्त घटना पर समाज में खिंच चुके पालों के हिसाब से एक धारणा, एक ओपिनियन पहुंचे. जो धारणा/राय/नज़रिया/ओपिनियन आप तक पहुंचेगी, वह ज़ाहिर है आपकी सामाजिक अवस्थिति पर निर्भर करेगा.

मुक्केबाज़ी वाली ख़बर लिखते वक्त जिसने मेरी कॉम के नाम के आगे “इंडियाज़” लगाया होगा, उसके दिमाग में एक विभाजन काम कर रहा होगा. जिसने इसे पढ़ा और टिप्पणी की, उसके दिमाग में भी एक विभाजन काम कर रहा था, कि वह बाल की खाल को पकड़ सका. गौर से देखें तो हम आपस में रोजमर्रा जो बातचीत करते हैं, संवाद करते हैं, वाक्य बोलते हैं, लिखते हैं, सोचते हैं, सब कुछ सतह पर या सतह के नीचे विभाजनों के खांचे में ही शक्ल लेता है. हम अपने विभाजनों को सहज पकड़ नहीं पाते. दूसरे के विभाजन हमें साफ़ दिखते हैं. यह इस पर निर्भर करता है कि हमारा संदर्भ क्या है, सामाजिक स्थिति क्या है.

मसलन, आप शहर में हैं या गांव/कस्बे में, इससे आप तक पहुंचने वाली राय तय होगी. आप किस माध्यम से सूचना का उपभोग करते हैं, वह आप तक पहुंचने वाली राय को उतना तय नहीं करेगा बल्कि किन्हीं भी माध्यमों में आप कैसे समूहों से जुड़े हैं, यह आपकी खुराक़ को तय करेगा. आपकी पढ़ाई-लिखाई के स्तर से इसका खास लेना−देना नहीं है, हां आपकी जागरूकता और संपन्नता बेशक यह तय करेगी कि आपके पास जो सूचना विचारों में लिपट कर आ रही है उसे आप कैसे ग्रहण करते हैं.

नए-पुराने सामाजिक पाले

मोटे तौर पर अगर हमें अपने समाज के भीतर रेडीमेड पाले देखने हों, जो सूचना की प्राप्ति को प्रभावित करते हैं तो इन्हें गिनवाना बहुत मुश्किल नहीः

− सामाजिक तबका (उच्च तबका बनाम कामगार)

− जाति (उच्च बनाम निम्न)

− लैंगिकता (पुरुष वर्चस्व बनाम समान अधिकार)

− धर्म (हिंदू बनाम मुसलमान/अन्य)

− भाषा (हिंदी बनाम अन्य, अंग्रेज़ी के साथ)

− क्षेत्र (राज्य बनाम राज्य) 

ये सब पुराने विभाजन हैं. हमारे समाज में बरसों से कायम हैं. अंग्रेज़ी जानने वाले शहरी लोगों के जेहन में कुछ नए विभाजन भी काम करते हैं, मसलन विचार के इलाके में वाम बनाम दक्षिण, धार्मिकता के क्षेत्र में सेकुलर बनाम साम्प्रदायिक, आधुनिक बनाम पिछड़ा, इत्यादि. ज्यादा पढ़ा लिखा आदमी ज्यादा महीन खाता है, तो वह कहीं ज्यादा बारीक विभाजक कोटियां खोजेगा. ठीक वैसे ही जैसे आंख का डॉक्टर अगर और आधुनिक शिक्षा लेना चाहे, तो वह एक ही आंख का विशेषज्ञ बन सकेगा, दाईं या बाईं. आजकल तो चलने वाले, दौड़ने वाले, जॉग करने वाले, खेलने वाले और ट्रेकिंग करने वाले जूते भी अलग-अलग आते हैं. तर्ज़ ये कि चीज़ें जितना बढ़ती हैं, उतना ही बंटती जाती हैं.

समस्या तब पैदा होती है जब हम चीज़ों को केवल दो खांचे में बांट कर देखना शुरू करते हैं. या तो ये या फिर वो. दिस ऑर दैट. हम या वे. इसे संक्षिप्त में बाइनरी कहते हैं, मने आपके पास दो ही विकल्प हैं− हां कहिए या नहीं. जैसे आप टीवी स्टूडियो में अर्णब गोस्वामी के सामने बैठे हों और आपसे कहा जा रहा हो कि देश आज रात जानना चाहता है कि आप फलाने के साथ हैं या खिलाफ़. आपके पास तीसरा रास्ता नहीं है. बीच की ज़मीन छिन चुकी है.

तटस्थता के आपराधीकरण के नाम पर इस बाइनरी को पुष्ट करने का काम बहुत पहले से चला आ रहा है. आज, अपने देश में संचार और संवाद के इलाके में जब समूचा विमर्श ही गोदी बनाम अगोदी, भक्त बनाम द्रोही की दुई में तौला जा रहा है तो जिंदगी का कोई भी पहलू इससे अछूता नहीं रह गया है. यह समझ पाना उतना मुश्किल नहीं है कि इस विभाजन को सबसे पहले पैदा किसने किया- राजनीति ने, मीडिया ने या समाज ने. हम जानते हैं कि हमारे समाज में विभाजनकारी कोटियां पहले से थीं, इन्हें बस पर्याप्त हवा दी गयी है. समझने वाली बात ये है कि यह विभाजन अब ध्रुवीकरण की जिस सीमा तक पहुंच चुका है, वहां से आगे की तस्वीर क्या होनी है.

ध्रुवीकरण के अपराधी?

मनु जोसेफ ने बीते लोकसभा चुनावों के बीच द मिन्ट में एक पीस लिखकर समझाने की कोशिश की थी कि ध्रुवीकरण (पोलराइज़ेशन) उतनी बुरी चीज़ नहीं है. इस पीस को स्वराज मैगज़ीन के संपादक आर. जगन्नाथन ने बड़े उत्साह से ट्वीट करते हुए कहा था, “मनु का हर लेख शाश्वत मूल्य वाला है.” लेख को समझने के लिए बहुत नीचे जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती यदि इस ट्वीट के थ्रेड को आप देखें. मधुमिता मजूमदार प्रतिक्रिया में लिखती हैं, “मनु यह मानकर लिखते हैं कि वे हर मुद्दे पर सही हैं. ध्रुवीकरण पर यह लेख अतिसरलीकृत है. और जग्गी को इसमें मूल्य दिख रहा है, यही अपने आप में मेरे बिंदु की पुष्टि करता है.”

ध्रुवीकरण बुरा नहीं है, मनु जोसेफ ने यह लिखकर अपने पाठकों में ध्रुवीकरण पैदा कर दिया. इनकी दलीलों पर बेशक बात हो सकती है, लेकिन समूचे लेख में हमारे तात्कालिक काम का एक वाक्य है जिसे मैं बेशक उद्धृत करना चाहूंगा. मनु लिखते है- “राजनीति हमें यह सबक सिखलाती है कि व्यवस्था में जब कोई ध्रुवीकरण नहीं होता, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि सत्य जीत गया है, इसका मतलब बस इतना होता है कि एक वर्ग की जीत हुई है.”

सामाजिक-राजनीतिक ध्रुवीकरण के संदर्भ में भारतीय मीडिया की भावी भूमिका पर आने के लिए इसे थोड़ा समझना ज़रूरी है. 2017 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव हुए. बीस फीसद मुसलमानों की आबादी वाले इस राज्य में भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित जनादेश मिला, बावजूद इसके कि उसने एक भी मुसलमान उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था. जब बहस मुख्यमंत्री के चेहरे पर आयी, तो योगी आदित्यनाथ के नाम पर दो खेमे बन गए. काफी खींचतान के बाद मुख्यमंत्री योगी ही बने, जिसके परिणाम आज हम साफ़ देख पा रहे हैं. इसी बीच बहस में भाजपा सांसद राकेश सिन्हा ने इंडिया टुडे से बातचीत में योगी की (कम्यूनल) भाषा का बचाव करते हुए एक बात कही थी-

अस्सी के दशक से जमीनी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलनों से ऐसे लोगों का उभार हुआ जो अतीत के उन अंग्रेजी शिक्षित राजनेताओं की अभिजात्य व सूक्ष्म शैली से मेल नहीं खाते थे जिन्हें वास्तविकता से ज्यादा अपनी छवि की चिंता हुआ करती थी. नए दौर के नेता समुदाय से निकले विमर्श को आगे बढ़ाते हैं इसलिए उनकी भाषा को प्रत्यक्षतः नहीं लिया जाना चाहिए. इसे समझे बगैर आप न योगी को समझ पाएंगे, न लालू (प्रसाद यादव) को और न ही ममता (बनर्जी) को.

राकेश सिन्हा और मनु जोसेफ क्या एक ही बात कह रहे हैं? मनु ध्रुवीकरण की गैर−मौजूदगी वाली स्थिति में जिस वर्ग की जीत बता रहे हैं, क्या यह वही वर्ग है जो राकेश सिन्हा के यहां अंग्रेजी शिक्षित राजनेताओं के रूप में आता है, जिसे वास्तविकता से ज्यादा अपनी छवि की चिंता हुआ करती थी?

उसी लेख से मनु जोसेफ का एक शुरुआती वाक्य देखे-

“वास्तव में, यह तथ्य कि एक समाज ध्रुवीकृत है, इस बात का संकेत है कि एक वर्ग के लोगों का मुख्यधारा के विमर्शों पर एकाधिकार नहीं रह गया है. ध्रुवीकरण को बदनाम करने का काम वे लोग करते हैं जिनका विचारों के प्रसार से नियंत्रण खत्म हो चुका है.”

राकेश सिन्हा “समुदाय से निकले विमर्श को आगे” बढाने वाले जिन “नए दौर के नेताओं” का ज़िक्र कर रहे हैं, मनु जोसेफ के मुताबिक क्या इन्होंने ही “मुख्यधारा के विमर्शों पर एकाधिकार” को तोड़ने का काम किया है? इस तराजू में ममता बनर्जी, योगी और लालू प्रसाद यादव को यदि एक साथ सिन्हा की तरह हम तौल दें तो फिर साम्प्रदायिकता के मसले पर ठीक उलटे ध्रुव पर खड़े लालू प्रसाद यादव और योगी को कैसे अलगाएंगे? फिर तो हमें काफी पीछे जाकर नए सिरे से यह तय करना होगा कि ध्रुवीकरण की शुरुआत लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा से हुई थी या लालू प्रसाद यादव द्वारा उसे रोके जाने के कृत्य से? 

फिर तो हमें आशुतोष वार्ष्णेय की इस थियरी पर भी ध्यान देना होगा कि अर्थव्यवस्था को निजीकरण और उदारीकरण के लिए खोले जाने पर नरसिंहराव के दौर में संसद में चली शुरुआती बहसों में भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियों का पक्ष एक था और कांग्रेस अल्पमत में थी, इसके बावजूद कम्युनिस्ट पार्टियों ने साम्प्रदायिकता के मुद्दे को आर्थिक मुद्दे पर तरजीह देते हुए मनमोहन सिंह के प्रोजेक्ट को चुपचाप हामी दे दी. यह तो बहुत बाद में जाकर लोगों ने समझा कि उदारवाद और साम्प्रदायिकता एक ही झोले में साथ आए थे, वामपंथियों को ही साम्प्रदायिकता का मोतियाबिंद हुआ पड़ा था.

फिर क्या बुरा है कि सईद नकवी की पुस्तक (बींग दि अदर) को ही प्रस्थान बिंदु मानकर कांग्रेस को ध्रुवीकरण का शुरुआती अपराधी मान लिया जाए? (आखिर वे भी तो इतना मानते ही हैं कि भारत को दो ऐसी अतियों में तब्दील कर दिया गया है जो परस्पर द्वंद्व में हैं!) और इसके बरअक्स भारतीय जनता पार्टी सहित तमाम क्षेत्रीय दलों, उनसे जुड़े हित समूहों, जाति समूहों, समुदायों, पिछड़ी चेतनाओं और “समुदायों से निकले विमर्श को आगे बढ़ाने वाले नए दौर के नेताओं” (राकेश सिन्हा) को द्वंद्व का दूसरा सिरा मानते हुए इन्हें अपने अंतर्विरोधों के भरोसे छोड़ दिया जाए? ब्राह्मण पहले तय करे कि वह हिंदू है या ब्राह्मण. पिछड़ा, दलित और आदिवासी खुद तय करे कि उसे अपनी पहचान के साथ जीने में फायदा है या हिंदू पहचान के साथ. विभाजन के बाद भारत में रह गए मुसलमानों को चूंकि यह अहसास होने में बहुत वक्त नहीं लगा था कि यहां उनके साथ दोयम दरजे का बरताव हो रहा है (नक़वी, बींग दि अदर), लिहाजा उन्हें तब तक कुछ नहीं तय करने की ज़रूरत है जब तक कि उन्हें जबरन हिंदू न बनाया जाए.

अब्दुल्ला दीवाने की चिंता

मीडिया इस समूचे रायते में दीवाने अब्दुल्ला की तरह होश खोया नज़र आता है. पत्रकारिता की बॉटमलाइन यह है कि मीडिया मालिकों को कुल मिलाकर अपनी दुकान बचाए रखने और मीडियाकर्मियों को अपना वेतन और नौकरी बचाए रखने की चिंता है. इसीलिए ध्रुवीकरण के अपराध का जो हिस्सा मीडिया और इसके कर्मियों के सिर आता है, मेरे खयाल में यह न केवल ध्रुवीकरण को समझने में आने वाली जटिलताओं से बचने के लिए किया जाने वाला सरलीकरण है बल्कि गलत लीक भी है जो हमें कहीं नहीं पहुंचाती.

यह सच है कि मीडिया बांटता है, इसके स्थापित चेहरे विभाजनकारी हैं, लेकिन ध्रुवीकरण अपनी पूरी जटिलता में सबसे आसान तरीके से मीडिया में ही पकड़ में आता है यह भी एक तथ्य है. जो दिखता है, वह साफ़ पकड़ा जाता है. जो नहीं दिखता, या कम दिखता है, वह ज़रूरी नहीं कि ज्यादा ख़तरनाक न हो. इंगलहार्ट और नोरिस ने 2016 के अपने एक शोध में बताया है कि वंचित तबकों के बीच बढ़ती आर्थिक असुरक्षा उनके भीतर जिस असंतोष को बढ़ाती है, उसी के चलते वे विभाजनकारी नेताओं के लोकरंजक मुहावरों में फंसते जाते हैं. मीडिया इसमें केवल मध्यस्थ का काम करता है.

एक ध्रुवीकृत समाज में मीडिया से कहीं ज्यादा यह प्रक्रिया आपसी संवादों संपर्कों से कारगर होती है. विभाजित समाज में एक व्यक्ति अपने जैसा सोचने वाला पार्टनर तलाश करता है. इससे उसके पहले से बने मूल्य और धारणाएं और मजबूत होती जाती हैं. पी. साईनाथ इस परिघटना को “पीएलयू” (पीपुल लाइक असद) का नाम देते हैं. इसी संदर्भ में एक शोध बताता है कि दूसरे खयालों के व्यक्तियों के साथ संवाद करने पर अपनी धारणा और दूसरे की धारणा के बीच दूरी और ज्यादा बन जाती है. यही वजह है कि ज़ी न्यूज़ देखने वाला दर्शक एनडीटीवी देखकर ज़ी न्यूज़ के प्रति और समर्पित हो जाता है और एनडीटीवी के दर्शक के साथ भी बिल्कुल यही होता है जब वह ज़ी न्यूज़ देखता है.

यह समस्या केवल मीडिया के दायरे में नहीं समझी जा सकती है. मीडिया का संकट अकेले मीडिया का नहीं, समाज और संस्कृति का संकट है बल्कि उससे कहीं ज्यादा इंसानी मनोविज्ञान का संकट है. इसे बहुत बेहतर तरीके से हूगो मर्सियर और डान स्पर्बर ने अपनी पुस्तक “दि एनिग्मा ऑफ रीज़न” में समझाया है. यह पुस्तक विमर्श के क्षेत्र में उतनी चर्चित नहीं हो सकी, लेकिन इंसानी नस्ल के सोचने समझने की क्षमता और सही या गलत के बीच फैसला करने की “रेशनलिटी” के संदर्भ में इस किताब ने बिलकुल नयी प्रस्थापना दी है जिस पर मुकम्मल बात होना बाकी है.

यदि हम लेखकद्वय को मानें, तो चार सौ पन्ने की किताब का कुल निचोड़ यह निकलता है कि मनुष्य की कुल तर्कक्षमता और विवेक का काम उसकी पूर्वधारणाओं को पुष्ट करना है. वे कहते हैं कि मनुष्य की रेशनलिटी सही या गलत का फैसला करने के लिए नहीं है बल्कि जिसे सही मानती है उसे सही ठहराने के लिए है. वे सवाल उठाते हैं कि यदि धरती पर मनुष्य ही सोचने समझने वाला तर्कशील प्राणी है तो फिर वह अतार्किक हरकतें और बातें क्यों करता है? इसके बाद की विवेचना को समझने के लिए यह किताब पढ़ी जानी चाहिए, लेकिन मूल बात वही है कि मीडिया का संकट दरअसल हमारी सांस्कृतिकता और मनुष्यता का संकट है जिसमें हमारा अतीत, हमारे सामुदायिक अहसास, पृष्ठभूमि, आर्थिक हालात, सब कुछ एक साथ काम करते हैं.

चूंकि मीडिया की गति खुद मीडिया नहीं तय करता, उसकी डोर अपने मालिकान से भी ज्यादा राजनीति और समाज के हाथों में है इसलिए आने वाले दिनों में यह मीडिया समाज की गति के हिसाब से ही अपनी भूमिका निभाएगा. जाहिर है यह भूमिका समुदायों से निकलने वाली आवाजें तय करेंगी. वे वास्तविक समुदाय हों या कल्पित. इसे ऐसे समझें कि अगर राजनीति समुदाय विशेष के किसी कल्पित भविष्य की बात करेगी तो मीडिया उससे अलग नहीं जाएगा. यदि हिंदू राष्ट्र एक कल्पना है तो मीडिया उस कल्पना को साकार करने तक की दूरी तय करेगा. यदि रामराज्य एक कल्पना है तो मीडिया रामराज्य लाने का काम करेगा भले ही खुद उस कल्पना में उसका विश्वास न हो. “कल्पित समुदायों” और “भूमियों” की अवधारणा ध्रुवीकृत समाज में बहुत तेज़ काम करती है. इसी तर्ज पर काल्पनिक दुश्मन गढ़े जाएंगे, काल्पनिक दोस्त बनाए जाएंगे, काल्पनिक अवतार गढ़े जाएंगे. यह सब कुछ मीडिया उतनी ही सहजता से करेगा जितनी सहजता से उसने आज से पंद्रह साल पहले भूत, प्रेत, चुड़ैलों की कहानियां दिखायी थी.

ऐसा करते हुए मीडिया और उसमें काम करने वाले लोग इस बात से बेखबर होंगे कि वे किनके हाथों में खेल रहे हैं. एक अदृश्य गुलामी होगी जो कर्इ अदृश्य गुलामियों को पैदा करेगी. ठीक वैसे ही जैसे गूगल का सर्च इंजन काम करता है. मीडिया की भूमिका क्या और कैसी होगी, इसे केवल गूगल के इकलौते उदाहरण से समझा जा सकता है. अमेरिका में 2012 के चुनाव में गूगल और उसके आला अधिकारियों ने 8 लाख डॉलर से ज्‍यादा चंदा बराक ओबामा को दिया था जबकि केवल 37,000 डॉलर मिट रोमनी को. अपने शोध लेख में एप्‍सटीन और रॉबर्टसन ने गणना की है कि आज की तारीख में गूगल के पास इतनी ताकत है कि वह दुनिया में होने वाले 25 फीसदी चुनावों को प्रभावित कर सकता है. प्रयोक्‍ताओं की सूचनाएं इकट्ठा करने और उन्‍हें प्रभावित करने के मामले में फेसबुक आज भी गूगल के मुकाबले काफी पीछे है. जीमेल इस्‍तेमाल करने वाले लोगों को यह नहीं पता कि उनके लिखे हर मेल को गूगल सुरक्षित रखता है, संदेशों का विश्‍लेषण करता है, यहां तक कि न भेजे जाने वाले ड्राफ्ट को भी पढ़ता है और कहीं से भी आ रहे मेल को पढ़ता है. गूगल पर हमारी प्राइवेसी बिलकुल नहीं है लेकिन गूगल की अपनी प्राइवेसी सबसे पवित्र है.

जैसा कि एडवर्ड स्‍नोडेन के उद्घाटन बताते हैं, हम बहुत तेज़ी से एक ऐसी दुनिया बना रहे हैं जहां सरकारें और कॉरपोरेशन- जो अक्सर मिलकर काम करते हैं- हममें से हर एक के बारे में रोज़ाना ढेर सारा डेटा इकट्ठा कर रहे हैं और जहां इसके इस्‍तेमाल को लेकर कहीं कोई कानून नहीं है. जब आप डेटा संग्रहण के साथ नियंत्रित करने की इच्‍छा को मिला देते हैं तो सबसे खतरनाक सूरत पैदा होती है. वहां ऊपर से दिखने वाली लोकतांत्रिक सरकार के भीतर एक अदृश्‍य तानाशाही आपके ऊपर राज करती है.

आज एनपीआर, एनआरसी, सीएए पर जो बवाल मचा हुआ है उसके प्रति मुख्यधारा के मीडिया का भक्तिपूर्ण रवैया देखकर आप आसानी से स्नोडेन की बात को समझ सकते हैं.

सांस्कृतिक विकल्प का सवाल

मीडिया और तकनीक के रास्ते सत्‍ता में बैठी ताकतों की इंसानी दिमाग पर नियंत्रण कायम करने की इच्‍छा और उनकी निवेश क्षमता का क्‍या कोई काट है? भारत जैसे देश में, जो अब भी सांस्‍कृतिक रूप से एकाश्‍म नहीं है, किसी भी सत्ता के लिए सबसे सॉफ्ट टारगेट संस्कृति ही होती है. मीडिया, संस्कृति का एक अहम अंग है. इसीलिए हम पाते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के नारे राजनीतिक नहीं, सांस्‍कृतिक होते हैं, जो मीडिया को आकर्षित कर सकें. इन्‍हीं सांस्‍कृतिक नारों के हिसाब से प्रच्‍छन्‍न व संक्षिप्‍त संदेश तैयार करके फैलाये जाते हैं. क्‍या किसी और के पास भाजपा के बरअक्स कोई सांस्‍कृतिक योजना है?

पिछले कुछ वर्षों से भारत में भाजपा के राज के संदर्भ में विपक्षी विमर्श ने सबसे ज्‍यादा जिस शब्‍द का प्रयोग किया है वह है ”नैरेटिव”. नैरेटिव यानी वह केंद्रीय सूत्र जिस पर राजनीति की जानी है. हारा हुआ पक्ष हमेशा मानता है कि जीते हुए के पास एक मज़बूत नैरेटिव था. हां, यह शायद नहीं पूछा जाता कि विजेता के नैरेटिव के घटक क्‍या-क्‍या थे. आखिर उन घटकों को आपस में मिलाकर उसने एक ठोस नैरेटिव कैसे गढ़ा. सारे वाद्य मिलकर एक ऑर्केस्‍ट्रा में कैसे तब्‍दील हो गये.

ध्‍यान दीजिएगा कि भारत की किसी भी विपक्षी राजनीतिक पार्टी के पास सांस्‍कृतिक एजेंडा नहीं है. रणनीति तो दूर की बात रही. कुछ हद तक अस्मिताओं को ये दल समझते हैं, लेकिन सारा मामला सामाजिक न्‍याय के नाम पर आरक्षण तक जाकर सिमट जाता है. भाजपा के सांस्‍कृतिक नारे व संदेशों पर बाकी दलों ने अब तक केवल प्रतिक्रिया दी है. अपना सांस्‍कृतिक विमर्श नहीं गढ़ा. लिहाजा, वे जनता में जो संदेश पहुंचाते हैं उनका कोई सांस्‍कृतिक तर्क नहीं होता. कोई मुलम्‍मा नहीं होता. वे भाजपा की तरह प्रच्‍छन्‍न मैसेजिंग नहीं कर पाते. यह सहज बात कोई भी समझ सकता है कि आपके पास सारे हरबे हथियार हों तो क्‍या हुआ, युद्धकौशल का होना सबसे ज़रूरी है. जब संदेश ही नहीं है, तो माध्‍यम क्‍या कर लेगा? मीडिया क्या कर लेगा?

द इकनॉमिस्‍ट पत्रिका के मई 2019 अंक में यूरोप के बाहरी इलाकों की राजनीति पर एक कॉलम छपा था जिसमें एक बात कही गयी थी जो भारत पर भी लागू होती है- ”यूरोप की राजनीति पर सांस्‍कृतिक जंग ने कब्‍ज़ा कर लिया है और वाम बनाम दक्षिण के पुराने फ़र्क को पाट दिया है.” भारत में भी सांस्‍कृतिक युद्ध ही चल रहा है लेकिन इसे कभी कहा नहीं गया. तमाम दलों ने 2019 के आम चुनाव में डेटा एजेंसियों, पोल प्रबंधकों, इमेज प्रबंधकों, पीआर कंपनियों, ईवेंट मैनेजरों का सहारा लिया लेकिन भाजपा के अलावा किसी को नहीं पता था कि सांस्‍कृतिक मोर्चे पर क्‍या लाइन लेनी है. राहुल गांधी ने राम के अलावा छोटे-छोटे भगवानों के मंदिरों में चक्‍कर लगाकर जनता से जुड़ने की कोशिश तो की, लेकिन किसी ठोस सांस्‍कृतिक रणनीति और नैरेटिव के अभाव में इसका लाभ भी पलट कर भाजपा को मिला.

जवाहरलाल नेहरू के जिंदा रहने तक कांग्रेस की राजनीति में एक सांस्‍कृतिक आयाम हुआ करता था. महात्‍मा गांधी के ”रघुपति राघव राजा राम” में प्रचुर सांस्‍कृतिक नैरेटिव था और नेहरू के साइंटिफिक टेम्‍पर का भी एक सांस्‍कृतिक आयाम था. इंदिरा गांधी के दौर से मामला विशुद्ध सत्‍ता का बन गया और कांग्रेस की राजनीति से संस्‍कृति का आयाम विलुप्‍त हो गया. इसका नतीजा हम आज बड़ी आसानी से देख पाते हैं.

भूखा मीडिया, नदारद नैरेटिव

मीडिया को आज की तारीख में नैरेटिव चाहिए. नारे चाहिए. संदेश चाहिए. उसकी खुराक उसे नहीं मिल रही है. एक बार को मीडिया के सामाजिक दायित्व की अवधारणा को किनारे रख दें, अपनी मासूमियत छोड़ दें. इसके बाद मीडिया से कोई सवाल पूछने से पहले खुद से हम क्या यह सवाल पूछ सकते हैं कि हमारे पास मीडिया को देने के लिए क्या है? 

कोई चारा? कोई चेहरा? कोई नारा? कोई गीत? कोई भाषण? याद करिए यह वही मीडिया है जिसने जेल से छूटने के बाद कन्हैया कुमार का भाषण दिखलाया था. उसके बाद क्या किसी ने उस दरजे का एक भी भाषण इस देश में दिया? यह मीडिया का बचाव नहीं है. यहां केवल इतना समझने वाली बात है कि मीडिया अपने आप नैरेटिव खोजने नहीं जाएगा. यह पीड़ितों की लड़ाई अपनी ओर से नहीं लड़ेगा.

इसे मजबूर करना होगा, एजेंडा देना होगा जिसे यह फॉलो कर सके. यह एजेंडा और नैरेटिव मुहैया कराना विपक्ष का काम है, लड़ रही जनता का काम है. यह काम मुश्किल है, नामुमकिन नहीं. अगर आज यह नहीं किया गया तो मीडिया के पास सत्ता का एजेंडा पहले से रखा हुआ है. उसे न तो हिंदू राष्ट्र से कोई परहेज है, न आपके संविधान से कोई प्रेम. वह सब कुछ जलाकर खाक कर देगा. खुद को भी.