Newslaundry Hindi
डॉ. श्रीराम लागू: ईश्वर को रिटायरमेंट की सलाह देने वाला ज़िंदगी से रिटायर हो गया
मशहूर फ़िल्म और नाट्य अभिनेता डॉक्टर श्रीराम लागू का निधन हो गया. 17 दिसम्बर की शाम उन्होंने आख़िरी सांस ली. इस पीढ़ी ने तो डॉ लागू को कम ही जाना होगा. याद दिला दें कि रिचर्ड एटनबरो की सर्वकालिक महान फ़िल्म ‘गांधी’ में उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले का किरदार निभाया था.
वो पेशे ईएनटी सर्जन थे. मेडिकल की पढ़ाई के दौरान नाटकों और समारोहों में उनकी दिलचस्पी जागना कोई अचरज की बात नहीं थी क्यूंकि अमूमन मराठी मानुस का नाट्य शास्त्र से लगाव रहता ही है. एक समय महाराष्ट्र में नाटकों को फ़िल्मों से ऊंचा दर्ज़ा मिलता था. आज भी वहां टिकट ख़रीदकर नाटक देखने की पंरपरा बची हुई है. मराठी रंगमंच ने विजय तेंदुलकर, दादा कोंडके, विक्रम गोखले, मोहन अगाशे जैसे मंझे हुए कलाकार दिए. डॉ लागू का नाम भी इसी पांत में रखा जाता है.
डॉ लागू का जन्म 16 नवम्बर 1927 को महाराष्ट्र के सतारा ज़िले में हुआ था. 42 की उम्र में उन्होंने ख़ुद को पूरी तरह से मराठी नाटक से जोड़ लिया. दूरदर्शन को दिए इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकार किया था कि अगर उनके समय में नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा जैसा संस्थान होता, तो वो मेडिकल की पढ़ाई नहीं करते. उनका पहला नाटक था- ‘इथे ओशाळला मृत्यू’. वसंत कानेतकर की कृति में उन्होंने शिवाजी के बेटे संभाजी का किरदार निभाया था. ये नाटक बहुत सफल तो नहीं कहा जा सकता, पर डॉ लागू को इससे पहचान ज़रूर मिली.
कालजयी नाटक ‘नटसम्राट’ में वो प्रोटेगनिस्ट (मुख्य किरदार) थे. इसी पात्र की वजह से उन्हें शोहरत मिली. इस नाटक की कहानी कुछ यूं थी कि एक मुख्य अभिनेता जिसने शेक्सपियर के नाटकों के मुख्य किरदारों को निभाया है. वो रिटायर होने के बाद ज़िंदगी के नाटकों से हार जाता है.
कहा जाता है कि इस नाटक में भावनाओं का इतना समावेश था कि डॉ लागू की सेहत ख़राब हो गई थी. जैसे दिलीप कुमार ने फ़िल्मों में त्रासद रोल इतनी शिद्दत और डूबकर निभाए कि उन्हें अवसाद हो गया था, और इलाज कराने लंदन जाना पड़ा. उनके कुछ और प्रसिद्ध नाटक थे ‘आत्मकथा’ और मोहन राकेश के कालजई नाटक ‘आधे-अधूरे’ और वी शांताराम का ‘पिंजरा’.
बतौर थिएटर एक्टर डॉ लागू का वही मुकाम था जो मशहूर नाटककार स्वर्गीय विजय तेंदुलकर का था. तेंदुलकर के कई नाटकों में डॉ लागू ने अभिनय किया था. इनमें ‘कन्यादान’, ‘गिधाड़े’ प्रमुख थे. ‘गिधाड़े’ की भाषा ठेठ गंवई थी. नाटक का संकलन डॉ लागू ने बड़ी बेरहमी से किया था. इसके बाद उन्होंने कहा भी था कि ऐसी भाषा समाज के ‘गिद्ध’ ही इस्तेमाल करते हैं.
फिल्मों का उनका सफ़र रंगमंच जितना चमकीला तो नहीं कहा जाएगा लेकिन इससे उनको राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली और वे व्यापक फलक पर स्थापित हुए. कई मशहूर हिंदी फ़िल्मों में उनकी भूमिकाएं लोग याद करते हैं मसलन ‘सौतन’, ‘मकसद’, ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘सदमा’ जैसी फ़िल्में. डॉ लागू के अभिनय में व्यापकता थी. वो ठेठ किसान भी नज़र आते थे तो कभी सफ़ारी सूट पहने हुए परफेक्ट शहरी भी. क्या विडम्बना है कि उनकी पहली फ़िल्म ‘आहट- एक अजीब कहानी’ 1974 में पूरी हुई थी पर तब कुछ कारणों से रिलीज़ नहीं पाई. करीब 36 साल बाद, यानी 2010 में यह फ़िल्म रिलीज़ हुई.
विवाद भी डॉ लागू के जीवन का हिस्सा बने. उन्होंने एक च्यवनप्राश कम्पनी का विज्ञापन किया था. इसकी वजह से मेडिकल एसोसिएशन उनसे नाराज़ हो गई और उनका रजिस्ट्रेशन तक कैंसिल कर दिया था. चूंकि डॉ लागू थिएटर को अपना सब कुछ मानते थे, लिहाज़ा, उन्होंने इसकी परवाह नहीं की.
एक और विवाद धर्म और ईश्वर के प्रति उनके निजी विचारों को लेकर पैदा हुआ था. डॉ लागू घोर नास्तिक थे. ईश्वर में उनकी आस्था नहीं थी. उन्होंने एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था ‘टाइम टू रिटायर गॉड’, यानी ईश्वर को रिटायर हो जाना चाहिए. और इसकी वजह से उन्हें काफ़ी विरोध और दिक्कतों का सामना करना पड़ा.
यह लेख उन्होंने मशहूर तर्कवादी और धुर नास्तिक डॉक्टर अब्राहम थॉमस कूवर की एक किताब के प्राक्कथन-स्वरुप लिखा था. डॉ लागू इस लेख में लिखते हैं, ‘मैं ईश्वर को नहीं मानता, बल्कि उसे अब रिटायर हो जाना चाहिए. ईश्वर सिर्फ़ एक कवि की कल्पना से ज़्यादा कुछ नहीं है. उसकी ज़रूरत तब थी जब सभ्यताओं के बनने का काल था. पिछले 5000 सालों के इतिहास से मालूम पड़ता है कि ईश्वर नहीं है. जो विश्वास वैज्ञानिक तरीकों से साबित न किया जा सके, वो सिर्फ़ अंधविश्वास है. कई अमानवीय क्रूरताएं, कुरीतियां और युद्ध सिर्फ़ ईश्वर के नाम पर लड़े गए हैं. ये ज़रूरी ही नहीं, बल्कि हमारा कर्तव्य भी है, कि हम ईश्वर जैसी किसी भी अवधारणा की नकार दें क्यूंकि ये मानवता के ख़िलाफ़ अन्याय है.’
डॉ लागू का मानना था, जब सभ्यताओं की स्थापना हो रही थी, तब एक महामानव की हमें ज़रूरत थी. जो हमें नश्वरता और सर्वशक्तिमान होने का भान कराये और भयमुक्त होने का विश्वास दिलाए. इसलिए हमने ईश्वर की कल्पना की. आज जब हमने प्रकृति पर विजय पा ली है, किसी भी विचार की सत्यता हम वैज्ञानिक तरीक़ों से परखते हैं, ऐसे में ईश्वर जैसी कल्पना का अब कोई महत्व नहीं है.
अन्धविश्वास के ख़िलाफ़ वे जीवन भर बोलते हे. उनका मानना था कि ज़्यादातर समाज सिर्फ़ दिखावा करता है कि वो अन्धविश्वासी नहीं है पर हक़ीक़त में ऐसा नहीं है. समाज आज भी अन्धविश्वासी हैं. भारत के समाज के संदर्भ में उनका निष्कर्ष दिलचस्प था, “हम एक अरसे से इसके ख़िलाफ़ लडे हैं. कपिल, कणाद, बुद्ध, महावीर, तुकाराम, ज्योतिबा फुले और हामिद दलवई जैसे लोगों ने आंदोलन भी किये, पर आज भी हम अन्धविश्वासी समाज का तमग़ा नहीं हटा पाए हैं.”
ऐसे अलोकप्रिय विचारों की वजह से उन्हें कई बार संकटों और आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. नास्तिकवाद पर उनके विचारों को अख़बारों ने कोई तवज्जो नहीं दी. जबकि वो कहा करते थे कि वो ऐसी बहसों को जनता के सामने ले जाएंगे. उनका ये पहलू भी कम ही ज्ञात है आज की पीढ़ी को और शायद पिछली पीढ़ियों को भी. दोबारा बात नाटकों और फ़िल्मों की करें तो अपनी आत्मकथा ‘लमान’ में उन्होंने कहा था कि उन्हें पुरस्कार जीतने की ‘बुरी आदत’ है. ‘नटसम्राट’ को साहित्य अकादमी सम्मान मिला. फ़िल्म ‘घरोंदा’ के लिए उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का अवार्ड मिला था.
ये विडम्बना ही कही जाएगी कि ईश्वर को न मानने वाले डॉ लागू जैसे निष्णात कलाकार को घोर ईश्वरीय, अन्धविश्वासी बॉलीवुड ने कभी उनकी क्षमता के स्तर की भूमिकाएं नहीं दी. अगर देता तो क्या बॉलीवुड को ईश्वर का ‘श्राप’ लग जाता?
Also Read
-
TV Newsance 325 | Indigo delays, primetime 'dissent' and Vande Mataram marathon
-
The 2019 rule change that accelerated Indian aviation’s growth journey, helped fuel IndiGo’s supremacy
-
You can rebook an Indigo flight. You can’t rebook your lungs
-
‘Overcrowded, underfed’: Manipur planned to shut relief camps in Dec, but many still ‘trapped’
-
Since Modi can’t stop talking about Nehru, here’s Nehru talking back