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रंग की वजह से कई रिजेक्शन मिले: उषा जाधव

उषा जाधव को 2013 में मराठी फिल्म ‘धग’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. उन्हें हाल ही में गोवा में आयोजित 50 वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में ‘माई घाट : क्राइम नंबर- 103/2005’’ फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला है. बारह साल की अवधि में दो महत्वपूर्ण पुरस्कार हासिल कर चुकी उषा जाधव ने एक खास मुकाम हासिल कर लिया है. वह मराठी, हिंदी और स्पैनिश भाषाओँ की फ़िल्में कर रही है. उनके सफ़र, पुरस्कार और तिरस्कार के बारे में हुई बातचीत…

हाल ही में इफ्फी में आपको सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला. उसके बारे में कुछ बताएं?

इस साल इफ्फी में 76 देशों की 200 फिल्में आई थीं. उनमें से 15 फिल्में इंटरनेशनल कंपटीशन के लिए चुनी गई थीं. उस कंपटीशन में मुझे सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का इफ्फी पुरस्कार मिला है. यह पुरस्कार मुझे अनंत महादेवन निर्देशित मराठी फिल्म धग के लिए  2013 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.

‘माई घाट 103 बटा 205’ की कहानी और उसमें आप की भूमिका क्या है?

फिल्म एक सत्य घटना पर आधारित है. यह एक मां की कहानी है, जिसके इकलौते बेटे की पुलिस हिरासत में टॉर्चर से हत्या हुई थी. मां न्याय‌ के लिए लड़ती है. 13 सालों की लड़ाई के बाद मां के पक्ष में फैसला आया था और दो पुलिस अधिकारियों को फांसी की सजा दी गयी थी. मैंने फिल्म में प्रभा माई का किरदार निभाया है. या फिल्म अनंत महादेवन निर्देशित की है. अनंत महादेवन के साथ मैंने ‘स्टार प्लस’ के एक शो ‘लाखों में एक’ के एक एपिसोड में काम किया था. उसके बाद से ही हम दोनों साथ में काम करने की कोशिश कर रहे थे. 2013 में एक फिल्म की योजना भी बनी थी, मगर वह फिल्म फ्लोर पर जाने से पहले ही रुक गई थी. इस साल उन्होंने इस फिल्म की कहानी सुनाई और कहा कि हम साथ में काम करते हैं. इस फिल्म में तो सब कुछ जल्दी-जल्दी में हुआ. निर्माता ने भी हां कहने में ज्यादा वक्त नहीं लिया. तीन महीनों के अंदर फिल्म शुरू होकर खत्म भी हो गई.

आप की पहली फिल्म 2007 में आई थी. मधुर भंडारकर के साथ ‘ट्रैफिक सिग्नल’ में आपने एक छोटी सी भूमिका निभाई थी. 12 साल हो गए. इतने सालों में इतनी कम फिल्में करने की कोई खास वजह है क्या?

कहने के लिए 12 साल हो गए. मुझे लगता है कि नेशनल अवार्ड मिलने के बाद ही मेरा एक्टिंग करियर ढंग से चालू हुआ. उसके पहले के 6 साल(2006 से 2013 तो स्ट्रगल में ही बीते. उन सालों में मैं काम करना चाहती थी, लेकिन मेरे पास कोई काम ही नहीं था. उन दिनों कोई फिल्म ऑफर ही नहीं करता था. छोटी-मोटी फीचर फिल्में और ऐड फिल्में किया करती थी. वास्तव में 2013 के बाद मेरा एक्टिंग कैरियर आरंभ होता है. उसके बाद ढेर सारी फिल्मों के ऑफर मिले,लेकिन जो फिल्में मिल रही थी उन सभी में मुझे टाइपकास्ट किया जा रहा था. मैं एक ही किस्म के रोल में बंधना नहीं चाहती थी. एक फिल्म में जो काम कर लिया है, उसी को दूसरी फिल्मों में दोहराना मुझे अच्छा नहीं लगता. मैं चाहती हूं कि शांति से काम करूं. भले ही देर हो जाए, कम फिल्में आएं, लेकिन जब आएं तो मुझे और दर्शकों को संतुष्टि मिले.

अपने बारे में थोड़ा विस्तार से बताएं. आप कहां से आई हैं और फिल्मों की योजना कैसे बनी?

मैं कोल्हापुर, महाराष्ट्र से हूं. एक्टिंग का शौक तो स्कूल से ही था. स्कूल के फंक्शन में डांस करती थे. सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेती थी. सातवीं कक्षा में मैंने एक नाटक में काम किया था. वह नाटक इंटर स्कूल कंपटीशन में गया था. उस कंपटीशन में मुझे सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला था. पहले तो एक्टिंग की चाह थी. फिर पुरस्कार मिल गया तो मुझे लगा कि मेरे अंदर योग्यता भी है. तब से ही इच्छा थी कि एक्टर बनूं. पर कोल्हापुर की एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की लड़की के लिए ऐसे इच्छाएं आसान नहीं होतीं. छोटे शहर में पल रही साधारण लड़की अपने माता-पिता को कैसे बताएं. दुविधा थी. मैं कभी किसी को नहीं बता सकी. बारहवीं पूरी करने के बाद मैंने पुणे की एक ट्रेवल एजेंसी में काम ले लिया था. पहली बार कोल्हापुर से बाहर निकली थी. यह बात तो समझ में आ गई थी कि अगर एक्टिंग करनी है तो कोल्हापुर से निकलना होगा. पुणे में मैं तीन साल रही. एक्टिंग की फील्ड में वहां कुछ हो नहीं पाया. ट्रेवल एजेंसी में काम ज्यादा था और सैलरी कम थी. सिर्फ ₹3000 मिलते थे. तब यह कोशिश रहती थी कि जल्दी-जल्दी कुछ और सीखते जाओ तो सैलरी बढ़ती जाएगी. इस कोशिश में तीन साल निकल गया. फिर समझ में आया कि पुणे में कुछ भी कर पाना मुश्किल है. एक्टिंग करनी है तो मुंबई जाना पड़ेगा.

तो फिर मुंबई की योजना बन गई? कैसे रहे आरंभिक दिन…

मुंबई के बारे में सोच तो लिया, लेकिन ख्याल आया कि वहां जाएं कैसे? मुंबई में कोई दोस्त या रिश्तेदार नहीं था. कोई भी नहीं था. कोई कनेक्शन नहीं था मन में यह सकुचाहट भी थी कि मां-बाप को क्या बोलेंगे? मुंबई उनके लिए भी बड़ा डरावना शहर था. पुणे में जब तक थी, तब तक वे लोग निश्चिंत थे. मुंबई आने के लिए मैंने पहले मुंबई में नौकरी तलाशी. ट्रैवलिंग फील्ड में ही मुझे नौकरी मिल गई. मैंने मां-बाप को बताया कि अच्छी सैलरी की नौकरी मुंबई में मिल गई है और मैं मुंबई शिफ्ट कर रही हूं. उन्हें मैं बता तो रही थी कि नौकरी के लिए जा रही हूं लेकिन अंदर-अंदर मैंने तय कर लिया था कि मुझे एक्टिंग के मौके तलाशने हैं.

 यह कब की बात है?

2006 की बात है. मेरा ऑफिस महालक्ष्मी में फेमस स्टूडियो के सामने था. मैं मीरा रोड में रहती थी. रोजाना सुबह भीड़ में लोकल ट्रेन में चढ़ना और फिर शाम में मीरा रोड लौटना.(मीरा रोड से महालक्ष्मी की दूरी लगभग 35 किलोमीटर) वे दिन कभी नहीं भूल पाऊंगी. सब कुछ इतना मुश्किल था, लेकिन यह मुश्किल तो खुद की चुनी हुई थी. शनिवार और रविवार मिलाकर मुझे डेढ़ दिन की छुट्टी मिलती थी. हफ्ते के डेढ़ दिनों में ही स्ट्रगल कर पाती थी. स्ट्रगल के उन दिनों में ही मुझे ‘ट्रैफिक सिग्नल’ मिली. जैसे ही वह फिल्म मिली, मैंने नौकरी छोड़ दी. उन्हें शूटिंग के लिए मेरा एक महीना चाहिए था. ‘ट्रैफिक सिग्नल’ में मेरा रोल बड़ा और सिग्निफिकेंट नहीं था. फिर भी मैं संतुष्ट थी. मैं प्रशिक्षित अभिनेत्री नहीं थी न ही मैं एनएसडी या एफटीआईआई से आई थी. मेरा कोई सीनियर-जूनियर भी नहीं था यहां पर. फिल्म इंडस्ट्री में भी मेरी कोई जान-पहचान का नहीं था, इसलिए जो मिला मैं उसी से बहुत खुश थी.

मधुर भंडारकर की फिल्म ‘ट्रैफिक सिग्नल’ मिली कैसे? यह कोई छोटा अवसर नहीं था?

उन दिनों यूटीवी का दफ्तर महालक्ष्मी में ही था. मैं वहां यही पता करने गयी थी कि कुछ ऑडिशन वगैरह हो रहा है कि नहीं? वहां मेरी मुलाकात गीतांजलि राव से हुई. मधुर भंडारकर की फिल्म ‘पेज 3’ और ‘कॉरपोरेट’ की थी. उन्होंने मुझे दोनों फिल्मों की जानकारी दी और यह भी बताया कि मैं ‘ट्रैफिक सिग्नल’ भी कर रही हूं. उन्होंने मुझे पता दिया और कहा कि तुम भी जाकर मिल लेना. मैं मघुर भंडारकर के ऑफिस गई. उनके सहायक से मिली. सचमुच उनके पास काम था और वह मुझे मिल गया. गीतांजलि राव से मिलना भी एक संयोग था. ऑडिशन के लिए हम दोनों अगल-बगल में बैठे थे. औपचारिक बातचीत में ही उन्होंने मेरी मदद कर दी. मुझे लगता है छोटी की भूमिकाओं के लिए लोग ज्यादा सोचते नहीं है. उन्हें डस्की(सांवली) लड़की चाहिए थी. मैं उनकी जरूरत के हिसाब से एकदम फिट थी. वहां से फिल्म इंडस्ट्री का सफर शुरू हुआ.

आरंभिक सफर कैसा रहा? धग’ के पहले कौन-कौन सी फिल्में कीं.

‘ट्रैफिक सिग्नल’ पूरी हो गई. उधर मैंने नौकरी छोड़ दी थी. कोई काम था नहीं. फिर कई सारे छोटे काम किए. बड़े काम करने के लिए सरवाइव करना जरूरी था. छोटे ऐड भी किए. कुछ बेहद छोटी फिल्में की. उन दिनों की फिल्मों में चंदन अरोड़ा की ‘स्ट्राइकर’ और दीप्ति नवल की ‘दो आने की धूप चार आने की बारिश’ का नाम ले सकती हूं. उन दिनों ‘आहट’ के ढेर सारे एपिसोड भी किए. पैसे के लिए सब किया. साथ में अभ्यास भी होता रहा. एक एपिसोड में तो मैं भूत भी बनी थी. ढेर सारा ह्वाईट मेकअप लगाकर. सरवाइवल के लिए पैसा चाहिए तो काम तो करना पड़ेगा. अब वह काम भले ही भूत का हो. ढेर सारी छोटे-मोटे ऐड किए. उनसे पैसे आए. मैंने एक मराठी फिल्म ‘बाई मानुस’ भी की थी. अरुण नलावडे उसके निर्देशक थे और उसे अशोक राणे ने लिखा था. उस फिल्म में मैं लीड रोल में तो नहीं थी लेकिन मेरी भूमिका अच्छी थी. उसकी वजह से ही मुझे ‘धग’ मिली.

‘धग’ के लिए ही तो आपको सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. उस फिल्म तक आप कैसे पहुंची?

‘बाई मानुस’ के एक शो में ‘धग के लेखक ने मुझे देखा था. उन्होंने ‘धग’ में एक छोटी भूमिका भी निभाई है. उन्होंने ही ‘धग’ के निर्देशक शिवाजी लोटन पाटिल को मेरा नाम सुझाया. शिवाजी ने मुझे फोन किया और फिल्म के बारे में बताया. मैंने हामी भर दी. अगले दिन निर्माता से मुलाकात हुई. निर्माता के पास पैसे नहीं थे. किसी के पास पैसे नहीं होते. खासकर जब अभिनेता या अभिनेत्री नए हो और बाहर से आए हों.खैर, मुझे स्क्रिप्ट मिली. स्क्रिप्ट मुझे पसंद आई. फिल्म चालू हो गई और जल्दी ही फिल्म पूरी होकर रिलीज हो गई. मुझे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल गया और उसके बाद जैसा कि कहते हैं…रेस्ट इज द हिस्ट्री.

‘रेस्ट इज हिस्ट्री’ के पहले की भी कुछ हिस्ट्री रही होगी, जिसमें कुछ सुख-दुख और किस्से होंगे?

स्ट्रगल पीरियड में मुझे ढेर सारे रिजेक्शन मिले. रिजेक्शन की वजहों में एक तो मेरा रंग था. स्ट्रगल के उन दिनों में मैंने टीवी में बहुत कोशिशें की. टीवी शो और सीरियल वालों को केवल गोरे चेहरों की जरूरत थी. फिल्म में भी गोरेपन की मांग होती थी. वे तो कहते भी थे एक्टिंग तो हम सिखा देंगे. अभिनेत्री खूबसूरत होनी चाहिए. खूबसूरती का मतलब गोरा होना है. कई बार तो ऐसा हुआ कि कुछ प्रोडक्शन हाउस  ने मुझे ऑडिशन तक के लिए नहीं बुलाया. साफ कहते थे की तुम्हारा तो कोई बैकग्राउंड ही नहीं है और ऊपर से यह रंग. मैं कहती थी ऑडिशन ले लो फिर बात करते हैं.

क्या कभी अपनी पृष्ठभूमि और रंग पर गुस्सा आया?

मुझे खुद पर कभी गुस्सा नहीं आया. कभी खीझ नहीं हुई कि मेरा रंग ऐसा क्यों है? मैं तो अपने रंग से खुश हूं. तब भी थी, अब भी हूं. गुस्सा से ज्यादा मुझे दुख होता था. दुख से मैं रोती-बिसूरती थी. फिर अगली सुबह चेहरा धोकर स्ट्रगल के लिए तैयार हो जाती थी. मैंने तय कर लिया था कि चाहे जितना रिजेक्ट करोगे, मैं अपनी कोशिश नहीं छोडूंगी.

रिजेक्शन के उन दिनों में कौन संबल था? ऐसे समय में भावनात्मक संबल चाहिए होता है..

मेरा परिवार… मेरी बहन यहां शिफ्ट हो गई थी मेरे साथ ही रहती थी. उन दिनों में तो ज्यादा दोस्त भी नहीं थे. खासकर फिल्म इंडस्ट्री में तो कोई दोस्त नहीं था.

बहुत मुश्किल समय रहा होगा. स्ट्रगल का दुख मां-बाप से शेयर नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे ज्यादा दुखी हो जाएंगे. उनके दुख की वजह यह भी रही होगी कि फिल्म में गई ही क्यों? फिल्म इंडस्ट्री का परसेप्शन अच्छा भी तो नहीं है. उन मुश्किल दिनों में अपनी इच्छा पर डटे रहने की हिम्मत कहां से मिली?

अपनी इच्छाशक्ति मजबूत थी. मुझे तो उम्मीद थी कि जब मौका मिलेगा मैं दिखा दूंगी. ऐसा हुआ भी. रिजेक्शन से मैं कभी नहीं घबराई. स्ट्रगल के उन दिनों को मैं भूल नहीं पाई हूं,लेकिन बताने के लिए याद भी नहीं करना चाहती. अब तो यही लगता है कि इतना ही समय लगना था. मेरा टिके और डटे रहना काम आया. मैंने कम फिल्में की है. मेरी गति धीमी है लेकिन ठीक है. कछुए की तरह हम आगे जाएंगे… जाएंगे ही जाएंगे.

शूट का पहला दिन तो याद होगा? कैसा रहा कैमरे के सामने खड़ा होना और एक सपने का साकार होना?

मैं तो बहुत खुश थी. मुझे ‘ट्रैफिक सिग्नल’ में सिग्नल पर झगड़े का सीन करना था. मैं एक लड़की से झगड़ती हूं कि मेरे ग्राहक को तू गजरा कैसे बेच रही है? हम झोंटा-झुटव्वल कर रहे हैं. वह दृश्य मधुर भंडारकर को बहुत पसंद आया. पहली बार मैंने कैमरा फेस किया था लेकिन मैं पूरे आत्मविश्वास में सब कुछ कर रही थी. मधुर जी को मेरा काम बहुत पसंद आया था. मेरा काम देखकर उन्होंने और दो-तीन संवाद मुझे दे दिए थे .

पहले दिन पहला सीन कैमरे के सामने करते हुए इतना आत्मविश्वास… कोई अभ्यास किया था क्या?

आत्मविश्वास तो मेरे अंदर हैं. स्ट्रगल में डटे रहने की क्षमता मुझे पिताजी से मिली है. मेरे मां-बाप ने कभी हार नहीं मानी. मेरे पिता मिलिट्री में थे. टफ जॉब में रहते हुए उन्होंने म्यूजिक का शौक पूरा किया. उन्होंने म्यूजिक साधा. उनकी वजह से घर का माहौल भी कलात्मक रहा. बचपन से ही मेरे घर में तबला, हारमोनियम और तंबूरा दिखता था. मुझे कला की पूंजी पिताजी से मिली है.

पिताजी को कब पता चला कि आप फिल्मों में काम कर रही हैं? उनका सपोर्ट था क्या?

‘ट्रैफिक सिग्नल’ से ही. फिल्म साइन करने के बाद मैंने सभी को बता दिया था. जॉब छोड़ने और फिल्म पानै की खबर मैंने एक साथ दी थी. मैंने उनसे यही कहा था कि सपोर्ट न भी करो, अपोज मत करना. घरवालों से मैं कोई झगड़ा नहीं चाहती थी. झगड़ा करके कुछ हासिल भी नहीं होता. मां-बाप मेरे लिए सब कुछ रहे हैं. आज भी हैं. मां-बाप दोनों खुश नहीं थे. परिवार के दूसरे सदस्य भी नाखुश थे. ‘ट्रैफिक सिग्नल’ मिलने का समय मेरा भाई भी फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ा हुआ था. वह कोल्हापुर में ही एक निर्देशक के सहायक बन गया था. सबका एक ही सवाल था- क्यों कर रहे हो? क्या जरूरत है फिल्मों में काम करने की? अभी सब खुश हैं. मेरे माता-पिता  गोवा आए थे. मेरे साथ थे. वे बहुत खुश होकर लौटे.

पुरस्कार की पहली वजह बनी पहली फिल्म ‘धग’ क्या थी?

वह बहुत ही संवेदनशील फिल्म थी. बहुत गंभीर मुद्दे पर थी. एक मां नहीं चाहती कि उसका बेटा पिता की तरह अंतिम संस्कार को अपना कार्य बनाएं. मैं चाहती थी कि बेटा कोई और काम सीखे और करें, लेकिन परिस्थितियां उसे विवश कर देती हैं. सच कहूं तो उस फिल्म में तैयारी करने का वक्त ही नहीं मिला था. निर्देशक शिवाजी ने सीधे बुला लिया था. उन्हें ठीक-ठीक मालूम था कि मेरे किरदार से उन्हें क्या लेना है. फिल्म में मराठी का एक अलग लहजा मुझे बोलना था. वह लहजा मुझे फिल्में में बेटे की भूमिका निभा रहे कलाकार हंसराज से मिला. वह उसी लहजे में बातें करता था. मैं हंसराज से कहती थी कि आओ हमलोग बातचीत करते हैं. वह मेरे संवाद पढ़कर सुनाता था. मैं उसका लहजा पकड़ लेती थी. मुझे महाराष्ट्र के बीड़ इलाके की भाषा बोलनी थी.

लहजे के बारे में आपने इतना बताया. एक्टिंग के लिए क्या सचमुच भाषा और लहजा जानना जरूरी है?

अभिनय में भाषा से बहुत मदद मिलती है. भाषा ही किरदार को आधार देती हैं. लोग फिल्म सिर्फ देखते नहीं है… सुनते भी हैं. आपको भाषा आनी चाहिए. उच्चारण सही होना चाहिए. अगर खुद की भाषा वही नहीं है तो हमें सीखना ही चाहिए. मेहनत से कुछ भी सीखा जा सकता है. किरदार को वास्तविक बनाने के लिए भाषा से बड़ी मदद मिलती है. कल को अगर मुझे तमिल या तेलुगू की फिल्म मिली तो मैं उन भाषाओं को सिखूंगी.

नई भाषा को लेकर आप कितनी सहज हैं?

मैं जल्दी सीख लेती हूं. पहले मराठी बोलती थी. फिर हिंदी और अंग्रेजी सीखी. अभी तो मैं स्पेनिश भी बोल लेती हूं. मैं लहजा बहुत जल्दी पकड़ लेती हूं.

‘धग’ के लिए मिले राष्ट्रीय पुरस्कार से करियर में कितना फायदा हुआ? मुझे लगता है कि भारत में पुरस्कृत कलाकारों को विशेष दर्जा नहीं दिया जाता. किसी भी फिल्म के पोस्टर या प्रचार में आपके पुरस्कार का जिक्र नहीं होता. ऐसा भी कहा जाता है कि पुरस्कारों की वजह से काम मिलने की कोई गारंटी नहीं बनती.

सही कह रहे हैं आप. भारत में अवार्ड से ज्यादा कमर्शियल सक्सेस मायने रखता है. अगर आप की फिल्में पैसे कमाती हैं. वह भी हिंदी फिल्में तो आप का दर्जा बढ़ता है. फेस्टिवल में भी पॉपुलर कलाकारों पर जोर डाला जाता है. उनकी तस्वीरें छपती हैं. मीडिया को भी थोड़ी जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी. ‘ऐसा क्यों है?] का जवाब मेरे पास नहीं है. ऐसा ही है. वह तो मैं देख रही हूं. विदेशों में नेशनल अवार्ड का उल्लेख करने पर खास इज्जत मिलती है. अपने यहां अवार्ड मिलने के बाद यह बात फैला दी जाती है…अरे वह आर्ट फिल्मों की अभिनेत्री है. कमर्शियल फिल्मों के लिए अवॉर्ड माइनस मार्किंग देता है.