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2008 – 2012 – 2019: विकृत से विकृततर हुए हम
जिंदगी की कहानियां होती हैं, मौत की तारीखें!
2008, 2012 और 2019 के साल हमारे राष्ट्रीय सामाजिक जीवन की मौत की तारीखें हैं. आदमी की मौत एक बार ही, पूरी की पूरी होती है लेकिन समाज धीरे-धीरे, तिल-तिल कर मरता है. हमारा समाज इसी तरह दम तोड़ रहा है. इन सालों में कौन मरा, कैसे मरा और किसने मारा जैसी कहानी पूछने और जानने का कोई प्रयोजन नहीं है. जानने और समझने की जरूरत है तो सिर्फ यह कि एक समाज के रूप में और एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में हमने सामूहिक मौत की तरफ एक और कदम बढ़ाया है.
हमें यह भी देख लेना चाहिए कि मौत की तरफ जाने की इस सामूहिक यात्रा में बैंड-बाजा लेकर कौन कौन शामिल हैं. वे 3 लड़के, जिन्होंने 2008 में, आंध्र प्रदेश के वारांगल में, इंजीनियरिंग की पढ़ाई पढ़ रही उन दो लड़कियों पर तब तेजाब फेंक दिया था जब वे ऑटोरिक्शा में घर जा रही थीं, इस यात्रा में शामिल नहीं है. वे तो तेजाब फेंकने से पहले ही मर चुके थे, और फिर उन मरे हुओं को वारांगल के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक वीसी सज्जनार ने, रात के अंधेरे में, वारांगल से 30 किलोमीटर दूर मन्नूर के जंगलों में ले जा कर गोली से उड़ा दिया था.
मौत की इस सामूहिक यात्रा में वे सब भी शामिल नहीं हैं कि जिन्होंने 2012 में, देश की राजधानी दिल्ली में, चलती बस में ‘निर्भया’ का पशुवत् बलात्कार किया था और फिर उसे मरने के लिए सड़क पर फेंक दिया था. वे सब भी ऐसा करने से पहले ही मर चुके थे. फिर जो काया बची थी उनकी, उसने कभी आत्महत्या की, कभी दयायाचना की लेकिन उस दिन से आज तक फांसी के इंतजार में रोज-रोज मर रही है. वे 4 लड़के भी, जिन्होंने 27 नवंबर, 2019 को, तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में, योजना बना कर एक पशुचिकित्सक डॉक्टर लड़की का सामूहिक बलात्कार किया और फिर उसे जला कर मार भी दिया, जिन्हें 6 दिसंबर, 2019 को 10 पुलिस वालों के साथ मिल कर, सुबह के धुंधलके में साइबराबाद के पुलिस अधीक्षक वीसी सज्जनार की टीम ने गोली से उड़ा दिया. वे भी मौत की इस सामूहिक यात्रा में शामिल नहीं थे. वे सब भी पहले ही मर चुके थे. उन मरे हुओंको मार कर जो मर रहे हैं वह हम और आप हैं.
सवाल किसी बलात्कार का या बलात्कारी का समर्थन करने या उससे सहानुभूति रखने का नहीं है. मेरी बातों से जिसके मन में ऐसा कोई भाव आता भी हो तो उसे तभी से मरा हुआ जानिए. भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में मोहग्रस्त अर्जुन को जीने और मरने का यही रहस्य समझाया था. इसलिए जब मैं कहता हूं कि पुलिस अधिकारी वीसी सज्जनार और कुछ भी हों, सज्जन व्यक्ति नहीं हैं, तो मैं भगवान श्रीकृष्ण की बात ही कहता हूं. जो समाज को भीड़ में बदल दे वह सज्जन नहीं हो सकता है. जो मनुष्य को वोट में बदल दे वह नेता नहीं हो सकता है. भीड़ वह है जिसके पास सर तो अनगिनत होते हैं, विवेक नहीं होता. नेता वह है जो भीड़ को मत-दाता बनाता है यानी विवेक जगाता है और विवेक जगाने की जिम्मेवारी सौंपता है. मनुष्य-मात्र की सांस्कृतिक-यात्रा दूसरा कुछ नहीं, विवेक के बीज लगाने और उसकी फसल उगाने की यात्रा है. लाखों-करोड़ों सालों में, इंच-इंच चलते हुए हमने अपने चारों बगल इतने सारे यमों-नियमों का जंगल इसलिए नहीं उगाया है कि हम उसमें खो जाएं बल्कि युगों-युगों से, हमारी पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां इसे उगाती-पालती आई हैं कि हम इनसे पार देख सकें. इनका क्षितिज विस्तीर्ण करते रहें.
किसने कहा कि सेक्स की आदिम भूख को पशुवत् खुला छोड़ देना मानवीय नहीं होगा, कि उसे सामाजिक यम-नियम से संस्कारित करना चाहिए? हमने ही कहा और हमने ही वह दिशा भी खोजी. हम बार-बार विफल भी हुए, बार-बार सेक्स की, जंगली हवस की आंधी हमें घेर लेती है, विरोधी को, असहमति को नोच-चोंथ लेने की आदिम वृत्ति हमें लाचार बना कर अपनी तरफ खींच लेती है. लेकिन हम फिर उठे हैं और फिर आगे चले हैं. हम जानते हैं कि हम फिर विफल हो सकते हैं लेकिन हम जानते हैं कि हम फिर उठेंगे, और फिर आगे चलेंगे.
हमने ईसा भी देखा है और सलीब भी. बुद्ध भी देखा है और युद्ध भी. हमने हिटलर भी देखा है और गांधी भी. लेकिन हमने अपने सामूहिक विवेक से सलीब नहीं, ईसा चुना है, युद्ध नहीं बुद्ध चाहा है, हिटलर नहीं गांधी के सामने सर झुकाया है. हम जानते हैं कि हमारे भीतर जंगली हवस की वह आंधी उठती है, हम जानते हैं कि हममें से कई होंगे जो उसके वश हो जाएंगे फिर भी हम ऊपर उठने की, यहां से आगे निकलने की अपनी कोशिश बंद तो नहीं करते हैं. भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते तो इतना ही हैं न कि यह कोशिश जिसने बंद की उसे मरा जानो. हम कहते हैं कि जिस समाज ने ऐसी सामूहिक कोशिश छोड़ दी, उसे मरा जानो. वह भीड़ है, समाज नहीं.
इसलिए वीसी सज्जनार सज्जन नहीं हैं. इसलिए समाज को उन्मत्त भीड़ बना कर जो मॉब लिंचिंग की वकालत कर रहे हैं, वे हमारी सामूहिक सांस्कृतिक यात्रा को कलंकित कर रहे हैं, क्योंकि वे कह रहे हैं कि दरअसल में हम सब एक-दूसरे पर तेजाब फेंकने वाले, चलती बस में किसी का भी, कहीं भी बलात्कार करने वाले तथा एक-दूसरे को जला कर मार डालने वाले दरिंदे हैं. इनके साथ दरिंदगी ही न्याय है. ये जो तथाकथित संत-साधक-कलाकार-कवि-खिलाड़ी-अधिकारी आज तालियां बजा रहे हैं मुझे उनमें और ‘निर्भया’ के हत्यारों में कोई फर्क नहीं दिखाई दे रहा है. इनमें से हर कोई समाज गढ़ने में नहीं, समाज को विकृत बनाने में लगा है. समाज जब भीड़ बन जाता है तब सबसे विकृत दिखाई देता है.
अगर हमें भीड़ का न्याय ही चाहिए तो हमें अपना संविधान किनारे रख देना चाहिए, लोकसभा और विधानसभाओं में ताले डाल देने चाहिए. अदालतों में अनाथालय खोल देने चाहिए और घर की परिभाषा बदल देनी चाहिए. राष्ट्रपति को ऐसा कहने से पहले त्यागपत्र दे देना चाहिए कि वे भारत के किसी नागरिक से संविधानप्रदत्त दयायाचिका का अधिकार छीन लेने की वकालत करते हैं. दया मनुष्यता की पहचान है, हमारे संविधान ने उसे राष्ट्रपति के विवेक की कसौटी बना दिया है. दया मांगने आपके दरवाजे हम सभी आएंगे. दया करनी है कि नहीं, क्या आपको अपने इस विवेक पर भरोसा नहीं है? आपके पास इंकार करने का विकल्प तो है न. आप उस विवेक से डरते हैं?
होना तो यह चाहिए था कि राष्ट्रपति कहते कि मेरे पास आई कोई भी दयायाचिकामाह भर से ज्यादा अनिर्णीत नहीं रहेगी. हर राजनीतिक दल शपथ लेता कि अबसे वह किसी भी ऐसे आदमी को अपना विधायक या सांसद तो छोड़िए, अपना सदस्य भी नहीं बनाएगा. जिस पर बलात्कार का कोई आरोप भी लगा हो. सारी जया बच्चनें कहतीं कि वे कभी, वैसे किसी राजनीतिक दल के कंधे पर बैठकर संसद या विधानसभा में नहीं जाएंगी जो महिलाओं के अपमान या बलात्कार को मजाक में लेता है,और सारे फिल्मकार-मनोरंजनकार यह शपथ लेते कि वे लड़कियों का रुतबा गिराने वाली भूमिकाओं को कभी स्वीकार नहीं करेंगे. अदालत कहती कि उसके पास बलात्कार का कोई भी मामला सुनवाई के लिए माह भर से ज्यादालंबित नहीं रहेगा क्योंकि बलात्कार का मामला आते ही दूसरे सारे मामले पीछे कर दिए जाएंगे और हर अदालत आप-से-आप ‘फास्टट्रैक कोर्ट’ में बदल जाएगी. प्रशासन कहता कि बलात्कार का कोई भी मामला उस इलाके के थानेदार समेत सारे पुलिस वालों को बगैर किसी सुनवाई के निलंबित कर देगा और बलात्कार की शिकार हर लड़की को तब तक चौबीस घंटे सुरक्षा दी जाएगी जब तक अदालत अपना अंतिम निर्णय नहीं देदेती. और अगर बलात्कारी पुलिस वाला है तो वह उसी क्षण से वर्दीविहीन अपराधी बना दिया जाएगा.
क्या हम इस क्षद्म को देख और समझ नहीं पा रहे हैं कि अगर मोमबत्तियां जलाने वाली भीड़ में, धरना देने वाली जमात में, फूल चढ़ाने वाले हाथों में रत्ती भर भी ईमानदारी होती तो 2008 से 2019 तक की तस्वीर बहुत बदल जाती? भीड़ की दिक्कत ही यह है कि उसमें आत्मा नहीं होती है, और आत्माविहीन ईमानदारी आपने देखी है कहीं, कभी?
मैं खोजता हूं लेकिन कहीं ऐसी खबरें मिलती नहीं हैं कि किसी पत्नी ने अपने पति को, किसी बहन ने अपने भाई को, किसी बेटी ने अपने पिता को, किसी मां ने अपने बेटे को, किसी लड़की ने अपने घर में आने-जाने वाले किसी पुरुष को सार्वजनिक रूप से इसलिए अस्वीकार कर दिया हो कि वह बलात्कारी है. हमारा है तो उसे बचाना है, दूसरे का है तो उसे लिंच करवा देना है, यही मानस दिखाई देता है. इससे बड़े ही कायर किस्म का गुस्सा तो प्रकट होता है, रास्ता नहीं निकलता है.
लड़का हो या लड़की, सभी आदमी ही पैदा होते हैं. उनके मनुष्य बनने की यात्रा अंदर और बाहर दोनों चले, इसके उपादान खड़े करने पड़ते हैं. और हम यह न भूलें कि यह यात्रा गुस्सा, अविवेक, पक्षपात या स्वार्थ की नहीं, गहरे धैर्य, संयम व विवेक की मांग करती है. आखिर तो मनुष्य बन कर ही आप मनुष्य बना सकते हैं न..
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