Newslaundry Hindi
सुप्रीम कोर्ट और सरकार ने रामलला को तो इंसाफ़ दिलवा दिया, अनाथ-ललाओं को कब न्याय मिलेगा
1959 में बीआर चोपड़ा ने इंग्लिश फ़िल्म ‘ब्लॉसम इन डस्ट’ का हिंदी चारबा बनाया था- ‘धूल का फूल’. अनाथ बच्चे की कहानी का सार साहिर ने गीत से यूँ बयां किया था- ‘तू हिंदू बनेगा, न मुसलमान बनेगा. इन्सान की औलाद है, इंसान बनेगा.’
मंदिर या मस्जिद की सीढ़ियों, या किसी कूड़ेदान से उठाकर लाए गए, या अनाथालय के दरवाज़े पर पाए गए बच्चे आगे चलकर है किस मज़हब से जुड़ते हैं? क्या अनाथलय सेकुलरिज्म की जबरदस्त मिसाल देते हैं? धर्म की अवधारणा को धता बता देते हैं?
यूं तो यहां कमाल की केमिस्ट्री होती है, सब आपस में मिल जाता है. बच्चा किस मज़हब में पलेगा-बढ़ेगा, नहीं कहा जा सकता. पर, फिर भी सवाल उठता है, कि क्या आख़िर सरकार ने कुछ गाइडलाइन बनाई हैं जिनका अनाथ बच्चों के धर्म निर्धारण, आर्थिक तथा सामाजिक में सुरक्षा में पालन किया जाता है?
अनाथ बच्चों के दो भविष्य हैं- या तो वो गोद लिए जाते हैं, या अनाथालय में रहते हुए ही बालिग़ होते हैं. गोद लिए गए बच्चों का मज़हब वही है, जो उनके क़ानूनी तौर पर बने माता-पिता का होता है. पर उनका क्या जो गोद नहीं जा पाते? वो किस मज़हब के कहलाते हैं.
जयपुर के एक अनाथलय के संचालक ने बताया कि जो बच्चे अपना नाम बता पाते हैं, उन्हें वही नाम दिया जाता है. पर, जो दूधमुँहे हैं; उनका अनाथालय की व्यवस्था के हिसाब से नामकरण हो जाता है, और संस्थान का ही उपनाम उसके नाम के साथ लगा दिया जाता है. आगे चलकर वो अपने विवेक से धर्म निर्धारण करता है.
राजस्थान जुवेनाइल जस्टिस कमेटी की सीनियर मेनेजर डॉक्टर ज्योति शर्मा बताती हैं, ‘‘सरकारी संस्थाओं में अनाथ बच्चों को हर धर्म का ज्ञान दिया जाता है. बालिग़ होने पर किसी धर्म से जुड़ना उसका निजी मामला है.’’
यहां तक तो बात ठीक लगती है. पर निजी या चेरीटेबल ट्रस्ट द्वारा संचालित अनाथलय में संभवतया इस प्रकार की व्यवस्था नहीं है. शायद इस बात ध्यान नहीं दिया गया है और ये संवेदनशील मसला है. ऐसा तो नहीं निजी संस्थान या चेरीटेबल ट्रस्ट के संचालकों की धार्मिक प्राथमिकता रहने वाले अनाथ बच्चों को प्रभावित कर रही है?
ऐसे अनाथालय अगर किसी कट्टर धार्मिक संगठन की सरपरस्ती पाते हैं, तो मामला इतना निरपेक्ष नहीं रह पाता. 2013 में जयपुर के ‘ग्रेस होम’ से 29 लडकियां छुड़ाई गई थी जो कि अलग-अलग धर्म के होने के बावजूद एक धर्म के सांचे में ढाली रही थीं. उन बच्चियों को किसी ने मिलने नहीं दिया जाता था, न उनके लिए कोई शिक्षा की व्यवस्था थी. ऐसे कई और भी क़िस्से है जो जबरन धर्म परिवर्तन से जुड़े हुए हैं.
इसके साथ-साथ क्या एक सोचा समझा प्रयास भी किया जाता है जो बच्चों के विवेक पर असर डालता है. किसी धर्म बहुल इलाक़े में आने वाले अनाथलयों का हाल भी बेहतर नहीं हो सकता. संभव है कि धर्म की कट्टर चाशनी उन्हें चटाई जाती हो जिसे वो ताज़िंदगी चाटते हों.
लगता है सरकारों ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया. वैसे सरकार ने तो ये भी सोचा कि इन बच्चों को एक पुख्ता आर्थिक और सामाजिक संरक्षण दिया जाए. जुलाई, 2018 में लखनऊ की एक्टिविस्ट पौलमी पविनी शुक्ला ने जनहित याचिका दायर की थी जिस पर संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश रंजन गोगोई और एक अन्य ने सरकार से जवाब मांगा था कि वो ऐसे बच्चों के लिए सरकारी नौकरियों में क्या प्रावधान देती है.
न सरकार से कोई जवाब आया, न कोर्ट को ही याद गया कि उसने जवाब मांगा था. सरकार और कोर्ट ने तत्परता दिखाते हुए अयोध्या और राफ़ेल मामले को सुलझा लिया पर 2 करोड़ अनाथ बच्चों के भविष्य पर किसी को चिंता नहीं है. डॉक्टर ज्योति शर्मा बताती हैं, ‘‘गोद से वंचित रह गए बच्चों को अन्य पिछड़ा वर्ग के समूह में डाल दिया जाता है, पर यहां तक सरकारी नौकरियों में आरक्षण का सवाल है, अभी कोई फ़ैसला नहीं हुआ है.’’
सोचिए, वो बच्चे न जिसके मां-बाप हैं, न कोई अभिभावक जैसे-तैसे करके अनाथालय में रहते हैं; स्कूलों में होने वाली पेरेंट्स-टीचर मीटिंगों से मरहूम रहते होंगे, न कोई उनके लिए ट्यूशन की व्यवस्था करता होगा और न बताता होगा कि फ़लां कम्पटीशन की तैयारी कैसे करनी है. क्या वो बच्चे सरकारी नौकरी पाने की गला काट स्पर्धा में जनरल केटेगरी या आरक्षित वर्ग के सामने टिक पाते होंगे?
चलिए मान लेते हैं कि सरकारी नौकरी नहीं मिली तो क्या; प्राइवेट सेक्टर तो है उनके लिए. इस सेक्टर में भी कम प्रतिस्पर्धा नहीं है. यहां तो प्रोफ़ेशनल डिग्रियों का होना और भी ज़रूरी है. ज़ाहिर है कि ऐसे हालात में उन बच्चों को किस क़िस्म का रोज़गार मिलता होगा? कितने बच्चे वहां से एमबीए, इंजीनियरिंग, मेडिकल, कानून या आईटी की नौकरी पाते होंगे? कोई आंकड़ा है जो स्थिति साफ़ करता हो?
प्रश्न ये भी उठता है कि बालिग़ होने के बाद क्या समाज में उनका स्थापन हो पाता है? सितम्बर महीने में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता ने जयपुर में हुए कार्यक्रम में बताया कि एक अनाथ युवक हर शाम को नौकरी के बाद अनाथालय आ जाता. पूछने पर मालूम हुआ कि उसका कोई है ही नहीं तो वो कहां जाए?
ये बच्चे हमेशा ही हाशिये पर रहे हैं. तो क्या ऐसे में पहले उनके भविष्य से जुड़े मुद्दे पर बहस नहीं होनी चाहिए? और बहस भी क्यों हो? सीधा सा मसला है, उन्हें लाभ दिया जाये. ये तबका ही वो असल सर्वहारा है जिसके ऊपर समाजवाद का सिद्धांत टिका है. ये तबका कभी नहीं जीत सका है. और अगर कोई जीता भी तो इक्का-दुक्का. पर ये तबका जो राजनेताओं के लिए वोट का बायस नहीं बनता, कोई मंच नहीं है जो पुरज़ोर तरीक़े से इनके हक़ में आवाज़ उठाये.
आंकड़ों के हिसाब से देश में इस वक़्त 2 करोड़ से भी ज़्यादा अनाथ हैं. सरकार ने प्रति बच्चे 2000 महीना रूपये मुकर्रर किये हैं. अब देश को सोचना ये है, जहां आये दिन क़र्ज़ माफ़ हो रहे हैं, कॉर्पोरेट सेक्टर्स को रिलीफ़ पैकेज दिए जा रहे हैं, इन बच्चो के लिए सरकार क्या कर रही है.
क्या कोई ऐसा है जो इन बच्चों की सुध ले. कोर्ट से तो उम्मीद की जा सकती है. पर गोगोई साहब भी शायद प्रश्न पूछकर भूल गए थे. उन्होंने तो प्रेस कांफ्रेंस कर इस बात का मलाल था ज़ाहिर किया था कि अहम केसेस तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा अपने पास रख लेते हैं और बाक़ियों तो बस छाछ मिल रही है. उसके बाद वो मुख्य न्यायाधीश बने पर उन्होंने क्या किया? उन्हें भी बाबरी मस्जिद, रफ़ाल आदि अहम् मुद्दे लगे. वरना क्या बात थी कि अनाथ बच्चों के लिए दायर की गई जनहित याचिका पर सरकार से जवाब मांगा जाता और जवाब न मिलता? क़ानून की व्यवस्था में अहम केस जैसी कोई बात नहीं होती. अहम होता है न्याय और इन बच्चों को भी न्याय मिले. अगर सरकार को चिंता नहीं है, तो वही सरकार को दुबारा तलब करे और उन्हें न्याय दिलाये.
अमिताभ बच्चन की फ़िल्म ‘लावारिस’ का गाना था. ‘जिसका कोई नहीं, उसका तो ख़ुदा है यारों’. ये बच्चे भी ख़ुदा के ही हवाले हैं. जस्टिस गोगोई ने अमरत्व प्राप्त करने के लिए राम मंदिर और राफ़ेल को चुना. क्या बोबड़े साहब का यश अनाथ बच्चों के लिए कोई मुकम्मल राह निकलवा कर अमरता को हासिल होगा?
Also Read
-
Exclusive: India’s e-waste mirage, ‘crores in corporate fraud’ amid govt lapses, public suffering
-
4 years, 170 collapses, 202 deaths: What’s ailing India’s bridges?
-
‘Grandfather served with war hero Abdul Hameed’, but family ‘termed Bangladeshi’ by Hindutva mob, cops
-
India’s dementia emergency: 9 million cases, set to double by 2036, but systems unprepared
-
‘My son was chased, hacked in front of me’: Dalit man’s family demands arrest of cops in caste killing