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भोपाल गैस त्रासदी: क्या हम इस हादसे से कुछ सीख पाए?
दुनिया के सबसे बड़े रासायनिक हादसों में शामिल भोपाल गैस त्रासदी को 35 वर्ष हो चुके हैं और जानलेवा मिथाइल आइसोसाइनेट (एमआईसी) गैस का प्रयोग अभी तक देश में प्रतिबंधित नहीं है.
2 से 3 दिसंबर, 1984 की मध्य रात्रि को बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन (यूसीसी-अब डाउ केमिकल्स का स्वामित्व) के भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड प्लांट (यूसीआईएल) में मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का रिसाव हुआ था और कुछ ही देर में पांच हजार से ज्यादा लोगों की जीवनलीला समाप्त हो गई. जो अभिशप्त जीवन के लिए बच गए वो अब तक मुआवजों के लिए भटक रहे हैं. क्या हम इस हादसे से कुछ सीख पाए हैं, तथ्यों की पड़ताल बताती है कि असल में हम अभी किसी और हादसे के इंतजार में हैं.
देश में रसायनों का प्रयोग बढ़ता ही जा रहा है. इनमें एमआईसी जैसे खतरनाक रसायन भी शामिल हैं. मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का इस्तेमाल कार्बारिल कीटनाशक और पॉलियूरेथेन्स (एक प्रकार का प्लास्टिक) बनाने के लिए किया जा सकता है. यूसीसी की औद्योगिक इकाई भोपाल में एमसीआई गैस का इंटरमीडिएट रसायन के तौर पर इस्तेमाल कर कार्बारिल सेविन नाम से कीटनाशक तैयार करती थी. यह चौंकाने वाला भी हो सकता है कि इस कीटनाशक को देश में 8 अगस्त, 2018 से प्रतिबंधित किया गया है.
एमसीआई जैसे बेहद खतरनाक रसायनों का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों को अनिवार्यलाइसेंस देने वाले उद्योग संवर्धन और आंतरिक व्यापार विभाग (डीआईपीपी) के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया है कि अभी इसके विनियमन (रेग्युलेशन) को लेकररसायन एवं पेट्रो रसायन विभाग काम कर रहा है.
भोपाल गैस त्रासदी के बाद से सक्रिय कार्यकर्ता सतीनाथ सारंगी कहते हैं, “मिथाइल आइसोसाइनेट को कभी प्रतिबंधित नहीं किया गया. यहां तक कि उसके उत्पादन में वसूली जाने वाली लेवी को भी घटा दिया गया. उन्होंने बताया कि यूनियन कार्बाइड का स्वामित्व हासिल करने वाली डाउ केमिकल्स अभी पॉलीयूरेथेन को भारत में ला रही है. यह जलने के बाद मिथाइल आइसोसाइनेट पैदा करती है. इतने बड़े औद्योगिक हादसे के बाद भी सरकारें जाग नहीं पाई हैं.”
एसोचैम इंडिया की रिपोर्ट रीसर्जेंट 2015 के मुताबिक भारत में कुल 70 हजार रसायन बनाने वाली छोटी-बड़ी औद्योगिक ईकाइयां हैं और 70 हजार से भी ज्यादा रसायन उत्पाद यहां बनाए जा रहे हैं. देश में सबसे ज्यादा 69 फीसदी क्षारीय रसायन निर्मित किए जा रहे हैं जबकि पेट्रो रसायनों में 59 फीसदी बहुलक (पॉलीमर) का उत्पादन होता है. वहीं देश में स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन इंटरनेशनल हेल्थ रेग्युलेशन एट प्वाइंट ऑफ इंट्रीज इंडिया के मुताबिक देश में 25 राज्यों और 3 संघ शासित प्रदेशों के 301 जिलों में 1,861 प्रमुख दुर्घटना वाली खतरनाक औद्योगिक इकाइयां मौजूद हैं. साथ ही असंगठित क्षेत्र में तीन हजार से ज्यादा खतरनाक फैक्ट्री मौजूद हैं. इनका कोई विनियमन नहीं है.
मिथाइल आइसोसाइनेट या अन्य समकक्ष खतरनाक रसायनों को लेकर तीन से अधिक केंद्रीय मंत्रालय की अलग-अलग भूमिकाएं हैं. इनमें केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय, केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, वाणिज्य मंत्रालय और कृषि मंत्रालय शामिल हैं. इसलिए किसी एक मंत्रालय पर न ही पूरी जिम्मेदारी है और न ही एक मंत्रालय किसी तरह का निर्णय लेने में सक्षम है. टॉक्सिक लिंक के पीयूष मोहपात्रा इस बिंदु पर कहते हैं “रसायनों के प्रबंधन को लेकर मंत्रालयों की अलग-अलग भूमिका तर्कपूर्ण नहीं है बल्कि यह चिंताजनक है. यूरोपियन यूनियन में रसायनों के नियंत्रण के लिए पंजीकरण, आकलन, वैधता और प्रतिबंध (आरईएसीएच) जैसा विनियमन है लेकिन भारत में रसायन एक व्यवसाय है और उस पर कोई विनियमन नहीं किया गया है.” वहीं, विनियमन के सवाल पर रसायन एवं पेट्रो विभाग में निदेशक धर्मेंद्र कुमार मदान ने डाउन टू अर्थ से कहा कि खतरनाक रसायनों के रेग्युलेशन को लेकर जरूरी कदम उठाए जा रहे हैं. इस साधारण कथन से जानकार इत्तेफाक नहीं रखते.
इन चिंताओं से हटकर सुस्त अर्थव्यवस्था में भी भारतीय रसायन उद्योग काफी उत्साहित है. केंद्र सरकार मेक इन इंडिया के जाम पहिए में रसायन उद्योग से ही ग्रीस डलवाना चाहती है. दरअसल, भारत दुनिया में रसायन उत्पादन के मामले में छठवें स्थान पर और कृषि रसायनों के मामले में चौथे स्थान पर है. 2017-18 के दौरान देश में कुल 4.90 करोड़ टन रसायन और पेट्रोरसायन का उत्पादन किया गया है. वहीं, रसायन निर्माण हब के लिए निवेश की चाह में सरकार और भारतीय रसायन उद्योग की ओर से 12 नवंबर, 2019 को महाराष्ट्र के मुंबई में एक सम्मेलन आयोजित किया गया था. इस सम्मेलन में पेट्रोलियम, केमिकल्स, पेट्रोकेमिकल्स इन्वेस्टमेंट क्षेत्र (पीसीपीआईआर) के पुनरुद्धार की अध्ययन रिपोर्ट भी जारी की गई. रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात में दहेज, आंध्र प्रदेश में विशाखापत्तनम, ओडिशा में पारादीप, तमिलनाडु में कुड्डलोर को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाया जाना है. रिपोर्ट में बताया गया कि यह चारों स्थान इसलिए हब नहीं बन पाए क्योंकि निवेश नहीं था, सरंचना की कमी थी, भूमि अधिग्रहण का मुद्दा था और बहुत सीमित योजना थी. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में रसायन उद्योग का आकार 2025 तक मौजूदा 163 अरब डॉलर से बढ़कर 304 अरब डॉलर हो जाएगा. वहीं, सम्मेलन में सरकार की ओर से कहा गया कि दुनिया में अगला पेट्रोकेमिकल हब बनाने के लिए जल्द ही नीति भी लाई जा सकती है. जबकि देश में 2012 से लंबित राष्ट्रीय रसायन नीति पर अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका है.
टॉक्सिक लिंक के पीयूष मोहपात्रा बताते हैं कि यह नीति भी उद्योग के ही बारे में है. रसायनों के प्रबंधन और उनके खतरे की सूची व श्रेणी को लेकर इसमें कुछ भी नहीं है. भारत में 1992 के निजीकरण से पहले और भोपाल गैस त्रासदी के बाद काफी सख्ती थी. लेकिन निवेश के लिए उद्योगों को ढ़ील देने की शुरुआत हुई. अंतरराष्ट्रीय कानूनों में साझेदारी के बाद भी अमल नहीं हो रहा. अब महत्वपूर्ण बात यह है कि रसायन प्रंबधन और उनके विनियमन की बात 2020 के बाद की जा रही है, जिसकी सख्त जरूरत अभी है.
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने हाल ही में एक बार फिर से उद्योगों के स्व-विनियमन (सेल्फ रेग्यूलेशन) की बात दोहराई है. टॉक्सिक वॉच एलाइंस (टीडब्ल्यूए) के गोपाल कृष्ण इसे पूरी तरह सही नहीं मानते. उनका कहना है कि निरीक्षण व्यवस्था को उद्योगों के रास्ते का रोड़ा नहीं समझा जाना चाहिए. ऑनलाइन मॉनिटरिंग के साथ अधिकारियों को औद्योगिक परिसर के भीतर-बाहर खुद जाकर जांच रिकॉर्ड को भी देखना चाहिए. जानलेवा रसायनों की जांच-परख करते रहना बेहद जरूरी है.
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण विभाग के मुताबिक बीते तीन वर्ष (2015 से 2017) के दौरान रासायनिक दुर्घटनाओं के कारण घायल होने वालों की संख्या में 279 फीसदी की वृद्धि हुई है. 2015-16 में 64 रासायनिक दुर्घटनाओं में 192 लोग घायल हुए थे. वहीं, 66 लोगों की मृत्यु हुई थी, जबकि 2017-18 में महज 31 दुर्घटनाओं में 728 लोग घायल हुए हैं और 39 लोगों की जान गई है. भोपाल त्रासदी के बाद भी छोटी और बड़ी दोनों तरह की रासायनिक दुर्घटनाएं इस देश में जारी हैं. इसी वर्ष जून में आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में बालाजी केमिकल्स फैक्ट्री में सुरक्षा मानकों का पालन न किए जाने से जबरदस्त दुर्घटना हुई. यह फार्मा केमिकल्स यूनिट है. एक निश्चित अंतराल पर यहां दुर्घटनाएं होती रहती हैं. वहीं, विभिन्न राज्यों के दुर्घटनाओं पर नजर रखने वाले चीफ इंस्पेक्टर ऑफ फैक्ट्रीज के आंकड़े भी अपडेट नहीं किए जाते. यह पाया गया कि विभिन्न राज्यों में होने वाली प्रमुख रासायनिक दुर्घटनाएं काफी कम रिपोर्ट होती हैं.
2001 से 2019 तक के आंकड़ों की पड़ताल करने पर कुल 28 प्रमुख दुर्घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज मिलीं. इन घटनाओं में 47 लोग परिसर में मरे और 12 लापता हैं. दुर्घटना वाले राज्यों में तेलंगाना, गुजरात और उत्तर प्रदेश शामिल हैं. 2015 में एसिटिक एनहिड्राइड रसायन के रिसाव से गल्फ ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड में परिसर के भीतर 6 लोगों की जान गई. एसिटिक एन्हिड्राइड कई देशों में प्रतिबंधित है, इस रसायन को नशे में इस्तेमाल होने वाली हिरोइन तैयार करने में भी होता है. ऐसे ही ऑक्सीजन लिक्विड के रिसाव, अमोनिया, टॉल्यून आदि खतरनाक रसायनों के कारण होने वाली सैकड़ों दुर्घटनाएं दर्ज हैं. फैक्ट्री परिसर के भीतर की घटना फैक्ट्री के इंस्पेक्टर देखते हैं जबकि बाहर की घटना के लिए राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) जिम्मेदार होती है. ऐसे में कार्रवाई का भी विरोधाभास बना रहता है.
खतरनाक रसायनों को चरणबद्ध हटाने और विनियमन के सवाल पर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक 350 से भी अधिक रासायनिक यौगिक भारतीय फैक्ट्रियों की इंवेटरी में हर वर्ष जुड़ जाती हैं, जबकि वैश्विक जांच सुविधाएं वर्ष भर में 500 से अधिक रसायनों की स्कैनिंग नहीं कर पाती हैं. वहीं, पश्चिम में खतरनाक पदार्थों के लिए कानून कड़े हो रहे हैं जबकि विकासशील देशों में आर्थिक वृद्धि के लिए कानून बेहद ढीले हैं.
टीडब्लूए के गोपाल कृष्ण बताते हैं कि रसायनों की जानकारी और उनके खतरे व श्रेणियों के आधार पर ऐसी सूची और इन्वेंटरी भारत में आज तक नहीं बनी है जिससे रसायनों के प्रतिबंध या विनियमन के बारे में कोई वैज्ञानिक निर्णय लिया जा सके. हम इस्तेमाल किए जाने वाले रसायनों के बारे में सही से जान रहे होते हैं. इसकी वजह यह है कि हमें रसायनों की स्थिति के बारे में ठीक से बताया नहीं जा रहा है. खतरनाक रसायनों को सूची में शामिल करने और हटाने का कोई स्पष्ट वैज्ञानिक आधार नहीं है. कभी खतरनाक रसायनों की सूची में शामिल होने वाला और कभी खतरनाक सूची से बाहर होने वाला एस्बस्टस ऐसा ही खतरनाक पदार्थ है. इसी कारण कई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित रसायन हमारे यहां इस्तेमाल हो रहे हैं.
देश में पहली बार रसायनों के प्रबंधन को लेकर विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने वाले केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व वैज्ञानिक डीडी बासु ने बताया “सिर्फ मिथाइल आइसोसाइनेट ही नहीं बल्कि क्लोरीन प्लांट भी काफी घातक है. इसका इस्तेमाल काफी ज्यादा है. ऐसा कोई रसायन नहीं है जिसके दुष्परिणाम न हों. अब बात सुरक्षित उत्पादन और इस्तेमाल व निस्तारण की है. आज छोटे उद्योगों के बजाए बड़े रासायनिक उद्योगों से ही खतरा है. इनमें रिफाइनरीज प्रमुख हैं. देश में रासायनिक दुर्घटनाओं की निगरानी और उनके रिकॉर्ड को दुरुस्त करने की कोई ठोस व्यवस्था अभी तक नहीं बन पाई है जबकि भोपाल गैस त्रासदी के बाद से 35 वर्षों में पर्यावरण और लोगों की सुरक्षा के लिए करीब 35 अधिनियम, नियम और गाइडलाइन तैयार किए गए लेकिन कोई कारगर साबित नहीं हो सका है. भोपाल त्रासदी से पहले रसायनों के आयात, निर्यात, वितरण और इस्तेमाल व नियंत्रण को लेकर कानून थे.”
देश में 329 खतरनाक कचरे की साइटें
देश में 30 से अधिक कानून हैं जो रसायनों के आयात-निर्यात, देश की सीमाओं के भीतर परिवहन और प्रबंधन की बात करते हैं लेकिन इसके बावजूद रासायनिक हादसे नहीं रुक रहे हैं और न ही रसायनों पर नियंत्रण और विनियमन के लिए कोई नीति ही बन रही है. औद्योगिक कचरों के खतरनाक रसायनों ने भी देश के विविध स्थानों पर अपना टीला जमा लिया है. देश में खतरनाक कचरे वाली साइटों पर जहरीले रसायनों का बसेरा बढ़ता चला गया है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने हाल ही में खतरनाक कचरे से संबंधित रिपोर्ट जारी की है. इसमें कहा गया है कि देश के 22 राज्यों में कुल 329 औद्योगिक साइट ऐसी हैं जिनमें खतरनाक और जानलेवा रसायन घुल-मिल गया है. इनमें सबसे पहले 134 साइट को चयनित किया गया है जिनमें करीब 124 साइट ऐसी हैं जहां क्रोमियम, लेड, मर्करी, आर्सेनिक, हाइड्रोकॉर्बन टॉल्यूयीन, भारी धातु, नाइट्रेट, फ्लोराइड, साइनाइड इनऑर्गेनिक सॉल्ट, डीडीटी, इंडोसल्फॉन जैसे खतरनाक रसायन की मौजूदगी है. इन जहरीली हो चुकी साइटों का अध्ययन केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने किया है. रिपोर्ट के मुताबिक अतिरिक्त 195 खतरनाक कचरे की साइट हैं जहां रसायनों की मौजूदगी संभावित है. इनमें भोपाल के यूनियन कार्बाइड के इर्द-गिर्द मौजूद सात साइट भी शामिल हैं. इनमें खतरनाक कीटनाशक ऑर्गेनोक्लोरीन, कार्बामेट, क्लोरीनेटेड बेंजीन, मर्करी, क्लोरोफॉर्म जैसे जहरीले रसायनों की उपस्थिति संभव है.
7,170,000 टन खतरनाक कचरा हर साल
सीपीसीबी के वैज्ञानिक अभय सिंह सोनी ने बताया कि 2015-2016 की हजार्डस वेस्ट इन्वेंटरी रिपोर्ट के मुताबिक देश में करीब 56,350 खतरनाक औद्योगिक कचरा पैदा करने वाली औद्योगिक इकाइयां हैं. इनसे 7,170,000 टन खतरनाक कचरा निकलता है. करीब 100,000 टन कचरे का निष्पादन नहीं हो पाता. देश के भीतर और बाहर से आने वाले कचरों का निस्तारण न होने के कारण न सिर्फ खतरनाक कचरा साइटों में बढ़ोत्तरी हो रही है बल्कि जहरीले रसायनों का रिसाव और फैलाव भी हो रहा है. देश में अब भी खतरनाक एसीफैट, ग्लाइफोसेट, फोरेट जैसे रसायनों का उत्पादन जारीहै. यदि इन्हें सीमित करने और चरणबद्ध तरीके से हटाने पर निर्णय न लिया गया तो कई स्थानभोपाल जैसे विस्फोटक बन गए हैं और हम सब उसी बारुद की ढेर पर बैठे हैं.
(लेख डाउन टू अर्थ की फीचर सेवा से साभार)
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