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झारखंड चुनाव: 2.5 करोड़ जंगलवासियों के वनभूमि अधिकार के मुद्दे पर भाजपा खामोश
झारखंड विधानसभा के चुनाव बीच प्रक्रिया में हैं. पहले चरण का मतदान हो चुका है. इस गरमाए हुए माहौल में अगर जंगल और ज़मीन से जुड़े मुद्दे पर चर्चा हो तो उसके परस्पर आदिवासियत की बात होती है. इन दोनों मुद्दों पर पर गुजरे एक साल में भारत भर में खूब आंदोलन, प्रदर्शन हुए हैं.
इसकी शुरुआत सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश से हुई जिसमें इसी साल 13 फरवरी को आदिवासियों और वनवासियों को वन भूमि से बेदखल करने की बात कही गई थी. सरकारी आकंड़ों के मुताबिक इन बेदखल होने वाले परिवारों की संख्या करीबन 12 लाख बताई गई, जिसमें 29 हजार परिवार झारखंड के शामिल हैं. इस बीच देश में आम चुनाव संपन्न हो गए. इसके बाद झारखंड में इस बड़े मुद्दों को लेकर आदिवासी समाज और उसके संग सिविल सोसायटी के लोग सक्रिय दिखने लगे. मई महीने के बाद से झारखंड में विरोध-प्रदर्शनों का सिलसिला देखने-सुनने को मिल रहा है.
लोकसभा चुनाव से पूर्व झारखंड वन अधिकार मंच और इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस (आईएसबी) हैदराबाद ने संयुक्त रूप से एक सर्वे रिपोर्ट जारी कर बताया था कि झारखंड के कुल 2 करोड़ 23 लाख 63,083 वोटरों में लगभग 77 लाख वो मतदाता हैं जो 2006 के वनाधिकार कानून के तहत वनभूमि के हकदार हैं.
चुनाव के मद्देनजर वनाधिकार कानून के लाभार्थियों ने मांग की कि वनभूमि पर इन लाभार्थी मतदाताओं को अधिकार दिलाने हेतु राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्र में इसे वादे के तौर पर दर्ज करें. तब झारखंड में यूपीए गठबंधन (झामुमो, कांग्रेस, झाविमो, राजद) ने इस मुद्दे को अपने घोषणा पत्र में जगह दी थी, लेकिन भाजपा ने नहीं. छह महीने बाद झारखंड में फिर से चुनावी (विधानसभा) माहौल है और भाजपा के घोषणा पत्र से वनभूमि के लाभार्थी आदिवासी व वनवासी का मुद्दा नदारद है.
18,82,429 हेक्टेयर वनभूमि पर पट्टे का दावा
इधर चुनाव से दो महीना कबल झारखंड वन अधिकार मंच और आईएसबी हैदराबाद ने झारखंड विधानसभा की क्षेत्रवार नयी सर्वे रिपोर्ट जारी की है. इस रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड की 81 विधानसभा सीटों से 14,850 गांव जंगल से सटे हैं. इन क्षेत्रों में 73,96,873.21 हेक्टेयर जंगल हैं. इसमें 18,82,429.02 हेक्टेयर वनभूमि वैसी है जिस पर पट्टे के लिए सामुदायिक एवं व्यक्तिगत दावे हो सकते हैं.
झारखंड जंगलों से घिरा हुआ राज्य है. इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट सर्वे-2017 की रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड में 23,553 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में जंगल है. वहीं 2011 की जनगणना रिपोर्ट कहती है कि झारखंड में 26 प्रतिशत आदिवासी (लगभग 80 लाख, अनुसूचित जनजाति) जनसंख्या है. इनमें से 80 फीसदी आबादी जंगलों के भीतर निवास करती है. लेकिन झारखंड सरकार के आकंड़ों में वनभूमि के हकदार लोगों की संख्या एक लाख भी नहीं है. वन अधिकार अधिनियम-2006 के तहत वन पट्टा के लिए अनुसूचित जनजातियों के करीबन एक लाख 8 हजार आवेदन आए, जिसमें से लगभग 80 हजार लोगों को ही वन पट्टा जारी हुआ. इसी तरह गैर-आदिवासियों के कुल 3,569 आवेदन में से 298 रद्द कर दिए गए.
फॉरेस्ट राइट एक्ट (एफआरए) पर लंबे समय से काम करने वाले ‘झारखंड वन अधिकार मंच’ के संयोजक सुधीर पाल सरकारी आंकड़ों से इत्तेफाक नहीं रखते हैं. इनके मुताबिक झारखंड में लगभग 70-75 लाख लोग एफआरए एक्ट-2006 के तहत वनभूमि के लाभार्थी हैं. इसे परिवार में देखें तो 15 लाख ऐसे परिवार हैं जो जंगलों पर आश्रित हैं.
सुधीर यह भी कहते हैं, “सरकारी आंकड़ों में आवेदन इतने कम क्यों हैं, इसे समझने की जरूरत है. वन विभाग के पास पट्टे के लिए जो आवेदन आएं, उसमें से जो अस्वीकृत आवेदन हुए उसे वन विभाग ने पेंडिंग नहीं माना. उसे विभाग ने वापस कर दिया और कहा कि हमारे पास इतने ही आवेदन आए.”
इस बाबत सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि वनों पर अधिकार को लेकर पट्टे के दावे खारिज करते समय तय प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया. कोर्ट के अनुसार नौ ऐसे राज्य हैं जिन्होंने तय प्रक्रिया का पालन नहीं किया.
जंगलों में बसे हैं 2.5 करोड़ लोग
सर्वे रिपोर्ट को झारखंड के पांच प्रमंडलों में वर्गीकृत किया गया. इसे 2011 की जनगणना, चुनाव आयोग के प्रोजेक्टेड पापुलेशन और जंगलों के अधिकार को लेकर काम करने वाली संस्था झारखंड वन अधिकार मंच, की कवरेज रिपोर्ट के आधार पर तैयार किया गया. सर्वे के मुताबिक जंगलों से सटे गांव में रहने वाले लोगों की संख्या 2,53,64,129 है. जबकि ऐसे परिवारों की संख्या करीब 47 लाख है. इनमें से 75 लाख के करीब आबादी अनुसूचित जनजाति और 30 लाख आबादी अनुसूचित जाति की है.
संथाल प्रंडल: 18 सीटों में से 7 एसटी और एक एससी के लिए रिजर्व है. जंगल वाले 3,393 गांव, कुल संख्या 62,41,987, परिवार 12,20,132. एफआरए 2006 कानून के तहत 1,12,885 हेक्टेयर वनभूमि पर हो सकता है दावा.
उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल: 25 सीटों में से 4 एससी के लिए रिजर्व हैं. जंगल वाले 4,690 गांव, कुल संख्या 78,74,579, परिवार 13,75,810. एफआरए 2006 कानून के तहत 6,70,636 हेक्टेयर वनभूमि पर हो सकता है दावा.
कोल्हान प्रमंडलः 14 सीटों में से 9 एसटी और एक एससी के लिए रिजर्व हैं. जंगल वाले 2,471 गांव, कुल संख्या 36,10,367, परिवार 6,35,123. एफआरए 2006 कानून के तहत 2,33,499 हेक्टेयर वनभूमि पर हो सकता है दावा.
दक्षिणी छोटानागपुर प्रमंडलः 15 सीटों में से 11 एसटी और एक एससी के लिए रिजर्व हैं. जंगल वाले 2,486 गांव, कुल संख्या 40,21,197, परिवार 7,76,532. एफआरए 2006 कानून के तहत 4,04,220 हेक्टेयर वनभूमि पर हो सकता है दावा.
पलामू प्रमंडलः 9 सीट में से 2 एसटी और एक एससी के लिए रिजर्व हैं. जंगल वाले 2009, कुल संख्या 36,15,999, परिवार 6,78,638. एफआरए 2006 कानून के तहत 4,61,512 हेक्टेयर वनभूमि पर हो सकता है दावा
भाजपा को छोड़ सभी के घोषणा पत्र में है वन-अधिकार का मुद्दा
गठबंधन के नजारिए से झारखंड में इस बार विधानसभा चुनाव पिछले लोकसभा और विधानसभा से अलग है. यूपीए (कांग्रेस, झामुमो, राजद) गठबंधन से झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) और एनडीए से ‘ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन’ (आजसू) अलग होकर चुनाव लड़ रहे हैं. इधर कांग्रेस और उसके सहयोगी दल झामुमो के अलावा झाविमो और आजसू ने भी अपना-अपना घोषणा पत्र जारी कर दिया है. आखिरी में 27 नवंबर को भाजपा का घोषणा पत्र आया है.
घोषणा पत्रों में, झारखंड मुक्ति मोर्चा ने वन-अधिकार कानून को सख्ती से लागू करने और वनों पर आदिवासी व वनवासियों को अधिकार दिलाने का वादा किया है. पार्टी के महासचिव विनोद कुमार पांडेय ने कहा, “जंगलों से बेदखली किए जाने वाले आदेश का झामुमो ने सदन से सड़क तक विरोध किया है. आदिवासियों और वनवासियों का जंगलों पर अधिकार जायज है. झामुमो जल, जंगल, ज़मीन की लड़ाई लड़ता आया है और पार्टी का जन्म ही इस मुद्दे को लेकर हुआ.”
झाविमो और आजसू ने भी अपने घोषणा पत्र में वन-अधिकार कानून का सख्ती से पालन और वनक्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी और वनवासियों को वनभूमि पर अधिकार दिलाने हेतु वादे किए हैं. कांग्रेस ने भी लाभार्थियों को वन पट्टा दिलाने की बात कही है. कांग्रेस इकाई के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष राजेश ठाकुर ने वनवासियों का मुद्दा पार्टी का मूल मुद्दा बताया.
राजेश कहते हैं, “सबसे पहले वन-अधिकार कानून को सख्ती से लागू करेंगे. एनजीओ के साथ मिलकर वन पट्टा के लिए गांव-गांव में अभियान चलाएंगे ताकि ज्यादा से ज्यादा वन पट्टा के आवेदन आएं.” राजनीतिक दलों के द्वारा किए गए ये वो वादे हैं जो झारखंड विधानसभा चुनाव के मद्देनजर घोषणा पत्र में दर्ज हैं. लेकिन इस तरह की कोई भी बात भाजपा के 68 पन्नों के घोषणा पत्र में दिखाई नहीं देती है.
भाजपा का पक्ष
जब घोषणा पत्र के बाबत पक्ष जानने के लिए झारखंड भाजपा ईकाई के नेताओं से संपर्क किया तो वे कन्नी काटते नजर आए. वनवासियों के मुद्दे को घोषणा पत्र में शामिल नहीं किए जाने के सवाल पर प्रदेश भाजपा के महामंत्री दीपक प्रकाश ने कोई साफ जवाब देने की बजाय सिर्फ इतना ही कहा, “विपक्ष सिर्फ घोषणा करता है भाजपा ट्राइबल के लिए काम करने वाली पार्टी है.” आगे उन्होंने ये कहते हुए बात करने से इनकार कर दिया कि वो एक मीटिंग में शामिल होने जा रहे हैं इसलिए समय नहीं दे पाएंगे.
भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता दीनदयाल वर्नवाल ने कहा कि वो इस मुद्दे पर सोच-समझ कर बयान देंगे और उन्होंने आधे घंटे बाद फोन करने का आग्रह किया. लेकिन बाद में उन्होंने कई बार कॉल करने पर भी रिवीव नहीं किया.
इसी सवाल के जवाब में प्रदेश भाजपा मीडिया प्रभारी शिवपूजन पाठक कहते हैं, “वनवासियों के संबंध सरकार कई कल्याणकारी योजना चला रही है. पट्टे को लेकर क्या बात है घोषणा पत्र में मैं देख कर तुरंत बताता हूं.” पर बाद में कॉल करने पर इन्होंने भी रिसीव नहीं किया. इसी तरह भाजपा प्रदेश प्रवक्ता प्रतुल शाहदेव ने भी बयान देने से मना कर दिया.
झारखंड विधानसभा चुनाव पांच चरण में सपन्न होने हैं. पहले चरण में 13 सीटों के लिए 30 नवंबर को मतदान हो चुका है.
62 सीट पर है वन-अधिकार मतदाताओं का प्रभाव
झारखंड की 81 सीटों में से 28 एसटी और 08 एससी वरिगों के लिए सुरक्षित हैं. भले ही वनाधिकार कानून को 2006 में कांग्रेस ने पारित किया लेकिन 2014 के झारखंड विधानसभा चुनाव में कांग्रेस एसटी के लिए रिजर्व सीटों से एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा को एसटी की 13 और भाजपा को 11 सीटें मिली थीं.
वनाधिकार का मुद्दा मतदाताओं और राजनीतिक दलों के बीच कितना बड़ा मुद्दा बनेगा?
इस सवाल के जवाब में झारखंड वन-अधिकार मंच के संयोजक सुधीर पाल कहते हैं, “राजनीतिक दल भावनात्मक मुद्दे पर जो एजेंडा बना रहे हैं, वो ज़मीनी मुद्दा नहीं है. लोगों की वाजिब समस्या हैं उनकी जमीन, उनका जंगल से जुड़ाव. झारखंड में यही प्रमुख मुद्दा है. जंगल और उस पर अधिकार आदिवासी और वनवासियों के लिए मूल मुद्दा है. झारखंड की 62 सीटें ऐसी हैं जहां के मतदाता जंगलों पर निर्भर हैं. इसमें 10 ऐसी सीट ऐसी हैं जहां एक लाख से अधिक आदिवासी वोटर हैं जो जंगल पर ही निर्भर हैं. वहीं 26-26 ऐसी है जहां 50 हजार से एक लाख के बीच और 10 हजार से 50 हजार के बीच आदिवासी मतदाता है, जो जंगलों पर निर्भर हैं.”
झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन (जेजेबीए) के संस्थापक प्रो संजय बसु मल्लिक का मानना है कि घोषणा पत्र में आदिवासी व वनवासियों को जंगलों पर अधिकार दिलाने की बात नहीं करना, चुनाव में खामियाजा भुगतने जैसा है.
प्रो संजय बसु मल्लिक आगे कहते हैं, “भाजपा का मुद्दा अलग है. इनके लिए राम मंदिर, एनआरसी, राष्ट्रवाद मुद्दा है. उसमें जंगल, आदिवासी, वनवासी कहां दिखेगा.” वो यह भी कहते हैं कि इस बार विधानसभा चुनाव में वन-अधिकार का मुद्दा आदिवासियों के लिए प्रमुख मुद्दा है.
बेदखली वाले आदेश की वर्तमान स्थिति
सरकारी आकंड़ों के अनुसार देश के करीबन 12 लाख आदिवासियों और वनवासियों को सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी, 2019 को वनभूमि से बेदखल करने का आदेश दिया था. इस आदेश के बाद देशव्यापी विरोध प्रदर्शन को देखते हुए केंद्र सरकार कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया. इस पर 28 फरवरी, 2019 को सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आदेश पर 24 जुलाई, 2019 तक के लिए रोक लगा दी. साथ ही सभी राज्यों को निर्देश दिया कि वनभूमि पर आए दावों की निर्णय प्रक्रिया के तौर तरीके का खुलासा करते हुए हलफनामा दायर करें.
6 अगस्त को हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नौ राज्यों ने आदिवासियों के दावे को खारिज करते समय तय प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया है, इस बाबत छह सितंबर को तक राज्यों को जवाब देने का निर्देश दिया. हालांकि कोर्ट की सुनवाई में यह स्पष्ट नहीं हुआ कि वे कौन से राज्य हैं जिन्होंने तय प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया.
14 सितंबर को हुई सुनवाई में कोर्ट ने साफ कहा कि कहा कि आदिवासी, जो वास्तविक वनवासी हैं उन्हें संरक्षित किया जाना चाहिए और बेदखली का आदेश केवल वनभूमि के शहरी अतिक्रमणकारियों के खिलाफ दिया जाना चाहिए. इस बाबत 28 नवंबर को भी सुनवाई हुई.
झारखंड में आदिवासियों के लिए जंगलों का मुद्दा कितना महत्पूर्ण है, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि झारखंड विधानसभा चुनाव के प्रथम चरण के नामांकन से ठीक पहले केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने वन अधिनियम 1927 में संशोधन से जुड़े प्रस्ताव को वापस ले लिया था. इसे झारखंड के चुनाव से जुड़ा कदम माना जा रहा है.
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