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“अपनी शर्तों पर” जीने वाले शरद पवार का एक और किस्सा
चाय के प्यालों में विद्रोह
महाराष्ट्र कांग्रेस के कुछ नामी नेताओं ने हमारे खिलाफ 1990 में विद्रोह का झंडा उठाया. विलासराव देशमुख, रामराव आदिक, सरूपसिंह नाइक, शिवाजी राव देशमुख, जवाहरलाल दरदा और जावेद खान जैसे हमारे मंत्रिमंडल के सहयोगियों सहित महाराष्ट्र कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सुशील कुमार शिंदे, शंकरराव (एसबी) चव्हाण, विट्ठल राव गाडगिल और एआर अन्तुले भी इन विद्रोहियों की पंक्ति में खड़े हो गए. कुछ दिन पूर्व ही सुशील कुमार शिंदे ने हमेशा मेरे साथ रहने की सार्वजनिक घोषणा की थी और कहा था कि कितना भी विरोध हो परन्तु वह हमारे पक्ष में ही खड़े रहेंगे.
विरोधियों ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा कि मेरे मुख्यमंत्री बने रहने से राज्य में कांग्रेस को हानि होगी. इसलिए वह मेरे साथ काम नहीं कर सकते, और उन्होंने तत्काल मेरे इस्तीफे की मांग की. इन विद्रोहियों से मुझे थोड़ी-सी भी परेशानी नहीं थी, यह सब कार्यवाही दिल्ली के ‘सर्वोच्च नेतृत्व’ के निर्देशन पर हो रही थी और इन विरोधियों को राज्य की कांग्रेस इकाई का न्यूनतम समर्थन भी हासिल नहीं था.
अन्त में यह निर्णय हुआ कि इस विवाद का हल राज्य विधानसभा कांग्रेस कमेटी की मीटिंग में निकाला जाए. जीके मूपनार और गुलाम नबी आजाद इस मीटिंग में केन्द्रीय पर्यवेक्षक के रूप में भागीदारी करने दिल्ली से आए. कांग्रेस विधायकों को पहले ही सूचित कर दिया गया था कि ‘पार्टी हाईकमान’ नेतृत्व में परिवर्तन चाहता है. पर्यवेक्षकों ने नेतृत्व परिवर्तन के मुद्दे पर मत विभाजन कराने के बजाय ‘विधायकों का आम विचार’ समझने के लिए एक-एक से अलग-अलग बात करने का निर्णय लिया.
पार्टी हाई कमांड द्वारा असुविधाजनक स्थिति पैदा करने वाले बहुमत का मुंह बन्द करने और अपनी बात स्थापित करने के लिए यही तरीका इस्तेमाल किया जाता था. अधिकांश विधायकों ने यह स्पष्ट कर दिया कि बगैर समुचित वोटिंग के वह किसी भी थोपे गए फैसले को नहीं मानेंगे. जब शाम को इस विषय पर वोटिंग द्वारा मत विभाजन हुआ तो करीब 190 विधायक/एमएलसी हमारे पक्ष में थे जबकि करीब 20 विधायक नेतृत्व परिवर्तन के पक्ष में थे.
1991 में मेरे बाद मुख्यमंत्री चुने गए सुधाकर राव नाइक ने मेरे पक्ष में विधायकों की गोलबन्दी में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. पार्टी के विधायकों के अतिरिक्त मुझे व्यापक जनता से जमीनी समर्थन भी प्राप्त था. विधायकों की उक्त बैठक का परिणाम जानने के लिए, मीटिंग-स्थल पर भारी संख्या में पार्टी कार्यकर्ता भी उपस्थित थे. जैसे ही निर्णय की घोषणा हुई, वैसे ही कार्यकर्ताओं में खुशी की लहर दौड़ गई और पूरा वातावरण नारों से गूंज उठा, परन्तु विद्रोही गुट के खिलाफ लोगों में गुस्सा भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था.
कोई अप्रिय घटना न हो, इसलिए विरोधी नेताओं को पुलिस सुरक्षा में उनकी कारों तक पहुंचाया गया. मूपनार और आजाद ने दिल्ली जाकर हाईकमान को मुझे प्राप्त विधायकों और कार्यकर्ताओं के व्यापक समर्थन की सूचना दी. इसके बाद दिल्ली से एमएल फोतेदार का फोन आया कि राजीव गांधी मुझसे मिलना चाहते हैं. यह वास्तव में एक रुचिकर वाद-विवाद था.
मैंने जैसे ही राजीव गांधी के कमरे में प्रवेश किया, राजीव ने व्यंग्यात्मक भाव से पूछा, ‘तो क्या हो रहा है?’
‘आप हमसे अच्छा जानते हैं, ‘मैंने उत्तर दिया. ‘आपके निर्देशानुसार मुम्बई में सभी ने पूरी कुशलता से काम किया, परन्तु दुर्भाग्यवश वह समुचित समर्थन नहीं जुटा सके.’
राजीव के पास इस परिघटना में अपने शामिल होने को स्वीकारने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं था. हालांकि बड़े कुटिल तरीके से स्वीकारते हुए उन्होंने कहा, ‘नहीं, नहीं, वहां कुछ गलत हुआ है. मैंने उनसे वृक्ष को मात्र हिलाने को कहा था, उसे जड़ से उखाड़ने को नहीं कहा था.’
इस विषय पर अधिक चर्चा किए बगैर हम लोग अगले विषय पर चर्चा करने लगे. एक निर्णय मैंने कर लिया था कि सुशील कुमार शिंदे को प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर नहीं रहने दूंगा. राजीव इस बात पर सहमत नहीं हुए क्योंकि शिंदे को पद से हटाने का अर्थ हाई कमांड की कमजोरी प्रमाणित होना था. मैं भी इस विषय को छोड़ने वाला नहीं था; मैंने प्रश्न किया, ‘जब पार्टी की राज्य कमेटी का प्रेसीडेंट ही प्रेस कॉन्फ्रेंस कर मुख्यमंत्री को इस्तीफा देने और हटाने की मांग करे तो इसे कैसे बर्दाश्त कर सकता हूं?’
गरमा-गरम बहस के बाद तय हुआ कि शिंदे को हमारे मंत्रिमंडल में स्थान दिया जाएगा और शिवाजीराव नीलांगेकर को महाराष्ट्र कांग्रेस कमेटी का प्रेसीडेंट नियुक्त किया जाएगा. महाराष्ट्र सरकार के मंत्रिमंडल के पुनर्गठन के समय मैंने राजीव गांधी से कहा, ‘मैं विद्रोही मंत्रियों को मंत्रिमंडल में नहीं रखूंगा. इनको दंडित न करने से राज्य में एक गलत सन्देश जाएगा और यह राज्य के पार्टी संगठन के हित में न होगा.’
राजीव हमारे इस विचार से असहमत थे और परेशानी महसूस कर रहे थे तथा उन विद्रोही मंत्रियों को मंत्रिमंडल में शामिल करवाना चाहते थे. कुछ समय तक हम लोगों के बीच बहस हुई और अन्त में मैंने कहा, ‘मैं आपकी परेशानी समझता हूं.’
उन्होंने पूछा, ‘मेरी परेशानी क्या है?’
मैंने उत्तर दिया, ‘आपके कहने पर उन्होंने विद्रोह किया, आप उनको कैसे छोड़ सकते हैं?’ कुछ समय तक कटुतापूर्ण शान्ति रही फिर राजीव गांधी ने कहा, ‘ठीक है, जो बीत गया, वह बीत गया. आओ, अब आगे बढ़ें.’
मैंने इसे प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाया क्योंकि मुझे मालूम था कि इन विद्रोही मंत्रियों पर आरोप लगाने का कोई अर्थ नहीं है. उन्होंने केवल आज्ञा का पालन किया है. उनसे जो करने को कहा गया, उन्होंने वही किया. उनको पुन: मंत्रिमंडल में लेने के विषय में मैंने कहा कि मैं अपनी इच्छानुसार उनके विभाग परिवर्तित करूंगा. राजीव गांधी ने इसे स्वीकार किया और हम लोगों की मीटिंग समाप्त हुई.
कुछ दिनों के बाद सुशील कुमार शिंदे और विलासराव देशमुख मुझसे मिलने आए. वे एक प्रायश्चितपूर्ण मुद्रा में थे और उन्होंने बड़े ही विनम्र भाव से, एक दब्बू व्यक्ति की तरह, स्वीकार किया, ‘हम कभी ऐसी घटना नहीं दोहराएंगे.’
मैंने तुरन्त ही सम्पूर्ण घटनाक्रम पर परदा डाल दिया. व्यक्तिगत रूप से विलासराव और मेरे बहुत मधुर सम्बन्ध थे. हम लोगों ने एक साथ राजनीति और क्रिकेट में काफी समय साथ-साथ काम किया था और हम लोगों के घनिष्ठ पारिवारिक संबंध भी थे. मैंने राजनीतिक जीवन में किसी से कभी व्यक्तिगत शत्रुता नहीं मानी और तमाम मतभिन्नता रखनेवालों के साथ भी हमारे अच्छे सम्बन्ध रहे.
किताब : अपनी शर्तों पर : ज़मीनी हकीक़त से सत्ता के गलियारों तक
लेखक : शरद पवार
प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
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