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टीएन शेषन: जब देश को उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी

“ई शेषनवा चुनाव करवा रहा है या कुंभ?” 1995 में बिहार में विधानसभा चुनाव के दौरान बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने झुंझलाहट में बात कही थी. लालू यादव तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त तिरुनेल्लई नारायण अय्यर शेषन द्वारा चुनावों को चार चरणों में कराये जाने को लेकर और उसके बाद प्रशासनिक और सुरक्षा तैयारियों के मद्देनज़र मतदान की तारीखों फेरबदल किये जाने को लेकर नाराज़ थे. चरणबद्ध चुनाव 90 के दशक में बिलकुल नया कदम था. इसके बाद से उस राज्य में, जहां बड़े पैमाने पर बाहुबल का प्रयोग कर “बूथ कैप्चरिंग” को अंजाम दिया जाता था, वहां चुनाव प्रशासन पहले जैसा नहीं रहा.

चार साल पहले, 1991 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान, शेषन ने इस बात पर जोर दिया था कि पूरी चुनाव प्रक्रिया के दौरान प्रशासन और पुलिस को चुनाव आयोग के प्रति जवाबदेह होना चाहिए. शेषन की भारतीय चुनाव आयोग में कठोर सुधार और दक्षता लाने की चाहत की तारीफ करते हुए एक वरिष्ठ चुनाव अधिकारी ने कहा, “हम एक निर्दयी मुखिया की दया पर हैं.”

भारत के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त, भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) अधिकारी और कैंब्रिज के गणितज्ञ सुकुमार सेन, जिन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से असहमति जताते हुए पहले आम चुनाव को तब तक नहीं करवाया जब तक कि सभी सुविधाएं और प्रक्रियाएं ठीक नहीं हो गईं. इसके बाद से मुख्य चुनाव आयुक्त के बारे में तब तक कोई चर्चा नहीं हुई जब तक शेषन इस पद पर नहीं आये. जब तक उन्होंने यह पद छोड़ा तब तक निर्वाचन सदन का कायापलट हो गया था. अपने छः साल (12 दिसंबर 1990 से 11 दिसंबर 1996) के कार्यकाल के दौरान शेषन ने भारत में होने वाले चुनावों के प्रचार, मतदान प्रक्रिया और चुनावी प्रशासन को नयी परिभाषा दी.  आदर्श चुनाव आचार संहिता, फोटो वाला मतदाता पहचान पत्र और चुनाव आयोग द्वारा चुनावी प्रक्रिया की पूर्ण निगरानी, जिन्हें अब भारतीय चुनावों का पर्याय माना जाता है, जैसे सुधार उन्हीं के नेतृत्व में ही किये गए थे.

इन सुधारों को लागू करने की प्रक्रिया में, शेषन के अलग-अलग मत वाले शक्तिशाली राजनेताओं से- जिन्हें वो कहते थे कि वो उनका नाश्ता करते हैं- मतभेद रहे. उनको आज़ादी के बाद सबसे ज्यादा चर्चित सिविल सर्वेंट बनाने में ऐसे मतभेदों की भी अपनी भूमिका रही.

उस दशक में जब घोटाले, भ्रष्टाचार के मामलों और चुनावी धांधलेबाजी ने लोगों का राजनीति से मोहभंग कर दिया था उस समय ईमानदारी के लिए जिद के साथ मीडिया के लिए हेडलाइन वाली बाइट्स देने की योग्यता ने उन्हें एक योद्धा की तरह स्थापित किया. अगर त्वरित पहचान हासिल करना और समाज में ऊंची हैसियत हासिल करना महत्वकांक्षी नौकरशाहों के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन  नहीं थे, तो 90 के दशक में शेषन की प्रमुख न्यूज़मेकर के रूप में प्रसिद्धि ने प्रभावशाली सिविल सेवाओं के लिए एक ग्लैमर को जोड़ दिया जो कि आमतौर पर इसके साथ नहीं जुड़ा होता है.

शेषन ने सिविल सेवा की परीक्षा में टॉप किया था और 1955 के बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा में शामिल हुए जहां उन्हें तमिलनाडु कैडर मिला. राज्य में उनके कार्यकाल के दौरान की बहुत सी कहानियां है जिनमें से कुछ का उल्लेख पत्रकार के. गोविन्दन कुट्टी द्वारा लिखी गई शेषन की जीवनी “शेषन: ऐन इंटिमेट स्टोरी” (कोणार्क, 1994) में है. वो अक्सर उस किस्से को याद करते हैं जब शेषन मदुरै के जिला कलेक्टर थे तब उन्होंने कोडाई झील के पास होटल में शेख अब्दुल्ला के हाउस अरेस्ट को किस तरह से संभाला था. युवा अधिकारी के तौर पर उन्होंने अब्दुल्ला की उस धमकी को, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर अधिकारी ने उनकी चिठ्ठियों की पड़ताल करनी बंद नहीं की तो वो आमरण अनशन करेंगे, धोखा कहा.

उस समय के मद्रास के परिवहन आयुक्त के रूप में उनके कार्यकाल को उनकी काम समझने की उत्सुकता के रूप में याद किया जाता है. सार्वजानिक परिवहन निकाय के प्रमुख के पद पर रहते हुए उन्होंने बस ड्राइवरों की समस्याओं को समझने के लिए बस चलाना सीखा और एक बार तो यात्रियों से भरी बस को 80 किलोमीटर तक चला कर ले भी गए.

केंद्र में आने के बाद उन्होंने पर्यावरण और वन मंत्रालय के सचिव के रूप में पहचान बनाई और उसके बाद आंतरिक सुरक्षा को भी संभाला. आतंरिक सुरक्षा के लिए काम करते हुए उन्होंने राजीव गांधी के साथ काम किया और तत्कालीन प्रधानमंत्री की सुरक्षा की निगरानी करते हुए उनके संबंध राजीव गांधी के साथ काफी घनिष्ठ हो गए थे. उसके बाद उन्होंने (अब ख़त्म कर दिए गए) योजना आयोग में भी काम किया. राजीव गांधी के प्रधानमंत्री के रूप में आखिरी कुछ महीनों के लिए शेषन ने कैबिनेट सचिव, जो कि किसी नौकरशाह के लिए सर्वोच्च पद माना जाता है, के रूप में भी कार्य किया.

ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली में अपने पुराने महत्वपूर्ण पदों को देखते हुए वो मुख्य चुनाव आयुक्त की भूमिका निभाने के लिए अनिच्छुक थे क्योंकि उस समय इसको सबसे कम महत्वपूर्ण पद माना जाता था. उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 324 की व्यापकता को समझा जो कि चुनाव आयोग को चुनाव करवाने, चुनाव प्रबंधन और उनकी दिशा तय करने की शक्ति देता है, इसके लिए उन्हें श्रेय मिलना चाहिए. उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि सरकार चुनाव आयोग द्वारा चुनावों के प्रबंधन के साथ साथ चुनाव सुधारों की जरूरत को भी समझे.

ऐसा नहीं है कि केवल लालू प्रसाद यादव जैसे क्षेत्रीय दिग्गजों को ही शेषन के इस चुनाव आयोग के चुनाव प्रबंधन में अधिकार की मुहिम की मार झेलनी पड़ी, बल्कि उसके प्रभाव केंद्र में भी देखे जाने लगे थे. मीडिया में भी उनको कभी तर्कसंगत तो कभी हठी के रूप में देखा जाने लगा. पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली केंद्र की कांग्रेस सरकार को भी इस बात की चिंता थी कि चुनाव आयोग से उनकी सरकार का लगातार टकराव हो रहा था. 

अक्टूबर 1993 में, पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने चुनाव आयोग में एमएस गिल और जीवीजी कृष्णमूर्ति को नियुक्त कर के इसको एक बहु-सदस्यीय संस्था में बदल दिया. यह दोनों मुख्य चुनाव आयुक्त के सहायक चुनाव आयुक्त के तौर पर नियुक्त किये गए थे. हालांकि शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर रहे लेकिन अन्य दो आयुक्तों के आने बाद से उनकी शक्तियां कुछ कम हो गई. नयी व्यवस्था के साथ आने वाले कुछ महीने ठीक नहीं थे. यहां तक कि शेषन ने इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से भी हस्तक्षेप की मांग की. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के पक्ष में फैसला सुनाया हालांकि तब तक शेषन दूसरी लड़ाई के लिए तैयार हो चुके थे.

शेषन इस बात पर अड़े हुए थे कि अगर सरकार फोटो वाले मतदान पहचान पत्र लाने में देर करती रहेगी तो वो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के नियम 37 को लगाएंगे जिसमें कहा गया है कि चुनाव आगे बढ़ाये जा सकते हैं या नहीं भी कराये जा सकते हैं. इस वजह से गतिरोध की स्थिति पैदा हो गई, जिस पर पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बासु ने शेषन को “पागल कुत्ता” तक कह दिया जबकि पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस स्थिति की तुलना “लोकतान्त्रिक गतिरोध” से की. शेषन न्यायिक हस्तक्षेप के बाद ही माने, हालांकि उनके आंशिक अव्यवहारिक और काफी हद तक दृढ़ निश्चय ने यह सुनिश्चित किया कि फोटो वाला मतदाता पहचान पत्र भारतीय चुनावों में जल्दी ही एक वास्तविकता बन गया.

संस्थागत अतिरेक पर आलोचना के बावजूद शेषन के इस सुधार ने लोगों के बीच में चुनाव आयोग जैसी संस्था की विश्वसनीयता को स्थापित किया. रोचक बात यह है, कि शेषन के सेवानिवृत होने के तीन साल बाद ही एक अध्ययन (ए क्रॉस सेक्शनल एनालिसिस ऑफ़ नेशनल इलेक्टोरेट, सेज पब्लिकेशन, 1999) प्रकाशित हुआ जिसमें कहा गया कि चुनाव आयोग भारत में सबसे विश्वसनीय संस्थाओं में से एक है. इसके अलावा 2008 में ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित की गई एक रिपोर्ट: स्टेट ऑफ़ डेमोक्रेसी इन साउथ एशिया में भी ऐसा ही कहा गया.

ऐसा भी हो सकता है जब कोई ऐसा सोचे कि शेषन क्या आत्मतुष्टि के लिए ये सब कर रहे थे या कर्तव्य की भावना से कर रहे थे. मीडिया में दिए गए उनके कुछ बयान उनके उस व्यक्तित्व का हिस्सा थे जो उनके प्रशंसकों के लिए था जो उन्होंने उस देश में बनाये थे जहां राजनीति में विश्वसनीयता कम और कुटिलता ज्यादा थी. राजनेता-सिविल सेवक के टकराव में, वेतनभोगी माध्यम वर्ग, जो कि मीडिया के प्रमुख उपभोक्ता थे और इसके काफी कंटेंट के लिए जिम्मेदार भी थे, की धारणा यह होती थी कि इसमें सिविल सेवक को ही लाभ मिलेगा. यहां तक कि उनके कैरियर की आकांक्षाएं एक सरकारी कार्यालय में एक तौलिया से ढंके सिविल सेवक की कुर्सी से अधिक प्रेरित थी.

इस तरह की भड़काऊ राय से अलग, शेषन ने 1997 में केआर नारायणन के खिलाफ शिव सेना के उम्मीदवार के तौर पर राष्ट्रपति पद के रूप में अपनी किस्मत आजमाई. दो साल बाद, उन्होंने 1999 के लोकसभा चुनावों में लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में गांधीनगर से लोकसभा चुनाव भी लड़ा. दोनों चुनावों में उन्हें करारी हार मिली.

बेहद धार्मिक व्यक्ति शेषन, जिन्होंने साक्षात्कारकर्ता को बताया कि भगवद गीता पढ़ना उनकी दिनचर्या का एक हिस्सा था, वे पिछले दो दशकों में लोगों की स्मृति से वे धीरे धीरे लुप्त हो गए. इक्का दुक्का व्याख्यान, चर्चा या भाषण- कुछ ऐसा हो गया था 90 के दशक के मध्यवर्गी लोगों का सबसे चहेते इंसान के जीवन का आखिरी दशक. फिर वो भी रुक गया.

एक तरह से शेषन ने संस्थानों की संवैधानिक संभावनाओं को पंख दिया और उम्मीद जगाई कि कैसे यह निष्पक्षता और स्वतंत्रता को आकार दे सकता है, जहां लाखों लोगों की आबादी लोकतंत्र में अपनी चुनावी पसंद का उपयोग करती है. ऐसा करने के दौरान, कभी-कभी उन्होंने बदनाम सिविल सेवा को काम करने के लिए प्रेरित किया और कभी उनके काम उस अभिमान से अलग नहीं था जो भारत में चयनित अधिकारी की होती है. न सिर्फ चुनाव आयोग को बल्कि सभी के पास उनको धन्यवाद देने के लिए बहुत कुछ है.