Newslaundry Hindi
कुली बाज़ार 10: साहित्य में प्रदूषण की जड़ें
एक समय की बात है जब हिंदी साहित्य में कलावाद के विरुद्ध भी वैसे ही एकजुट होने का चलन था, जैसे दक्षिणपंथ और फ़ासीवाद के विरुद्ध. वह हिंदी में अशोक वाजपेयी की आज-सी प्रासंगिकता और केंद्रीयता का समय नहीं था, लेकिन वह हिंदी के लोलुपों को लाभ पहुंचाने की स्थिति में तब भी थे. किंचित अतिरेक का आश्रय लें तब यह भी कह सकते हैं कि यह स्थिति वह जन्म से ही अपने साथ लेकर आए, जैसे आलोकधन्वा की एक कविता में पतंगबाज़ जन्म से कपास साथ लाते हैं.
लेकिन जैसा कि होता ही है उस दौर में, इस दौर जैसे और इस दौर में उस दौर जैसे लोग एक नज़र उठाकर देखिए या न भी देखिए, मिल ही जाते हैं. इस क्रम में एक प्रसंग देखें : अशोक वाजपेयी के समय वाले भारत भवन (भोपाल) में एक आयोजन चल रहा है. हिंदी के कथित जनवादी और लोकधर्मी कवि केदारनाथ सिंह इस आयोजन में पधारे हुए हैं. इस अवसर पर कुछ पत्रकार उनसे पूछते हैं कि अपने वैचारिक विरोधियों के आयोजन में शामिल होने की क्या विवशता है? वह कहते हैं कि हम अपनी बात कहने के लिए विरोधियों के मंच का इस्तेमाल करते हैं. यह कहते हुए उन्हें अशोक वाजपेयी गुट के एक कवि-लेखक ध्रुव शुक्ल सुन लेते हैं और वह केदारनाथ सिंह से कहते हैं कि आप विरोधियों के मंच का ही नहीं, उनके लंच का भी इस्तेमाल करते हैं.
अब इस तत्कालीन प्रसंग के प्रकाश में हिंदी संसार के समकालीन अंधकार को समझिए, जहां सारी ज़रूरी बहसों को बरतरफ़ कर अब केवल यही बहस केंद्र में है कि फलां आयोजन में ‘हम क्यों नहीं जा रहे हैं’ और ‘हम क्यों जा रहे हैं…’ न जाने वालों के तर्क उनकी पृष्ठभूमियों को देखते हुए समझ से परे हैं, लेकिन फिर भी इस दौर में स्वागत-योग्य हैं. लेकिन जो जा रहे हैं और अपनी बात कहने के लिए विरोधियों के मंच और लंच दोनों का इस्तेमाल कर रहे हैं, वे सबसे ज़्यादा हास्यास्पद हो पड़े हैं. समझ में नहीं आता कि उनके पास आख़िर ऐसा कहने को क्या है, जिसे वे इस वक़्त में अपने घर से नहीं कह सकते हैं.
दरअसल, साहित्य भी अब एक तमाशा हो चला है. वह भी राजनीति की तरह भ्रम पैदा कर रहा है. इस दृश्य में सौदेबाज़ स्वर मुखर और लोकप्रिय हैं, धूर्तताएं ही उपलब्ध और उपस्थित हैं. इस अंधेरे में चीज़ों को टटोलकर उनकी सच्चाई सामने ले आने वाली नज़रें और कामगार हाथ अब कहीं पीछे छूट गए हैं. साहित्य की वह आवाज़ जो बहुत कम लोगों के बीच, बहुत कम लोगों के ज़रिए, लगभग सब लोगों को संबोधित होती है; अब लगभग डूब रही है.
इधर गए एक दशक में साहित्य में सुविधाएं अनावश्यक और अप्रत्याशित ढंग से बढ़ी हैं और इसलिए भीड़ और अशांति भी. यह भीड़ इस विचार से जाने-अनजाने अपरिचित है कि आधुनिक साहित्य का एक मुख्य कार्यभार अपनी मूल संरचना में सत्ता के लिए असुविधाजनक होना है. यह सत्ता सिर्फ़ राजनीतिक ही नहीं, सांस्कृतिक और साहित्यिक भी होती है.
हिंदी में साहित्योत्सवों की आड़ में इस वक़्त पूरे मुल्क में जो अभूतपूर्व गंदगी फैली हुई है, उसे अगर व्यंजना में समझें तब कह सकते हैं कि ये साहित्योत्सव भारतीय प्रधानसेवक के मार्फ़त शुरू हुए स्वच्छता अभियान के लिए बेहद असुविधाजनक हैं. यह कुछ वैसा ही सत्ता-विरोध है, जिसके लिए सत्ता से मिले मंच और लंच की दरकार होती है. यह छद्म सत्ता-विरोध वास्तविक सत्ता-विरोध को ढांपकर उसे हताश और हताहत करता है. एक जैसे चेहरों से संभव लगभग एक जैसे साहित्योत्सवों को ध्यान से देखिए, इनमें भारी नियमितता है. इस वजह से जिसे भी देखो वह कहीं से आ रहा है, या कहीं जा रहा है या कहीं जाने को है. एक दुर्लभ क़िस्म की हड़बड़ है और उसमें गड़बड़ियां और घपले हैं. यह साहित्य का स्वभाव नहीं है, साहित्योत्सवों का है.
इस हल्ले में इस स्थिति को बदलने की छोड़िए, इस स्थिति के बारे में सोचकर ही कैसी थकान होती है, इसका पता तब चलता है जब प्रदूषित साहित्योत्सवों के समानांतर ही गतिशील ‘वीरेनियत’ (हिंदी के प्रसिद्ध कवि वीरेन डंगवाल की स्मृति में प्रतिवर्ष जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित कार्यक्रम) सरीखे आयोजनों में जाना पड़ता है. एक अजीब थकान और कमी इस प्रकार के कवियों और उनके सुनने वालों पर छाई हुई है. जैसे उनका सब कुछ लुट गया है. क्या वे वास्तव में ही ऐसे हैं या कोई अभिनय-यात्रा उन्हें यहां तक ले आई है? भारतीय बौद्धिक समय- इसकी मौजूदा राजनीति और जन-निर्णय की वजह से- कितना मनहूस और मायूस हो चला है, ‘वीरेनियत’ जैसे आयोजन इसकी गवाही हैं. इस मनहूसियत और मायूसी के बचाव में अक्सर वहां उपस्थित जन लौटकर रघुवीर सहाय को उद्धृत करते हैं :
‘‘सन्नाटा छा जाए जब मैं कविता सुनाकर उठूं
वाह वाह वाले निराश हो घर जाएं’’
Also Read
-
CEC Gyanesh Kumar’s defence on Bihar’s ‘0’ house numbers not convincing
-
Hafta 550: Opposition’s protest against voter fraud, SC stray dogs order, and Uttarkashi floods
-
TV Newsance 310: Who let the dogs out on primetime news?
-
If your food is policed, housing denied, identity questioned, is it freedom?
-
The swagger’s gone: What the last two decades taught me about India’s fading growth dream