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एक रुका हुआ फैसला
कानूनी फैसलों का तकाजा है कि एक पक्ष हमेशा इसमें असहमत छूट जाता है. लेकिन न्याय का तकाजा है कि वह अंतत: किसी बिंदु पर पहुंच कर ठहरे. यह समय के ब्रह्मांड में अंतहीन चक्कर काटता नहीं रह सकता. 70 वर्ष बाद राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद की विवादित यात्रा का भी यह अंतिम ठहराव होना चाहिए. लेकिन जैसा कि हम देख पा रहे हैं और यह लोकतंत्र की खूबसूरती है सर्वसहमति से आया फैसला भी सवालों से परे नहीं है. दावे, प्रतिदावे, आस्था, कानून, जैसे अनगिनत हिस्सों में उलझे एक जटिल विवाद पर सभी लोगों से पूरी तरह सहमत होने की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती.
सुप्रीम कोर्ट की इस बात के लिए सराहना होनी चाहिए कि वह आस्था, इतिहास, आधुनिक कानून, सबूतों के परस्पर टकराव के बीच एक ऐसे नतीजे पर पहुंचा जिसमें एक हद तक सबूतों, तथ्यों की श्रेष्ठता स्थापित हुई. फैसले में संतुलन बिठाने की कोशिश भी देखी जा सकती है. मसलन कोर्ट ने पांच एकड़ जमीन मस्जिद के लिए देने का आदेश दिया, साल 1992 में मस्जिद के ध्वंस को अपराध माना और 1949 में मस्जिद के केंद्रीय कक्ष में रामलला की मूर्ति रखने को साजिश करार दिया.
व्यक्तिगत तौर पर अयोध्या के विवाद से मेरा एक अलग जुड़ाव है. अयोध्या से जुड़ी कुछ ऐसी अमिट स्मृतियां हैं जिन्होंने मेरे व्यक्तित्व के एक हिस्से पर अपना स्थायी प्रभाव छोड़ा है. शायद मेरी समउम्र पीढ़ी में इस तरह के बहुत से लोग होंगे. 1990 से 92 के दौर में, महज 12 वर्ष की उम्र में मैंने दीवारों पर गेरू से मंदिर के समर्थन में भड़काऊ नारे लिखे हैं, एक दंगा करीब से देखा है, कर्फ्यू देखा है, लाठीचार्ज देखा है, तोरण द्वार पर उत्पात मचाते कारसेवकों को देखा है और साथ ही उनकी गिरफ्तारियां देखी हैं.
1990 में आडवाणी की राम रथयात्रा की भयावह परिणति 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के रूप में हुई. उस दौर में गली-गली नारों और प्रति नारों की गूंज रही थी. यह दुर्लभ अवसर था आजाद भरत के इतिहास में जिसने देश के सामाजिक और संवैधानिक ताने-बाने की चूलें हिला दी थी. समाजविज्ञानियों का मत है कि इस एक घटना ने देश की व्यवस्था से मुसलमानों का जितना मोहभंग किया, उतना किसी और घटना ने नहीं किया. यह भारत के लिए अभूतपूर्व संकट का समय था.
इस पूरे घटनाक्रम का रंगमंच अयोध्या से महज 80 किलोमीटर दूर आज़मगढ़ जिले के अपने कस्बे में मैं हर दिन कुछ न कुछ होता देख रहा था. कारसेवकों को रेलगाड़ियों में भर-भर कर, उग्र नारे लगाते हुए आते-जाते देख 12 वर्ष के बालमन पर कई तरह के असर हो रहे थे. बाजार में कारसेवकों का जत्था हर दिन जुलूस निकालता, भड़काऊ नारे लगाता. शिशु मंदिर का विद्यार्थी और बचपने में ये सब बहुत आकर्षित कर रहा था. हमारा काम शाम के झुटपुटे में दीवारों पर मंदिर के समर्थन में नारे लिखने का था. यह किसी के निर्देश पर नहीं बल्कि लोगों को ऐसा करते देख स्वत:स्फूर्त था. कुछ साथी छात्रों के साथ इसे अंजाम दिया जाता था. बच्चा, बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का, जिस हिंदू का खून न खौला, खून नहीं वो पानी है, सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे, एक, दो, तीन, चार, मुल्लों को मारो जूते चार. अनगिनत भड़काऊ नारे थे. बहुतों पर अब वक्त की धूल जम गई है.
फिर एक दिन कस्बे में खबर आई कि मुरली मनोहर जोशी आजमगढ़ में आने वाले हैं. कस्बे से 30 किलोमीटर दूर आजमगढ़ शहर में. बहुत से लोग उस कार्यक्रम में शामिल होने आजमगढ़ गए. 6 दिसबंर की तरीख नजदीक थी. हर दिन कारसेवकों के जत्थे रेलगाड़ियों से गुजरते. भड़काऊ नारे लगाते. बाजार में तनाव बढ़ता जा रहा था. इसकी एक वजह कस्बे की सामाजिक संरचना भी थी. हिंदू और मुसलमान 60 और 40 के अनुपात में थे. इस बीच माहौल खराब होने की कहानियां आने लगी थीं. बनारस, आजमगढ़, कानपुर, अलीगढ़, अमूमन हर शहर से दंगे और कर्फ्यू लगने की खबरें आ रही थी.
फिर छह दिसंबर का वो दिन भी आया जब अयोध्या में मस्जिद ढहा दी गई. उसके अगले दिन अखबारों में जो खबरें आईं उसने आग में घी का काम किया. एक अखबार ने लिखा- “सदियों से भारत के माथे पर लगा कलंक मिटा”. उसी शाम खुद को अब तक जज्ब किए कस्बे के मुसलमान बड़ी संख्या में सड़कों पर निकल पड़े. किसी के हाथ में चाकू, किसी के हाथ में लाठी. हिंसक तरीके से नारे लगाती भीड़.
उस समय कस्बे के थानेदार परिचित थे क्योंकि उनका बेटा और मैं एक ही स्कूल में, एक ही क्लास में पढ़ते थे. चौक पर बड़ी संख्या में पुलिस भी थी. मैं पुलिस और मुस्लिम समुदाय के जुलूस को कौतुक से निहार रहा था. थानेदार साहब ने मुझे देखते ही घर जाने को कहा. मैं पलट कर घर की तरफ भगा, दूसरी तरफ पुलिस ने जुलूस पर बेतहाशा लाठीचार्ज करना शुरू कर दिया. भयावह कराह और भगदड़ का समवेत स्वर वातावरण में गूंजने लगा. बेहद डरावना. कइयों को गंभीर चोटें आईं जिन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया. भीड़ में सबसे आगे खड़े डॉ. अब्दुल रज्जाक का नाम अभी भी याद है. बाजार में कर्फ्यू लग गया. अगले तीन दिन लगातार और फिर हफ्ते भर आधा घंटा की छूट के साथ यह सिलसिला जारी रहा. सर्दियों के दिन थे लिहाजा अगले महीने भर बाजार में पांच बजते ही सियार लोटने लगते थे. सन्नाटा कानफोड़ देता था. धीरे-धीरे उस घटना की और परतें खुली. एक बुजुर्ग हिंदू की चाकू घोंपकर हत्या कर दी गई थी.
इस तरह से अयोध्या की पहली किस्त का असर ऐसा हुआ कि उससे जुड़ी बातों को मैं नशे की तरह फॉलो करने लगा. अयोध्या से मेरे जुड़ाव का दूसरा बिंदु आया साल 2010 में. 28 सितबंर, 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच को रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का फैसला देना था. इस घटना को बतौर रिपोर्टर कवर करने के लिए मैं अयोध्या में मौजूद था. पूरे देश के मीडिया का अयोध्या में जमावड़ा लगा हुआ था. फैसले से दो दिन पहले अचानक से एक शख्स अयोध्या विवाद में नमूदार हुआ. उनका नाम रमेश चन्द्र त्रिपाठी था. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाल दी कि वो अयोध्या विवाद के एक पक्षकार हैं और भाईचारे, सौहार्द बिगड़ने की आशंका के चलते वो नहीं चाहते कि इलाहाबाद हाईकोर्ट इस मामले में अपना निर्णय दे. सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका के मद्देनजर हाईकोर्ट के निर्णय पर दो दिन का स्टे लगा दिया. अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने स्टे हटाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट को 30 सितंबर को अपना फैसला सुनाने का निर्देश दिया.
अयोध्या में मौजूद पत्रकारों में हलचल मच गई. त्रिपाठी की खोज होने लगी. त्रिपाठी नदारद. हर आदमी उनकी खोज में. उसी दिन यानि 26 सितंबर को देर रात फैजाबाद के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के साथ बैठक में त्रिपाठीजी का जिक्र छिड़ गया. बातों ही बातों में मैंने उनसे कहा कि सर कोई संपर्क सूत्र त्रिपाठीजी से मिलने का मिल सकता है क्या? उन्होंने खास तवज्जो नहीं दिया, शायद इसलिए कि वहां कुछ और लोग भी मौजूद थे. कुछ देर बाद वहां से निकलते समय उन्होंने धीरे से एक कागज का टुकड़ा पकड़ाया. इसमें एक मोबाइल नंबर था. बाहर निकल कर मैंने झट से उस नंबर पर फोन मिलाया. दूरी तरफ से त्रिपाठीजी लाइन पर थे. मैं चमत्कृत. तत्काल खुद को सहेजते हुए मैंने उनसे एक लंबा इंटरव्यू किया. उस समय फिजाओं में चर्चा थी कि त्रिपाठीजी के इस अड़ंगे के पीछे कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह थे जो उस समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी थे.
त्रिपाठी ने स्वीकार किया कि उनकी दिग्विजय सिंह से कुछ दिन पहले मुलाकात हुई थी, लेकिन इस कदम के पीछे उनकी कोई भूमिका नहीं थी. वो सिर्फ देश में अमन चैन बनाए रखने के लिए अदालत में गए थे. यह एक्सक्लूजिव खबर थी जिसे लेकर मैं उत्साहित तो था. मेरी जेब में उस आदमी का इंटरव्यू था जिसे देश भर का मीडिया खोज रहा था. लेकिन पीरियॉडिकल में काम करने की अपनी सीमाएं थीं. हमारी पत्रिका पाक्षिक थी. और जब तक अगला अंक प्रकाशित हुआ, उससे पहले सारा फोकस 30 सितंबर को आए हाईकोर्ट के फैसले पर टिक गया था. इस तरह मैं हीरो बनते बनते रह गया ?.
अब अयोध्या से अपने जुड़ाव के तीसरे बिंदु पर आता हूं. मैंने कभी कानूनी मामलों या कोर्ट की रिपोर्टिंग नहीं की है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में जब प्रतिदिन के हिसाब से अयोध्या मामले की सुनवाई शुरू हुई तब इसकी कुछेक सुनवाइयों में मैं सुप्रीम कोर्ट के कोर्ट नंबर एक में मौजूद था. यह फैसला ऐतिहासिक हो, न हो, लोग इससे सहमत-असहमत हो लेकिन भारत की न्यायपालिक ने इस सुनवाई के दौरान निश्चित ही एक ऐतिहासिक जगह मुकर्रर की है. मुस्लिम पक्ष की तरफ से राजीव धवन ने जिस शिद्दत और समर्पण से जिरहें की, दलीलें दी वह पीढ़ियों को याद दिलाती रहेंगी कि अयोध्या की कानूनी लड़ाई में इस देश के मुसलमान अकेले नहीं थे. उन्हें उन्हीं हिंदुओं ने भरसक कंधा दिया जिनके लिए मंदिर के मायने ज्यादा थे.
अंत में मेरा यह कहना ठीक नहीं होगा कि जो फैसला आया है उसका सब लोग मेरे तरीके से एहतराम करें, इसकी कोई तकनीकी, संवैधानिक व्याख्या न करें. इसके अपने खतरें हैं. मेरा हिंदू होना मेरा पहला संकट है. फैसला हिंदुओं के पक्ष में आया है इसलिए एक हिंदू का यह कहना निश्तित रूप से उन लोगों के साथ न्याय नहीं होगा जिन्हें लगता है कि उनके साथ नाइंसाफी हुई है. उनके इस अधिकार का मैं पूरा सम्मान करता हूं कि वो इस फैसले में अगर कुछ भी अपूर्ण या असंगत पाएं तो इसको अपने संवैधानिक अधिकारों के दायरे में सामने रखें.
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