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पार्ट 1: पंजाब सरकार का कानून जिसने समूचे उत्तर भारत को स्मॉग के कुचक्र में ढकेला  

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी दिल्ली में हेल्थ एमरजेंसी (स्वास्थ्य आपातकाल) की घोषणा की गई है. धुंध (स्मॉग) की चादर में लिपटी दिल्ली के अलग-अलग क्षेत्रों में हवा की गुणवत्ता “खतरनाक” स्तर को पार कर गई  है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित संस्थान इंवॉयरमेंट पॉल्यूशन (प्रीवेंशन एंड कंट्रोल) ऑथरिटी (ईपीसीए) ने शुक्रवार, एक नवंबर को पब्लिक हेल्थ इमेरजेंसी घोषित कर दिया.

भारत की यह खबर दुनिया भर के अखबारों में प्रमुखता से छपी. दिलचस्प बात है कि इसी आपातकाल में जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल दिल्ली दौरे पर थीं. पिछले कुछ वर्षों में लगातार दिल्ली में वायु प्रदूषण और स्मॉग अंतरराष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां बटोर रहा है. समूचे देश में राष्ट्रवाद की बयार की बावजूद प्रदूषण राष्ट्रहित का मुद्दा न बन सका. यह अफ़सोसजनक स्थिति है.

हुआ वही, जो इतने वर्षों से होता आ रहा है. दिवाली के इर्द-गिर्द प्रदूषण को लेकर बहस हुई. यही वह वक्त होता है जब पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान खेतों में पराली (धान कटने के बाद बचे अवशेष)  जलाते हैं. इससे उठने वाला धुंआ दिल्ली और आसपास के इलाकों स्मॉग से लपेट देता है. खेतों की पराली का धुआं, दिवाली के पटाखों का प्रदूषण और दिल्ली में मोटरगाड़ियों और औद्योगिक इकाइयों का प्रदूषण मिलकर दिल्ली को गैस चैंबर में बदल देता है. बेशक इस वक्त दिल्ली की धुंध में पराली का एक हद तक योगदान है  लेकिन सिर्फ यही दिल्ली और उत्तर भारत में प्रदूषण के लिए जिम्मेदार नहीं है. पराली और पटाखों की वजह से प्रदूषण में तात्कालिक बढ़ोतरी होती हैं.

केन्द्र सरकार की संस्था सिस्टम ऑफ एयर क्वॉलिटी एंड वेदर फॉरकास्टिंग (सफर) के मुताबिक वर्ष 2018 में दिल्ली के वायु प्रदूषण में पराली के धुंए की भागीदारी 3 प्रतिशत से 33 प्रतिशत के बीच थी. इस वर्ष 31 अक्टूबर को पराली का प्रदूषण में योगदान अधिकतम 44 प्रतिशत रहा. दिल्ली पॉल्यूशन कंट्रोल कमेटी (डीपीसीसी) के आंकड़ों के मुताबिक जनवरी 2019 से जून 2019 तक दिल्ली में सामान्य दिनों में औसत पीएम 2.5 का स्तर 101 और पीएम 10 का स्तर 233 रहा. हवा की गुणवत्ता की लिहाज से  यह पिछले आठ वर्षों में सबसे बेहतर रहा.

सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के अनुसार, दिल्ली के लिए वर्ष 2019 में अगस्त 9 से अगस्त 15 तक का ही सप्ताह ऐसा रहा जहां हवा की गुणवत्ता “संतोषजनक” रही. इसका स्पष्ट मतलब है कि जनवरी 2019 से 3 नवंबर, 2019 को यह रिपोर्ट लिखे जाने तक दिल्ली की हवा एक दिन भी “अच्छी” और स्वास्थ्य के लिए बेहतर नहीं रही.

स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2019 की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2017 में भारत में  12 लाख लोगों को वायु प्रदूषण की वजह से जान गंवाना पड़ा. यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास ने ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज़ रिपोर्ट के आंकड़ों के अध्ययन के बाद बताया कि हर दिन दिल्ली में 80 लोगों की मौत का रिश्ता पीएम 2.5 और  हवा की गुणवत्ता से है.

ऐसे में सवाल उठता है कि जब दिल्ली और उत्तर भारत का एक बड़ा भू-भाग साल भर प्रदूषण से प्रभावित रहता है तो नवंबर और दिवाली के आसपास ही हाय-तौबा मचाने का अर्थ क्या है? पर्यावरणविदों के अनुसार, “चूंकि नवंबर महीने के दरम्यान लोग स्मॉग (धुंध) देख पाते हैं इसीलिए प्रदूषण चर्चा का विषय बन जाता. जबकि दिल्ली के ही अलग-अलग क्षेत्रों में, उदाहरण के लिए आनंद विहार और वजीरपुर में पूरे साल हवा की गुणवत्ता खतरनाक स्तर पर बनी रहती है. उद्योग, कारखाने, पावर प्लांट, कचरा प्रबंधन, निर्माण कार्य आदि धड़ल्ले से चलते रहते हैं. प्रदूषण से निबटने के लिए ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (जीआरएपी) की याद सरकारों को सिर्फ़ नवंबर में आती है.”

पराली की भूमिका

अब बात करते हैं पंजाब और हरियाणा में किसानों द्वारा पराली जलाने की. पंजाब और हरियाणा सरकारों के इश्तेहार देखकर मालूम होता है जैसे प्रदूषण के लिए सिर्फ और सिर्फ किसान जिम्मेदार हैं. दिल्ली सरकार भी पंजाब और हरियाणा की सरकारों से यही गुहार लगाती दिखती है कि वे किसानों को पराली जलाने से रोकें. मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए भी किसान ही दिल्ली की हवा की गुणवत्ता के लिए जिम्मेदार हैं. दरअसल, किसान सबसे आसान शिकार हैं. किसानों के माथे दोष मढ़कर सरकारें बड़े सवालों से मुंह मोड़ लेना चाहती हैं.

हरियाणा के फतेहाबाद जिले में अकेले 17 एफआईआर किसानों पर दर्ज की गई है. वर्ष 2017 में हरियाणा में एक हजार से ज्यादा किसानों को पराली जलाने की सजा के तौर पर जुर्माना भरना पड़ा था. पंजाब सरकार ने किसानों को चेताया है कि अगर उनके खेतों में पराली जलाए की घटना हुई तो उन्हें सरकार खेती के लिए लीज पर जमीन नहीं देगी.

आखिर किसानों को पराली जलाने की नौबत ही क्यों आती है? यह पता लगाने हम पंजाब के दो सबसे प्रभावित जिलों बठिण्डा और पटियाला पहुंचे. वहां किसानों, ग्रामीणों और कृषि जानकारों ने प्रदूषण और दिल्ली केन्द्रित बहसों से बिल्कुल अलहदा प्रतिक्रियाएं दी. इन सबने एक सामान्य गुजारिश की कि पराली की समस्या की चर्चा व्यापकता में की जाए.

पानी से जुड़ी है पराली की समस्या

 वर्ष 2009 में पंजाब सरकार ने पंजाब प्रिज़र्वेशन ऑफ सबसॉयल वॉटर ऐक्ट, 2009 लागू किया. इस कानून के अनुसार पंजाब के किसानों को हर साल 10 मई से पहले धान की बुवाई करने से मना किया है. ठीक एक ऐसा ही कानून हरियाणा सरकार ने पास किया. दोनों राज्य सरकारों ने यह फैसला तेजी से गिरते भू-जल स्तर के मद्देनज़र लिया था.

चूंकि धान की फसल को बहुत ज्यादा मात्रा में पानी की जरूरत होती है, सरकार ने किसानों से अपील की कि वे सिंचाई की निर्भरता मानसून से पूरी करें. पंजाब प्रिज़र्वेशन ऑफ सबसॉयल वॉटर ऐक्ट के पहले तक किसान रबी की फसल के तुरंत बाद धान की बुवाई करते थे. भूमिगत जल से फसल की सिंचाई की जाती थी.

ऐसा नहीं है कि पंजाब के किसान इस कानून के लागू किए जाने के पहले पराली नहीं जलाते थे. फसल के अवशेष तब भी जलाए जाते थे लेकिन उसका समय अलग होता था.

पंजाब प्रिज़र्वेशन ऑफ सबसॉइल वॉटर  ऐक्ट, 2009 के पहले धान की बुवाई मध्य अप्रैल तक हो जाया करती थी. सितंबर और अक्टूबर के पहले सप्ताह तक फसल काटकर पराली जला दी जाती थी. नए कानून में फसल की बुवाई मध्य जून से ही शुरू हो सकती है.

हवा की दिशाओं के अध्ययन के अनुसार सितंबर में हवा में नमी कम होती है. नमी कम होने के कारण पराली का धुंआ खेतों के ऊपर नहीं मंडराता था. इस दौरान हवा पश्चिम दिशा से दिल्ली में बहती है. अक्टूबर में हवा की दिशा अमूमन नॉर्थ-वेस्टरली (उत्तर पश्चिमी) हो जाती है. मतलब दिल्ली में बहने वाली हवा उत्तर दिशा से आती है. मौसम वैज्ञानिकों की शब्दावली में इसे “बटरफ्लाई इफेक्ट” कहते हैं. बटरफ्लाई इफेक्ट की वजह से दिल्ली पराली के धुंए की चादर में लिपट जाती है.

धान की फसल का चक्र करीब चार महीने (120 दिन) का होता है. जब किसान मध्य जून में बुवाई करेंगे तो फसल तैयार होते-होते नवंबर आ चुका होगा. इस वक्त हवा की दिशा बदल जाती है. जिसका मतलब है कि पराली का धुंआ दिल्ली और उत्तर भारत में पसरेगा. दस साल पहले भी दिल्ली की हवा कोयला ऊर्जा सयंत्रों, कारखानों, निर्माण कार्य, गाड़ियों आदि से प्रदूषित थी लेकिन नवंबर के महीने में दिल्ली अभी की तरह धुंधली नहीं पड़ती थी. यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि पंजाब प्रिज़र्वेशन ऑफ सबसॉयल ऐक्ट, 2009 के बाद धान की फसल कटने और गेंहू की बुवाई का अंतर मात्र 15-20 का रह जाता है.

पटियाला शहर से तककरीबन 30 किलोमीटर दूर अब्दुलपुर गांव में हम 40 वर्षीय अकलजोत सिंह  से मिले.  अकलजोत के पास 13 एकड़ ज़मीन है. उनकी जमीन में ज्यादातार खेतों से पराली जलाई जा चुकी है. खेतों में आग लगाने के दो-तीन दिन बाद जुताई की गई और अब कंबाइंड मशीन से गेंहू की बुवाई का काम चल रहा है. अकलजोत को पराली जलाने को लेकर होने वाले विवाद पर गुस्सा आता है. खासकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की पराली जलाए जाने से संबंधित शिकायतों पर.

वह कहते हैं, “हमारे खेतों में पराली पहले से जलाई जाती रही है. यह कोई नया नहीं शुरू हुआ है. पराली जलाना एक किस्म की रीत रही है. अंतर इतना ही है कि पहले यह सर्दी के मौसम में नहीं जलाई जाती थी.”

अकलजोत के पिता मनिंदर सिंह (68 वर्ष) को आज भी यह सवाल कौंधता है कि सरकार किसानों को खेती करना कैसे सिखा सकती है. वह पूछते हैं, “सरकार हमें (किसानों को) कैसे बता सकती है किसान कौन सी फसल कब लगाएंगे?”

“हमारे पंजाब में चावल की खपत ही नहीं है और हमारे यहां सबसे ज्यादा धान की खेती हो रही है. आखिर क्यों? क्यों नहीं सरकार धान के मुकाबले दूसरी फसलों (जिसमें कम पानी की खपत होती है) को उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य देकर प्रोत्साहित करती है?” मनिंदर पूछते हैं. मनिंदर और अकलजोत की ही तरह क्षेत्र के दूसरे किसान पंजाब सरकार को प्रदूषण का जिम्मेदार मानते हैं.

किसान मानते हैं कि पंजाब सरकार ने ही फसल बुवाई का समय निर्धारित कर पराली से प्रदूषण की समस्या को जन्म दिया है. अब वे चाहते हैं कि सरकार किसानों को गुनाहगार साबित करने से पहले खुद की गिरेबां में झांके.

पराली के संदर्भ में बलविंदर सिंह, युवा किसान कहते हैं, “पराली-पराली नहीं वीरे (बड़े भाई), पानी-पानी चीखने की जरूरत है.” पंजाब के किसानों का स्पष्ट मानना है कि पराली की समस्या भू-जल के गिरते स्तर से जुड़ी हुई है. “पराली जलाने का काम 15-20 दिन होता है. ज्यादा से ज्यादा एक महीना. पानी की समस्या सालों भर है. पानी की कमी की वजह से ही किसान चाहकर भी फसल चक्र में जरूरी बदलाव नहीं कर पाते,” बलविंदर ने जोड़ा.

मोनसेंटो और अमेरिकी एजेंसी का दबाव

पानी की समस्या से निबटने का दावा करने वाले पंजाब प्रिजर्वेशन ऑफ सबसॉयल ऐक्ट, 2009 के तार अमेरिकी एजेंसी यूनाइटेड स्टेट एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएसएआईडी) से जुड़े हैं. यह एजेंसी अमेरिकी एम्बेसी से काम करती है. दुनिया भर में इस एजेंसी की छवि है कि यह मोनसेंटो जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए लॉबिंग करती है. हालांकि किसान संगठनों के भारी विरोध के कारण मोनसेंटो का भारत में बहुत सीमित काम बचा है. लेकिन यह कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट (हितों का टकराव) का मामला तो है ही.

धान की फसल में पानी की ज्यादा खपत और भूमिगत जल को संरक्षित करने के नाम पर पंजाब सरकार ने नया कानून लागू कर दिया. लेकिन इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट (आईडब्ल्यूएमआई) के अध्ययन के अनुसार, धान की खेत में पानी रहने से भूमिगत जल स्तर में वृद्धि दर्ज की जाती है. बहुत कम पानी भाप बनकर उड़ता है. उत्तर प्रदेश का उदाहरण देकर इंटरनेशनल वॉटर मैनेजमेंट इंस्टिट्युट ने बताया कि धान की खेती वाले क्षेत्रों में भूमिगत जल का स्तर बढ़ा है. यह अध्ययन पंजाब सरकार के कानून पर संदेह पैदा करता है.

संडे गार्डियन की एक ख़बर के अनुसार, यूनाइटेड स्टेट एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट पंजाब सरकार पर हाइब्रिड वैराइटी की जीएम (जेनेटिक्ली मोडिफाइड) मक्के की खेती के विस्तार के लिए दवाब बनाती रही है. जीएम मक्के के बीज़ बेचती है मोनसेंटो नाम की अमेरिकी कंपनी. इसीलिए यूनाइटेड स्टेट एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट पंजाब सरकार को भूमिगत जल संरक्षण का तर्क देकर अपने पक्ष में करने की कोशिश करती रही है. पंजाब प्रिज़र्वेशन ऑफ सबसॉयल ऐक्ट, 2009 के पास होने से मोनसेंटो को काफी लाभ हुआ.

मोनसेंटो चाहती है कि पंजाब के किसान धान की फसल कम से कम उगाएं. उसकी जगह वे जीएम मक्के की खेती करें. मोनसेंटो के मुताबिक यही भूमिगत जल को बचाने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है.

वर्ष 2012 में, तब पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की सरकार ने मोनसेंटो को एक शोध कार्यशाला विकसित करने की अनुमति दी थी. पंजाब सरकार ने यह भी ऐलान किया कि वे आने वाले वर्षों में धान की फसल को 45 फीसदी तक सीमित कर देंगे. मोनसेंटो की एक अद्भुत खासियत रही है कि वे न सिर्फ सरकारों के साथ लॉबी करते हैं बल्कि राज्य स्तरीय कृषि वैज्ञानिक केन्द्रों और वैज्ञानिकों को भी अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं. इसका ही नतीजा रहा कि कुछ वैज्ञानिकों ने “धान की खेती करो, पानी बचाओ, पंजाब बचाओ” जैसा प्रचार शुरू कर दिया.

मोनसेंटो दावा करती है कि उसकी कंपनी की हाइब्रिड बीज से भूमिगत जल स्तर में सुधार होता है. जबकि सच्चाई यह है कि वर्षों से खेतों में मोनसेंटो के रसायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों ने मिट्टी की उर्वरता नष्ट की है. मिट्टी को सख्त बना दिया है जिसकी वजह से मिट्टी में पानी सोखने की क्षमता का क्षय हुआ है. जब मिट्टी पानी कम सोखेगी तो भूमिगत जल का इस्तेमाल ज्यादा होगा और संरक्षण कम होगा.

मोनसेंटो के जीएम बीज़ों की संबंध में कृषि विशेषज्ञ डॉ. आजाद ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “जीएम न सिर्फ मिट्टी के लिए खराब है बल्कि वह मानव स्वास्थ्य के लिए उतना ही हानिकारक है. मोनसेंटो के जीएम मक्के अमेरिका में मुर्गियों के चारे के लिए इस्तेमाल होता है. वही मक्के मोनसेंटो चाहता है कि पंजाब में उगाए जाएं.”

“अगर सरकार पराली के धुंए पर लगाम लगाना चाहती है तो उसे खासकर छोटे और मंझोले किसानों को धान की फसल काटने और गेहूं की बुवाई के बीच पर्याप्त समय देना होगा. किसानों के साथ मिलकर भूमिगत जल प्रबंधन के लिए मेहनत करना होगा. पर इसका मतलब होगा कि वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूटीओ) के बनाए नियमों की अवहेलना. वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन के नियमों के मुताबिक किसी देश को कृषि सब्सिडी या सहयोग तभी मुहैया करवाई जाएगी जब उस योजना में कोई अमेरिकी कंपनी शामिल हो,” डॉ. आजाद ने कहा.

डॉ. आजाद के मुताबिक अगर सरकार की नीयत सच में पराली की समस्या का निदान करने की है तो उन्हें मोनसेंटो को लाभ पहुंचा रहे 2009 के कानून को रद्द या सुधारना होगा.

पराली जलाने और वायु प्रदूषण का यह दुष्चक्र खेती के बड़े और गंभीर सवालों से कैसे जुड़ा है, इसकी चर्चा अगले भाग की जाएगी.