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दक्षिण-वाम, पूंजी और प्रपंच में उलझा भोपाल का टैगोर लिट फेस्ट
‘बुरे प्रचार जैसी कोई चीज नहीं होती’- अमेरिकी शोमैन फिनीस टी बर्नम
सन 1989 की सर्दियां चल रही थीं, जब मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में अशोक वाजपेयी के नेतृत्व में वागर्थ के जरिए साहित्य की दुनिया में अपना पुरुषार्थ स्थापित करने का एक गंभीर प्रयास हुआ था. नाम ही था वागर्थ वर्ल्ड पोएट्री फेस्टिवल. दुनिया के तमाम देशों से दिग्गज कवियों को इस आयोजन में आमंत्रित किया गया था. कुछ भोपाल आये, तो कुछ अन्यान्य कारणों से नहीं आ पाये. लेकिन इस आयोजन को भारी विरोध और आलोचना का सामना करना पड़ा था. कारण? भोपाल गैस कांड को चार ही वर्ष हुए थे और संवेदनशील नागरिकों और रचनाकारों का एक तबका मानता था कि शहर अभी ऐसे जश्न के लिए तैयार नहीं था.
देश की साहित्यिक-सांस्कृतिक राजधानी भोपाल शहर की हवाओं में एक बार फिर से साहत्यिक सुगबुगाहट है. एक निजी विश्वविद्यालय समूह (रवींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय) द्वारा आयोजित किया जा रहा लिटरेचर फेस्टिवल, जिसने साहित्य और विचार के औचित्य का सवाल एक बार फिर लेखक जमात के सामने खड़ा कर दिया है. इस फेस्टिवल में सबकुछ है- कॉर्पोरेट पूंजी के प्रश्न, वाम और दक्षिण का वैचारिक द्वंद्व, आयोजक के अतीत पर सवाल वगैरह…
आगामी चार से 10 नवंबर के बीच प्रस्तावित इस आयोजन के बारे में कहा जा रहा है कि इसमें दुनिया के 30 देशों के 500 से अधिक रचनाकार और कलाकार शिरकत करने वाले हैं. कार्यक्रम का उद्घाटन मध्य प्रदेश के राज्यपाल लालजी टंडन करेंगे जबकि उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल के भी इसमें शामिल होने की सूचना है.
भाजपा के नेता रह चुके इन दोनों राज्यपालों के आगमन की खबर ने पूंजी के नैतिक सशोपंज में फंसे ‘निर्धन’ हिंदी (कवि मंगलेश डबराल के शब्द) के लेखकों को अंतिम निर्णय तक पहुंचने में सहायता की. विष्णु नागर, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल और नरेश सक्सेना समेत हिंदी के नामचीन लेखकों के एक बड़े समूह ने पूर्व स्वीकृति के बाद अब बदली हुई परिस्थितियों का सम्यक आकलन कर कार्यक्रम से दूरी बना ली है. वहीं एक तबका ऐसा भी है जो कह रहा है कि अगर अपनी बात पूरे दमखम से कहने का मौका हो और मंच पूरी तरह दक्षिणपंथी न हो तो वहां जाने में कोई दिक्कत नहीं है.
जीवन के हर क्षेत्र में पूंजी का प्रकोप है लेकिन साहित्यकारों में इसके सत्य-असत्य का बोध और बहस अभी बचा है, यह विस्मकारी बात है. एक वक्त था जब लेखकों के आयोजन नितांत निजी और आत्मीय हुआ करते थे. इन आयोजनों में लेखक अपने खर्च पर शामिल होते थे. वरिष्ठ लेखक इस बात से सहमत हैं कि लाखों-करोड़ो रुपये खर्च करके आयोजित किये जा रहे लिट फेस्ट में वह आत्मीयता नदारद है और यह वैभव प्रदर्शन की कवायद बनकर रह जाते हैं. इसकी शुरुआत 2006 में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल से हुई. इसके बाद गली-मुहल्लों में ऐसे लिट फेस्ट का एक सिलसिला सा चल निकला. जयपुर में प्रगतिशील लेखकों ने समांतर लिटरेचर फेस्टिवल के माध्यम से इसका प्रतिरोध करने का प्रयास भी किया.
परंतु ध्यान देने वाली बात यह भी है कि यहां बात केवल दक्षिणपंथी नेताओं और लेखकों की भागीदारी और कारपोरेट पूंजी के इस्तेमाल भर की नहीं है. शिक्षा क्षेत्र से जुड़े इस कार्यक्रम के आयोजकों के खिलाफ कई गंभीर आरोप भी हैं. आयोजनकर्ता संतोष चौबे छत्तीसगढ़ के सीवी रमन विश्वविद्यालय और भोपाल स्थित रवींद्रनाथ टैगौर विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं. जून 2018 में छत्तीसगढ़ के सीवी रमन विश्वविद्यालय द्वारा फर्जी डिग्री देने के मामले की जांच शुरू हुई थी. इस मामले में संतोष चौबे सहित कई कर्मचारियों के खिलाफ प्रकरण दर्ज किया गया था. इन पर आरोप लगा कि राज्य के कई हिस्सों में मोटी रकम लेकर फर्जी डिग्रियां बांटी गयीं. ये डिग्रीधारी छात्र नौकरी के लिए बाहर गये तो उन्हें अयोग्य ठहरा दिया गया. ऐसे ही एक प्रकरण में गुजरात के तत्कालीन उच्च शिक्षा सचिव ने छत्तीसगढ़ सरकार को पत्र लिखकर इस विश्वविद्यालय की फर्जी डिग्रियों की जांच करने को कहा. शिकायत के बाद पुलिस ने पाया कि विश्वविद्यालय ने आईसेक्ट सर्टिफिकेट कोर्स की जगह डिग्री बांट रखी थी.
कौन हैं संतोष चौबे?
संतोष चौबे की निजी वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार वे आईसेक्ट समूह के चेयरमैन और सीवी रमन विश्वविद्यालय और रवींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं. वेबसाइट पर उन्हें सामाजिक-शैक्षणिक उद्यमी भी बताया गया है. परंतु उनका परिचय सिर्फ इतना ही नहीं है. 80 के दशक में संतोष चौबे मध्य प्रदेश में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हुए थे और उसके शैक्षणिक कार्यक्रमों का चेहरा हुआ करते थे. कहा जाता है कि उन्होंने अपनी हैसियत का इस्तेमाल आईसेक्ट को आगे बढ़ाने के लिए किया.
प्रदेश के वरिष्ठ माकपा नेता बादल सरोज कहते हैं, “संतोष चौबे कारोबारी प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं. उन्होंने जनवादी मिशनों का इस्तेमाल पैसा बनाने और अपने कारोबार को जमाने के लिए किया. यह सन 1980 के दशक की बात है जब उन्होंने हमारे एक बड़े साक्षरता आंदोलन को जिसमें बड़ी तादाद में छात्र-छात्राएं शामिल थे, हाइजैक किया और अपना निजी संस्थान आईसेक्ट की मार्केटिंग किया. अंतत: इन्हें संगठन से निकाल दिया गया. रायपुर स्थित इनके विश्वविद्यालय में फर्जी डिग्री बांटने के लिए मुकदमा भी चला है. इनका मिशन हमेशा येनकेन प्रकारेण धन जुटाना रहा है. न इनका जनवाद से कोई ताल्लुक रहा है न विचारधारा से कोई रिश्ता रहा है.”
लेखकों की दुविधा
विश्व रंग को लेकर अब वामपंथी लेखकों के एक बड़े समूह की दुविधा यह है कि आखिर वैचारिक रूप से विपरीत ध्रुव पर खड़े लेखकों और भाजपाई पृष्ठभूमि के नेताओं के साथ आयोजन में कैसे शामिल हों? उन लोगों के साथ जो तमाम राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर अब तक एक दूसरे के खिलाफ नज़र आये. यही कारण है कि पहले आने की सहमति देने वाले कई लेखकों ने अब अपना नाम कार्यक्रम से वापस ले लिया है.
जानकारी के मुताबिक प्रधानमंत्री की समर्थक लेखिका चित्रा मुद्गल और दक्षिणपंथी रुझान वाले लेखक रमेशचंद्र शाह इस आयोजन का उदघाटन करने वालों में शामिल हैं. मोदी के मन की बात का संपादन करने वाले कमल किशोर गोयनका भी इस आयोजन में बतौर वक्ता आमंत्रित हैं. कभी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से संबद्ध रहे इस साहित्य उत्सव के आयोजक और टैगोर विश्वविद्यालय के कुलाधिपति संतोष चौबे ने सवाल उठने पर पहले खुद को राष्ट्रवादी और फिर अंतरराष्ट्रीयवादी बताकर पूरे प्रकरण को ठंडा करने की कोशिश की.
हिंदुत्ववादी विचारधारा की छत्रछाया में हो रहा आयोजन: विष्णु नागर
वरिष्ठ कवि विष्णु नागर कहते हैं, “मैं इस आयोजन में आमंत्रित था और मैंने आमंत्रण स्वीकार भी किया था. तब इसके बारे में वे बातें स्पष्ट नहीं थीं जो अब सामने आई हैं. इसके आयोजक निजी विश्वविद्यालयों के एक समूह के कर्ताधर्ता और स्वयं लेखक हैं. मैंने एक बड़े साहित्यिक आयोजन में शामिल होने की स्वीकृति दी थी, ताकि इसी बहाने अपनी रचनायें सुनाने के साथ-साथ दूसरे रचनाकारों को सुनने, उनकी कलाकृतियों को देखने का मौका मिलेगा. तब पता नहीं था कि आयोजन में दो राज्यपाल और ऐसे लोग आमंत्रित हैं जो हिंदुत्ववादी विचारधारा के संगठनों में पदासीन हैं. वैसे राज्यपाल को किसी राजनीतिक दल से परे मानने की परंपरा रही है लेकिन इसे कुछ राज्यपालों ने स्वयं खत्म कर दिया है. ये जिस विचारधारा से संबद्ध हैं उसे मैं हमेशा से अपने देश, उसकी संस्कृति, समाज और राजनीति के लिए खतरनाक मानता हूं और उसकी छत्रछाया में हो रहे ऐसे आयोजन में जाना अनुचित मानता हूं. बेहतर होता कि आयोजक इसका स्वरूप वही रहने देते जो पहले परिकल्पित था.”
नागर आगे कहते हैं, “साहित्य-कला की बड़ी हस्तियों की सदारत इसमें होती तो मैं ही क्या हर आमंत्रित लेखक-कवि जाता. लगता है कि आयोजक के उद्देश्य साहित्य के बहाने साहित्येत्तर अधिक हैं, जिन्हें पूरा करना हमारी विवशता नहीं, उनकी विवशताएं, वे जानें. हम क्यों इसके लिए इस्तेमाल हों? जिस विचारधारा के लोग अपनी राजनीतिक-प्रशासनिक हैसियत के कारण बुलाए गए हैं, उस विचारधारा के लोगों ने पिछले करीब साढ़े पांच सालों में देश में लोकतंत्र की जड़ों को खोखला किया है. विश्वविद्यालयों समेत सभी बौद्धिक-रचनात्मक संस्थाओं को नष्ट किया है. इस समाज को बुद्धि और तर्कविहीन बनाया है. विरोध में खड़े होने वाले साहित्य, समाज और संस्कृतिकर्मियों, छात्रों-युवाओं को अपमानित और लांछित किया है, उनके साथ हम कभी खड़े नहीं हुए, तो अब क्यों खड़े हुए दिखाई दें? हां, जो इस आयोजन में जाना चाहें, जायें, उनके अपने कारण हो सकते हैं. मैं उन्हें भी लांछित-अपमानित करना उचित नहीं समझता.”
लिट फेस्ट लेखकों के अपमान के उत्सव: कुमार अम्बुज
भोपाल के वरिष्ठ कवि कुमार अम्बुज इस पूरे प्रकरण पर अपनी बेबाक राय में कहते हैं, “जब कोई व्यक्ति संस्था के रूप में, करोड़ों रुपयों के साथ साहित्य में ऑपरेट करना चाहता है तो बात ठीक यहीं संदिग्ध हो जाती है. बड़ी पूंजी के चरित्र, उसकी गतिशीलता और परिणति को सहज समझा जा सकता है. इस तरह के मेले अपने इरादों और महत्वाकांक्षाओं में दरअसल एक कारपोरेट नीयत का हस्तक्षेप है. इसलिए कौन आयेगा, किसे बुलाया जायेगा, ये प्रश्न महत्वपूर्ण है. लेकिन पूंजी के आगे गौण हैं. साहित्य की दुनिया छोटी-छोटी चीजों से, आत्मीय आयोजनों, गोष्ठियों और बड़े विमर्शों से बनती है. बड़े आयोजनों में भी वह एक वैचारिकता, सामूहिकता, सामाजिकता और लेखकीय सहकारिता की जड़ों से अपना जीवन-रस लेती है, मैं ऐसे आयोजनों का उत्सुक मित्र हूं. आजकल जैसे लिट फेस्ट आयोजित हो रहे हैं, ये प्रकारांतर से लेखकों के अपमान के उत्सव हैं. यदि ये साहित्य के पक्ष में वाकई काम करना चाहते हैं तो इन्हें अपने चरित्र में बदलाव करना चाहिये.”
इस आयोजन में अपनी भागीदारी के बारे में कुमार अम्बुज कहते हैं, “अपने या उनके सौभाग्य से मैं इसमें भागीदारी के लिए आमंत्रित नहीं हूं. कारपोरेट पूंजी तो सत्ता संरचनाओं की चारण हुए बिना विकलांग है और एक कदम भी नहीं चल सकती. इसलिए वह वर्चस्व की राजनीति के दुर्गुणों यानी सांप्रदायिकता और फासिज्म की सहज संगिनी हो जाती है. इसलिए विवादास्पद और दक्षिणपंथी लेखकों की जगह वहां आरक्षित रहती है.”
अम्बुज कहते हैं कि ऐसे आयोजनों का कोई वैचारिक उद्वेलनकारी, समकालीन चुनौतियों संबंधी या गंभीर साहित्य-मीमांसा का उद्देश्य संभव नहीं है और न ही ऐसा कुछ प्रस्तुत किया गया. साहित्य को चमकदार पांडाल में महज परफार्मिंग कला समझकर, वास्तविक संकटों से ग्यारह हाथ की दूरी पर रखकर, किसी मीना बाजार का भला क्या उद्देश्य हो सकता है? यह भी नहीं भूला जा सकता कि कई अच्छे लेखक भी इनसे आकर्षित हैं.
यहां साहित्य और कला चाट की दुकान की तरह: राजेश जोशी
भोपाल में ही रहने वाले एक अन्य वरिष्ठ कवि राजेश जोशी कहते हैं, “आयोजकों के मुताबिक उनके पांच विश्वविद्यालयों के सहयोग से इसका आयोजन किया जा रहा है. ऐसे में यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि इसमें कारपोरेट पूंजी का इस्तेमाल हो रहा है या नहीं. रही बात लिट फेस्ट की तो मैं इनके हमेशा से खिलाफ हूं. मैंने जयपुर लिट फेस्ट के बारे में भी कहा था कि ऐसे आयोजनों ने साहित्य से विमर्श हटाकर उसे मेले में तब्दील कर दिया. मैंने ऐसे एक दो आयोजनों में शिरकत की और पाया कि यहां साहित्य और कला चाट की दुकान की तरह हैं. ऐसी उत्सवधर्मिता कलाओं के लिए कभी महत्वपूर्ण नहीं हो सकती. आप पॉपुलर और गंभीर को एक साथ नहीं साध सकते. सबकी अपनी जगह है, उनको गड्डमड्ड नहीं करना चाहिये.”
जोशी कहते हैं, “लिट फेस्ट अब पूरी तरह धंधा बन चुके हैं. एक बड़े लिट फेस्ट के आयोजकों ने बातचीत के दौरान मुझसे कहा कि आप देश के जिस शहर में कहें, हम लिट फेस्ट कर सकते हैं क्योंकि हमें इसके सारे गुर समझ में आ गये हैं.”
आयोजन में अपनी भागीदारी के बारे में जोशी कहते हैं कि संतोष चौबे उनके बहुत अच्छे मित्र हैं. उन्हें बुलाया गया था, उन्होंने स्वीकृति भी दी थी लेकिन बाद में कुछ ऐसी परिस्थितियां बनीं कि उन्होंने इसमें नहीं जाने का फैसला किया. ऐसा करते हुए अफसोस भी हुआ लेकिन राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से पीछे नहीं हटा जा सकता. उनके मुताबिक जब शुरू में इसकी योजना बनी थी तो बताया गया था कि प्रणव मुखर्जी आयेंगे. फिल्मी दुनिया से श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी अमोल पालेकर जैसे लोग आने वाले थे लेकिन अब उनकी जगह ऐसे राज्यपाल आ रहे हैं जिनकी विश्वसनीयता बहुत संदेहास्पद है. हालांकि राज्यपालों के बारे में ऐसा नहीं कहा जाता लेकिन हाल-फिलहाल यह चलन बदला है. मध्य प्रदेश के राज्यपाल का आना तो फिर भी समझा जा सकता है लेकिन कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश की राज्यपाल को बुलाये जाने को वह पूरी तरह राजनीतिक कदम मानते हैं और कहते हैं कि ऐसे में छिपी हुई राजनैतिक मंशा से इनकार नहीं किया जा सकता.
विचारहीन दिख रहा करोड़ों रुपये का यह आयोजन: मंगलेश डबराल
पहले समारोह में आने की सहमति देकर अब नहीं आ रहे एक अन्य वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल कहते हैं, “इस कार्यक्रम के बारे में यह कह सकता हूं कि यह किसी भी अन्य लिट फेस्ट की तरह एक बहुत बड़ा मेला ही होने जा रहा है. मेरी जानकारी में इसमें करोड़ो रुपये खर्च हो रहे हैं जो हिंदी जैसी निर्धन भाषा के लिए बहुत बड़ी रकम है. इस कार्यक्रम के पीछे कोई विचार नजर नहीं आता. देश में इस समय में सांप्रदायिकता और पूंजीपरस्ती एक साथ चल रही है. देश की मौजूदा सरकार इसका ज्वलंत उदाहरण है.”
वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केसवानी कहते हैं कि यह साहित्य उत्सव संदिग्ध पूंजी के बल पर एक व्यक्ति का स्वयं को साहित्य का मठाधीश स्थापित करने का प्रयास है जिसे सफल बनाने में कुछ मजबूर कवि लेखक मदद कर रहे हैं. उनके मुताबिक यह राजनीतिक दलों की तरह का प्रयास है जहां पूंजी के आधार पर भीड़ जुटाकर समाज को आतंकित किया जाता है.
शिरकत करने के पक्ष में भी हैं तर्क
इस आयोजन में जाने की हिमायती लेखकों में से एक अशोक कुमार पांडेय अपनी फेसबुक वाल पर लिखते हैं, “भोपाल में एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी है- रवींद्र नाथ टैगोर यूनिवर्सिटी. वह एक लिट फ़ेस्ट करा रही है. मतलब मेगा फ़ेस्ट टाइप का. संगीत कला साहित्य वग़ैरह चौंसठों भोग हैं. लगभग हर कोई आमंत्रित है. अब यूनिवर्सिटी का कुलाधिपति अर्थात चांसलर होता है राज्यपाल. तो इसमें मध्य प्रदेश के राज्यपाल महामहिम लाल जी टंडन आ रहे हैं उद्घाटन करने. बताया जा रहा है कि इसकी योजनाओं से पूर्व राज्यपाल भी जुड़ी रही थीं तो वह भी आ रही हैं. पूर्व राष्ट्रपति महामहिम प्रणव मुखर्जी भी आमंत्रित हैं.
अब इसमें बहुत से प्रगतिशील लोगों के जाने की ख़बर से कुछ संवेदनशील मित्र चिंतित हैं कि साहित्य अकादमी विजेता चित्रा मुद्गल जी और इन महमहिमों की उपस्थिति से 40-50 वर्षों से प्रगतिशील वग़ैरह रहे लोग संक्रमित होकर कहीं भक्त न हो जायें. संवेदनशील मित्र इस संक्रमण से इतना सावधान रहते हैं कि देश भर में हो रहे फ़ेस्टिवलों में जाते हैं तो शाम को विशेष संध्यावंदन करके तुरन्त इलाज कर ले लेते हैं. ख़ैर, चूंकि शिशु मंदिर, यूनिवर्सिटी, दफ़्तर, परिवार, टीवी, आयोजन में लगातार संघ दीक्षितों के साथ रहकर अपन इस वायरस से इम्यून हो चुके हैं इसलिए मित्रों से अनुरोध है कि हमारी चिंता एकदम न करें.”
वरिष्ठ पत्रकार एवं कवि विमल कुमार एक तथ्यात्मक त्रुटि की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि निजी विश्वविद्यालयें में राज्यपाल कुलाधिपति नहीं होता इसलिए यह तर्क बेमानी है.
कवि-पत्रकार सचिन श्रीवास्तव भी इस विषय पर बेबाक राय रखते हैं. सचिन कहते हैं, “कारोबारी पूंजी के जरिये साहित्यिक आयोजन से निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का इतिहास न नया है, न ही अंतिम. भोपाल का आगामी आयोजन ऊपरी सतह पर कुछ यूनिवर्सिटीज का संयुक्त आयोजन दिखाई देता है, लेकिन असल में तो यह कारोबारी पूंजी और साहित्य का दुर्लभ संगम है. इस आयोजन में शामिल सभी प्राइवेट यूनिवर्सिटीज एक ही परिवार द्वारा संचालित होती हैं जिसके मुखिया संतोष चौबे हैं. इस आयोजन के पीछे मूल संस्था आईसेक्ट लिमिटेड है. आइसेक्ट के कर्ताधर्ता संतोष चौबे खुद पांच कंपनियों में डॉयरेक्टर हैं. इनमें सिग्निफिशिएंट इलेक्ट्रॉनिक्स, सेक्ट इन्फोटेक, आईसेक्ट लिमिटेड, पहले पहल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड और एआईसी-आएनटीयू फाउंडेशन शामिल हैं. इसके अलावा उनके परिवार के पांच अन्य सदस्य भी विभिन्न कंपनियों में डायरेक्टर हैं. इस तरह यह एक कारोबारी घराना है. इसके साथ यह भी याद रखा जाना चाहिए कि उक्त यूनिवर्सिटी उत्तर पुस्तिका घोटाला, फर्जी डिग्री घोटाले के लिए भी सवालों के घेरे में रही हैं. यूजीसी के नियमों की अनदेखी करते हुए कोर्सों के संचालन पर भी सवाल हैं. इसके अलावा केंद्र सरकार के कौशल विकास फंड की अनियमितता का मामला भी है. यह सारे मामले समय समय पर खबरों में रहे हैं, और सार्वजनिक हैं.”
माना जा रहा है कि इस विश्वस्तरीय आयोजन पर 8 से 10 करोड़ रुपये खर्च किये जा रहे हैं. न्यूजलॉन्ड्री ने आयोजकों का पक्ष जानने के लिए ईमेल और फोन द्वारा संपर्क किया लेकिन उनका पक्ष नहीं मिल सका. हालांकि कुछ दिन पहले आयोजकों में शामिल साहित्यकार मुकेश वर्मा ने कहा था कि विश्वरंग आयोजन पांच यूनिवर्सिटीज के शैक्षणिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के आवंटन वाले पैसे के संयोग से संभव हो रहा है.
सन 1989 से अब तक भोपाल बहुत बदल चुका है. वागर्थ पोएट्री फेस्टिवल में आने वाले हर कवि को 5,000 रुपये की राशि दी गयी थी. उस समय विरोध कर रहे लोगों से कार्यक्रम में आये एक भारतीय कवि ने कहा था आप चार वर्ष तक राष्ट्रीय शोक नहीं मना सकते. क्या भोपाल के लोगों ने गैस कांड के बाद सिनेमा देखना बंद कर दिया?
इस बार कार्यक्रम में शामिल नहीं हो रहे अधिकांश साहित्यकार मानते हैं कि इस बार भोपाल किसी शोक में तो नहीं है लेकिन इस बार पूरे देश के सामने पहले से कहीं बड़े खतरे मौजूद हैं. उनकी दृष्टि में भोपाल में हो रहा साहित्य सम्मेलन खतरे की वजहों से जूझना तो दूर, उन्हें प्रश्रय देता नजर आता है.
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