Newslaundry Hindi
हिन्दुस्तान में कश्मीर की ख़बर तो है मगर उसमें ख़बर नहीं है
हिन्दुस्तान हिन्दी का बड़ा अख़बार है. कश्मीर पर इसकी पहली ख़बर की बैनर हेडलाइन और ख़बर के भीतर का तत्व देखिए. 370 पर यूरोपीय सांसदों का साथ. जबकि ख़बर के भीतर अख़बार लिखता है कि यूरोपीय सांसदों ने कहा कि 370 भारत का आंतरिक मामला है. उन्होंने 370 हटाए जाने का स्वागत किया न समर्थन. आंतरिक मामला बताना साथ नहीं होता है. साथ देने से टालने के लिए आंतरिक मामला बताया जाता है. बेशक यूरोपीय सांसदों ने कहा कि आतंकवाद से लड़ाई में भारत के साथ हैं, लेकिन यह कहां कहा कि 370 पर भारत के साथ हैैं.
हिन्दुस्तान अख़बार ने जर्मनी से यूरोपियन संघ की संसद में सांसद निकोलस फेस्ट का बयान ही नहीं छापा है. निकोलस फेस्ट ने कहा है कि अगर यूरोपियन संघ के सांसदों को कश्मीर दौरा करने दिया गया है तो विपक्ष के भारतीय नेताओं को भी जाने देना चाहिए था. सरकार को इस तरह का असंतुलन नहीं पैदा करना चाहिए. हिन्दी के पाठकों के बीच यह सूचना नहीं जाती है. निकोलस ने किसी एक अख़बार से नहीं बात की थी बल्कि न्यूज़ एजेंसी एएनआई को बयान दिया था जो सबके लिए उपलब्ध था. कई चैनलों पर चला भी था.
हिन्दुस्तान ने दूसरे पैराग्राफ में लिखा है कि दौरे के आख़िरी दिन शिष्टमंडल ने साझा पत्रकार वार्ता की. लेकिन यह नहीं बताता है कि इस पत्रकार वार्ता में कश्मीर के स्थानीय पत्रकारों को नहीं जाने दिया गया. ख़बर की इस पंक्ति को पढ़कर एक पाठक को लगेगा कि कश्मीर में सब कुछ खुला है. खुलकर प्रेस वार्ता हो रही है. जबकि यह सही नहीं है. बकायदा तय किया गया है कि प्रेस कांफ्रेंस में कौन-कौन नहीं आएगा. इस महत्वपूर्ण हिस्से की सूचना यह अख़बार अपने पाठकों को नहीं देता है. अगर यह बात आप जान ही जाएंगे तो क्या फर्क पड़ जाएगा. आखिर एक अख़बार को सत्य छिपाने से क्या मिला? उसे तो बहुत कुछ मिला. विज्ञापन से लेकर सरकार के डंडे से बचने का मौका लेकिन गंवाया पाठकों ने. वे सही बात नहीं जान सके.
हिन्दुस्तान अखबार 23 सांसदों के दौरे को शिष्टमंडल लिखता है. ऐसा लगता है कि यूरोपियन संघ की संसद ने कोई शिष्टमंडल भेजा है. यूरोपियन संघ की संसद ने इससे साफ इंकार किया है. कहा है कि दौरा निजी है. उनकी जानकारी में नहीं है. हिन्दुस्तान अपनी इस रिपोर्ट में हिन्दी के पाठकों को कुछ नहीं बताता है. जबकि 30 अक्तूबर के हिन्दुस्तान में पेज नंबर 16 पर कोने में इसकी संक्षिप्त जानकारी है कि ये सांसद एक एन जी ओ के बुलावे पर आए हैं. लेकिन अखबार एनजीओ के बारे में अपने पाठकों के बारे में कुछ नहीं बताता है. जबकि अख़बार के पास ख़बरों को विस्तार से छापने की जगह भी होती है और योग्य संवाददाता भी होते हैं.
एनजीओ कौन है, इसे चलाने वाले कौन है, क्या हिन्दुस्तान को अपने पाठकों को नहीं बताना चाहिए? मादी शर्मा की भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं? मादी शर्मा ख़ुद को इंटरनेशनल बिजनेस ब्रोकर कहती हैं. उनकी संस्था का नाम लॉबीफैक्ट डॉट ईयू की साइट पर है जो पैसे लेकर लॉबी करने वाली संस्थाओं का ब्यौरा रखती है. मादी शर्मा की प्रधानमंत्री मोदी के साथ तस्वीर है. मादी शर्मा कौन हैं जो अपने स्तर पर यूरोपियन संघ के सांसदों को ईमेल लिखती हैं? उस पत्र में 28 अक्तूबर को प्रधानमंत्री मोदी से मिलाने की बात करती हैं. तो मादी शर्मा ने पहले प्रधानमंत्री से मंज़ूरी ली होगी. सरकार को पता होगा. मादी ने ईमेल में लिखा है कि आने जाने का ख़र्चा इंटरनेशनल इस्टीट्यूट फॉर नॉन एलाएड स्टडीज़ उठाएगी. इस संस्था का दफ्तर दिल्ली के सफदरजंग में है. आखिर यह संस्था किस हैसियत से 23 सांसदों के तीन दिन के दौरे का ख़र्च उठा रही है. इनकी यात्रा पर करोड़ों खर्च करने का पैसा कहां से आया? अगर सब कुछ सही है तो इस संस्था के अंकित श्रीवास्तव ग़ायब क्यों हो गए? मीडिया से बात करने क्यों नहीं आए?
हिन्दी प्रदेशों के पाठकों के साथ बहुत धोखा हुआ है. आज से नहीं.कई दशकों से. इन प्रदेशों में शिक्षा के पतन के साथ-साथ पत्रकारिता का भी पतन हुआ. लोगों को लगा कि ये अख़बार उन्हें देश दुनिया के बारे में सही जानकारी दे रहे हैं. मगर हिन्दी पत्रकारिता ने हिन्दी प्रदेशों को अंधेरे में रखने का काम किया ताकि यहां के लोगों की मानसिक क्षमता का विकास ही न हो. नतीजा यह हुआ कि हिन्दी प्रदेशों का विकास रुका. यहां की संस्थाएं बेमानी और बेलगाम हो गईं. इस पतन को साकार करने में हिन्दुस्तान जैसे हिन्दी अख़बारों और चैनलों का बड़ा हाथ है. जानबूझ कर हिन्दी प्रदेशों को कम से कम जानकारी के दायरे में रखा जाता है ताकि इन्हें पिछड़नेपन का ग़ुलाम बनाकर रखा जाए.
लोग अभी भी भ्रम में है कि हिन्दुस्तान जैसे बेहद ख़राब अख़बारों से उन्हें जानकारी मिल रही है. वे जागरुक हो रहे हैं. लेकिन जब आप इस अखबार की इस पहली ख़बर को पढ़ने के बाद अन्य जगहों पर छपी ख़बरों को देखेंगे तो पता चलेगा कि कैसे पहले भाषा की हत्या होती है. फिर ख़बरों की हत्या होती है. बीबीसी हिन्दी ने ब्रिटेन के सांसद क्रिस डेवीज़ का इंटरव्यू छापा है. क्रिस को ही मादी शर्मा ने ईमेल किया था. जब क्रिस ने कहा कि वे बग़ैर सुरक्षा के या बंदिश के लोगों से मिलना चाहेंगे तो उन्हें दौरे में शामिल नहीं किया गया. क्रिस ने कहा है कि वे मोदी सरकार के प्रोपेगैंडा का हिस्सा नहीं बनना चाहते हैं.
आप इस ख़बर को ख़ुद से भी पढ़ें. देखें कि पढ़ने के बाद क्या जानकारी मिलती है. फिर दूसरे कुछ अख़बारों में छपी ख़बरों से मिलान कराएं. हालांकि वहां भी कोई अच्छी स्थिति नहीं है लेकिन कुछ न कुछ अलग जानकारी मिलेगी जिससे आप अंदाज़ा लगा सकेंगे कि कैसे हिन्दुस्तान की यह ख़बर ख़राब तरीके से पेश की गई है. जानबूझ कर ताकि लोगों को लगे कि कश्मीर पर ख़बर भी पढ़ ली और ख़बर में कुछ हो भी न हो.
बाकी फ़ैसला आपको करना है. अख़बार भी बदल लीजिए और अख़बार पढ़ने का तरीका भी. यही काम आप चैनलों के साथ कीजिए. हिन्दी अख़बारों और चैनलों के झांसे में मत आइये.आप पत्रकारिता के पैसे देते हैं, भरोसा देते हैं, समय देते हैं.
सोचिए, हिन्दुस्तान ने अपने लाखों पाठकों से कश्मीर को लेकर कितनी सूचनाएं छिपाई होंगी. उन्हें जानकारियों से वंचित रखा होगा.
Also Read
-
On the ground in Bihar: How a booth-by-booth check revealed what the Election Commission missed
-
Kalli Purie just gave the most honest definition of Godi Media yet
-
TV Newsance 311: Amit Shah vs Rahul Gandhi and anchors’ big lie on ‘vote chori’
-
‘Total foreign policy failure’: SP’s Chandauli MP on Op Sindoor, monsoon session
-
समाज के सबसे कमजोर तबके का वोट चोरी हो रहा है: वीरेंद्र सिंह