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पीइंग ह्यूमन का युद्ध, ‘मोदिया’ के विरुद्ध

मेरा नाम रमित है. मैं कोई पत्रकार नहीं हूं, ना ही मैंने पत्रकारिता का कोई औपचारिक प्रशिक्षण लिया है. हालांकि मुझे पत्रकारिता की थोड़ी बहुत समझ है और मैं आधुनिक लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का तहेदिल से सम्मान भी करता हूं.

आधुनिक लोकतंत्र की कार्यप्रणाली निर्वाचित विधायिका, नियुक्त न्यायपालिका और कार्यपालिका के अलावा इस पर भी निर्भर करती है कि मतदाता को यह स्पष्ट समझ हो और पता हो कि देश में चल क्या रहा है. इसके लिए जरूरी है कि मीडिया तटस्थ, निष्पक्ष और तर्कसंगत बना रहे. हालांकि अर्नब गोस्वामियों और रॉजर आइल्स से भरी इस दुनिया में इसकी उम्मीद रखना मुश्किल है.

पिछले कुछ सालों से मैं इंटरनेट पर ‘ऑफिशियल पीइंग ह्यूमन’ यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध वीडियो के माध्यम से भारतीय टीवी मीडिया का विश्लेषण कर रहा हूं. मेरे वीडियो भारतीय समाचारों की विसंगतियों, विरोधाभासों और पूर्वाग्रहों को हास्य और व्यंग्य के माध्यम से समझाने की कोशिश करते हैं. मैंने मुख्यधारा के समाचार चैनलों के सम्पादकीय झुकाव को समझने के लिए उन पर प्रमुख मुद्दों को दिए गए एयरटाइम का भी अध्ययन किया और पाया कि रुझान चिंताजनक हैं.

उदहारण के तौर पर, (19 अक्टूबर 2019 तक) चार प्रमुख हिंदी समाचार चैनलों– आज तक, न्यूज़ 18, ज़ी न्यूज़ और इंडिया टीवी- पर दिखाई जाने वाली अंतिम 202 बहसों को लीजिये. उनकी कवरेज बताती है:

पाकिस्तान पर हमले से जुड़ी: 79 बहस

विपक्ष (नेहरू सहित) पर हमले से जुड़ी: 66 बहस

मोदी और बीजेपी/आरएससएस की प्रशंसा से जुड़ी: 36 बहस

राम मंदिर से जुड़ी: 14 बहस

बिहार की बाढ़ से जुड़ी: 3 बहस

चंद्रयान से जुड़ी: 2 बहस

स्वामी चिन्मयानन्द के खिलाफ बलात्कार से जुड़ी: एक बहस

पीएमसी बैंक घोटाले से जुड़ी: एक बहस

अर्थव्यवस्था: 0

बेरोजगारी: 0

शिक्षा: 0

स्वास्थ्य सेवा: 0

पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर: 0

किसानों की बदहाली: 0

गरीबी और कुपोषण: 0

महिलाओं की सुरक्षा: 0

पर्यावरण संरक्षण: 0

मॉब लिंचिंग: 0

किसी सरकारी फैसले या नीति संबंधित बहस: 0

यह विश्लेषण चार लोकप्रिय समाचार डिबेट शो- दंगल (आज तक), आर पार (न्यूज़ 18), ताल ठोंक के (ज़ी न्यूज़) और कुरुक्षेत्र (इंडिया टीवी)- को देखने के बाद किया गया है. हैरानी की बात यह है कि इनमें से कोई भी शो 1990 के दशक की सनी देओल और अजय देवगन अभिनीत किसी फिल्म का शीर्षक नहीं है. लेकिन ये सभी डिबेट शो किसी तथ्यपरक समाचार कार्यक्रम की तरह कम और भाजपा/आरएसएस और उसके अति-राष्ट्रवादी एजेंडे के मुखपत्र की तरह ज्यादा काम करते हैं.

जिन विषयों को इन न्यूज़ चैनलों ने नहीं छुआ वो विषय असल में सरकार को और उसके अच्छे दिनों के दिवास्वप्न की हवा निकाल सकते थे. अगर ये साल 2011 होता तो हमारे समाचार चैनलों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को प्रेस कांफ्रेंस में सीधा सवाल दाग दिया होता लेकिन आज वो हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री, जिन्होंने पिछले पांच सालों में एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं की, का बचाव करने के लिए सतत समर्पित हैं.

मेरे शोध के मुताबिक बहस के कुछ शीर्ष निम्नलिखित रहे:

ये पीओके वापस दे दे इमरान (आज तक)

मेरे राम बनाम तेरे राम (ज़ी न्यूज़)

मोदी का प्रण – पाकिस्तान का चीर हरण (न्यूज़ 18)

विपक्ष पड़ा है चक्कर, में कोई नहीं है टक्कर में (आज तक)

जब तक तोड़ेंगे नहीं, तब तक छोड़ेंगे नहीं (न्यूज़ 18)

मंगल भवन अमंगल हारी – राम मंदिर की करो तैयारी (न्यूज़ 18)

2014 के बाद से एक नया भारत सामने आया है. जहां राष्ट्रवाद तार्किकता को ख़त्म करने पर आमादा है. यहां न्यूज़ एंकर किसी ख़बर को वस्तुपरक तरीके से दिखाने के बजाय सिर्फ अपने विचारों को चिल्ला-चिल्ला कर सामने रखते हैं. तथ्य, तर्क और शोध पर आधारित पत्रकारिता की जगह अब व्यक्तिगत राय पर आधारित बहसों ने ले ली है, और यह बिग बॉस जैसे टीवी शो जैसा लगने लगा है.

इन बहसों में शामिल होने वाले पैनलिस्ट बिग बॉस के कंटेस्टेंट की तरह होते हैं जिन्हें पूरे दिन काल्पनिक मुद्दों पर चीखने के लिए चुना जाता है. उन्होंने रियलिटी शो द्वारा अपनाया गया फार्मूला पकड़ लिया है और वो लगातार ऐसा कंटेंट दिखाते हैं जो हमें अपना दिमाग बंद करके उन्हें देखने के लिए मजबूर करता है. दुर्भाग्यवश ये सब भारतीय दर्शकों को लुभाता है.

गुस्से और व्यक्तिगत अपमान का जश्न मनाया जाता है और किसी भी तर्क को इस तरह नजरअंदाज किया जाता है मानो वह अप्रासंगिक है. इसके एवज में हमें सस्ता मनोरंजन, धार्मिक कट्टरता और समाचार के रूप में अपमानजनक, अश्लील सन्देश देखने को मिलता है. दर्शकों और न्यूज़ चैनलों को यह समझना चाहिए कि पत्रकारिता कोई रियलिटी टीवी शो नहीं है. इन दोनों का उद्देश्य अलग-अलग चीज़ें दिखाने का है. हम एक देश के रूप में ये भूल गए हैं.

आज का भारतीय न्यूज़ मीडिया सांप्रदायिक और लापरवाह है. आप समाचार प्रसारण मानक प्राधिकरण के निर्देशों (न्यूज़ ब्राडकास्टिंग स्टैण्डर्ड अथॉरिटी) की, जिसमें बताया गया है कि नवंबर में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के आने तक अयोध्या भूमि विवाद को किस तरह से कवर करना है, तुलना प्राइम टाइम न्यूज़ पर बहस और रिपोर्टिंग से करके देखिये. एनबीएसए की एडवाइजरी ने चैनलों को कहा था कि वो सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर अटकलें न लगाएं, किसी विशेष पक्ष के लिए पक्षपात न करें, ऐसे किसी पैनलिस्ट को न बुलाएं जो कि अतिवादी और किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिकता को भड़काने से बचें.

इन निर्देशों का उल्लंघन लगभग सभी समाचार चैनलों ने बेशर्मी से किया. ज्यादातर समाचार चैनल राम मंदिर विवाद के हल के रूप में राम मंदिर के समर्थन के  लिए मुखर थे, जिसमें उन्होंने राम और विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा प्रस्तावित राम मंदिर के दृश्य दिखाए. उन्होंने इस मुद्दे पर अंतहीन भड़काऊ बहस आयोजित की जिसमें ऐसे लोगों को बुलाया गया जो इस विवाद को सांप्रदायिक तमाशा बनाते रहे. आज तक के एक डिबेट शो को ट्विटर पर ‘जन्म भूमि हमारी, राम हमारे, मस्जिद वाले कहां से पधारे’ की टैगलाइन के साथ जारी किया गया.

इसको ध्यान में रखते हुए मैंने ऐसी खतरनाक और सांप्रदायिक ख़बरों, जो कि एनबीएसए के निर्देशों की उपेक्षा कर रही थीं, के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए एक पिटीशन शुरू की है. एनबीएसए और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को सम्बोधित करते हुए इस पर अभी तक 80,000 से अधिक हस्ताक्षर हो चुके हैं. आप सोच रहे होंगे कि क्या टीवी समाचार में सुधार की गुंजाइश है? इसका उत्तर देने के लिए हमें एक और प्रश्न पूछना चाहिए: आपने पिछली बार कब किसी बड़े उद्योगपति के बारे में कोई नकारात्मक ख़बर सुनी थी?

शायद कभी नहीं. हकीकत यह है कि बड़े उद्योग घराने न केवल मीडिया बल्कि हमारे देश की राजनीति को भी नियंत्रित करते हैं. यह सब इलेक्टोरल बांड में नाम देने की सुविधा, विदेशी राजनीतिक फंडिंग की वैधता और 2017 एवं 2018 में फॉरेन कंट्रीब्यूशन (रेगुलेशन) एक्ट के संशोधन के कारण राजनीतिक दलों को कारपोरेट फंडिंग को सीमित करने वाली सभी बाधाओं को हटाए जाने की वजह से ही संभव हुआ. कारपोरेट बॉस के लिए अगर राजनैतिक प्रतिष्ठान और मीडिया का एक ही कहानी कहना उनके व्यवसाय के लिए अच्छा है.

क्या इसका मतलब यह है कि हम समाचार की आड़ में फैलाई जा रही खतरनाक सूचना और सांप्रदायिक नफरत के सामने झुक जाएं और उससे लड़ना बंद कर दें? नहीं… बिलकुल नहीं. एक भारतीय टीवी पत्रकार जो वास्तव में अपना काम कर रहे हैं, ने कहा, “हर लड़ाई जीतने के लिए नहीं लड़ी जाती है, कुछ इसलिए भी लड़ी जाती हैं ताकि दुनिया को बताया जा सके कि कोई तो युद्ध मैदान में था विरोध करने के लिए.”

अपने लोकतंत्र को बचाने का सिर्फ एक मौका है कि हम समाचार चैनलों का, जिसे मैं ‘मोदिया’ कहना पसंद करता हूं, और उन विज्ञापनदाताओं का, जो समाचारों को प्रायोजित करते हैं,  सम्पूर्ण बहिष्कार कर दें. इसके साथ ही हमें ऐसी स्वतंत्र न्यूज़ इंडस्ट्री का इंटरनेट पर निर्माण करना होगा जिसका नेतृत्व सामान्य नागरिक और छोटी संस्थाएं करें. हमें ऐसे गेटकीपर्स की जरूरत है जो मानते हैं कि कोई भी सूचना साफ़ और स्पष्ट होनी चाहिए वो भी प्रासंगिक और तथ्यों पर आधारित. हमारा लोकतंत्र तभी आगे बढ़ सकता है जब खबर सूचना दे, जब मीडिया हमारी समझ को बढ़ाए न कि आवेग को भड़काए.

#बायकाटमोदिया #बायकाटहेट