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एक वकील: 750 केस, 150 से ज्यादा जनहित याचिकाएं
23 जुलाई को 49 फिल्मी कलाकारों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा. लिखने वालों में फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप, मणिरत्नम, श्याम बेनेगल, अभिनेत्री अपर्णा सेन और गायिका सुधा मुद्गल जैसी कई हस्तियां शामिल थीं. पत्र में कलाकारों ने मॉब लिचिंग की बढ़ती घटनाओं पर चिंता व्यक्त की. मॉब लिचिंग की घटनाओं में आरोपितों के खिलाफ सख्त कार्रवाई न होने को पत्र में रेखांकित किया गया. कलाकारों ने प्रधानमंत्री से “जय श्री राम” के नारे को हिंसा के उद्घोष में तब्दील होते जाने पर भी चिंता जताई थी.
इसके ठीक दो दिन बाद 26 जुलाई को 61 अन्य कलाकारों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखने वाले कलाकारों की आलोचना में एक खुला पत्र लिखा. खुला खत लिखने वालों में कंगना रानौत, मधुर भंडारकर, विवेक अग्निहोत्री, सोनल मानसिंह जैसे कलाकार शामिल थे. इन कलाकारों ने आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री को पत्र लिखने वाले कलाकारों का विरोध ‘सेलेक्टिव’ और ‘फर्जी धारणाओं’ पर आधारित है. प्रधानमंत्री को खत लिखने वालों पर यह भी आरोप लगाए गए कि वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि धूमिल कर रहे हैं.
प्रधानमंत्री को खत लिखने का अखाड़ा अभी तक कलाकारों और दिल्ली-मुंबई का प्रबुद्ध तबका था जिस पर मीडिया में बहसों का दौर चल ही रहा था कि अचानक से बिहार के मुजफ्फरपुर डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के वकील सुधीर कुमार ओझा ने इसे दिलचस्प ट्विस्ट दे दिया. 27 जुलाई को मुजफ्फरपुर के सीजीएम (चीफ ज्यूड्यिशियल मजिस्ट्रेट) सूर्यकांत तिवारी के कोर्ट में एक शिकायत याचिका दायर कर दी गई. ओझा की याचिका के मुताबिक, “कलाकारों ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र को मीडिया में ले जाकर भारत की छवि खराब करने का प्रयास किया.” सीजीएम कोर्ट ने बिहार पुलिस को एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया. शिकायत याचिका दायर करने के लगभग दो महीने बाद, 4 अक्टूबर को भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (ए), 153B, 160, 190, 290, 297 और 504 के अंतर्गत पुलिस ने एफआईआर (673/19) दर्ज किया.
हालांकि एफआईआर दर्ज करने के पांच दिन बाद ही, 9 जुलाई को बिहार पुलिस ने केस बंद करने का ऑर्डर जारी कर दिया. मुजफ्फरपुर के एसएसपी मनोज कुशवाहा ने कहा, “चूंकि याचिककर्ता ने अपने शिकायत के पक्ष में जरूरी साक्ष्यों को उपलब्ध नहीं करवाया इसीलिए केस को बंद करने का फैसला किया गया. पुलिस ने जांच में पाया है कि ओझा के द्वारा लगाए गए आरोप तथ्यहीन व आधारहीन हैं.” साथ ही बिहार पुलिस ने वकील सुधीर ओझा के खिलाफ आईपीसी की धारा 211/182 के अंतर्गत मामला दर्ज करने के लिए कोर्ट से अनुशंसा की है. एसएसपी ने यह भी कहा कि ओझा जैसे याचिकाकर्ताओं की वजह से कोर्ट का कीमती वक्त जाया होता है.
बिहार पुलिस के रवैये से ओझा बेहद नाराज़ और साथ ही विचलित भी हैं. अपनी आलोचना और सस्ती लोकप्रियता के आरोपों को लेकर वे खासा विचलित हैं. ओझा के आलोचकों के मुताबिक वह भाजपा के इशारे पर काम करते हैं. ओझा अपने ऊपर लग रहे आरोपों को सिरे से खारिज करते हैं. ओझा कहते हैं, “मेरी बात को समझने का प्रयास ही नहीं किया गया है. या समझकर भी जानबूझकर मुझे किनारे लगाने की साजिश रची जा रही है.”
सुधीर ओझा अब पुलिस पर भी केस करने की तैयारी में हैं. उन्होंने सीजीएम कोर्ट में एक शिकायत अर्जी दर्ज की है जिस पर सुनवाई 11 नवंबर को है.
कौन हैं सुधीर कुमार ओझा?
1990 में मुजफ्फरपुर के महेश प्रसाद सिंह कॉलेज में आईटीआई के छात्र रहे सुधीर कुमार ओझा ने सोचा भी नहीं था कि वे कभी वकालत करेंगे. आईटीआई करने के बाद वे दिल्ली के एक कारखाने में काम करने लगे. दिल्ली में मन नहीं लगा तो वापस मुजफ्फरपुर आ गए. मुजफ्फरपुर में ओझा ने इलेक्ट्रॉनिक दुकान की शुरुआत की. यह दुकान जिला कोर्ट, एसपी और डीएम आवास के पास ही था. जिला समहरणालय मुजफ्फरपुर का वह क्षेत्र था जहां लोग अपनी मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन करते हैं. ऐसे ही एक रोज मुजफ्फरपुर के किसी गांव के कुछ लोग धरना दे रहे थे. वे लोग गांव में बाघों के उत्पात से परेशान थे. उनकी मांग थी कि प्रशासन लोगों की सुरक्षा खासकर महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करे. डीएम ने भरोसा देकर प्रदर्शनकारियों का धरना खत्म करवा दिया लेकिन गांव में बाघ की समस्या बनी रही. ओझा के मुताबिक, इस घटना ने उन्हें बहुत प्रभावित किया. यह घटना ओझा के ज़िंदगी का टर्निंग प्वाइंट बन गई. उन्हें एहसास हुआ कि उन्हें समाज की सेवा और मजलूमों की आवाज मजबूत करने की जरूरत है और उसका रास्ता है वकालत.
इस नए रुझान के चलते उन्होंने मुजफ्फरपुर के ही श्री कृष्ण जुबली लॉ कॉलेज से 1993-1996 के बीच वकालत की डिग्री हासिल की. ओझा बताते हैं कि वकालत के शुरुआती चार से पांच साल बेहद संघर्ष भरे थे. वर्ष 2003 में सुधीर ओझा ने पहली जनहित याचिका दायर की. यह याचिका रेलवे जोनल ऑफिस को हाजीपुर में शुरू करवाने को लेकर था. ओझा बताते हैं, “जब रामविलास पासवान रेल मंत्री थे, वे रेलवे का जोनल ऑफिस हाजीपुर लाना चाहते थे. तब तक रेलवे का एक ही जोनल ऑफिस था, वह भी गोरखपुर में. लालू प्रसाद यादव नहीं चाहते थे कि रेलवे का जोनल ऑफिस हाजीपुर आए. वे अडंगा लगा रहे थे. तब हमने जनहित याचिका दायर की और कोर्ट से अपील की कि वो इस मामले में हस्तक्षेप करे.” यहां यह बात जानना जरूरी है कि फिलहाल सुधीर ओझा लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के सदस्य हैं. बीच में कुछ वर्ष वे राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) से भी जुड़े हुए थे.
कलाकारों की चिट्ठी के खिलाफ दायर याचिका के बारे में बताते हुए सुधीर कहते हैं कि कोई भी आम नागरिक प्रधानमंत्री को पत्र लिख सकता है लेकिन जो बातें कलाकारों की तरफ से लिखे गए पत्र में दर्ज हैं उससे देश की छवि को नुकसान पहुंचता है. ओझा कहते हैं, “मान लीजिए जो बातें पत्र में लिखी गईं हैं वो सच भी हैं तो क्या आप इस तरह के पत्र लिखकर देश की छवि खराब करने का काम कीजिएगा? क्या देश के प्रधानमंत्री की छवि को खराब करने का काम कीजिएगा?” ओझा इस मामले को देश का आंतरिक मामला बताते हैं. उनके मुताबिक इस मामले को देश के भीतर ही सुलझाना चाहिए. उनका मानना है कि अगर प्रधानमंत्री पत्र का जवाब नहीं देते तो कलाकारों को कोर्ट में जाना चाहिए न कि पत्र लिखकर देश को बदनाम करना चाहिए.
62 कलाकारों की तरफ से लिखे गए काउंटर खुले पत्र पर सुधीर ने कहा, “जिन कलाकारों ने पत्र के जवाब में एक और पत्र लिखा वे भी बुद्धिमान हैं. इन 62 कलाकारों ने जिन 49 कलाकारों पर सवाल उठाए हैं, क्या उन 49 ने उनके आरोपों का खंडन किया है? इसका मतलब कि 62 कलाकारों के आरोप को उन्होंने स्वीकृति दी है.”
प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष को मज़बूत करते हुए सुधीर ओझा कहते हैं कि भले प्रधानमंत्री ने पत्र का जवाब न दिया हो लेकिन लोकसभा और बाकी जगहों पर उन्होंने ऐसी घटनाओं पर गंभीर चिंता जताई है और उसपर कार्रवाई करने की बात कही है.
इसके बाद ओझा तुरंत ही कांग्रेस की तरफ मुड़ जाते हैं और कहते हैं, “कांग्रेस की सरकार में सबसे ज्यादा लिचिंग हुई है.” उनके पास अपने दावे को पुख्ता करने के लिए कोई आंकड़ा नहीं हैं. उनकी बात उनकी धारणा पर आधारित है. आगे ओझा कहते हैं, “आज देश का प्रधानमंत्री विदेशों में भारत की छवि बहुत बेहतर कर रहा है आप उसकी छवि खराब कर रहे हैं.”
वेबसाइट द क्विंट के मुताबिक 2015 से लेकर अब तक मॉब लिचिंग की घटनाओं में 111 लोगों की मौत हो चुकी है. द हिंदू की रिपोर्ट बताती है कि 2014 के बाद से लिचिंग की 98 फीसदी घटनाएं गाय से जुड़े मामले को लेकर हुई हैं. इंडियास्पेंड की रिपोर्ट बताती है कि 2010 से लेकर 2017 तक हुई ऐसी घटनाओं में 52 फीसदी मुसलमानों को ही निशाना बनाया गया. इस दौरान मरने वालों में भी 85 फीसदी मुसलमान ही थे. वहीं बाकी मामलों में ईसाइयों या दलितों को सबसे ज़्यादा निशाना बनाया गया.
क्या वकील सुधीर ओझा को नहीं लगता कि उन्होंने कलाकारों पर मुकदमा दर्ज करवाकर भारत के लोकतांत्रिक स्वरूप को धक्का पहुंचाया है? इसके जवाब में सुधीर का कहना है कि कलाकारों के पत्र से देश के लोकतांत्रिक दावे को धक्का लगता है इसलिए उन्होंने देशहित में याचिका दायर की थी. हिंदुत्व के पैरोकारों की तर्ज पर ही सुधीर कहते हैं, “अरबों की आबादी वाले देश में सिर्फ 49 लोगों को लग रहा है कि मॉब लिचिंग हो रही है?”
अपनी याचिका की तरफदारी करते हुए सुधीर कहते हैं, “भारत का कोई भी नागिरक जो संविधान में यकीन करता है वह कोर्ट में अर्ज़ी दाखिल कर सकता है. संविधान का अनुच्छेद 19 जो अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है उसका इस्तेमाल कर सकता है. लेकिन उसी अनुच्छेद 19 के दूसरे भाग का भी ज्ञान जरूरी है. आपकी अभिव्यक्ति की आजादी किसी की भावनाओं को आहत करने के आधार पर नहीं टिकी रह सकती है.”
यहां सुधीर अपने बारे में एक और दिलचस्प बात बताते हैं. सुधीर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) नेता राज ठाकरे की तरफ से बिहारियों पर की गई विवादित टिप्पणी को लेकर भी जनहित याचिका दाखिल कर चुके हैं. 23 वर्ष के करियर में उन्होंने 745 केस दर्ज करवाए हैं. जिनमें लगभग 150 जनहित याचिका है. वह कहते हैं, “जब राज ठाकरे पर मैंने अर्ज़ी दाखिल की थी तो मुझे बिहारियों का जनसमर्थन मिला था. हर अर्ज़ी पर कुछ विरोधी, कुछ समर्थक रहते ही हैं.”
अपने करियर में सुधीर ओझा ने सुशील कुमार मोदी, अण्णा हजारे, अरविंद केजरीवाल, अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्या राय बच्चन, अभिषेक बच्चन, शाहरुख खान, गौरी खान, बिपाशा बसु, कैटरीना कैफ, सोनाक्षी सिन्हा और सलमान खान जैसे सितारों को मुजफ्फरपुर कोर्ट का चक्कर लगवा चुके हैं.
हालांकि सुधीर ने खुद के भाजपा समर्थक होने से पूरी तरह इनकार किया. वह खुद को पूरी तरह एक निष्पक्ष इंसान बताते हैं. वह दलील देते हैं कि अगर वह भाजपा समर्थक होते तो कभी सुशील कुमार मोदी पर केस नहीं करते. उन्होंने ये भी बताया कि इस अर्ज़ी के हवाले से जब उन्हें भाजपा समर्थक कहा जाता है तो उन्हें दुख होता है. वह कहते हैं, “मुझे नेतागिरी करने या विधायक, सांसद बनने का शौक नहीं है. मुझे अगर लगता है कि कुछ गलत हो रहा है तो मैं उसके खिलाफ आवाज़ उठाता हूं. मैं नेताओं की हां में हां मिलाने में विश्वास नहीं करता.”
इस बात की तस्दीक करते हुए सुधीर कहते हैं, “ज़िंदा मछली धारा के विपरीत तैरती है जबकि मरी हुई मछली धारा के साथ बहती है.” सुधीर का मानना है कि उनकी जो भी याचिकाएं होती हैं वह समाज की भलाई से जुड़ी होती है.
पहले तो सुधीर यह मानने को तैयार ही नहीं होते कि देश में मॉब लिंचिंग की घटनाएं हो रही हैं. लेकिन जब बिहार पुलिस ने सुधीर ओझा के खिलाफ की मुकदमा दर्ज करने का मन बना लिया है तो ओझा के सुर बदल गए हैं. वह कहते हैं, “मेरे केस को झूठा बताकर बिहार पुलिस ने खुद ये साबित कर दिया है कि देश में मॉब लिंचिंग हो रही है. देश में असहिष्सुणता है. देश में दलित और मुसलमान असुरक्षित हैं. पुलिस अगर ये कहती कि चिट्ठी फर्ज़ी है तो केस को झूठा कहा जा सकता था. लेकिन मेरे केस को झूठा करार दे दिया गया है और कलाकारों के पत्र को जायज़ ठहरा दिया गया है. इससे साफ है कि खुद सरकार ने माना कि देश में मॉब लिचिंग है. देश में लोग असुरक्षित है.”
यह कहते हुए सुधीर ओझा इस हद तक जाते हैं कि वे प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग करते हैं. ओझा कहते हैं, “अगर इस देश में मॉब लिंचिंग हो रही है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस्तीफा दे देना चाहिए. जब सरकार से मॉब लिचिंग नहीं रुक रही तो नरेंद्र मोदी को सत्ता में रहने का कोई अधिकार नहीं है.”
मॉब लिचिंग के मुद्दे पर सुधीर की राय है कि मॉब लिचिंग के आरोपी जो बेल पर छूट जाते हैं सरकार के मंत्री उनका माल्यार्पण करते हैं- यह बहुत गलत ट्रेंड है. सुधीर याद करते हुए बताते हैं, “इस तरह के हालात के लिए जनता भी दोषी है. मुझे याद आता है जब लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले के आरोप में बेल पर बाहर आए थे तो उन्हें हाथी पर घुमाया गया था. जनता ने जोरदार स्वागत किया था. ऐसी घटनाओं से आरोपियों का मनोबल बढ़ता है.”
हालांकि सुधीर को लगता है कि नीतीश सरकार ने जानबूझकर ये केस रद्द करवाया है ताकि प्रधानमंत्री मोदी को कटघरे में खड़ा किया जा सके. “मुझे मोहरा बनाकर भाजपा और जनता दल यूनाइटेड (जदयू) अपनी लड़ाई लड़ रही है”, सुधीर ने कहा. “मेरी 23 सालों की प्रैक्टिस में आज तक मुझ पर ऐसा कोई मुकदमा नहीं किया गया कि मैंने कोई केस अपने फायदे या अपने स्वार्थ के लिए किया है. मैं हमेशा जनहित में केस दायर करता हूं.”
यहां इस बात का ज़िक्र भी ज़रूरी है कि सुधीर ओझा इस बात की भी वकालत करते हैं कि राजद्रोह का कानून तो ज़रूरी है लेकिन बदलते वक्त के साथ इस कानून में अब संशोधन के की ज़रूरत है. अग्रेज़ों की हुकूमत के वक्त हालात कुछ और थे पर अब वक्त बदल गया है और देशहित में हर चीज़ में बदलाव की ज़रूरत होती है.
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