Newslaundry Hindi
जलवायु परिवर्तन की शर्तों से अलग होकर दुनिया को खतरे में डाल रहा अमेरिका
दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता जताई जा रही है और सभी देश प्रयास कर रहे हैं कि जून 2017 में हुए पेरिस समझौते के तहत सुझाए गए तमाम जरूरी सुधारों पर अमल किया जाए ताकि धरती की बिगड़ती सेहत को और ज्यादा बिगड़ने से रोका जा सके. लेकिन दुनिया के सबसे विकसित देश अमेरिका ने पेरिस एग्रीमेंट के तहत हुए समझौतों से हाथ झाड़ लिया है. अमेरिकी सरकार ने सीधे-सीधे इस समझौते से अलग होने की घोषणा दो साल पहले कर दी थी. सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरमेंट (सीएसई) ने इस पर एक विस्तृत अध्ययन करके इस पर “फेडरल एमिशन एंड पेरिस कमिटमेंट” नाम से एक विस्तृत रिपोर्ट जारी की है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका अपनी ऊर्जा खपत में कोई कमी नहीं कर रहा है. बल्कि 1990 से 2018 के बीच उसकी ऊर्जा का उत्पादन 38 फीसदी तक बढ़ गया है. यही बात प्राइवेट कार, हवाई यात्रा, स्टील, एयर कंडीशनर या बड़े घर जैसी लगभग हर उन वस्तुओं और सेवाओं पर लागू होती है जिनका योगदान कार्बन फुटप्रिंट को बढ़ाने में है. दुनिया भर के देशों के मुकाबले आज भी एक औसत अमेरिकी प्रति व्यक्ति वस्तुओं की सबसे ज्यादा खपत कर रहा है. अमेरिका अपने यहां होने वाले कार्बन उत्सर्जन को काम करने और पर्यावरण के अनुकूल जीवनशैली को अपनाने का आज भी कोई संजीदा प्रयास नहीं कर रहा है. अमेरिकी अपनी पुराने ढर्रे वाली जीवनशैली को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं. जबकि दुनिया का सबसे अधिक कार्बन फुटप्रिंट अमेरिकी ही छोड़ते हैं.
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 1990 से 2017 के बीच अमेरिका में बड़े उद्योगों से होने वाले उत्सर्जन में 12 फीसदी की कमी जरूर आई है, लेकिन इसकी वजह यह है कि अमेरिका ने इन गए सालों के दौरान औद्योगीकरण की बजाय सेवा क्षेत्र में अपना फोकस बढ़ा दिया है. ऐसा नहीं है कि अमेरिका में औद्योगिक वस्तुओं की खपत में कोई गिरावट आई हो. सीएसई का कहना है कि इससे साफ पता चलता है कि अमेरिका अपने हिस्से का औद्योगिक उत्पादन अब दूसरे देशों में करवा रहा है. इससे दूसरे देशों में औद्योगिक प्रदूषण बढ़ा है.
सीएसई का कहना है कि अमेरिका में ऊर्जा क्षेत्र से होने वाले उत्सर्जन में 1990 के स्तर की तुलना में मामूली गिरावट आई है, लेकिन इसके पीछे की वजहें खुशनुमा नहीं हैं. अमेरिका के उपयोग में आने वाली ऊर्जा में अभी भी रिन्यूएबल एनर्जी के प्रयोग में कोई खास वृद्धि दर्ज नहीं की गई है. बस ये हुआ है कि अब अमेरिका ने कोयले से बनने वाली बिजली के स्थान पर प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल बढ़ा दिया है, इससे उत्सर्जन में कोयले के मुकाबले काफी कमी आई है. लेकिन नॉन रिन्युएबल ऊर्जा स्रोत के अपने कई निहित पर्यावरणीय नुकसान होते हैं और वो प्राकृतिक गैस के दहन से भी हो रहा है. अपनी भारी-भरकम ऊर्जा जरूरतों के लिए अमेरिका मुख्य तौर पर जीवाश्म ईंधन पर निर्भर है. अमेरिका में अक्षय ऊर्जा के विकास में कोई बहुत अधिक वृद्धि नहीं हुई है. वहीं ऊर्जा की बढ़ती मांग के चलते जीवाश्म ईंधन पर उसकी निर्भरता बढ़ती ही जा रही है.
सीएसई के आकलन के मुताबिक 1990 के मुकाबले 2017 में बिल्डिंगों से होने वाले उत्सर्जन में भी काफी वृद्धि हुई है. ट्रांसपोर्ट सेक्टर से होने वाले उत्सर्जन में थोड़ा कमी का दौर 2005 में देखने को मिला था लेकिन कुछ सालों के बाद इस सेक्टर से फिर से बढ़ोत्तरी दर्ज होने लगी जो निरंतर जारी है.
सीएसई की रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका चाहे किसी भी वर्ष 1990, 2005 या किसी अन्य वर्ष को आधार मान लें, लेकिन उसे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए गंभीरता से प्रयास करने की जरूरत हैं. अमेरिका ने अपने उत्सर्जन को कम करने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाये हैं. न ही उसके प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कोई संकेत दिए हैं, चाहे वह खपत को कम करने की बात हो या ऊर्जा दक्षता को बढ़ाने की या अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने की, वह हर मोर्चे पर विफल रहा है. हालांकि इस दिशा में शहरों, राज्यों, निगम और आम लोगों द्वारा कुछ प्रयास किए गए है, पर वो काफी नहीं है, उनसे कोई बड़ा परिवर्तन आने की उम्मीद नहीं है.
(यह लेख डाउन टू अर्थ की अनुमति से प्रकाशित)
Also Read
-
TV Newsance 320: Bihar elections turn into a meme fest
-
We already have ‘Make in India’. Do we need ‘Design in India’?
-
Not just freebies. It was Zohran Mamdani’s moral pull that made the young campaign for him
-
“कोई मर्यादा न लांघे” R K Singh के बाग़ी तेवर
-
South Central 50: Kerala ends extreme poverty, Zohran Mamdani’s win