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तीसरे स्थान की लड़ाई में मुब्तिला हरियाणा कांग्रेस

1962 में हुए लोकसभा चुनाव में रोहतक से जनसंघ की टिकट पर विजयी हुए चौधरी लहरी सिंह को जब जनसंघ की कार्यकारिणी ने संघ विचारधारा के अनुसार काम न करने के चलते संगठन से निकालने की धमकी दी तो उन्होंने यह कहते हुए जनसंघ से इस्तीफा दिया था, “यो डिबला (दीपक) ही थारा है, इसमें तेल तो लहरी सिंह का है. ले जाओ अपने डिबले नै.”

लहरी सिंह उस समय जिस तेल की बात कर रहे थे वह व्यवहार का तेल था. यानी हरियाणा की राजनीति का मूल ‘व्यावहारिक राजनीति’ रहा है, न कि वैचारिक राजनीति. अंग्रेजों के जमाने में भी यहां ढंग से न तो गांधी पहुंचे, न ही राष्ट्रीय आज़ादी का आंदोलन. यहां न कोई बड़ा समाजवादी आंदोलन हुआ, ना ही कोई सामाजिक न्याय का बड़ा आंदोलन हुआ. यानि राजनीतिक आंदोलनों के लिहाज से हरियाणा ज्यादा उपजाऊ नहीं रहा.

वैचारिक राजनीति की शून्यता का सबसे बड़ा उदाहरण हमें हरियाणा में आयाराम-गयाराम संस्कृति से मिलता है. यह दिलचस्प किस्सा है 1967 का जब हरियाणा का गठन हुए महज साल भर हुए थे. उस वक्त हसनपुर विधानसभा सीट से विधायक गयाराम ने 24 घंटे के भीतर तीन बार दलबदल कर कीर्तिमान बना दिया था.

हरियाणा की राजनीति अभी भी आयाराम-गयाराम सिंड्रोम से मुक्त नहीं हुई है. गैर विचारधारा की राजनीति का ऐसा ही नजारा 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भी देखने को मिला, जब हरियाणा कांग्रेस के कई पुराने और बड़े कद्दावर नेताओं ने कांग्रेस से नाता तोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया. ये बड़े कांग्रेसी नेता थे, राव इंदरजीत सिंह, चौधरी बीरेंदर सिंह और धर्मवीर सिंह.

चौधरी इंदरजीत सिंह और चौधरी बीरेंदर सिंह ने कांग्रेस की विचारधारा से असंतोष दिखाकर या भाजपा की विचारधारा से प्रभावित होकर पार्टी नहीं छोड़ी थी. बल्कि दोनों को लगता था कि भुपिंदर हुड्डा के रहते कांग्रेस पार्टी में उनके लिए खास भविष्य नहीं है. 2014 तक हरियाणा बीजेपी के पास कोई खास बड़ा चेहरा न होने के कारण दोनों को बीजेपी में ‘चौधरी’ बनने की संभावनाएं नज़र आई और दोनों वहां चले गए.

हरियाणा के वरिष्ठ पत्रकार अनूप चौधरी बताते हैं, “भूपिंदर हुड्डा ने दस साल तक सूबे का मुखिया रहते हुए सिर्फ अपनी ‘चौधराहट’ चलाई और कांग्रेस के दूसरे बड़े नेताओं को हमेशा नाराज़ रखा. हालांकि हुड्डा उनके काम भी कर देते थे, मगर काम करने से पहले वह उन्हें यह महसूस करवा देते थे कि हुड्डा बड़े चौधरी हैं. राव इंदरजीत और चौधरी बीरेंदर सिंह ने कई बार इस तरह की घटनाओं का सामना भी किया. इसलिए हुड्डा के व्यवहार से तंग होकर कई बड़े लीडर बीजेपी में चले. कांग्रेस में ये गुटबाज़ी एक पुराना रोग है.”

हरियाणा कांग्रेसी में गुटबाजी का आलम ये है कि विधानसभा चुनावों के ठीक पहले प्रदेश अध्यक्ष आशोक तंवर और भुपिंदर हुड्डा के बीच लंबे अरसे से जारी शीतयुद्ध खुले तौर पर सामने आ गया. अपने दस साल के शासन में कांग्रेस पार्टी को पहुंचाए गए फायदे और दिल्ली दरबार के ऊंचे ओहदों पर विराजमान दरबारियों से करीबी का फायदा भुपिंदर हुड्डा को मिला. फिलहाल गुटबाजी के इस खेल में अशोक तंवर मात खा चुके हैं. प्रदेश अध्यक्ष का पद भुपिंदर हुड्डा की करीबी कुमारी शैलजा को दिया गया है और तंवर पार्टी से अलग हो चुके हैं.

कुमारी शैलजा

अशोक तंवर को हरियाणा में राहुल गांधी की टीम का माना जाता है. पार्टी के भीतर मची रार ने अशोक तंवर द्वारा संगठन में किए गए पिछले पांच साल के कामकाज पर पानी फेर दिया है. मौजूदा समय में कांग्रेस पार्टी के भीतर टीम राहुल के लोगों को हाशिए पर पहुंचाने का काम चल रहा है. तंवर उसी कड़ी का हिस्सा हैं.

हरियाणा को लेकर दिल्ली कांग्रेस नेतृत्व में जो चीजें अंदरूनी तौर पर चल रही हैं वह और भी चिंताजनक हैं. कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक अशोक तंवर को साइड करने और हुड्डा को पार्टी की कमान सौंपने से राहुल गांधी इतने नाराज थे कि एन चुनावों के वक्त विदेश यात्रा (कथित तौर पर थाइलैंड) पर निकल गए. गौरतलब है कि जिन दो राज्यों (हरियाणा और माहाराष्ट्र) में चुनाव होने जा रहे हैं उनमें कांग्रेस पार्टी हरियाणा में मुख्य विपक्षी दल है जबकि महाराष्ट्र में वह एनसीपी के साथ गठबंधन में है. इसके बावजूद नाराज राहुल गांधी ने महाराष्ट्र से अपने चुनाव अभियान की शुरुआत की. अभी तक वे हरियाणा के प्रचार से दूरी बनाए हुए हैं. सूत्रों के मुताबिक सोमवार से राहुल हरियाणा में कुछ सभाएं करेंगे. हालांकि हुड्डा गुट के लोग कहते हैं कि तंवर ने पांच साल में कोई काम संगठन में नहीं किया. वो अपना काम करने में बुरी तरह से असफल रहे.

विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सतह पर आई कांग्रेस पार्टी की इस मारकाट ने पार्टी की संभावनाओं को बुरी तरह से कमजोर कर दिया है. हरियाणा कांग्रेस के एक बड़े नेता कहते हैं, “यह मुद्दा नहीं है कि तंवर ने संगठन में अच्छा काम किया या खराब. जो आदमी पांच साल तक संगठन चलाता रहा, उसके लोग, उसका असर संगठन में घुस चुका होता है. प्रदेश अध्यक्ष महत्वपूर्ण पद होता है. चुनाव से ठीक पहले आप नया अध्यक्ष और नया नेता लाकर चुनाव जीतने की उम्मीद नहीं कर सकते.”

ये नेता आगे बताते हैं, “कांग्रेस के सामने सिर्फ भाजपा से पार पाने की चुनौती नहीं है. जेजेपी के जरिए चौटाला के पोते दुष्यंत चौटाला ने भी एक नया और मजबूत मोर्चा खोल दिया है. जिन जाट वोटों के भरोसे हुड्डा हैं, उन पर चौटाला का भी दावा है. बहुत संभव है कि कांग्रेस पार्टी इस चुनाव में तीसरे स्थान पहुंच जाए.”

यह कांग्रेस के लिए बहुत डरावनी स्थिति है. नेताओं की पैराशूट लैंडिंग कांग्रेसी संस्कृति का हिस्सा लंबे समय से रहा है. लेकिन बदली हुई परिस्थितियों में यह काम नहीं कर सकता. साल 1966 में जब हरियाणा बना तो सूबे में कांग्रेस के मुख्यमंत्री पंडित भगवत दयाल शर्मा थे, जिन्हें मोरारजी के गुटपरस्त होने के चलते ही कुर्सी से हाथ धोना पड़ा था. करीब 2 साल की राजनीतिक अस्थिरता के बाद इंदिरा गांधी ने ‘कृपा’ करने वाले अंदाज़ में नौसिखिया युवक बंसीलाल को मुख्यमंत्री बना दिया था. हालांकि बंसीलाल को ‘बंसीलाल’ होते देर न लगी. उस समय के कांग्रेस के किसान नेता देवीलाल अपनी लगातार अनदेखी के चलते कांग्रेस छोड़ने को मजबूर हो गए.

अशोक तंवर

यह मज़ेदार बात है कि हरियाणा के तीनों लाल “देवीलाल, बंसीलाल और भजनलाल” एक समय के कांग्रेसी थे, लेकिन तीनों ने कांग्रेस को अपने-अपने हिसाब से अलविदा कहना पड़ा. 70 के दशक में देवीलाल, 90 के दशक में बंसीलाल और अपने जीवन के आखरी दिनों में भजनलाल को भी कांग्रेस छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा.

पत्रकार महेंद्र सिंह बताते हैं, “कांग्रेस में जब भी कोई नेता पार्टी से बड़ा बनने की कोशिश करता है, तो पार्टी उसको खत्म करने में जुट जाती है. हरियाणा में कांग्रेस ऐसे हालात पैदा करती है कि कोई भी नेता राष्ट्रीय नेतृत्व से हमेशा कमतर ही रहे और दिल्ली के गलियारों में ड्राइंगरूम पॉलिटीशियन बना रहे. 2005 में कांग्रेस ने अपने ड्राइंगरूम पॉलिटीशियन को सूबे की कमान सौंप दी थी. पार्टी भजनलाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर चुनाव लड़ी थी. जिसके बाद भजनलाल को पार्टी भी छोड़नी पड़ी.”

2005 में हुड्डा के मुख्यमंत्री बनने के पांच साल पहले से ही हुड्डा के कार्यकर्ता ‘चौधर रोहतक में लानी है’ का नारा बुलंद करने लग गए थे. हालांकि उन्होंने कभी खुद ऐसा नहीं कहा, लेकिन यह नारा उनकी मौजूदगी में खूब लगाया जाता था. 2005 में जब तथाकथित ‘चौधर’ जब रोहतक में आयी तो वह वाकई रोहतक की ही होकर रह गयी और अगले दस साल तक रोहतक में ही सत्ता की सारी चमक-दमक घूमती रही.

महेंद्र सिंह कहते हैं, “हुड्डा ने अपने दस साल के कार्यकाल में खूब काम करवाए. उनमें सबसे ज्यादा काम रोहतक, झज्जर और सोनीपत में हुए थे. हालांकि रोहतक की तरह ही बाकी हरियाणा में शिक्षा और स्वास्थ्य पर खूब काम हुआ, लेकिन सड़कों के मामले में रोहतक चमक उठा. जैसे ही रोहतक जिले की सीमाएं खत्म होती थीं, चार लाइन की सड़क सिंगल लाइन की रह जाती थी. यह एक ऐसा फर्क था जो आम लोगों को साफ नज़र आता था. इसलिए बाकी हरियाणा के लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि हुड्डा हरियाणा में विकास के मामले में भेदभाव कर रहे हैं.”

वरिष्ठ पत्रकार अनूप चौधरी इस भेदभाव को नौकरी आंवटन में भी देखते हैं. वह कहते हैं, “हुड्डा की एक बड़ी कमी यह थी कि उन्होंने ज्यादातर नौकरियों में रोहतक व इसके आसपास के लोगों को तवज्जो दी, जिसके कारण रोहतक के पार का युवा हुड्डा से बिदक गया और वह हुड्डा को स्वाद चखाने के  लिए विकल्प तलाशने लगा.”

हरियाणा के कांग्रेसी नेताओं के साथ एक दिक्कत यह रही है कि उन्होंने कभी भी संगठन को मज़बूत करने का काम नहीं किया बल्कि खुद को मज़बूत करने का काम किया है. राजनीतिक लेखक डॉ सतीश त्यागी बताते हैं, “हरियाणा के कांग्रेस के नेताओं ने लोगों को संगठन से जोड़ने की बजाय अपने चमचेनुमा कार्यकर्ताओं की भीड़ बढ़ाने के लिए काम किया है. हरियाणा कांग्रेस के कार्यकर्ता बेशक हरियाणा कांग्रेस के दफ्तर का पता न जानते हों, लेकिन अपने नेता के बैठने के हर छोटे-बड़े ठिकाने को जानते हैं, ताकि वहां पहुंचकर नेताओं की हाज़री लगाई जा सके.”

हरियाणा कांग्रेस नेताओं के इस व्यक्तिवादी चरित्र की वजह से प्रदेश में कांग्रेस कमेटी कभी सक्रिय रूप से काम नहीं कर सकी है. हरियाणा में आज तक एक साथ सभी जिलों में वर्किंग कांग्रेस कमेटी नहीं बन पाई है. कांग्रेस का जो भी प्रदेश अध्यक्ष बनता है, वह मुख्यमंत्री के ख्वाब देखने शुरू कर देता है और संगठन को बनाने की बजाय अपने आपको ‘भावी मुख्यमंत्री’ बताकर अपने चमचों की फौज तैयार करने लगता है. महेंद्र बताते हैं, “जो अशोक तंवर इस समय कांग्रेस का विरोध कर रहे हैं, इनका प्रदेश अध्यक्षी का कार्यकाल देखेंगे तो आप पाएंगे कि उन्होंने कांग्रेस को मज़बूत नहीं कमज़ोर किया है. हुड्डा और तंवर की लड़ाई में एक मज़ेदार पेंच ये है कि दोनों एक दूसरे को कमज़ोर करने के लिए लड़ रहे थे, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में आकर पता चलता है कि आपस में लड़ते-लड़ते दोनों ही कमज़ोर हो चुके हैं.”

साल 2014 के बाद कांग्रेस हरियाणा में एक भी चुनाव नहीं जीत पाई है. चाहे 2019 के लोकसभा चुनाव हों, नगर निगम के चुनाव हों या फिर जींद उपचुनाव. हर जगह कांग्रेस शून्य रही है. इसकी वजह अनूप चौधरी बताते हैं, “देखिये 2014 में जिस गुजरात मॉडल को हरियाणा में दिखाकर चुनाव लड़ा गया था, असल में वो हरियाणा से बहुत निचले दर्जे का था. हरियाणा देश के अधिकतर भू-भागों से ज्यादा विकसित हो चुका था, लेकिन कांग्रेस की प्रचार समिति ने बहुत कमजोर काम किया. कांग्रेस हरियाणा में अपने करवाए हुए कार्य तक नहीं गिनवा पाई और अपना पत्ता साफ करवा लिया.”

कांग्रेस की कब्र खोदने में कांग्रेस के ‘भाई साहबों’ का भी बहुत बड़ा योगदान था. शक्ल से मोटे सूदखोर, अक्ल से चमचे, कपड़ों, घरों और गाड़ियों से रईस और पहचान से बड़े नेता जान पड़ने वाले इन कांग्रेसी ‘भाई साहबों’ ने कांग्रेसी सरकारों में खूब पैसा कमाया है. डॉ त्यागी कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि कांग्रेस का आलाकमान इन ‘भाई साहबों’ से परिचित नहीं है. सिर्फ आलाकमान ही नहीं, जनता ने भी इन ‘भाई साहबों’ के जलवे देखे हैं और इसका खामियाजा भी जनता ने भुगता है. इसलिए साल 2014 की चुनावी हार के बाद कांग्रेस ने नए चेहरे को प्रदेश अध्यक्ष बनाया था ताकि राष्ट्रीय स्तर की पार्टी हरियाणा में एक खूंटे के बंधी हुई पारिवारिक मुर्राह भैंस भर न रह जाए. लेकिन अफसोस, जिसे इस परम्परा को तोड़ने के लिए आगे किया था वो खुद इसका पंडित हो गया और हरियाणा कांग्रेस का एक और ‘भाईसाब’ बन गया.”

मनोहरलाल खट्टर के पांच साल पूरे हो चुके हैं. इस बीच कांग्रेस से उन्हें किसी खास प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा है. ऐसे वक़्त में सत्ता वापसी के सपने संजोए बैठी कांग्रेस के भीतर 10 से ज्यादा गुट मौजूद हैं. संपत सिंह जैसे कांग्रेसी नेता भाजपा की बस में चढ़ चुके हैं और तंवर टिकटों की खरीदफरोख्त का राग अलाप रहे हैं. हरियाणा में कांग्रेस की कब्र खुदने की असल वजह संगठन पर ध्यान न देना और व्यक्तिवादी राजनीति को बढ़ावा देना था और यह अभी तक जारी है.