Newslaundry Hindi
हिंदू गांधी का धर्म
जैसी आज होती लगती है, वैसी कोशिश पहले भी होती रही है कि गांधी को किसी एक दायरे में, किसी एक पहचान में बांध कर, उनके उस जादुई असर की काट निकाली जाए जो तब समाज के सर चढ़ कर बोलता था, आज कहीं गहरे में समाज के मन में बसता है. इस कोशिश में वे सब साथ आ जुटे थे जो वैसे किसी भी बात में एक-दूसरे के साथ नहीं थे.
सनातनी हिंदू और पक्के मुसलमान दोनों एकमत थे कि गांधी को उनके धार्मिक मामलों में कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है. दलित मानते थे कि गैर-दलित गांधी को हमारे बारे में कुछ कहने-करने का अधिकार ही कैसे है? ईसाई भी धर्मांतरण के सवाल पर खुल कर गांधी के खिलाफ थे. बाबा साहब आंबेडकर ने तो आखिरी तीर ही चलाया था और गांधी को इसलिए कठघरे में खड़ा किया था कि आप भंगी हैं नहीं तो हमारी बात कैसे कर सकते हैं!
जवाब में गांधी ने इतना ही कहा कि इस पर तो मेरा कोई बस है नहीं लेकिन अगर भंगियों के लिए काम करने का एकमात्र आधार यही है कि कोई जन्म से भंगी है या नहीं तो मैं चाहूंगा कि मेरा अगला जन्म भंगी के घर में हो. आंबेडकर कट कर रह गये. इससे पहले भी आंबेडकर तब निरुत्तर रह गये थे जब अपने अछूत होने का बेजा दावा कर, उसकी राजनीतिक फसल काटने की कोशिश तेज चल रही थी. तब गांधी ने कहा: मैं आप सबसे ज्यादा पक्का और खरा अछूत हूं, क्योंकि आप जन्मत: अछूत हैं, मैंने अपने लिए अछूत होना चुना है.
गांधी ने जब कहा कि वे रामराज लाना चाहते हैं, तो हिंदुत्व वालों की बांछें खिल गईं- अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे! लेकिन उसी सांस में गांधी ने यह भी साफ कर दिया कि उनका राम वह नहीं है जो राजा दशरथ का बेटा है! उन्होंने कहा कि जनमानस में एक आदर्श राज की कल्पना रामराज के नाम से बैठी है और वे उस सर्वमान्य कल्पना को छूना चाहते हैं.
हर क्रांतिकारी जनमानस में मान्य प्रतीकों में नया अर्थ भरता है और उस पुराने माध्यम से उस नये अर्थ को समाज में मान्य कराने की कोशिश करता है. इसलिए गांधी ने कहा कि वे सनातनी हिंदू हैं लेकिन हिंदू होने की जो कसौटी बनाई उन्होंने, वह ऐसी थी कि कोई कठमुल्ला हिंदू उस तक फटकने की हिम्मत नहीं जुटा सका. सच्चा हिंदू कौन है- गांधी ने संत कवि नरसिंह मेहता का भजन सामने कर दिया: “ वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे / जे पीड पराई जाणे रे!” और फिर यह शर्त भी बांध दी- “पर दुखे उपकार करे तोय / मन अभिमान ना आणी रे!”
फिर कौन हिंदुत्व वाला आता गांधी के पास. वेदांतियों ने फिर गांधी को गांधी से ही मात देने की कोशिश की: आपका दावा सनातनी हिंदू होने का है तो आप वेदों को मानते ही होंगे, और वेदों ने जाति-प्रथा का समर्थन किया है. गांधी ने दो टूक जवाब दिया: “वेदों के अपने अध्ययन के आधार पर मैं मानता नहीं हूं कि उनमें जाति-प्रथा का समर्थन किया गया है लेकिन यदि कोई मुझे यह दिखला दे कि जाति-प्रथा को वेदों का समर्थन है तो मैं उन वेदों को मानने से इंकार करता हूं.”
हिंदुओं-मुसलमानों के बीच बढ़ती राजनीतिक खाई को भरने की कोशिश वाली जिन्ना-गांधी मुंबई वार्ता टूटी ही इस बिंदु पर कि जिन्ना ने कहा- “जैसे मैं मुसलमानों का प्रतिनिधि बन कर आपसे बात करता हूं, वैसे ही आप हिंदुओं के प्रतिनिधि बन कर मुझसे बात करेंगे, तो हम सारा मसला हल कर लेंगे लेकिन दिक्कत यह है मिस्टर गांधी कि आप हिंदू-मुसलमान दोनों के प्रतिनिधि बन कर मुझसे बात करते हैं जो मुझे कबूल नहीं है.” गांधी ने कहा: “यह तो मेरी आत्मा के विरुद्ध होगा कि मैं किसी धर्म विशेष या संप्रदाय विशेष का प्रतिनिधि बन कर सौदा करूं! इस भूमिका में मैं किसी बातचीत के लिए तैयार नहीं हूं. और जो वहां से लौटे गांधी तो फिर उन्होंने कभी जिन्ना से बात नहीं की.”
पुणे करार के बाद अपनी-अपनी राजनीतिक गोटियां लाल करने का हिसाब लगाकर जब करार करने वाले सभी करार तोड़ कर अलग हट गये तब अकेले गांधी ही थे जो उपवास और उम्र से कमजोर अपनी काया समेटे देशव्यापी ‘हरिजन यात्रा’ पर निकल पड़े- “मैं तो उस करार से अपने को बंधा मानता हूं, और इसलिए मैं शांत कैसे बैठ सकता हूं!”
‘हरिजन यात्रा’ क्या थी, सारे देश में जाति-प्रथा, छुआछूत आदि के खिलाफ एक तूफान ही था! लॉर्ड माउंटबेटन ने तो बहुत बाद में पहचाना कि यह ‘वन मैन आर्मी’ है लेकिन ‘एक आदमी की इस फौज’ ने सारी जिंदगी ऐसी कितनी ही अकेली लड़ाइयां लड़ी थीं. उनकी इस ‘हरिजन यात्रा’ की तूफानी गति और उसके दिनानुदिन बढ़ते प्रभाव के सामने हिंदुत्व की सारी कठमुल्ली जमातें निरुत्तर व असहाय हुई जा रही थीं.
तो सबने मिल कर दक्षिण भारत की यात्रा में गांधी को घेरा और सीधा ही हरिजनों के मंदिर प्रवेश का सवाल उठा कर कहा कि आपकी ऐसी हरकतों से हिंदू घर्म का तो नाश ही हो जाएगा! गांधी ने वहीं, लाखों की सभा में इसका जवाब दिया कि मैं जो कर रहा हूं, उससे आपके हिंदू धर्म का नाश होता हो तो हो, मुझे उसकी फिक्र नहीं है. मै हिंदू धर्म को बचाने नहीं आया हूं. मैं तो इस धर्म का चेहरा बदल देना चाहता हूं! … और फिर कितने मंदिर खुले, कितने धार्मिक आचार-व्यवहार मानवीय बने और कितनी संकीर्णताओं की कब्र खुद गई, इसका हिसाब लगाया जाना चाहिए. सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों पर भगवान बुद्ध के बाद यदि किसी ने सबसे गहरा, घातक लेकिन रचनात्मक प्रहार किया तो वह गांधी ही हैं और ध्यान देने की बात है कि यह सब करते हुए उन्होंने न तो कोई धार्मिक जमात खड़ी की, न कोई मतवाद खड़ा किया और ना ही भारतीय स्वतंत्रता का संघर्ष कमजोर पड़ने दिया.
सत्य की अपनी साधना के इसी क्रम में फिर गांधी ने एक ऐसी स्थापना दुनिया के सामने रखी कि जैसी इससे पहले किसी राजनीतिक चिंतक, आध्यात्मिक गुरू या धार्मिक नेता ने कही नहीं थी. उनकी इस एक स्थापना ने सारी दुनिया के संगठित धर्मों की दीवारें गिरा दीं, सारी धार्मिक आध्यात्मिक मान्यताओं को जड़ें हिला दीं. पहले उन्होंने ही कहा था: “ईश्वर ही सत्य है!” फिर वे इस नतीजे पर पहुंचे कि अपने-अपने ईश्वर को सर्वोच्च प्रतिष्ठित करने के द्वंद्व ने ही तो सारा कुहराम मचा रखा है! इंसान को मार कर, अपमानित कर, उसे हीनता के अंतिम छोर तक पहुंचा कर जो प्रतिष्ठित होता है, वह सारा कुछ ईश्वर के नाम से ही तो होता है.
इसलिए गांधी ने अब एक अलग ही सत्य-सार हमारे सामने उपस्थित किया: ‘ईश्वर ही सत्य है’ नहीं बल्कि ‘सत्य ही ईश्वर’ है. धर्म नहीं, ग्रंथ नहीं, मान्यताएं-परंपराएं नहीं, स्वामी-गुरु-महंत-महात्मा नहीं, सत्य और केवल सत्य! सत्य को खोजना, सत्य को पहचानना, सत्य को लोक-संभव बनाने की साधना करना और फिर सत्य को लोकमानस में प्रतिष्ठित करना- यह हुआ गांधी का धर्म! यह हुआ दुनिया का धर्म, इंसानियत का धर्म. ऐसे गांधी की आज दुनिया को जितनी जरूरत है, उतनी कभी नहीं थी शायद.
Also Read
-
4 ml of poison, four times a day: Inside the Coldrif tragedy that claimed 17 children
-
Delhi shut its thermal plants, but chokes from neighbouring ones
-
Hafta x South Central feat. Josy Joseph: A crossover episode on the future of media
-
Encroachment menace in Bengaluru locality leaves pavements unusable for pedestrians
-
Cuttack on edge after violent clashes