Newslaundry Hindi
बड़ों से उम्मीद बेकार है, अब बच्चे ही गांधीवाद, लोकतंत्र और दुनिया को बचायेंगे
बात सबसे पहले वाराणसी के सरकारी स्कूल के ग्यारहवीं कक्षा के आयुष चतुर्वेदी से शुरू की जाए. पिछले महीने गांधी पर उनका भाषण सोशल मीडिया पर वायरल हुआ. भाषण खुरदरा था और जिस लहजे में उन्होंने गांधी को पढ़ा वो बेहद खांटी था. पर बात सीधी और सरल थी. मसलन, उन्होंने कहा ‘गांधी के देश के लोगों ने गांधी को सबसे कम पढ़ा और समझा’ या फिर ‘15 अगस्त 1947 को हम आज़ाद हुए और हम देशवासी गांधीजी को इतना चाहते थे कि अगले ही बरस 3 गोलियां मारकर उनकी यहीं समाधि बना दी.’
उससे कुछ दिन पहले, जवाहर लाल यूनिवर्सिटी (जेएनयु) में छात्र संघ के चुनाव प्रचार के दौरान थककर बैठे एक छात्र प्रत्याशी ने पाकिस्तानी शायर हबीब जालिब की नज़्म ‘दस्तूर’ गुनगुनानी शुरू कर दी, तो उसके चंद साथी उसके साथ गा उठे. मरहूम शायर जालिब ने पाकिस्तान में फ़ौजी शासन के ख़ात्मे और जम्हूरियत (लोकतंत्र) की स्थापना के आह्वान को लेकर ये नज़्म ‘दस्तूर’ लिखी थी. जालिब को वहां की तमाम फ़ौजी हुक़ूमतों ने कई बरसों जेलों में रखा था पर कभी उन्होंने सत्ता से समझौता नहीं किया. उन्हें अवाम का शायर कहा जाता था. सोशल मीडिया पर जब उस छात्र द्वारा गाई नज़्म ने हलचल मचाई तो खोज ख़बर हुई. मालूम चला, जेएनयु के उस छात्र का नाम शशिभूषण समद है.
वहीं, तीसरी तरफ़, स्वीडन की ग्रेटा थुनबर्ग ने पर्यावरण को लेकर दुनिया भर की सरकारों को कोस दिया. ग्रेटा पिछले एक साल से पर्यावरण को लेकर अपनी चिंता जताती रही हैं. तमाम मुल्कों की सरकारें सिर्फ़ ‘सुनती’ रही हैं. ग्रेटा अपने 3-4 मिनट के भाषण में सरकारों और हुक्मरानों को पर्यावरण के प्रति असंवेदनशील रहने पर ललकारते हुए कहती हैं ‘हाऊ डेयर यू’. वो कहती हैं कि कैसे उनकी (सरकारों की) हिम्मत हो जाती है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि पर झूठी कहानियां लोगों को सुना देते हैं? वो कहती हैं कि किस बेशर्मी से सरकारें विकास के नाम पर बच्चों की साँसों में कार्बन डाईऑक्साइड भर रही हैं? ये भी वीडियो वायरल हुआ.
कहीं स्कूल में गांधी पढ़े जा रहे हैं और कहीं किसी यूनिवर्सिटी में हबीब जालिब की दस्तूर पढ़ी जा रही है और कहीं ग्रेटा थूनबर्ग क्लाइमेट चेंज को लेकर गुहार लगा रही है. ये सब बच्चे ही कर रहे हैं और वो भी कौन से? वो, जो बेहद साधारण हैं या फिर किसी बीमारी से ग्रस्त. शशि भूषण समद को नेत्रांधता है और ग्रेटा थूनबर्ग अस्पर्जर सिंड्रोम की बीमारी से पीड़ित हैं!
रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘समर शेष है’ का अंश है ‘समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र. जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी इतिहास...’ नव भारतीय समाज को गांधी की प्रासंगिकता नहीं समझ आती. वो जिन्हें दिखता है, वो दुनिया भर में बढ़ रहे छद्म राष्ट्रवाद पर ख़ामोश बैठे हैं. वो हुक्मरान जिनकी मानसिक काबिलियत पर कोई सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता, उन्हें पर्यावरण को बचाने की परवाह नहीं है. तो क्या ऐसे में उम्मीद सिर्फ़ बच्चों से ही की जा सकती है कि अब वो ही गांधीवाद, लोकतंत्र और पर्यावरण को बचायेंगे?
बतौर समाज हम कोई प्रयास नहीं करेंगे कि हम गांधी को समझें या फिर देश के मौजूदा हालात पर सरकारों से सवाल खड़ा करें, और न ही किसी बच्चे के ‘हाऊ डेयर यू’ को सुन पाएंगे. हम बच्चों के सामने शर्मिंदा भी नहीं होंगे. हम तो वो हैं, जिनके सामने बच्चे शर्मिंदा होते आये हैं और यही हमारी संस्कृति ने सिखाया है. हमने बच्चों को गरियाया है. उनसे ‘हाऊ डेयर यू’ सुनने की बजाय हमने हमेशा उन्हें ही ‘हाऊ डेयर यू’ सुनाया है.
वहीं, सरकारें भी ऐसा कोई कदम नहीं उठाएंगी. वो स्कूल किताबों से अकबर के साथ लगा हुआ ‘महान’ लफ्ज़ हटवा सकती हैं, लाइब्रेरियों में दीन दयाल उपाध्याय का तथाकथित ‘साहित्य’ जबरन भेज सकती हैं. पर, वो ये नहीं कर सकती कि गांधी रचित ‘सत्य के प्रयोग’ और ‘हिन्द स्वराज’ बच्चों के कोर्स में आवश्यक कर दें. ब्राज़ील के जंगलों में लगी आग पर वहां की सरकार और दूसरे मुल्कों का रवैया सबको मालूम ही चल चुका है. क्या सरकार हबीब जालिब की बात मान लेगी की सुबह-ए-बेनूर है? ऐसा कुछ नहीं होगा.
आयुष सही कह रहे हैं कि फेसबुकिया ज्ञान ने गांधी को विभाजन का शाश्वत कारण बता दिया है. अब हम कैसे अपने बच्चों को समझाएं कि ये ग़लत है? क्यूंकि हमने गांधी के विचार पढ़े ही नहीं. बस जो सोशल मीडिया पर आया, वही देखा और उसे सही मान लिया.
हक़ीक़त तो ये है कि हमें सिर्फ़ उस हिस्से की दरकार थी जो आज पाकिस्तान कहलाता है. हमें मुसलमान नहीं चाहिए थे. जब वो नहीं मिला, तो गांधी को उसका ज़िम्मेदार बता दिया.
आयुष मशहूर लेखक लुइस फिशर की किताब ‘गांधी’ के हवाले से कहते हैं कि ‘अगर उस अंग्रेज़ के बच्चे को ये मालूम होता कि जिसको वह ट्रेन से धक्का देकर बाहर निकाल रहा है वो व्यक्ति के एक दिन पूरी दुनिया से ब्रिटिश साम्राज्य को सफ़ाया कर देगा, तो वो ऐसा हरगिज़ नहीं करता.
ताज्जुब है, ग्यारहवीं कक्षा का विद्यार्थी यकीन करता है कि गांधी ने हिंदुस्तान ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया से ही ब्रिटिश साम्राज्य को मिटा दिया, हम उन्हीं गांधी के छोटे से छोटे योगदान पर सवालिया निशान लगा देते हैं.
गांधी ने कहा था- ‘ये धरती, ये पानी, ये हवा हमें पुरखों से विरासत में नहीं मिलीं, ये आने वाली पीढ़ी ने हमें उधार दी है. हमें जैसी मिली है, उसी हालत में सौंपनी भी होगी.’ किसी दूसरे परिप्रेक्ष्य में उनके विचार थे- ‘अगर हम शान्ति का वास्तविक पाठ पढ़ाना चाहते हैं और अगर युद्ध के ख़िलाफ़ युद्ध चाहते हैं तो हमें बच्चों से शुरुआत करनी होगी. और अगर ये बच्चे प्राकृतिक मासूमियत के साथ वयस्क होते हैं तो फिर हमें संघर्ष नहीं करना पड़ेगा, हमें अर्थहीन प्रस्ताव नहीं पारित करने पड़ेंगे. जब तक दुनिया के अंतिम छोरों तक प्रेम और शांति का फैलाव नहीं हो जाता तब तक हम प्रेम और शांति को लेकर आगे बढ़ सकेंगे. वह प्रेम और शांति जिनके लिए चेतन और अवचेतन में प्यासे हैं.’
गांधी यही चाहते थे और उन्होंने प्रयास भी किया कि सत्ता और संसाधनों का लाभ पंक्ति में अंतिम खड़े व्यक्ति तक पंहुचे. अंतिम छोर तक पंहुचना ही तो सत्याग्रह है और यही गांधीवाद भी. पर सवाल ये है कि क्या ऐसा हो पाएगा, या फिर कोई प्रयास करेगा? जवाब आप जानते ही हैं. पर, अब जब ‘बड़ों’ से उम्मीद नहीं की जा सकती तो फिर ‘छोटे’’ ही राह दिखायेंगे. आख़िर गांधी ने सही कहा था- ‘निर्बल के बल राम’. तो क्या जिस बदलाव की बात गांधी ने की थी, उसकी शुरुआत हो चुकी है?
Also Read
-
‘Foreign hand, Gen Z data addiction’: 5 ways TV anchors missed the Nepal story
-
No bath, no food, no sex: NDTV & Co. push lunacy around blood moon
-
Mud bridges, night vigils: How Punjab is surviving its flood crisis
-
Adieu, Sankarshan Thakur: A rare shoe-leather journalist, newsroom’s voice of sanity
-
Corruption, social media ban, and 19 deaths: How student movement turned into Nepal’s turning point