Newslaundry Hindi
पाक पीएम इमरान खान के नाम एक भारतीय का खुला खत
डियर मिस्टर इमरान खान,
संयुक्त राष्ट्र महासभा में आपका ताली-पीट भाषण सुना. अभिनय के विभिन्न रस समेटे आपने जिस ग़ज़ब नाटकीयता से ये संबोधन किया, लगा ही नहीं कि आप संयुक्त राष्ट्र के अध्यक्ष को संबोधित कर रहे हैं. बल्कि ऐसा लगा जैसे आप किसी चुनावी मंच पर खड़े हैं और जनता को उन्मादी भीड़ में बदल कर ध्रुवीकरण करना चाहते हैं. शायद आपका उद्देश्य भी यही था.
आपका संबोधन संयुक्त राष्ट्र के लिए कम और पाकिस्तान की जनता को ख़ुश करने व कश्मीर की जनता को ये जताने के लिए ज़्यादा था कि भारत की तुलना में आप उनके ज़्यादा सगे हैं. आपके इस संबोधन को फ़िलहाल कश्मीर का एक बड़ा तबक़ा हाथों-हाथ ले भी रहा है. ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि जब कश्मीरी अवाम में मौजूदा परिस्थितियों को लेकर रोष है, जब उनमें अपनी बात कहने की छटपटाहट है और जब उनकी तमाम मुखर आवाज़ें मंच-विहीन हैं तब उन्हें ये लगना लाज़िमी है कि कोई तो है जो इतने बड़े वैश्विक मंच से कश्मीरियों पर चिंता जता रहा है.
लेकिन कश्मीर में मानवाधिकारों की बात करते हुए आप ठीक वैसे ही लगते हैं जैसे हाथी-दांत से बने गहने और मगरमच्छ की खाल से बनी जैकेट पहने कोई व्यक्ति जंगली जानवरों के शिकार पर चिंता से पतला हुआ जाता हो.
कश्मीर का ज़िक्र करते हुए अभी जब आपने ‘ब्लडबाथ’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया तब शायद आप भूल गए कि आप उस देश के प्रधान हैं जिसने कश्मीर में इस ‘ब्लडबाथ’ की शुरुआत की. एक ऐसा ख़ूनी संघर्ष जो आज भी जारी है और जिससे आपके हाथ भी रंगे हुए हैं क्योंकि आपके प्रधानमंत्री बनने के बाद भी पाकिस्तान से आतंकवादियों के आने का सिलसिला थमा नहीं है. इतिहास पर नज़र डालें तो जब देश को आज़ाद हुए कुछ हफ़्ते ही हुए थे तभी आपके मुल्क से हथियारबंद लोगों ने कश्मीर में आकर भीषण नरसंहार और लूटपाट शुरू कर दी थी. कैसे वो क़बायली हमलावर कश्मीरियों के पैसों और गहनों के साथ ही समावार (काहवा बनाने की अंगीठी) पर लगे पीतल के हत्थे तक सोना समझ कर लूट ले गए थे, ये कहानियां आज भी कश्मीरी लोग सुनाते मिलते हैं.
आपको ये भी नहीं भूलना चाहिए कि तब भी उन हमलावरों को खदेड़ने में भारतीय फ़ौज के साथ जो लोग कंधे से कंधा मिलाकर खड़े थे वो राजा हरी सिंह के सैनिक नहीं बल्कि आम कश्मीरी मुसलमान ही थे.
आज़ादी के बाद से अब तक आपका मुल्क लगातार कश्मीर में आतंकवादी भेजता रहा है. दर्जनों आतंकी संगठन जो कश्मीर में सक्रीय हैं, उन्हें खाद-पानी आप देते हैं. आपकी ज़मीन पर प्रशिक्षण लेकर हज़ारों आतंकवादी कश्मीर घाटी में लगातार आ रहे हैं और उस ख़ूनी खेल को जारी रखे हुए हैं जिसमें सबसे ज़्यादा नुक़सान आम कश्मीरी का हो रहा है. ऐसा कभी नहीं हुआ जब आपके मुल्क ने इस आतंक पर पूरी तरह लगाम लगाकर अहिंसक तरीक़े से कश्मीर पर चर्चा की शुरुआत की हो. लेकिन इसके बावजूद आप अपनी हरकतों पर शर्मिंदा होने की जगह आतंकवाद को जायज़ ठहराते ही नज़र आए.
आपने कहा कि कश्मीर में जो रहा है उससे चरमपंथ बढ़ेगा, भारतीय मुस्लिम भी इस कारण कट्टरपंथी होने लगेंगे और पुलवामा जैसी घटनाएं दोहराई जाएंगी. आपने ये भी कहा कि आप तो अमन चाहते हैं और साथ ही दावा किया कि पाकिस्तान में कोई भी आतंकी संगठन अब सक्रीय नहीं हैं. जनाब, अगर ऐसा है तो पहले आपको इन सवालों का जवाब देना चाहिए जो भारतीय विदेश मंत्रालय की अधिकारी विदिशा मैत्रा ने आपके संबोधन के बाद उठाए थे: क्या पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित 130 सक्रीय आतंकवादियों और 25 आतंकी संगठनों का घर नहीं है? क्या पाकिस्तान बताएगा कि अमरीका में उसके हबीब बैंक को आतंकी गतिविधियों को वित्तीय मदद देने के लिए क्यों बंद कर दिया गया? और क्या इमरान खान इस बात से इंकार कर सकते हैं कि वे ख़ुद आतंकवादी ओसामा बिन लादेन के खुले समर्थक रहे हैं?
जनाब खान साहब, आपसे कुछ वाजिब सवाल और भी हैं. आपका मुल्क जब से अस्तित्व में आया है तब से ही उसका रवैया अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति बेहद दमनकारी रहा है. सिर्फ़ हिंदू, सिख या ईसाई ही नहीं बल्कि अहमदिया, बलूच, पशतून और शिया मुसलमान तक आपके मुल्क में हमेशा से हाशिए पर धकेले जाते रहे. ईश निंदा जैसे संकीर्ण और जड़ क़ानूनों के चलते आपने नजाने कितने ही लोगों को फाँसी पर लटकाया है और इनमें सबसे ज़्यादा संख्या इन अल्पसख्यकों की ही रही है. पूरे बलूचिस्तान में आपका जो रवैया रहा है वह भी किसी से छिपा नहीं है.
बलूचिस्तान से याद आया. जिस तरह से अपने संबोधन में आपने कश्मीर का मुद्दा उठाकर हमारे प्रधानमंत्री को घेरने की कोशिश की, ठीक वैसे ही हमारे प्रधानमंत्री भी आपको बलूचिस्तान के मुद्दे पर घेर सकते थे. और यक़ीन जानिए खान साहब, हमारे वाले तो बातों में घेरने के माहिर हैं. वो ये काम आपसे कहीं बेहतर करते. उन्होंने पाकिस्तान के नाम पर ही यहां पूरे विपक्ष का सफ़ाया कर दिया है, फिर आप तो साक्षात ‘पाकिस्तान’ ही हैं.
एक बात और. इस पत्र का उद्देश्य ये साबित करना नहीं है कि हमारे मुल्क में सब अच्छा ही अच्छा है, कश्मीर में सब लोग ख़ुश हैं या यहां अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े मुद्दे चिंताजनक नहीं हैं. इस पत्र का उद्देश्य सिर्फ़ आपको आईना दिखाना है ताकि आप समझ सकें कि कश्मीर या भारतीय मुसलमानों पर बात करने का नैतिक आधार आपके पास नहीं है.
जहां तक बात कश्मीर या भारतीय अल्पसंख्यक समुदाय की है, तो याद रखिए कि हिंदुस्तान में उनके अधिकारों के लिए लड़ने वालों की संख्या आपके मुल्क की कुल जनसंख्या से कहीं ज़्यादा है. भारत और पाकिस्तान में मूल फ़र्क़ यही है कि हमारी बुनियाद धार्मिक उन्माद की नींव पर नहीं रखी गई. लिहाज़ा यहां जब भी कोई धार्मिक, सामाजिक या राजनीतिक संकट पैदा हुआ, हर बार जीत अंततः संविधान की ही हुई. लेकिन इसके उलट आपके मुल्क में धार्मिक कट्टरपंथ और राजनीतिक महत्वकांक्षाएं हमेशा ही आपके संविधान पर भारी पड़ी हैं.
जनाब खान साहब, हमें अपने संविधान पर अटूट विश्वास है और यह यक़ीन भी कि हमारा प्रधानमंत्री भी संविधान से ऊपर नहीं है. इसीलिए संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए हम अपने प्रधानमंत्रियों तक से भिड़ते रहे हैं और आज भी भिड़ रहे हैं. इन दिनों यहां भी उग्र राष्ट्रवाद का बोलबाला है. लिहाज़ा यहां लोगों को ‘एंटी-नैशनल’ घोषित करने का चलन आम हो चला है. इसके बावजूद भी यहां लोग संवैधानिक मूल्यों के लिए लड़ रहे हैं और गोली तक खा रहे हैं. लेकिन याद रखिए, उनकी लड़ाई अपने सेक्युलर हिंदुस्तान को बचाने की लड़ाई है, आपके धार्मिक पाकिस्तान को मज़बूत करने की नहीं.
हिंदुस्तान में बात चाहे कश्मीरी लोगों के अधिकारों की हो, बढ़ती मॉब लिंचिंग की घटनाओं की हो या उग्र हिंदुत्व की हो… इनमें से किसी भी समस्या से निपटने के लिए हमें न तो आपकी सलाह की ज़रूरत है और न ही आप हमारे प्रेरणा स्रोत हो सकते हैं.
आख़िर में बस इतना और कहना है कि इन बातों से ये बिलकुल मत समझिएगा कि बीते 70 सालों में आपने पाकिस्तान में जो किया वही अब हम हिंदुस्तान में किए जाने को जायज़ ठहरा रहे हैं. खान साहब, हमारी तो सारी लड़ाई ही इस बात की है कि कहीं हम आपके जैसा मुल्क न बना बैठें.
धन्यवाद
एक भारतीय नागरिक
Also Read
-
A massive ‘sex abuse’ case hits a general election, but primetime doesn’t see it as news
-
‘Vote after marriage’: Around 70 lakh eligible women voters missing from UP’s electoral rolls
-
Mandate 2024, Ep 2: BJP’s ‘parivaarvaad’ paradox, and the dynasties holding its fort
-
The Cooking of Books: Ram Guha’s love letter to the peculiarity of editors
-
‘Need to reclaim Constitution’: The Karnataka civil society groups safeguarding democracy