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ललितपुर की बाल-वधुएं !

बाल विवाह के मामले में भारत दुनिया के दूसरे देशों से काफी आगे हैं. हमारे देश के कई इलाकों में इस समस्या की व्यापकता देख कर ही अंदाजा लग जाता है कि भारत क्यों इस मामले में आगे है. सख्त कानून और जागरुकता प्रयासों के बाजवूद यह कुप्रथा देश के कुछ इलाकों में जड़ें जमाए बैठी है. बुंदेलखंड का ललितपुर जिला इस समस्या की एक भयावह तस्वीर पेश करता है. बाल विवाह एक आम समस्या है. जिले की नब्बे प्रतिशत सीमा मध्य प्रदेश के अति पिछड़े इलाकों से सटी है, जो सहरिया आदिवासियों का ठिकाना है. इनकी भारी आबादी गांवों में रहती है, जहां महिला साक्षारता दर काफी कम है. एनएचएफएस-4 के आंकड़े बताते हैं कि सामंती मूल्य, साक्षारता में कमी और ग्रामीण परिवेश की प्रधानता के चलते जिले की 49 प्रतिशत आबादी की शादी 18 साल से कम उम्र में ही हो जाती है. जबकि, देश में बाल विवाह का औसत 27 प्रतिशत है.

शहर के एक छोर पर ललितपुर रेलवे स्टेशन हैं. छोटे से भीड़भाड़ वाले शहर को पार करके करीब 15 किलोमीटर कच्चे पक्के रास्तों से होते हुए आप दावनी गांव पहुंच सकते हैं. यह गांव जखौरा ब्लॉक में स्थित है. गांव की आबादी करीब 800 है, गांव से ही सटा सेरवास मजरा है, जहां करीब 100 सहरिया परिवार रहते हैं. गांव में रहने वाली क्रांति देवी मात्र पंद्रह साल की हैं. उसका पति संजू 17 साल का है. तीन साल पहले यानी जब वह 12 साल की थी तभी उसकी शादी हो गई. उसने मात्र तीसरी कक्षा तक पढ़ाई की है. बावजूद इसके, उसे करीब-करीब लिखने पढ़ने तक नहीं आता है. वह मुश्किल से अपनी उम्र व दूसरी जानकारियों को बता पाती है. संजू की भी स्थिति यही है. वह मेहनत मजदूरी करता है. बारिश का मौसम होने के कारण इन दिनों मजदूरी कम ही मिलती है, इस कारण वह अधिकतर समय घर पर ही खाली पड़ा रहता है. खाली समय में गांव के पुरुषों का सबसे पसंदीदा टाइमपास है ताश खेलना. संजू कहता है कि कम पढ़े लिखे होने के कारण हमें कोई ढंग का काम तो मिलता नहीं हैं. ऐसे में घर पर ही रह कर खेती किसानी करते हैं. गांव से सटकर ही बेतवा नदी बहती है. नदी में मछली पकड़ते हैं और उसे बेचते हैं. शादी के तीन साल होने के बावजूद न उनके बच्चे है और न ही उन्हें परिवार नियोजन के संबंध में कोई जानकारी है. जब उससे परिवार नियोजन की बात कहते हैं तो वह सकुचाते हुए कहता है, “बच्चे तो भगवान की देन है, जब होना होगा हो जाएंगे.” गांव में परिवार नियोजन जैसे विषय पर खुलकर बात करना अभद्रता माना जाता है.

बबीता 

बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी, झांसी के पूर्व सामाज विभागाध्यक्ष डॉ. मुहम्मद नईम बाल विवाह के मुख्य कारणों में जाति आधारित व्यवस्था और साथ ही समाज में मौजूद आर्थिक अंतर को इसकी बड़ी वजह बताते हैं. उनके मुताबिक, “पितृसत्ता वाले सामाजिक वातावरण का प्रभाव, महिलाओं के साथ यौन हिंसा ललितपुर के इलाके में बाल विवाह को बढ़ावा देती है. बुन्देलखण्ड के इस इलाके में आज भी सामंती एवं राजशाही की जड़ें गहराई में व्याप्त हैं. इसके चलते निम्न वर्ग की महिलाओं के साथ छेड़छाड़, भेदभाव करना संपन्न तबके के लिए मामूली बात है. चूंकि उक्त क्षेत्र में आदिवासियों की जनसंख्या अधिक है, उनकी आय उन्हीं वर्गों पर निर्भर है, जिनसे वे प्रताड़ित होती हैं. धन, पद, सत्ता आदि के प्रभाव के कारण वे दंबंगों का विरोध नहीं कर पाते हैं, लिहाजा वह अपनी बच्चियों की शादी कम उम्र में ही कर देते हैं, ताकि उनकी आबरू से खिलवाड़ न हो सके.”

गांव की आशा बहू नीलम राजपूत कहती हैं, “गांव वाले परिवार नियोजन या दूसरी जानकारियों को साझा नहीं करते हैं. उन्हें लगता है कि ये जानकारियां काफी व्यक्तिगत होती हैं. साझा करने से कोई नुकसान हो जाएगा. गांव की एक्का दुक्का गर्भवती महिलाएं ही स्वास्थ्य केंद्र पर डिलीवरी के लिए जाती हैं.” नीलम गांव में आशा बहू के पद पर छह माह से तैनात हैं. वह बताती हैं कि छह माह में मात्र एक गर्भवती महिला ही मेरे साथ स्वास्थ्य केंद्र गई, वह भी तब जब उसे काफी ब्लीडिंग ( रक्तस्राव )होने लगी और गांव वालों को लगा कि वह मर जाएगी. अस्पताल में सिजेरियन डिलीवरी हुई और आज जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ हैं.

ललितपुर एक पिछड़ा हुआ जिला है. यहां पर मात्र 17.8 फीसदी बालिकाएं ही दसवीं कक्षा तक स्कूल गई हैं. शिक्षा का स्तर यहां के हालात को समझने में मदद करता है. कम शिक्षित होने के कारण गांव वालों को अधिकतर बीमारियां भी भगवान की देन लगती हैं.  नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे ( एनएचएफएस ) 4 की मानें तो जिले की 69.3 फीसदी महिलाएं परिवार नियोजन का कोई भी साधन इस्तेमाल नहीं करती हैं. पुरुष नसबंदी शून्य के स्तर पर है, जबकि महिला नसंबदी 56 प्रतिशत है. जिले की मात्र एक प्रतिशत महिलाएं ही घर पर सरकार द्वारा प्रशिक्षित किसी स्वास्थ्य कर्मी जैसे आशा, एएनएम, आरपीएम या डाक्टर आदि से डिलीवरी करातीं हैं.

संजू 

दावनी गांव के दूसरे छोर पर रहने वाली बबीता भी 14 साल की है. उसकी भी शादी दो साल पहले ही हुई है. पति देवसिंह अभी 20 साल का है. बबीता ने शादी के करीब एक साल बाद घर पर ही एक बच्ची को जन्म दिया. बच्ची जन्म के समय मात्र 2 किलोग्राम की थी. बच्ची बचपन से ही अस्वस्थ थी, लेकिन आस पड़ोस के लोग यह मानते थे कि बच्ची पर देवी का प्रकोप है, झाड़-फूंक करने से सही हो जाएगी. गांव की हेल्थ वर्कर आशा के समझाने बुझाने के बाद वह अस्पताल गई. जहां बच्ची की शारीरिक दशा देख कर डाक्टर ने कहा कि बच्ची कुपोषित है. सलाह दिया कि बच्ची की देखभाल बेहतर तरीके से करो. डॉक्टर ने अस्पताल में बने एनआरसी (पोषण पुनर्वास केंद्र) में भर्ती करने का सुझाव दिया, लेकिन परिवार के दूसरे सदस्य नहीं मानें और घर ले गए. बेबस डाक्टर ने कुछ दवाईंया भी लिखी, जिन्हें उन लोगों ने नहीं लिया. घर पर आने के बाद फिर वही पुराना ढर्रा शुरू हो गया. गांव से सटे एक मंदिर में पूजा पाठ हुई और यह मान लिया गया कि बच्ची पर देवी का प्रकोप है, वह कुछ दिनों में ठीक हो जाएगी. इसी तरह चलता रहा और अतंत: इलाज के अभाव में 9 माह की बच्ची ने इसी साल मई महीने में दम तोड़ दिया. परिवार वालों ने इसे भी भगवान की लीला मान कर चुप्पी साध ली.

इसी ब्लॉक के दानवी गांव की रहने वाली 18 वर्षीय कामिनी की शादी 15 साल की उम्र में हो गई थी. पति रघुवीर मजदूरी करता है. कामिनी का सवा साल का एक बेटा है. वह मुश्किल से 6-7 किलोग्राम का है. वह अक्सर बीमार रहता है. कामिनी बहुत आत्मविश्वास से कहती है कि बच्चे का वजन तो ठीक ही है. बस बीमार रहता है, इसका दांत निकल रहा है न. इसीलिए, कुछ ज्यादा ही दस्त कर रहा है. जबकि, आशा बहू का कहना है कि गांव में अजीब रिवाज है, जब तक बच्चा अत्यधिक बीमार होकर खाना पीना नहीं छोड़ देता है, तब तक गांव वाले यह मानकर चलते हैं कि वह स्वस्थ है. बच्चों को अक्सर बेहोशी की हालत में ही अस्पताल ले जाते हैं. कामिनी जैसी महिलाएं भी यहीं मानती हैं कि बच्चे को स्वस्थ हालत में अस्पताल ले जाने की जरूरत नहीं है. अस्पताल तो बहुत बीमार लोगों के लिए बना है.

आंकड़ों में ललितपुर का स्वास्थ्य

एनएचएफएस-4 के आंकड़ों पर गौर करें तो ललितपुर की हालात कुछ ज्यादा ही खराब लगती है. जिले का सामाजिक परिवेश इस प्रकार है कि महिलाओं में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का अभाव है. रिपोर्ट के अनुसार जिले में 6 से लेकर 59 माह तक के 76.6 प्रतिशत बच्चे एनिमिक हैं. पांच साल से कम उम्र के 41.8 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं, जबकि 50.2 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम है.

ललितपुर जिला संस्थागत प्रसव के मामले में काफी अच्छा है. यहां पर 83.6 फीसद गर्भवती महिलाओं का संस्थागत प्रसव होता है. लेकिन, दूसरे स्वास्थ्य संबंधी इंडिकेटर संस्थागत प्रसव के ठीक उल्टे हैं. 100 दिनों तक नियमित आयरन की दवा खाने वाली महिलाओं का प्रतिशत मात्र सिर्फ 12.7 फीसद है. गर्भधारण के दौरान प्रथम एएनसी -एंटीनेटल चेकअप – करानी वाली महिलाएं 59.2 फीसदी है, जबकि पूरे चार एएनसी कराने वाली महिलाओं की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई है, ये मात्र 20.5 प्रतिशत ही हैं.

एनएचएफएस-4 की रिपोर्ट बताती है कि गांवों में 20 से 24 साल की 61.1 फीसदी महिलाओं की शादी 18 साल से कम उम्र में हो चुकी है. अशिक्षा, पिछड़ापन और सामाजिक जागरुकता का अभाव मिलकर क्षेत्र में बाल विवाह के हालत को अपरिहार्य बना देते हैं.

ललितपुर चाइल्ड लाइन की इंचार्ज दीपाली पटैरिया बताती हैं, “चाइल्ड लाइन के माध्यम से हमने कुछ दिनों पहले ही दो बाल विवाह के केस रुकवाएं हैं. लेकिन, समस्या यह है कि हमें काफी बाद में पता चलता है, तब तक काफी कुछ हो चुका होता है. सरकारी विभाग भी हमारी कोई खास मदद नहीं करता है.” वह आगे कहती हैं, “जिले में बाल विवाह की सबसे बड़ी वजह दबंगों का प्रभाव, अशिक्षा, अत्यधिक पिछड़ापन और जागरुकता का अभाव है. पिछड़ा समाज होने के कारण जिले में सामंती शोषण बहुत ज्यादा है. बाल विवाह के मामले ऊंची जातियों में कम पाए जाते हैं, जबकि समाज में दबे कुचलों वर्गों में यह ज्यादा है. खासतौर पर सहरिया आदिवासियों में बाल विवाह के केस सबसे ज्यादा हैं.”

इस पूरे इलाके की सामाजिक संरचना भी ऐसी है जो बाल विवाह और बच्चों की बीमारियों को बढ़ावा देती है. दलितों व सहरिया आदिवासियों के परिवारों का समाज का उच्च वर्ग और दबंग जातियां जमकर शोषण करती हैं, इस कारण से भी वह अपने बेटियों की शादी कम उम्र में कर देते हैं, जिससे उनकी इज्जत बचाई जा सके. ललितपुर के मडावरा ब्लॉक के गांवों में बाल विवाह के कई केस हैं, लेकिन वहां पर दगंबों का इतना खौफ है कि कोई कुछ बोल तक नहीं सकता है. गांव में घुसना भी बहुत मुश्किल होता है. दीपाली के मुताबिक कई बार हम लोग गए तो गांव के दबंगों के दबाव में गांव वाले बाल विवाह की बात नकार जाते हैं.

गांव की एएनएम अक्लवती कहती हैं, “मैं कई सालों से यहां तैनात हूं. दशकों से मैं देख रही हूं कि गांव के लोग पोषाहार तक लेने में लापरवाही करते हैं. गांव में घर-घर जाकर पोषाहार बांटना पड़ता है. गांव की बहुओं को स्वास्थ्य सेवाएं लेने के लिए काफी आग्रह करना पड़ता है. टीकाकरण कराने में भी गांव वाले हिचकिचाते हैं. कई बार गांव के बड़े बुजुर्गों को समझा बुझा कर टीकाकरण कराना पड़ता है.”

कामिनी 

ललितपुर के हिंदुस्तान अखबार के ब्यूरो चीफ संजय अवस्थी, जो इस इलाके को लंबे समय से कवर करते आ रहे हैं, कहते हैं, “बालिग होने या बाल विवाह के मामले सामने आने की राह में सबसे बड़ी अड़चन उम्र का निर्धारण है. अभी भी गांवों में उम्र प्रमाण पत्र या जन्म प्रमाम पत्र आदि को लेकर कोई जागरुकता नहीं है. ज्यादातर मां-बाप और बच्चों को पता ही नहीं होता है कि उनकी उम्र क्या है? मां बाप अक्सर अपने बच्चों की उम्र का अंदाजा लगाते हैं. ऐसे में उनके बच्चों को कहां से इतनी समझ आएगी कि उन्हें बालिग होने के बाद शादी करनी है या नहीं.”

स्थानीय पत्रकार सगीर खान इलाके में प्रचलित एक और धारणा की तरफ इशारा करते हैं जो कि बाल विवाह की एक बड़ी वजह है. उनके मुताबिक इस क्षेत्र में यह रिवाज है कि जैसे ही किसी लड़की का पीरियड शुरू हो जाता है, तो यह मान लिया जाता है कि वह शादी के लायक हो गई है. इसके बाद लड़की के मां बाप शादी की तैयारी शुरू कर देते हैं. वह यह समझते ही नहीं है कि इससे बेटी या बेटे को स्वास्थ्य संबंधी कोई खतरा है.

दो दशकों से बुंदेलखंड में विभिन्न सामाजिक समस्याओं पर काम कर रहे बुंदेलखंड में चाइल्ड लाइन के प्रमुख संजय सिंह बताते हैं कि यह क्षेत्र काफी पिछड़ा है. यहां पर रोजगार के साधन कम हैं, पलायन ज्यादा है. पलायन करने के कारण लोगों को एक जगह ठहर कर स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ उठाना मुश्किल होता है. इसके अलावा पलायन करने वाले परिवार बेटियों की सुरक्षा को लेकर काफी चिंतित रहते हैं. ऐसे में वह अपने बेटे-बेटियों की शादी जल्दी करने में ही भलाई समझते हैं.

महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कालेज के बाल रोग विभाग के विभागाध्यक्ष डाक्टर ओम शंकर चौरसिया कहते हैं, “बाल विवाह ऐसी सामाजिक बुराई है, जिसके कारण पति व पत्नी दोनों को कई प्रकार की मानसिक व शारीरिक परेशानियों को झेलना पड़ता है. इसका सबसे ज्यादा असर बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ता है. जिन बच्चों के मां बाप बहुत कम उम्र के होते हैं, वह बच्चों की देखभाल में भी काफी लापरवाही बरतते हैं. यह उनके अनुभवहीन होने के कारण होता है. ऐसे में बच्चों पर कुपोषण और एनिमिक होने का ख़तरा लागातर बढ़ता रहता है.

गांव में ताश खेलकर समय काटते किशोर 

स्वास्थ्य के मुद्दों पर काम करने वाले सेंटर फॉर एडोवोकेसी एंड रिसर्च संस्था की बुंदेलखंड इंचार्ज सुमन राठौर इस इलाके में बाल विवाह की समस्या को बच्चों के बुरे स्वास्थ्य से जोड़कर देखती हैं. वो कहती हैं, “ललितपुर का इलाका बाल विवाह के मामले में काफी खराब स्थिति में है. बाल विवाह पर हम सीधे तो काम नहीं करते हैं, लेकिन जब गांवों में फिल्ड विजिट के लिए जाते हैं तो यह अक्सर हमारे सामने आता है कि कम उम्र में शादी के कारण शिशु पर काफी प्रभाव पड़ा है. बच्चे कुपोषित पैदा होते हैं या बाद में उन्हें कई प्रकार की बीमारियां घेर लेती हैं.”

डॉ. नईम बताते हैं, “कम उम्र में विवाह और गर्भ धारण से इस इलाके में लड़कियां रक्ताल्पता, कुपोषण सहित अनेक बीमारियों की शिकार हो जाती हैं. इस समस्या को देखते हुए ही यूनिसेफ ने ललितपुर जनपद को गोद लिया है. इसके अलावा बेटी फाउंडेशन, वात्सल्य जैसी राष्ट्रीय स्तर की संस्थाए भी इस जिले में काम कर रही हैं. स्थानीय स्तर पर साईं ज्योति, ताराग्राम आदि संस्थां भी इन वर्गों के लिए काम कर रही हैं. अभी भी इन वर्गों की सामाजिक आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है. आवश्यकता है कि इन्हें शिक्षा एवं रोजगार से जोड़ा जाए.”

प्रशासन की बात

जिला प्रोबेशन अधिकारी सुरेंद्र कुमार पटेल बताते हैं,  ”बाल विवाह से जुड़ा डाटा पांच साल पुराना है. सरकार की मंशा है कि बाल विवाह को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाए, इसके लिए जिले में टास्क फोर्स तक का गठन किया गया है. मैं डेढ़ साल से जिले में तैनात हूं. मेरे आने के बाद से बाल विवाह का कोई भी मामला सामने नहीं आया है. विभाग द्वारा कई प्रकार की जागरुकता योजनाएं संचालित की जाती हैं. जिसमें बाल विवाह के दुष्परिणामों की जानकारी दी जाती है.”

पटेल के मुताबिक बाल विवाह से निपटने का एक तरीका यह भी है कि हम यहां सामूहिक विवाह का आयोजन करते हैं जिसकी निगरानी विभाग के लोग करते हैं. हालांकि पटेल भले ही बाल विवाह के मामलों की जानकारी नहीं होने की बात कहते हैं लेकिन विगत पांच सालों में जिला प्रोबेशन कार्यालय में बाल विवाह की तीन शिकायतों पर कार्रवाई हुई है. इसमें दो मड़ावरा और एक महरौनी थाने का है. अधिकतर मामलों में पक्षकार लिखित में बेटा या बेटी के बालिग होने तक शादी नहीं करने का आश्वासन देते हैं, इस कारण उन पर कोई कार्रवाई नहीं की जाती है. एक मामले में एक आरोपी की बेटी एक दिन बाद 18 वर्ष की होने वाली थी, ऐसे में टीम उल्टे पांव वापस आ गई.

प्रोबेशन कार्यालय के एक कर्मचारी नाम न उजागर करने की शर्त पर बताते हैं, “इस तरह के मामले में हमें शिकायतों के भरोसे बैठे रहना पड़ता है. विभाग के नियम अजीब हैं. हम अपने आप नहीं जा सकते हैं, जब तक कोई शिकायत न आए कि फलां जगह पर बाल विवाह हो रहा है, तब तक हमें खुद से जाने की इजाजत नहीं होती है. दूसरे, हमारे पास कुछ खास पॉवर भी नहीं है. हमें पुलिस के भरोसे रहना पड़ता है. जब हमें बाल विवाह की शिकायत मिलती है तो हम क्षेत्र के पुलिस से आग्रह करते हैं, जो हमें सुरक्षा मुहैया कराती है. अधिकतर बार पुलिस भी सुरक्षा मुहैया कराने में काफी देरी करती है, तब तक शादी हो चुकी होती है. ऐसे में क्षेत्र में जाना बहुत खतरनाक होता है.”

ललितपुर की भगौलिक व सामाजिक स्थिति

उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर एकदम किनारे ललितपुर एक छोटा सा शहर है. यह पूरी तरह से मध्य प्रदेश के अंदर है. इसकी तीनों ओर की सीमाएं मध्य प्रदेश के जिलों से घुली मिली हैं. अधिकारिक वेबसाइट के अनुसार यहां की आबादी करीब 12,21,592 है. इसमें पुरुषों की संख्या 6,41,001 और महिलाओं की संख्या 5,80,581 है. जनगणना 2011 के अनुसार ललितपुर जिले के शहरी क्षेत्र में 14.4 प्रतिशत आबादी रहती है, जबकि ग्रामीण इलाकों में 85.6 फीसदी लोग रहते हैं. जिले में 756 गांव और 6 ब्लॉक हैं.  इनमें बार, बिरधा, जखौरा, मडावरा, महरौनी और तालबेहट शामिल हैं. ललितपुर जिले में शहरी क्षेत्रों का लिंगानुपात 916 है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों का 904 है, दोनों ही लिंग अनुपात सामान्य से काफी कम है.

ललितपुर जिले में 0-6 वर्ष की आयु के बच्चों की जनसंख्या 2,12,205 है जो कुल जनसंख्या का 17 प्रतिशत है. 6 वर्ष तक के 1,10,745 बालक और 1,01,460 बालिकाएं हैं. उत्तर प्रदेश का महिला साक्षारता दर 58 प्रतिशत और पुरुषों का 77.28 प्रतिशत है. जबकि, ललितपुर जिले की कुल साक्षरता दर मात्र 63.52 प्रतिशत है. इसमें भी पुरुष साक्षरता दर 62.02 फीसदी और महिला साक्षरता दर मात्र 41.96 प्रतिशत है. महिलाओं की साक्षारता दर कम होना, उनके अधिकारों के प्रति जागरुकता एवं उत्पीड़न की कहानी बयां करता है. इसके अलावा, ललितपुर में सहरिया आदिवासियों की संख्या करीब 2.50 लाख है, जो हर मामले में मुख्यधारा से काफी पीछे हैं. सहरिया आदिवासी राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड हिस्से में निवास करती है. राजस्थान व मध्य प्रदेश में इस आदिवासी कौम को अनुसूचित जाति का दर्जा है, जबकि उत्तर प्रदेश में सामान्य जाति में गिने जाते हैं.

ललितपुर के कुपोषण की कहानी

देश में स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव व लोगों में जागरुकता की कमी के कारण बाल मृत्यु दर के मामले में स्थिति काफी खराब है. सन 2007 में भारत की बाल मृत्यु दर प्रति 1,000 जीवित जन्मों में 51.6 थी, जबकि उत्तर प्रदेश की 69 थी. बाल विवाह के अभिशाप के कारण ललितपुर की 72 थी, यानी उत्तर प्रदेश और देश की बाल मृत्यु दर से भी काफी ज्यादा. हालात को देखते हुए कुपोषित बच्चों की संख्या अत्यधिक होने और सामाजिक रूप से पिछड़े होने के कारण यूनिसेफ ने सरकार के साथ मिलकर देश का पहला एनआरसी – पोषण पुनर्वास केंद्र – 22 जनवरी 2008 को खोला. यहां डाक्टरों, एएनएम और आशा बहू को प्रशिक्षित किया गया.

कुपोषित का शिकार बच्चा अपनी मां की गोद में 

एनआरसी में कुपोषित बच्चों और उनकी मांओ को रखा जाता है. कुपोषण की अलग अलग कटेगरी के हिसाब से उन्हें सुविधाएं प्रदान की जाती हैं. यहां पर बाल रोग विशेषज्ञ, पोषण विशेषज्ञ से लेकर काउंसलर तक की तैनाती की गई. साथ ही आशा, आंगनबाड़ी कार्यकतृ व आशा तक को इसके साथ जोड़ा गया, जो मांओं व परिजनों को कुपोषण के बारे में विस्तार से बता कर इससे बचने की पूरी जानकारी देते हैं. मरीजों को यात्रा भत्ता देने के साथ ही आसानी से और कम खर्च में उपलब्ध पौष्टिक सामग्री के बारे में बताया जाता है.

सबसे ज्यादा युवा, सबसे ज्यादा बाल विवाह

हमारा देश सबसे युवा देश है. यहां 25 करोड़ से ज्यादा किशोर – किशोरियां रहते हैं. दुनिया के किसी भी देश में इतने किशोर नहीं रहते हैं. यह विडंबना ही है कि देश की 54 प्रतिशत किशोरियां एनेमिक हैं. जनगणना 2011 की मानें तो 20 से 24 साल की 27 प्रतिशत महिलाओं का विवाह 18 साल से कम उम्र में हो चुका होता है. जबकि, 90 लाख शादीशुदा किशोरियां परिवार नियोजन के साधनों का प्रयोग तक नहीं करती हैं. विश्व में बाल विवाह के मामले में भारत सबसे आगे है. बाल विवाह को लेकर यूनीसेफ की 2019 की रिपोर्ट बताती है कि आज भी देश में औसतन 27 फीसदी बाल विवाह होते हैं. जबकि, 7 फीसदी की शादी 15 साल की उम्र से पहले कर दी जाती है. ज्यादा किशोरियों की संख्या के बावजूद देश की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था किशोरों के संपूर्ण विकास पर ध्यान नहीं देती है.

(यह ग्राउंड रिपोर्ट टीएमआर-2019 फेलोशिप के तहत पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया  के समर्थन से की गई है. इसका लक्ष्य देश के गैर मेट्रो शहरों के पत्रकारों और मीडिया संस्थाओं के बीच समन्वय स्थापित करना है. अधिक जानकारी के लिए यहां  क्लिक करें.)