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थोक के भाव नौकरियां गंवा रहे पत्रकारों की यह स्थिति क्यों है?
(डिस्क्लेमर: मैं अमूमन आंकड़ों पर आधारित लेख लिखता हूं, लेकिन यह लेख आने वाले दिनों में भारतीय मीडिया जगत की संभावित गति को लेकर मेरा एक व्यक्तिगत आकलन है. मुझे लगता है कि आने वाला समय कठिन है और इसका अंत भी सुखद नहीं दिख रहा है.)
भारतीय मीडिया में इस समय भयानक उथल-पुथल मची हुई है. कई हाई प्रोफाइल सम्पादकों ने नौकरी छोड़ दी है. उनके नौकरी छोड़ने का आधिकारिक कारण हमेशा की तरह यही बताया गया है कि वे समाचारों और विश्लेषण के अलावा जीवन में कुछ और करना चाहते हैं. हालांकि अफवाहों की या अनाधिकारिक वजहों पर भरोसा करें तो बात कुछ और ही निकल कर आती है. लेकिन चूंकि मुझे अंदरखाने की ख़बर नहीं है इसलिए इस बात को यहीं छोड़ देते हैं.
सम्पादकों के नौकरी छोड़ने की ख़बर हमेशा से बड़ी होती है. लेकिन जो ख़बर बड़ी नहीं बनी वो ये कि पिछले कुछ महीनों में कई अख़बार या पत्रिकाएं और टीवी चैनल बंद हो गए और दर्जनों पत्रकारों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा. इसके अलावा बहुत सारे अख़बारों और पत्रिकाओं ने अपना प्रकाशन तो जारी रखा लेकिन बहुत सारे पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया.
तो, इस पूरे घटनाक्रम से हमको क्या संकेत मिलता है?
इससे पहले कि मैं इस सवाल का जवाब दूं पहले एक छोटा सा इतिहास दोहरा सामने रख देता हूं. मैंने पूर्णकालिक पत्रकारिता में छोटा सा समय बतौर करियर बिताया है- लगभग साढ़े छः साल. पूरे 78 महीनों में से पहले 60 महीने तो बहुत मजा आया.
मैंने पूर्णकालिक पत्रकारिता मार्च 2012 में छोड़ दी. मुझे एक लंबी किताब लिखनी थी जिस पर मैं बहुत दिन से काम कर रहा था. इसके आगे मैंने बहुत कुछ नहीं सोचा था. मेरे खाते में पर्याप्त पैसा था और इसलिए मैंने सोचा कि पहले इस बड़ी सी किताब का काम ख़त्म किया जाए फिर आगे के बारे में सोचा जाए. लेकिन वो कहावत है न कि जीवन ने आपके बारे में कुछ और ही सोच रखा था.
नौकरी छोड़ने के एक हफ्ते के अंदर ही मुझे कुछ प्रकाशनों से फ्रीलान्स प्रस्ताव मिलने शुरू हो गए. हालांकि शुरू में पैसा ज्यादा नहीं था, लेकिन उतना कम भी नहीं था और मेरे पास हफ्ते में कुछेक लेख लिखने का समय भी था.
दो साल के अंदर ही मैं लगभग सभी महत्वपूर्ण जगहों पर लिख रहा था. मुझे जल्द ही यह समझ आने लगा कि इंटरनेट में अच्छा पैसा है और लोगों की पढ़ने की आदतों में भी बदलाव आया है. तो मैं डिजिटल प्रकाशनों के उदय का मजा ले रहा था. रेडिफ डॉट कॉम अपने पैर जमा चुका था लेकिन और कोई दूसरा महत्वपूर्ण डिजिटल प्रकाशन तब तक नहीं था.
सबसे बड़ी समस्या ये थी कि इनमें से अधिकांश पूर्ण डिजिटल प्रकाशनों का कोई बिज़नेस मॉडल नहीं था. इस बात पर मुझे एक मैनेजमेंट गुरु द्वारा दिया गया एक जवाब याद आया जो उन्होंने मेरे द्वारा पूछे गए एक सरल से प्रश्न पर दिया था. मैंने उनसे पूछा था कि वो बिज़नेस मॉडल को कैसे परिभाषित करेंगे? इस प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा ये इस पर निर्भर करता है कि कोई कंपनी कैसे किसी दिन पैसे कमाने की उम्मीद करती है.
हालांकि इसके बारे में मुझे तब तक ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं थी जब तक मुझे लिखने, जो कि मुझे अच्छा लगता है, के लिए पैसे मिल रहे थे. इसके अलावा मैंने जॉर्ज सोरोस को पढ़ा था जहां उन्होंने कहा था कि जो व्यक्ति किसी बिजनेस में पहले घुसता है वो ज्यादा पैसे कमाता है. मैं भी इसी तरह की परिस्थिति का मजा ले रहा था और कुछ पैसे कमा रहा था. ऐसा नहीं था कि सभी डिजिटल प्रकाशनों के पास बिज़नेस मॉडल नहीं था. कुछ अलग तरह के प्रकाशन थे जो अपवाद थे.
लिहाजा मुझे हमेशा से इस बात की आशंका थी कि यह हद से ज्यादा आदर्श स्थिति है और यह हमेशा सच नहीं रही सकती. यह बात मैं अलग-अलग तरीके से कई वर्षों से फेसबुक पोस्ट पर कहता आ रहा हूं. 2016 के बाद से लगभग हर साल मैं डिजिटल प्रकाशन के बुलबुले के फटने के इंतजार में था और आखिरकार इस साल यह हो गया.
वो पैसा जो इन प्रकाशनों को काफी सालों से चला रहा था अब ख़त्म हो रहा है और इसके चलते कुछ प्रकाशन बंद भी हो गए. कुछ अन्य प्रकाशनों ने अपने बजट में कटौती कर दी है और यहां तक कि कुछ लोगों को निकाल भी दिया गया है ताकि वो कुछ और दिन चल सकें.
समस्या यह है कि अभी भी कोई भरोसेमंद बिज़नेस मॉडल नहीं दिख रहा है. कुछ ऐसी भी वेबसाइट हैं जिन्होंने सब्सक्रिप्शन मॉडल अपनाने की कोशिश की है लेकिन इसमें सफलता कुछ को ही मिली बाकी इससे दूर ही रहीं. इसके अलावा कुछ ऐसी भी वेबसाइट हैं जो डोनेशन मॉडल पर चल रही हैं और वो कुछ हद तक चल भी रहीं हैं. मुझे लगता है कि डोनेशन मॉडल में राजनीतिक झुकाव साफ़ तौर पर मदद करता है. इसके अलावा, आर्थिक मंदी के दौर में जहां जहां भी विज्ञापन वाला मॉडल है वहां थोड़ा बहुत असर होगा.
अख़बारों का क्या होगा? यहां समय सीमा थोड़ी लंबी है.
मैं रांची में पला-बढ़ा हूं. मेरे पिताजी, जो अब भले ही टाइम्स ऑफ़ इंडिया पढ़ते हैं, वो 1980 के दशक में द इंडियन एक्सप्रेस पढ़ते थे. अख़बार का दिल्ली संस्करण रांची में शाम को आया करता था और कभी-कभी तो हमें डाक संस्करण भी मिलता था जिसमें कि एक दिन पुरानी खबरें होती थीं. (हां, ऐसे भी दिन थे जब ख़बर को हम तक पहुंचने में समय लगता था न कि आज की तरह जब महशूर हस्तियों को उनके मरने से पहले ही मार दिया जाता है.)
जहां तक मुझे याद है, उस समय द इंडियन एक्सप्रेस का दिल्ली संस्करण तीन रुपये का आता था. उसके तीन दशक बाद अख़बार की कीमत छः रुपये है. अख़बार की कीमत तीस साल में दोगुनी हो गई है. औसतन 2.3 प्रतिशत की वृद्धि हर साल हुई है. जाहिर है, अख़बार की कीमतें मुद्रास्फीति की दर के हिसाब से बहुत काफी कम बढ़ी हैं.
ऐसा क्यों? उस समय अख़बार की आय का बड़ा हिस्सा उसके बिकने वाली कीमत से निकलता था. पिछले तीन दशकों में बिज़नेस मॉडल बदल गया है. जैसा कि जेम्स इवांस और रिचर्ड एल श्मलेन्से ने मैचमैकेर्स: द न्यू इकोनॉमिक्स ऑफ़ मल्टी साइडेड प्लेटफॉर्म्स, में लिखा है- “[एक अख़बार] या तो पाठकों को अख़बार बेच कर पैसा कमा सकता है या फिर विज्ञापनों से. अगर वो अख़बार की प्रति के पैसे बढ़ाता है या सब्सक्रिप्शन के पैसे बढ़ाता है तो लोगों का रुझान उसके प्रति कम हो जाएगा. जब उसके पाठक कम होंगे तो विज्ञापनदाता भी उसे पैसा देने को तैयार नहीं होंगे.”
भारत में अख़बारों के बिज़नेस मॉडल में बड़ा बदलाव देखने को मिला है. अख़बार अब उत्पादन से भी कम लागत में बेचा जाता है. अख़बार कारपोरेट और सरकारी विज्ञापन के द्वारा इस लागत को कम करने की उम्मीद करते हैं.
इसलिए, अब अख़बारों के लिए पाठक ग्राहक नहीं रह गए हैं क्योंकि वो अख़बार की सही कीमत नहीं चुका रहे हैं. वे सिर्फ उस उत्पाद का एक हिस्सा हैं जो अख़बार विज्ञापनदाताओं को दे रहे हैं. इस बात को ज्यादातर अख़बार पढ़ने वाले भारतीय पाठक समझ नहीं पा रहे हैं.
इसका क्या परिणाम होगा? यह इस बात को सुनिश्चित करता है कि ज्यादातर खबरें जो आप अख़बार में पढ़ रहे हैं, वो इस प्रकार से प्रकाशित की जाएं कि विज्ञापनदाताओं को कोई नुकसान न हो. चाहे वो विज्ञापनदाता कोई कारपोरेट हो या कोई सरकार.
आर्थिक मंदी के कारण जिस तरह से कारपोरेट विज्ञापन कम होते जा रहे हैं उससे यह तो निश्चित रूप है कि आने वाले महीनों में समय और कठिन होता जायेगा. यदि आप उनमें से हैं जिनके घर अभी भी अख़बार आता है तो आप शायद यह महसूस करेंगे कि अख़बार अब उतना मोटा नहीं रह गया जितना कुछ महीनों पहले हुआ करता था. ऐसा मुख्य रूप से इसलिए हो रहा है क्योंकि अखबारों से कारपोरेट विज्ञापन गायब होते जा रहे हैं इसलिए अख़बार पतले होते जा रहे हैं.
तो हम कहां खड़े हैं? आने वाले समय में अख़बारों के लिए सरकारी विज्ञापनों का महत्व बढ़ जायेगा. इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से प्रकाशित हो रही ख़बरों पर पड़ेगा, उसको प्रकाशित करने के तरीके पर पड़ेगा या ये भी हो सकता है कि किसी खबर को प्रकाशित ही न किया जाए. इसके अलावा ऐसा लग रहा है कि आर्थिक मंदी जल्दी ख़त्म नहीं होने वाली है. जाहिरन इसका मतलब ये है कि ऐसे पत्रकारों के लिए जो ‘अच्छी’ पत्रकारिता करना चाहते हैं उनके लिए आने वाला समय कठिन होगा.
निष्कर्ष यह है कि पत्रकारों को जीवन में बहुत कुछ ऐसा करने का मौका मिलता है जिस पर उन्हें गर्व होता है लेकिन यही पत्रकारिता उनका गला भी घोंट सकती है.
(विवेक कौल ईज़ी मनी ट्राइलॉजी के लेखक हैं)
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