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एनआरसी कवरेज से क्यों आहत हैं असम के संपादक-पत्रकार

20 अक्टूबर, 2019 को एक्सोम नागरिक समाज (एएनएस), जो कि असम का एक नागरिक समाज संगठन है, ने गुवाहाटी प्रेस क्लब में 15-पन्ने का एक पर्चा अंग्रेजी में जारी किया. “एनआरसी क्यों?” शीर्षक वाले इस पर्चे को छापने की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि, “कुछ लोग निहित स्वार्थों के कारण, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, उन्नीसवीं सदी के ब्रिटिश साम्रज्य के समय के स्वदेशी समुदायों के अस्तित्व की उपेक्षा करते हुए निराशाजनक एवं परेशान करने वाली व्याख्या कर रहे हैं जिससे लोगों में भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है.”

एनआरसी यानि नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स को सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में असम में फरवरी 2015 से अपडेट करना शुरू कर दिया गया था. लगभग साढ़े तीन साल बाद पिछले साल जुलाई में इस रजिस्टर का पूरा ड्राफ्ट सामने आया. इसके बाद एएनएस- जिसमें असम के कुछ वरिष्ठ पत्रकार, शिक्षाविद, सेवानिवृत्त नौकरशाह और वकील शामिल हैं- को वास्तविक मामले और जो सुर्खियां सामने आ रही हैं उनमें काफी अंतर है.

इस पैम्फलेट के विमोचन के अवसर पर, एएनएस के उपाध्यक्ष और असम के एक प्रमुख अख़बार अमर असोम के संपादक, प्रशांत राजगुरु ने कहा कि ऐसा लगता है कि असम के बाहर की मीडिया का एक वर्ग समय-समय पर चीज़ों को गलत तरीके से पेश कर रहा है. उन्होंने आगे बताया, ” एनआरसी पर कुछ वरिष्ठ भारतीय राजनेता विभिन्न अवसरों पर विरोधाभासी बयान देते रहे हैं जिसने भ्रम की स्थिति को बढ़ा दिया है.”

राजगुरु के अनुसार इस पैम्फलेट का प्रयास है कि सारे तथ्यों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखा जाय. ऐसी उम्मीद है कि इस पर एक विस्तृत पुस्तक या दस्तावेज असम के बाहर रह रहे लोगों में एनआरसी के बारे में ग़लतफ़हमी को दूर कर देगा. लेकिन एक व्यापक सन्दर्भ में देखा जाये तो राजगुरु सिर्फ वो ही दोहरा रहे थे जो कि उनके सहयोगी राज्य में कुछ समय से कह रहे हैं.

जब से असम में एनआरसी को अपडेट करने का काम शुरू हुआ है तब से यह काफी चर्चा का विषय बना हुआ है. यहां तक कि 31 अगस्त को एनआरसी की अंतिम सूची आने पर राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मीडिया दोनों ने इस मुद्दे पर व्यापक कवरेज की.

हालांकि इनमें से कई रिपोर्ट असम की मीडिया के एक बड़े हिस्से को अच्छी नहीं लगी. उनकी एक ही शिकायत है कि राज्य के नागरिकों एवं आप्रवासियों के जटिल मुद्दों को सेलेक्टिव तरीके से दिखाया जा रहा है और यह व्यापक तस्वीर दिखाने में सफल नहीं हुआ है.

एएनएस के कार्यकारी अध्यक्ष एवं असम के प्रमुख न्यूज़ चैनल प्राग न्यूज़ के प्रधान संपादक अजीत कुमार भुइयां कहते हैं कि जैसा बहुत सारे लोग मानते हैं कि एनआरसी मुसलामानों या किसी एक विशेष समुदाय पर निशाना साधता है, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. उनका कहना है कि इसके लिए असम के बाहर से पत्रकारों को आकर इस मुद्दे के इतिहास को समझना पड़ेगा.

वे कहते हैं, “एनआरसी के आधार को समझने के लिए 1979 के समय को समझना पड़ेगा जब असम में बांग्लादेश से आये अवैध प्रवासियों के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत हुई थी. यह एक विशाल जन आंदोलन था जो कि सांप्रदायिक नहीं था बल्कि सिर्फ नागरिकों और अवैध प्रवासियों के बीच का था. एनआरसी भी उसी को बढ़ावा देता है.”

हालांकि, इस मुद्दे की गलत व्याख्या पर भुइयां तर्क देते हैं कि इसके पीछे विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा दशकों से फैलाया जा रहा झूठ है.

वे जोर देकर कहते हैं, “चाहे वो कांग्रेस हो या भाजपा, सभी राजनीतिक दल अपने अपने वोट बैंक को सुरक्ष्हित रखने के लिए ऐसा करते रहे हैं. लेकिन राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मीडिया दोनों को एनआरसी को इस नज़रिये से नहीं देखना चाहिए. इसका अपना इतिहास है जो कि किसी भी पार्टी लाइन से अलग है और इस बात का ध्यान रखना चाहिए.”

राजगुरु भी इस बात से सहमति जताते हैं. वे कहते हैं, “भारत के दोनों सम्प्रदायों के बीच हालिया राजनीतिक माहौल को देखते हुए, दिल्ली की मीडिया या पश्चिमी मीडिया एनआरसी के मुद्दे को उसी नज़रिये से देखती है. जब देश के बाकि हिस्सों में पिछले कुछ वर्षों से साम्प्रदायिक तनाव बढ़ रहा था, तब असम या पूर्वोत्तर का हिस्सा इन सब से मुक्त था. एनआरसी भी काफी हद तक शांतिपूर्ण रहा जिसमें लोगों ने धार्मिक, जातीय और भाषाई हदों को भूल कर हिस्सा लिया.”

एनआरसी के लंबे इतिहास के पीछे असम की आम अभिव्यक्ति है जिसको कई लोग अपनी तरह से समझते हैं. 1985 के असम समझौते की ओर इशारा करते हुए ज्यादातर राजनीतिक दल और नागरिक समाज संगठनों ने 24 मार्च, 1971 को एनआरसी की कट-ऑफ तारीख मानते हुए उसको सभी हितधारकों द्वारा किये गए कठोर संघर्ष को याद करते हैं.

इसकी पृष्ठभूमि के खिलाफ, जब एनआरसी पर सैद्धांतिक रूप से विवाद न के बराबर है, वहीं काफी लोग एनआरसी के अपडेट होने और राज्य में उससे संबंधित कार्यों में कथित मानवाधिकारों के हनन के बारे में काफी मुखर रहे हैं. वो ये समझते हैं कि असम की स्थानीय मीडिया ने इस मुद्दे को ठीक से कवर नहीं किया है.

गुवाहाटी के एक स्वतंत्र शोधकर्ता और स्तंभकार अंकुर तमूलीफुकन का मानना है कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मीडिया दोनों के दृष्टिकोण को एक समान कारण ही प्रभावित करते हैं. वे कहते हैं, “जैसे कि दिल्ली या कहीं का भी मीडिया राजनैतिक रूप से प्रभावित होता है, उसी तरीके से स्थानीय मीडिया भी प्रभावित होता है. इसलिए असम की स्थानीय मीडिया ने, अपने अच्छे इरादों के बावजूद, जन भावनाओं को ध्यान रखते हुए राष्ट्रवादी सुर अपनाये हुए है.”

तमूलीफुकन इसके पीछे यह तर्क देते हैं कि ऐसा करने में अलग-अलग मत एक ही कहानी के विभिन्न पहलुओं को एक साथ प्रभावी रूप से जोड़ने में सफल नहीं होते हैं. वे आगे कहते हैं, “उदाहरण के तौर पर, जहां एक ओर कुछ दिल्ली के पत्रकार एनआरसी को अवैध प्रवासियों के खिलाफ उठाया गया कड़ा कदम बता रहे हैं जैसा कि सत्ताधारी पार्टी कह रही है, वहीं दूसरी ओर पश्चिमी मीडिया के लोग इसको मानवीय संकट के रूप में देख रहे हैं.”

इसी तरह असम की स्थानीय मीडिया भी मानवाधिकार की बात करती है लेकिन नपे तुले तरीके से. तमूलीफुकन आगे कहते हैं, “ऐसा इसलिए है क्योंकि मानवाधिकारों का हनन उनके लिए कुछ और ही है. वे नागरिकों द्वारा अवैध प्रवासियों और संसाधनों के शोषण के खिलाफ विरोध के ऐतिहसिक सन्दर्भ को भी रेखांकित करते हैं.”

असम की स्थानीय मीडिया में काम कर रहे कुछ लोगों के अनुसार ये टिप्पणी निराधार नहीं है. असम के सबसे ज्यादा देखे जाने वाले न्यूज़ चैनल में से एक प्रतिदिन टाइम के प्रधान संपादक, नितुमोनी सैकिया तर्क देते हैं कि जब वो कुछ काम कर रहे होते हैं तो उन्हें पक्षपाती के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.

अपना तर्क रखते हुए वे कहते हैं, “हम इस बात से इंकार नहीं करते हैं कि (एनआरसी की वजह से) मानवाधिकारों के हनन की कुछ घटनाएं हमसे छूट गई होंगी. लेकिन सामान्यतः राज्य के अधिकांश अख़बारों और चैनलों ने नियमित रूप से एनआरसी की अनियमिताओं को, निराकरण केंद्रों की ख़राब स्थिति और विदेशी ट्रिब्यूनल्स की विसंगतियों को दिखाया है. इसलिए, हमारी भूमिकाओं का (मानवाधिकारों के हनन के मुद्दे पर) सामान्यीकरण स्वीकार करना हमारे लिए मुश्किल है.”

सैकिया का मानना है कि असम की मीडिया और राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मीडिया के बीच इस मुद्दे पर एक बड़े पैमाने पर संवाद होना चाहिए.

वे कहते हैं, “एक पत्रकार के तौर पर हम सभी की जिम्मेदारी है कि हम इस मुद्दे का मानवीय पक्ष भी सामने लाएं. लेकिन अवैध प्रवास भी तो सदियों से असम में रह रहे दर्जनों समुदायों के अधिकारों पर एक खतरा है. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया को इस पहलू को भी दिखाना चाहिए.”

असम की स्थानीय मीडिया और राज्य के बाहर की मीडिया के बीच का अंतर सबको महसूस होता है. पूर्वोत्तर में सबसे ज्यादा बिकने वाले अख़बार असम ट्रिब्यून से कार्यकारी संपादक एवं वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत जे बरुआ मानते हैं कि इस विषय पर और ज्यादा स्पष्टता के लिए इन दोनों के बीच समन्वय और मजबूत होना चाहिए.

अपना तर्क रखते हुए वे कहते हैं, “असम के बाहर के पत्रकारों को एवं शिक्षाविदों को इसे (अवैध प्रवास की समस्या) राष्ट्रीय समस्या की तरह समझना होगा न कि असम की स्थानीय समस्या के रूप में. उनको इस समस्या को सरकारों की विफलता के रूप में देखना चाहिए जो आज़ादी के बाद से अवैध घुसपैठ रोक नहीं पाए. सीधे-सीधे असम के लोगों को उनके अवैध घुसपैठ के खिलाफ विरोध के लिए जेनोफोबिक के तौर पर दोषी ठहरना ठीक आलोचना नहीं है.”

चूंकि एनआरसी 31 अगस्त को प्रकाशित किया गया था, जिसमें 3.30 करोड़ कुल आवेदकों में से 19,06,657 लोगों को बाहर रखा गया था, इसलिए सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी की सरकार और असम के कई संगठनों ने इस परिणाम पर निराशा व्यक्त की. सभी ने इस संख्या को मानने से इंकार कर दिया क्योंकि उनको लगता था कि एनआरसी से बाहर रखे गए लोगों की संख्या इस संख्या से काफी कम होगी. कुछ लोगों ने तो सौ फीसदी नामों का पुनर्सत्यापन करने की मांग की है.

लेकिन असम के कई पत्रकारों का मानना है कि इस तरह से शोर मचाने से इस समस्या का सार्थक समाधान नहीं निकल सकता. असम के एक प्रमुख अख़बार असोमिया प्रतिदन के संपादक, नित्या बोरा कहते हैं, “संख्या पर बहस करने से अच्छा होगा कि सरकार और विभिन्न संगठन अनियमतताओं को सुधारने की तरफ ध्यान दें. पिछले चालीस सालों से सभी राजनीतिक दल इस मुद्दे (अवैध घुसपैठ) को सिर्फ इस्तेमाल किया है कभी इसका समाधान करने के बारे में नहीं सोचा. अब आखिरकार हमारे पास कोई एक दस्तावेज है जिसकी प्रक्रिया सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जा रही है, इसे हमें स्वीकार करना चाहिए.”

सरकार द्वारा जारी अधिसूचनाओं के अनुसार, जो लोग एनआरसी में छूट गए हैं उन्हें राज्य के विदेशी ट्रिब्यूनल्स में आवेदन करके अपने आप को भारतीय नागरिक के रूप में शामिल किये जाने का एक और मौका मिलेगा. ऐसा करने के लिए उनके पास 120 दिनों का समय होगा. यह प्रक्रिया जल्द ही शुरू होने वाली है.

जिन लोगों को सभी कानूनी विकल्प ख़त्म होने के बाद आख़िरकार अवैध विदेशी घोषित कर दिया जायेगा उनके भाग्य पर टिपण्णी करते हुए एएनएस के प्रशांता राजगुरु कहते हैं कि हम ये नहीं चाहते हैं कि उन लोगों के साथ धर्म के आधार पर अलग व्यवहार न किया जाये.

अपनी बात ख़त्म करते हुए वे कहते हैं, “नागरिकता संशोधन विधेयक लाकर सत्ताधारी पार्टी एनआरसी द्वारा चिन्हित किये गए अवैध विदेशियों, जो कि गैर-मुस्लिम हैं, को नागरिकता देना चाहती है. लेकिन असम के लोगों की यह मांग नहीं है. बिना किसी धार्मिक आधार पर, हम चाहते हैं कि सभी चिन्हित विदेशियों को हिरासत केंद्रों से बाहर निकाला जाय और उनको काम करने दिया जाए. हम चाहते हैं कि उनका सर्फ मतदान का अधिकार वापस ले लिया जाय.”