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अफ़वाहों से पैसा बनाने का बाज़ार और मीडिया

हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं. सूचना संचार क्रान्ति के समय में हर बात वैश्विक हो जाने की फ़िराक में है. कुछ ही सेकेन्डों में सूचनायें दुनिंयां के एक सिरे से दूसरे सिरे तक उछलकूद करती रहती हैं. इसी उहापोह के बीच बाज़ार और नवउपनिवेशवाद के विकृत चेहरे बार-बार नये नये स्वरूपों में सामने आ रहे हैं. कुछ समय तक जब वैलेन्टाइन्स डे पर बाज़ार सजता था तो अफ़सोस के साथ कहा जाता है कि प्रेम दुकानों पर आ गया. लेकिन अब सिर्फ़ प्रेम ही नहीं है जिसका इस्तेमाल बाज़ार अपने विस्तार या अस्तित्व को बचाने के लिये कर रहा है. इस बीच में बाज़ार में “भय” का इस्तेमाल भी ज़ोर शोर से हो रहा है?

विज्ञापनों में डॉक्टरों के कपड़े पहने सुन्दर मॉडल आपसे प्रश्न पूछते हैं आपका पानी कितना साफ़ है? फिर बहुत सारे लिज़लिज़े कीड़े आपको टीवी स्क्रीन पर नज़र आते हैं. इसके साथ ही पीछे से दावों की झड़ी लग जाती है कि फलां उत्पाद इन सब कीड़ों को हमेशा के लिये खत्म कर देता है इत्यादि इत्यादि. यहां जो कीड़े आप स्क्रीन पर देखते हैं वह विज्ञापन बनाने वालों की कल्पना का परिणाम होते हैं ताकि आप फलां टूथपेस्ट ही खरीदें. आप डर जायें और बाज़ार आपके डर को अपने मुनाफ़े में बदल दे.

इस तरह की बहुत सारी सामग्री का इस्तेमाल तमाम उत्पादों को बेचने के लिये हो रहा है, जो कि सिर्फ़ मानव में डर उत्पन्न करके उत्पाद बेचने के तरीकों की श्रेणी में रखी जा सकती है. बाज़ार द्वारा प्रायोजित इस तरह के कुटिल तरीकों की ओर अक्सर हम ध्यान नहीं देते.

कुछ महीनों से एक बार फिर मानवीय भाव “डर”  को बाज़ार ने अपने कुटिल हितों में इस्तेमाल करने की कोशिश की है. सन 2012 में प्रवेश करते ही यह अटकलें लगाई जाने लगीं थीं कि इस वर्ष धरती पर महाप्रलय आने वाला है. प्रलय या विनाश के प्रति आधुनिक से लेकर प्राचीन सभ्यतायें भी डरती रही हैं और इस डर का इस्तेमाल समय-समय पर सत्ता और अन्य प्रभावशाली गुट अपने हितों के लिये करते रहे हैं. प्राचीन सभ्यताओं में तूफ़ान, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से डर कर मानव ने अपने अपने ईश्वरों की परिकल्पना की.

प्राकृतिक आपदाओं से बचाने वाले ईश्वरों के अस्तित्व का प्रमाण लगभग हर सभ्यता में मिलता है, क्योंकि उस समय बाढ़ और तूफ़ान जैसी आपदायें भी भारी नुकसान का कारण बनतीं थीं. फिर समय के साथ इन ईश्वरों की शक्ति लगातार बढ़ती गयी. उस समय के ईश्वर सिर्फ़ तूफ़ान से बचाते थे और आज के नाभिकीय हमले से भी बचाने की कुव्वत रखते हैं. धीरे-धीरे विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ सूचना संचार क्रान्ति के दौर में हम आ पहुंचे हैं मगर तकनीक के विकास के साथ तमाम नकारात्मक प्रभावों ने भी प्रगति की है.

सामंती युग में लोग अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिये आम जनता में तमाम डर उत्पन्न करके अपनी सत्ता कायम रखते थे. समय के साथ आज डर का और बदतर तरीके से इस्तेमाल बाज़ार कर रहा है. एक तरफ़ दाम बढ़ने के डर को विज्ञापनों के ज़रिये इस्तेमाल करके लोगों को जरूरत से ज़्यादा खरीदारी करने को मजबूर किया जाता है, तो दूसरी तरफ़ अमेरिका जैसा देश जिसकी अर्थव्यवस्था सिर्फ़ युद्धक सामग्री के निर्माण पर आधारित है, युद्ध के डर को उत्पन्न करके भारत जैसे विकासशील देशों को लडाकू विमान बेचता रहता है.

बाज़ार के लिये “डर” के इस्तेमाल का सबसे बदतर उदाहरण है “2012 : तथाकथित महाप्रलय प्रकरण”. ऐसा महीनों से कहा जा रहा था कि 21 दिसम्बर 2012 को  महाप्रलय होगी और उस दिन पूरी दुनिया नष्ट हो जायेगी. लोगों को इस बात से रूबरू कराने के लिये तमाम वेबसाईटों का निर्माण किया गया. इंटरनेट पर किताबें बेचने वाली वेबसाइट “अमेजन” पर 2012 तथाकथित महाप्रलय से सम्बन्धित 100 से भी अधिक किताबें मौजूद हैं जिन्हें अलग अलग लेखकों ने लिखा है. यह भी कमाल है कि इस तथाकथित महाप्रलय को सही साबित करने के लिये कई विशुद्ध वैज्ञानिक सिद्धान्तों का सहारा लिया गया.

इस कहानी की शुरुआत “जेनेरिया सितचिन” नामक महाशय के उन दावों से हुयी, जिनमें यह कहा गया था कि यह दुनिया दिसम्बर 2012 में खत्म हो जायेगी. ये दावे वह मेसोपोटामिया की सभ्यता के कैलेन्डर के आधार पर कर रहे थे. यह तथ्य सर्वविदित है कि प्राचीन सभ्यतायें अपने विकास के क्रम में समय की गति को पहचान रहीं थीं और समय के साथ प्रकाश, मौसम आदि में आ रहे आवर्ती बदलावों के आधार पर दिन और वर्ष आदि के निर्धारण करने के प्रयासों से जूझ रहीं थीं. इसी प्रक्रिया में मेसोपोटामिया की सभ्यता में भी लोगों ने एक कैलेन्डर बनाया था.

ऐसा माना जाता है कि इस मेसोपोटामियन कैलेण्डर की अन्तिम तिथि 21 दिसम्बर, 2012 है. यह कैलेन्डर लगभग 5126 वर्ष पहले बनाया गया था. इसकी प्रथम तिथि अंग्रेज़ी कैलेन्डर के हिसाब से 11 अगस्त, 3114 ईसा पूर्व आंकी जाती है. मेसोपोटामिया सभ्यता के समय अंकगणित का विकास बहुत अधिक नहीं हुआ था. उनकी गणना करने के तरीके बहुत जटिल और लम्बे हुआ करते थे. इसके बावजूद उन लोगों ने 5126 वर्ष के लम्बे अंतराल की गणना की थी.

जैसा कि बताया जा चुका है कि इस कैलेण्डर का समय 21 दिसम्बर 2012 को खत्म हो रहा है, इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुये जेनेरिया सितचिन ने दावा कर दिया कि पृथ्वी पर जीवन इस दिन खत्म हो जायेगा. इसके पीछे यह कारण बताया गया कि चूंकि मेसोपोटामियन सभ्यता के लोग बहुत विद्वान थे और वे यह जानते थे कि पृथ्वी पर जीवन इतने अंतराल के बाद खत्म हो जायेगा, इसी कारण से उन्होंने अपने कैलेंडर में आगे के समय की गणना नहीं की.

जबकि असलियत यह थी कि मेसोपोटामियन लोगों ने बहुत मुश्किल से इस चक्र तक के समय की गणना की थी, कह सकते हैं कि यह उनकी गणितीय सीमा थी. मेसोपोटामियन लोगों के लिये इससे आगे की गणना करना तत्कालीन गणितीय ज्ञान के सहारे बहुत कठिन कार्य था. चूंकि यह तय कर लिया गया था कि इस दिन पृथ्वी पर जीवन को खत्म होना है तो किसी महाप्रलय की कल्पना की गयी क्योंकि पृथ्वी बहुत विशाल पिण्ड है और कोई सामान्य प्राकृतिक आपदा इस पर जीवन को पूर्ण रूप से खत्म नहीं कर सकती.

इस तरह सवाल यह था कि अगर पृथ्वी पर जीवन खत्म होगा तो कैसे होगा? क्योंकि सितचिन और उनके समर्थकों की नज़र में मेसोपोटामिया के लोग गलत नहीं हो सकते थे. इस परिकल्पित महाप्रलय को सम्भव बनाने के लिये कई वैज्ञानिक सिद्धान्तों का भी सहारा लिया गया. हॉलीवुड सिनेमा ने इसे बाज़ार के तौर पर देखा. हॉलीवुड के बाज़ार विश्लेषक यह बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि इस तरह के विषयों पर बनी फिल्में बहुत अच्छा व्यापार करतीं हैं, क्योंकि जनता अपने भविष्य के बारे में जानना चाहती है खास तौर पर तब जब वह उनकी ज़िन्दगी और मौत से जुड़ी हो.

सही समय पर निर्देशक “रोनाल्ड एमेरिच” ने इस विषय पर एक फिल्म बनायी जिसका नाम था “2012”, इस फिल्म ने आग में घी का काम किया. “रोनाल्ड एमेरिच” बहुत चालाक निर्देशक हैं. उन्होंने विश्व भर में फ़िल्म के दर्शकों की संख्या बटोरने के लिये भारत की कुछ पृष्ठभूमि और यहां के वैज्ञानिकों को फिल्म की स्क्रिप्ट में शामिल किया क्योंकि भारत और भारत के आसपास के देशों में हॉलीवुड का व्यापार दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा था. फिल्म में भारतीय पृष्ठभूमि और पात्र के इस्तेमाल से तीसरी दुनिया के देशों में इस फिल्म को बड़ी संख्या में दर्शक-वर्ग मिला.

इस तरह ज़िंदगी और मौत के डर को इस फिल्म ने बहुत अच्छी तरह से कैश कराया. इससे “2012” में होने वाले परिकल्पित महा विनाश को पूरी दुनिया में आसानी से फ़ैलाया गया. इसके बाद इस घटना को ढाल बनाकर समूचे विश्व के चालाक बाज़ार ने पैसा कमाने की तमाम तरकीबें खोज निकालीं. तमाम ज्योतिषियों का धंधा चल निकला. कई कम्पनियों ने ऐसी वेबसाइटें बनायीं जिनमें दुनिंया के अन्तिम दिन को अपनी ज़िंदगी की सारी कमाई लगाकर एक साथ किसी खास स्थान पर खास तरह से मनाने की फ़रमाइश की. कई छात्रों ने पढ़ना और लोगों ने काम करना यह कहकर बन्द कर दिया कि जब दिसम्बर 2012 में सब खत्म हो ही जाना है तो जीवन को अपने तरह से जिया जाये. लोग अपनी अन्तिम इच्छायें पूरा करना चाह रहे थे. बाज़ार इसी बीच अपना व्यापार कर रहा था.

पृथ्वी पर जीवन के खात्मे की परिकल्पना पर तथ्यों का मुलम्मा चढ़ाना ज़रूरी था ताकि जनता विश्वास कर सके. इस लिये “जेनेरिया सितचिन” ने मेसोपोटामियन सभ्यता का ही सहारा लिया. मेसोपोटामियन सभ्यता में एक “निबिरू” नामक आकाशीय पिण्ड का ब्यौरा मिलता है. कुछ लोग इसे “बारहवां ग्रह” कहकर भी पुकारते हैं. सितचिन और तथाकथित महाप्रलय के समर्थक कहते हैं कि यह एक ऐसा ग्रह है जिसके बारे में मेसोपोटामियन लोगों को खासी जानकारी थी. वे जानते थे कि यह ग्रह सूरज से बहुत दूर है और सूरज के चारों ओर चक्कर लगाने में इसे कई हज़ार वर्ष लग जाते हैं. इस तरह इन लोगों ने अपनी बुद्धि से यह गणना की थी कि सन 2012 में यह ग्रह पुनः सूरज के नज़दीक से गुजरेगा और इसी क्रम में यह पृथ्वी से टकरा कर पृथ्वी को नष्ट कर देगा.

अब सवाल यह उठता है कि सूरज के ग्रह सूरज के चारों ओर परवलयाकार पथ में चक्कर लगाते हैं. मेसोपोटामियन सभ्यता के लोग क्या इस बारहवें ग्रह के रास्ते के बारे में और इसके साथ साथ पृथ्वी के रास्ते का आंकलन कई हज़ार वर्ष बाद के दिन तक करने में सक्षम थे? अगर थे तो मेसोपोटामिया की खुदाई में क्या इस सभ्यता के इतने सक्षम होने के प्रमाण मिलते हैं? मेसोपोटामियन सभ्यता  पर अध्य्यन करने वाले इतिहास शास्त्री और मानव विज्ञानियों में से किसी ने मेसोपोटामियन सभ्यता के इस स्तर तक विकसित होने की बात आज तक नहीं कही न ही उन्हें इस सभ्यता के लोगों के ज्ञान के इस स्तर के होने के प्रमाण मिले.

यह बात सत्य है कि इस सभ्यता के लोगों को गणित का मूलभूत ज्ञान हो चला था. यहां एक बात और है कि ऐसा पिण्ड क्या वास्तव में अस्तित्व में हो सकता है जो कि आकार में ग्रहों के बराबर हो और वह सूरज से इतना दूर हो कि उसे सूरज का एक पूरा चक्कर लगाने में कई हजार वर्ष लगें? भौतिकी के नियमों के आधार पर इसकी सम्भावना शून्य के बराबर है. जब इस परिकल्पना की धज्जियां उड़ने लगीं तो कुछ लोगों ने यह कहना शुरु कर दिया कि दिसम्बर 2012 में पृथ्वी से टकराकर पृथ्वी को नष्ट करने वाला पिण्ड “निबिरू ग्रह” न होकर कोई उल्का पिण्ड होगा.

इस पर एक वर्ष पहले ही खगोल वैज्ञानिकों ने अपनी राय देना शुरु कर दिया था कि वर्तमान में ऐसा कोई ज्ञात उल्का पिंड नहीं है जो कि दिसम्बर में पृथ्वी से टकराये. वर्तमान में हज़ारों खगोल विज्ञानी  सैकड़ों आधुनिक टेलिस्कोपों के साथ आकाशीय पिण्डों पर नजर लगाये रहते हैं. दुनिया भर में किसी भी खगोल शास्त्री ने इस तरह के खगोल पिण्ड के बारे में नहीं बताया न की किसी वैज्ञानिक शोध इस सम्बन्ध में छपा. ऐसे खगोलीय पिण्ड खगोल शास्त्रियों को लिये बहुत महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि इस तरह के खतरनाक पिंड के बारे में जानकारी देने बाला वैज्ञानिक जल्दी ही चर्चा में आ जाता है.

कुछ लोगों ने यह भी अफ़वाह उड़ाई कि 21 दिसम्बर, 2012 को धरती के चुम्बकीय ध्रुव अपनी जगह बदल लेंगे. यह लगभग असम्भव सी बात है. यह सत्य है कि पृथ्वी के चुम्बकीय ध्रुव (उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव) अपना स्थान बदलते रहे हैं और जहां पर यह आज स्थित हैं लाखों साल पहले वहां पर नहीं थे. यह वैज्ञानिक तथ्य भी है. लेकिन यह भी वैज्ञानिक तथ्य है कि ध्रुवों को अपनी स्थिति मे परिवर्तन करने में कई हजार साल लग जाते हैं. आधुनिक भौतिकी के किसी भी नियम के अनुसार यह महज कुछ घण्टों या महीनों में असम्भव है. इस तरह 21 दिसम्बर 2012 को ध्रुव स्थान परिवर्तन का सिद्धान्त भी सटीक नहीं बैठा.

कुछ लोगों ने अपनी क्रिएटिविटी का पूरा इस्तेमाल करते हुये यह भी कहा कि इस दिन सूरज से बहुत भयावह लपटें उठेंगी जो कि धरती को तबाह कर देंगीं लेकिन ऐसी किसी घटना के बारे में सौर-खगोल भौतिकी से जुड़े किसी भी वैज्ञानिक ने जानकारी नहीं दी, जबकि ये वैज्ञानिक सूरज के हर कोने में उठ रही लपटों पर नज़र रखते हैं.  कुछ लोगों ने कहा कि धरती एक ब्लैक होल के निकट है और ठीक इसी दिन पृथ्वी इस ब्लैक होल में समा जायेगी. जबकि धरती के आस पास क्या हमारे समूचे सौरमण्ड्ल के आस पास किसी ब्लैक होल के होने की सम्भावना नहीं है.

अगर ऐसा कुछ होता तो हमें इस सम्बन्ध में कुछ जानकारी होती. कुछ बुद्धिमान लोगों ने कहा कि इस दिन धरती जिस धुरी पर घूमकर चक्कर लगाती है वह धुरी की दिशा बदल जायेगी, लेकिन यह बात उन्होंने किन वैज्ञानिक आधारों पर कही उसका कोई जबाब नहीं दे पाए. यहां तक कि इन अधिकतम परिकल्पित घटनाओं के बारे में बताने वाले लोगों के नाम भी पता नहीं हैं. यह बातें अफ़वाहों का रूप धारण कर चुकीं हैं जिनपर वैज्ञानिक चादर ओढ़ाने की असफ़ल कोशिश की जाती रही है. कुछ लोगों ने तो यहां तक कह दिया कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती दिसम्बर 2012 में नष्ट हो जायेगी, जबकि ग्लोबल वार्मिंग पर शोध करने वाले कई हजारों वैज्ञानिक इस सम्बन्ध में कहते हैं कि यह असम्भव है.

सवाल यह है कि इस तरह की अफ़वाहें इतने बड़े पैमाने पर कैसे फैल पातीं हैं? और इनके पीछ कौन से उद्देश्य और लोग होते हैं? उत्तर साफ़ है कि ऐसी घटनायें सनसनी की श्रेणी में आती हैं और इन्हें अफ़वाहों में बदलने में बहुत वक्त नही लगता और जनता इन घटनाओं की ओर बहुत जल्दी आकृष्ट होती है.

इस तरह की खबरें दिखाकर न्यूज चैनल, एफ़एम रेडियो और अन्य संचार माध्यमों के ज़रिये बाज़ार अच्छी खासी कमाई कर चुका है और कर रहा है. यह अफ़वाहें मस्तिष्क में डर पैदा करती हैं और आज “डर” बेचना सबसे आसान काम बन चुका है. सपनों, प्यार, सेक्स आदि को बेचने के बाद “डर” एक बेहतरीन विक्रय बढ़ाने वाली दवा के रुप में उभर कर सामने आया है.

इस बीच लोगों को लॉटरी आदि के लिये कई वेबसाइटें उकसा रहीं है, कुछ का मानना है कि लोगों को अपना सारा पैसा अन्तिम दिन की पार्टी में उड़ा देना चाहिये, इत्यादि इत्यादि. इस तरह की विक्रय तकनीकों को “वाइरल मार्केटिंग” कहा जाता है. इन अफ़वाहों से भी हमें बहुत गम्भीरता और धैर्य के साथ वैज्ञानिक ज्ञान का इस्तेमाल करते हुये निबटना चाहिये. अंततः प्रमुख अंतरिक्ष एजेंसियों ने भी 2012 में तथाकथिक किसी भी महाविनाश की घटना की आशंका से इन्कार करते हुये प्रेस विज्ञप्ति जारी की थी कि यह दुनिया चलती रहेगी.

(साइंस बैकयार्ड ब्लॉग से साभार)