Newslaundry Hindi
एक और बिरसा मुंडा की जरूरत है झारखंड को
जिस तरह आदिवासियों को जंगलों से बेदखल करने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश का देश भर में विरोध हुआ. ठीक उसी तरह झारखंड में बीते कुछ माह से भारतीत वन अधिनियम 1927 में केंद्र सरकार के द्वारा प्रस्तावित संशोधन का विरोध हो रहा है. झारखंड में विपक्षी पार्टियों ने संशोधन के खिलाफ़ सड़क से सदन तक प्रदर्शन किया है. विधानसभा का मानसून सत्र भी इन्हीं मुद्दों पर हंगामेदार रहा. विपक्ष इसे चुनावी मुद्दा बनाने के मूड में दिख रहा है.
राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने संशोधन खिलाफ सड़क से सदन तक प्रदर्शन किया. पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष हेमंत सोरेन ने संशोधन को आदिवासी और आदिवासियों के खिलाफ एक साजिश बताया. उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार भू-माफिया और खनन माफिया के रसूख के दबाव में कानून बनाकर जंगल और खनन को खत्म करना चाहती हैं. झामुमो ने इस मामले पर राज्यपाल को ज्ञापन सौंपकर राष्ट्रपति से हस्तक्षेप की मांग की है. तो वहीं कांग्रेस ने भी प्रस्तावित संशोधन का विरोध किया है और इसके विरोध में आंदोलन करने की बात कही है.
वनाधिकार कानून के जानकार और समाजिक कार्यकर्ताओं ने भी प्रस्तावित संशोधन को लेकर काफी तीखी प्रतिक्रिया दी है.
झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन के संस्थापक व वन अधिकार कानून के जानकार संजय बसु मलिक सरकार पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहते हैं, “भारतीय वन अधिनियम 1927 में संशोधन का प्रस्ताव इस कानून को आदिवासियों के खिलाफ प्रयोग हेतु और खतरनाक बनाना है. संशोधन की नीयत साफ है कि जंगलों को सरकार देखरेख के नाम पर थर्ड पार्टी यानी अंबानी-आडानी को देगी.”
संशोधन के अधिकतर बिंदुओं का विरोध
भारतीय वन अधिनियम 1927, के जिन प्रावधानों में संशोधन किया जा रहा है उसके अधिकतर बिंदुओं का विरोध हो रहा है. 123 पेज के प्रस्तावित इस मसौदे में 91 नये उपनियम यानी संशोधन किए गए हैं. समाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि संशोधन के बाद इस कानून के तहत जंगलों का पूरी तरह से केंद्रीयकरण हो जाएगा और जंगलो से आदिवासियों की निर्भरता को समाप्त कर दिया जाएगा. इन लोगों के अनुसार विरोध की वजह यह भी है कि इस कानून के तहत ग्रामसभा के अधिकारों को खत्म किया जा रहा है, क्योंकि प्रस्तावित संशोधन में ग्राम सभा का जिक्र नहीं है. जबकि वन अधिकार अधिनियम 2006, ग्रामसभा को जो शक्ति प्रदान करता है उसके तहत वनवासियों को जंगलों पर काफी अधिकार प्राप्त हैं.
आदिवासी और वनाधिकार को लेकर कई किताबें लिख चुके ग्लैडसन डुंगडुंग मानते हैं कि प्रस्तावित संशोधन से भारतीय वन अधिनियम 1927, आदिवासियों के लिए पहले से और सख्त हो जाएगा.
वो कहते हैं, “इसके तीन संशोधन काफी खतरनाक है. पहलाः फॉरेस्ट गार्ड को ये अधिकार देना कि जंगल में वे किसी को कुल्हाड़ी के साथ भी देखें तो उसे गोली मार सकते हैं. दूसराः गोली मारने वाले फॉरेस्ट गार्ड या ऑफिसर के खिलाफ कोई शिकायत या कानूनी कार्रवाई नहीं हो सकती है. तीसराः सरकार जिस जंगल को चाहेगी उसे रिजर्व फॉरेस्ट घोषित कर सकती है.”
1927 के वन कानून के तहत जंगलों को कई भागों में बांटा गया है. रिजर्व फॉरेस्ट, प्रोटेक्टिव फॉरेस्ट और विलेज फॉरेस्ट. इस कानून के मुताबिक रिजर्व फॉरेस्ट के क्षेत्र में आदिवासियों के प्रवेश पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया. यहां तक कि जंगलों में रहने वाला कोई भी व्यक्ति इस क्षेत्र से एक पत्ता तक नहीं चुन सकता है. ग्लैडसन डुंगडुंग का मानना है कि संशोधन के बाद सरकार प्रोटेक्टिव व विलेज फॉरेस्ट को रिजर्व फॉरेस्ट घोषित कर सकती है, जो कि आदिवासियों के लिए खतरनाक है.
भारतीय वन अधिनियम 1927, के प्रावधानों में जो संशोधन किया गया है उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
ग्राम सभा की जगह जाइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट होगा और इसकी निगरानी के लिए एक कमेटी होगी. सरकार एक नेशनल फॉरेस्ट्री बोर्ड बनाएगी जिसके चेयरमैन देश के प्रधानमंत्री होंगे और उसके सदस्य देश के सेनाध्यक्ष होंगे. वन अधिकारी को अत्यधिक अधिकार प्रदान किए जाएंगे, जिसके तहत वन अधिकारी को अगर लगेगा कि जंगल में कोई दाखिल हुआ और वो अपराध कर सकता है तो इस आधार पर अधिकारी उसपर गोली तक चला सकता है. ऐसी स्थिति में अधिकारी पर कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी.
इसी तरह कई और प्रावाधान जोड़े गए हैं जिनका विरोध किया जा रहा है. राज्य के अलग अलग जिलों में इस कानून को लेकर सेमिनार आयोजित किए जा रहे हैं. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (माकपा) नेत्री वृंदा करात ने भी इसे लेकर सरकार पर आरोप लगाया है. उन्होंने कहा, “फॉरेस्ट एक्ट 1927 शुरू से ही आदिवासियों के दमन के लिए इस्तेमाल होता आया है. मोदी सरकार इस कानून को और भयानक रूप देकर वो करने जा रही है जो अंग्रेज सरकार नहीं कर पाई थी.” वृंदा करात ने इस बाबत केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को पत्र लिखकर विरोध भी जताया है.
जन विरोधी क्यों?
ऐसा नहीं है कि भारतीय वन अधिनियम, 1927 में पहली बार संशोधन किया जा रहा है. प्रस्तावित संशोधन से पहले यह कानून दो बार संशोधित हो चुका है. यह मुख्य रूप से ब्रिटिश काल में लागू किया गया पहला कानून है जो कई भारतीय वन अधिनियमों पर आधारित है. इन पुराने अधिनियमों में सबसे प्रसिद्द था- भारतीय वन अधिनियम 1878.
भारतीय वन अधिनियम 1927 को, प्रारंभ से ही आदिवासी विरोधी बताया जाता रहा है. इस कानून के इतिहास और उदेश्य को समझने पर यह मालूम पड़ता है कि इसे तब ब्रिटिश हुकूमत ने जंगलों को अपने कब्जे में लेने के लिए बनाया था. बताया जाता है कि इससे पहले जंगल सार्वजानिक हुआ करते थे. जिस गांव के अंतर्गत जंगल हुआ करता था वहां के लोग इसको इस्तेमाल लाते थे और इसमें उपजने वाले फल, फूल, लकड़ी आदि का प्रयोग किया करते थें.
लॉर्ड डलहौजी ने 1855 में एक आदेश जारी कर ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतर्गत आने जंगलों को अपने अधिकार में ले लिया. बाद में इस आदेश को कानून की शक्ल दी गई और 1865 में ब्रिटिश सरकार ने पहला भारतीय वन अधिनियम बनाया. इसके देखरेख और कानून के प्रतिपालन के लिए भारतीय वन संस्था का गठन किया गया, जो बाद में वन विभाग बना. इस तरह से औपनिवेशिक वन शासन लागू हो गया. बाद में पहली बार 1878 में इसमें संशोधन किया गया. अंततः 1927 में दूसरी बार संशोधन किया गया जो तृतीय भारतीय वन अधिनियम बना.
बिरसा ने निकाली थी रैली
झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन के संस्थापक व वन अधिकार कानून के जानकार संजय बसु मलिक का कहना है कि यह कानून पूरी तरह से जनविरोधी कानून है. इनके अनुसार इसे अंग्रेजों ने इसीलिए बनाया था कि ताकि वो जंगलों से आदिवासियों को बेदखल कर उसे अपने कब्जे में ले सकें. बसु के मुताबिक अब वही काम भारत सरकार करना चाहती है.
आगे वो कहते हैं, “इस ब्रिटिश कानून को खत्म करने की मांग इसके अस्तित्व में आते ही होने लगी थी. बिरसा मुंडा ने 1896-97 में इस कानून के खिलाफ आंदोलन किया था. झारखंड के चाइबासा में उन्होंने इसके खिलाफ रैली निकाली थी. इसके उन्मूलन लिए उठी आवाज का नतीजा था कि इसी के अनुरूप वन अधिकार अधिनियम 2006 बनाया गया. और इससे एक बार फिर से जंगलों पर आदिवासियों और वनवासियों का अधिकार स्थापित हुआ, जिसे मौजूदा सरकार छीनना चाहती है.”
झारखंड में जिस जल जंगल जमीन के लिए बिरसा मुंडा ने आंदोलन और संर्घष किया वो तब की ब्रिटिश सरकार के खिलाफ था. लेकिन लोगों का मानना है कि केंद्र अग्रेजों के द्वारा बनाया गया भारतीय वन अधिनियम 1927 ही था, जिसे आज भारत सरकार आदिवासियों के खिलाफ और सख्त बना रही है.
अपनी ही सरकार की नीतियों पर अक्सर सवाल खड़ा करने वाले झारखंड के खाद्य आपूर्ति मंत्री सरयू राय की राय इस पर कुछ निजी है. वो मानते हैं कि जंगल भी बचा रहे और उस पर वनवासियों और आदिवासियों का अधिकार भी बना रहे.
संशोधन के सवाल पर वो कहते हैं, “मैंने संशोधन के बिंदुओं को ध्यान से नहीं देखा है. लेकिन इस पर रांची से लेकर दिल्ली तक के सामाजिक कार्यकर्ताओं से बात हुई है. मैंने कहा कि इस संशोधन के विषय पर एक बैठक होनी चाहिए और आदिवासियों के हर हित को ध्यान में रखते हुए सभी पक्षों को सुनना चाहिए. मैं सभी लोगों से आग्रह करता हूं कि धैर्य रखें, चुंकि ये प्रस्तावित संशोधन है, ना कि कानून है. मेरा मानना है कि जब संशोधन का विरोध हो रहा है तो निश्चित तौर पर सरकार को विचार करना चाहिए और वो जरूर कर भी रही होगी.”
सरयू राय यह भी कहते हैं कि जंगलों को लेकर जब भी कानून बने तो आदिवासियों के पक्ष में बने. इतना ही नहीं उनके मुताबिक संशोधन के बदले सरकार को एक नया फॉरेस्ट एक्ट लाना चाहिए जो आदिवासी और वनवासियों के पक्ष में हो.
वहीं लेखक अश्विनी कहते, “बिरसा मुंडा का आंदोलन भी इसी कानून का परिणाम था. अंग्रेजो ने फॉरेस्ट एक्ट कानून बनाया था और इसके तहत जंगलों से आदिवासियों को वंचित किया. जल, जंगल और जमीन पर से उनका अधिकार छीना गया. बिरसा ने आंदोलन इन्हीं अधिकारों को वापस दिलाने और लेने के लिए किया था.”
इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट सर्वे 2017 के मुताबिक देश में 8,02,088 वर्ग किमी जंगल है जो देश के कुल क्षेत्रफल का 24.39% हिस्सा है. सिर्फ ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और झारखंड में 217,718 वर्ग किमी. के क्षेत्रफल में जंगल है. 2011 की जनगणना के मुताबिक 26 प्रतिशत झारखंड में ट्राइबल यानी अनुसूचित जनजाती की आबादी है. झारखंड में 32 आदिवासी समुदाय है जिनकी संख्या 80 लाख से अधिक है. इस आबादी का 80 फीसदी हिस्सा जंगलों में निवास करता है.
समाजिक कार्यकर्ताओं की मांग है कि सरकार भारतीय वन अधिनियम 1927 को खत्म करके वन अधिकार अधिनियम 2006 को मजबूती से लागू करें, ना कि वो अग्रेजों के कानून को आदिवासियों के खिलाफ और खतरनाक बनाकर इस्तेमाल करे.
(यह स्टोरी एनएफआई मीडिया फैलोशिप प्रोग्राम 2019-20 के लिए की गई है.)
Also Read
-
Skills, doles, poll promises, and representation: What matters to women voters in Bihar?
-
From Cyclone Titli to Montha: Odisha’s farmers suffer year after year
-
How Zohran Mamdani united New York’s diverse working class
-
No victory parade for women or parity: ‘Market forces’ merely a mask for BCCI’s gender bias
-
We already have ‘Make in India’. Do we need ‘Design in India’?