Newslaundry Hindi
उदारवाद के विस्तार में कमी
अनेक लोग इस बात को इंगित करते हैं कि पिछले कुछ दशकों में उदारवाद (और सहिष्णुता) में कमी आती जा रही है. इस बुराई को रोकने के लिए प्रयत्न भी हुए परन्तु अब फिर से उदारवाद के प्रति असहिष्णुता देखी जा रही है. परम्परागत सत्ता को जो संभाले हैं, उनसे प्रश्न करना और समुचित कार्यवाही का आश्वासन लेना आवश्यक है, विशेषकर तब जब न्याय को नकारा जाता है.
सामाजिक मुद्दे उठाने वाले मीडिया के बारे में कहा जाता है कि वह काफ़ी कुछ स्वतन्त्र है और कुछ सीमा तक यह बात सत्य भी है. परन्तु आजकल लोग धार्मिक गतिविधियों पर कोई आलोचनात्मक टिप्पणी करने से बचते है ताकि उन पर कोई कार्यवाही न हो जाये. सत्ता में बैठे लोगों द्वारा कुछ लोगों पर इस प्रकार की कार्यवाही हुई भी है, विशेषकर ऐसे मामलों में जो धार्मिक पहचान और उसकी राजनीति से जुड़े हैं. हमने देखा है कि ऐसे अभियान बेतुके हास्यास्पद कल्पनाओं पर आधारित हैं, किसी धर्म विशेष के प्रति नफ़रत उगलते हैं और हम आगे आकर उसका विरोध नहीं कर पाते.
इस प्रकार के प्रश्न का मतलब है उन संस्थाओं और संगठनों की आलोचना जिनका उद्देश्य धार्मिक होता है. परन्तु वे अपनी शक्ति गैर-धार्मिक उद्देश्यों के लिए प्रयुक्त करते हैं. अपने कृत्यों के औचित्य को सिद्ध करने के लिए वे औपचारिक धर्म के नये गठित नियमों और व्यवस्थाओं का सहारा लेते हैं. उनके कृत्यों में हत्या, बलात्कार और अंग-भंग करना शामिल है.
किसी पुस्तक पर गम्भीर आपत्ति जैसे कि पेरूमल की पुस्तक पर या किसी फ़िल्म पर सेंसर की कार्यवाही क्या वास्तव में कुछ लोगों की धार्मिक भावनाओं पर आघात के कारण है? हममें से शायद ही कोई इस पर विचार करता हो. क्या वास्तविक कारण धार्मिक भावनाओं का आघात न होकर यह है कि ऐसी पुस्तक या फ़िल्म किसी परम्परागत (रूढ़िवादी) सामाजिक नियम को चुनौती देती हो या ऐसे नियमों को जो पारम्परिक माना जाता हो, परन्तु वास्तव में पारम्परिक न हो.
वास्तव में अनेक उदाहरणों में जिसे चुनौती दी जा रही है, वह है पितृसत्ता. यह पितृसत्तात्मकता भारत के सभी क्षेत्रों और धार्मिक समुदायों में आधारभूत सामाजिक नियम माना जाता रहा है, आज भी माना जाता है. जहां पितृसत्ता जैसा कोई नियम नहीं है, वहां भी इसकी शुरुआत हो चुकी है. अधिकांश यह मानते होंगे कि सभी धर्मों के नैतिक सिद्धान्त यही हैं कि वे हिंसा का उपदेश नहीं देते. परन्तु यह मुद्दा नहीं है. यह तो सही है कि सभी धर्म सद्प्रवृत्ति के सिद्धान्तों की बात करते हैं. इन सिद्धान्तों पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं है. यह तो उन धार्मिक संगठनों के विश्वासों और कार्यवाहियों पर प्रश्न है जो धर्म के नाम पर ऐसा काम करते हैं या फिर ऐसा दावा करते हैं कि उनके वे कृत्य धार्मिक उद्देश्यों को लेकर हैं.
हम उन संगठनों से भली-भांति परिचित हैं जो धर्म की आड़ में बातें करते हैं, चाहे वह हिन्दू, मुस्लिम या सिख धर्म हो परन्तु हिंसा और आतंक फैलाने से नहीं हिचकते. साम्प्रदायिक दंगे कराये जाते हैं जिसमें सैकड़ों लोग मारे जाते हैं, घनी आबादी में बम फोड़े जाते हैं ताकि काफ़ी लोग मरें. जो तर्कसंगत आलोचना के पक्षधर हैं, उनको गोली मार दी जाती है. क्या हम विश्वास करें कि यह सब धार्मिक नैतिकता के समर्थन में किया जाता है? क्या क़ानून से सख्ती नहीं की जा सकती कि जो क़ानून का मज़ाक बनाते हैं और जो धर्म के नाम पर हत्या कर रहे हैं, उन पर कार्यवाही हो.
यद्यपि यह भी आवश्यक है, परन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं हैं कि इस प्रकार के कृत्यों की घोर निन्दा करें और फिर चुप बैठ जायें. हमें समझना होगा कि धर्म की रक्षा के नाम पर ऐसे कृत्य क्यों किये जाते हैं और उन्हें कैसे रोका जाये.
कोई साम्प्रदायिक दंगा मात्र ऐसे अस्पष्ट शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता कि यह अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच का झगड़ा है. ऐसे कार्यकर्ताओं के पीछे की राजनीति की पड़ताल आवश्यक है. विभिन्न समूहों की राजनीति और सामाजिक दशाओं से इसकी सम्बद्धता है. अपारदर्शी या सुरक्षित कारणों के अतिरिक्त मीडिया इन्हें रोकता है. किसी दंगे की उत्प्रेरणा से क्या धर्म-सम्प्रदाय को पृथक् नहीं रखा जा सकता? और ऐसी घटना का विश्लेषण क्या उन लोगों द्वारा नहीं हो सकता, जो ऐसे दंगों से प्रभावित होते हैं कि दंगे के क्या वास्तविक कारण थे?
यदि मीडिया यह काम करे तो दंगों की तीव्रता और उनकी संख्या में कमी आ सकती है. धर्म के नाम पर जो दंगा करते हैं, क्या उसी धर्म के अन्य लोग ऐसे दंगे का समर्थन करते हैं – अपने धर्म के नाम पर. और अगर नहीं तो क्या उन्हें अपने धर्म के मूल सिद्धान्तों की रक्षा के लिए ऐसे तत्वों से अपने को पृथक् रखना चाहिए जो धर्म के नाम पर आतंक और हिंसा फैलाकर अपराध-कार्य करते हैं.
लोकमत में बुद्धिजीवियों की उपस्थिति की कमी के कई कारण हैं. मैं केवल कुछ का ही उल्लेख कर सकती हूं. बहुत स्पष्ट परन्तु अस्वीकार्य मुख्य कारण है अनेक प्रकार की असुरक्षा की भावना कुछ नव्य उदारवाद के कारणों से उत्पन्न हुई है. इनमें से कुछ तो तथाकथित आर्थिक बुद्धि के कारण हैं, जबकि यह आर्थिक बुद्धि अभीष्ट परिणाम नहीं दे पायी. नौकरी के लिए प्रतियोगिता ज़्यादा बढ़ गयी है जिससे सामंजस्यपूर्ण मानवीय सम्बन्धों में कमी आयी है.
बढ़ती आबादी के कारण नौकरियों के लिए बढ़ती प्रतियोगिता में धर्म और जाति अब प्रमुख हो गया है. धन-सम्पत्ति में असमानता, जो कुछ की दृष्टि में घृणित है, ने हमारे आक्रामक व्यवहार को बढ़ावा दिया है. आडम्बरपूर्ण प्रदर्शन ने मूल्यों को सजावटी वस्तु मानकर रख दिया है. ज़्यादातर व्यवसायों में माफ़िया (अपराधी गुट) विद्यमान है जिसमें से कुछ ज़्यादा प्रभावशील नहीं हैं परन्तु कुछ व्यवस्था को नियन्त्रित करते हैं. कभी-कभी जिनका काम समाज को सुरक्षा प्रदान करना है, उनमें से कुछ पर शक्तिशाली माफ़िया का नियन्त्रण रहता है और यह तन्त्र काफ़ी फैला हुआ है.
भ्रष्टाचार अनेक स्तरों पर और अनेक प्रकार से अब सामान्य बात हो गयी है. पैसा अब नया देवता हो गया है और जिनके पास पैसा है, वे उसी की पूजा करते हैं और अन्य सभी व्यग्रता से उम्मीद करते हैं कि उनके पास भी कुछ पैसा टपक पड़ेगा. समानता के अधिकार की मांग शोषितों के अंदर एक नयी अधीरता पैदा कर रही है, परन्तु धनबल और जातिबल के नये अवतार जो राजनीति और चुनावों में घुसपैठ कर चुके हैं, इस अधिकार की मांग के लिए ख़तरा हैं.
कुछ व्याख्याकारों के अनुसार, नव्य उदारवादी अर्थव्यवस्था ने इस स्थिति को समतावादी समाज की तरफ़ मोड़ दिया है. आश्चर्य है कि इन पच्चीस वर्षों में, यह विश्वास नहीं दिलाया है कि उदारवादी दक्षिणपन्थ फैल रहा है. उदारवादी दक्षिणपन्थ लगातार यह काल्पनिक आरोप लगाता है कि उदारवादी वामपन्थ का नियन्त्रण जारी है.
नव उदारवादी संस्कृति और अर्थव्यवस्था को आसानी से बदला जा सकता है और इसके दुष्प्रभावों को रोका जा सकता है, यदि हम स्पष्ट हों कि समाज की जड़ें हैं कल्याण, सामाजिक न्याय और संसाधनों पर नागरिकों का अधिकार. स्वतन्त्रता के समय यही मुद्दा था जब राष्ट्र राज्य की संकल्पना बनी. मुझे 1960 और 1970 के दशकों के उन संवादों और तर्कों की याद है जब हम मात्र कागज़ पर नहीं, वास्तव में कैसा समाज बनायें जहां नागरिकों को समान अधिकार हों, पर बात होती थी. किसी जीवन्त समाज में इस प्रकार के प्रश्न उठते रहने चाहिए और ऐसे संवाद जारी रहने चाहिए तो फिर हमें लोकहित में बुद्धिजीवियों को प्रमुखता से आसीन करना होगा. परन्तु इससे आगे बढ़कर यह भी ज़रूरी है कि ऐसा जनसमूह भी हो जो उपयुक्त प्रश्नों को उठाता रहे.
(लेख वाणी प्रकाशन की सहमति से प्रकाशित)
Also Read
-
‘Give with one hand, take with other’: In Mumbai slums, price rise vs Ladki Behna appeal
-
Why is Jharkhand’s youth rallying behind this 30-year-old political outsider?
-
After Ajit Pawar’s bombshell, Sharad Pawar confirms BJP-NCP meeting took place in Adani’s home
-
Rajasthan: PTI says its reporter, crew ‘assaulted by mob’, camera ‘snatched and burnt’
-
Fadnavis confirms BJP-NCP meeting, denies Adani’s home was venue. Who’s telling truth?