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मरुस्थल से लड़ाई में राजस्थान ने दिखाई राह
नैरोबी में संयुक्त राष्ट्र के मंच (यूएनसीओडी) पर मरुस्थलीकरण के मुद्दे पर 1977 में पहली बार चर्चा की गई. सितंबर 2019 में भारत में कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी-14) का आयोजन किया जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र की ओर से मरुस्थलीकरण की समस्या से निपटने के लिए लगातार कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं. इन कार्यक्रमों में मरुस्थलीकरण रोकथाम अधिवेशन, रियो कॉन्फ्रेंस 1994, अधिवेशन के कार्यान्वयन को बढ़ाने के लिए दस वर्षीय (2008-2018) रणनीतिक योजना और रूपरेखा, सीओपी और 2018-2030 की अवधि के लिए लैंड डिग्रेडेशन न्यूट्रेलिटी (एलडीएन) के लक्ष्य को लेकर रणनीतिक रूपरेखा आदि शामिल है.
हाल ही में चीन में आयोजित सीओपी-13 में सभी 196 पक्षों में से 169 देशों ने मरुस्थलीकरण से प्रभावित होने की घोषणा की. इसमें कहा गया कि पृथ्वी शिखर सम्मेलन के 25 वर्षों के बावजूद मरुस्थलीकरण अब भी दुनिया भर के लिए एक बड़ी समस्या बना हुआ है. इस सम्मेलन की रिपोर्ट के अनुसार, 1.5 बिलियन लोग सीधे तौर पर भूमि पर आश्रित हैं, जिसका धीरे-धीरे क्षरण हो रहा है. अनुमान है कि हर साल करीब 12 मिलियन हेक्टेयर जमीन मरुस्थलीकरण और सूखे की मार झेलती है. इतनी भूमि पर 20 मिलियन टन अनाज पैदा किया जा सकता है. यह सब उन शुष्क क्षेत्रों में हो रहा है, जो आज दुनिया की आबादी के एक बड़े हिस्से की बुनियादी जरूरतों को पूरा करते हैं. लेकिन, इन परिस्थितियों के चलते वे आज संकट में हैं. 2 अरब से अधिक आबादी और दुनिया के करीब आधे पशुओं का भरण-पोषण करने वाले ये क्षेत्र विश्व के सबसे अच्छे उत्पादक और अत्यधिक संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भी जाने जाते हैं.
भारत में मरुस्थलीकरण
328.72 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल और 1.30 अरब मानव आबादी वाले भारत जैसे देश में मरुस्थलीकरण या भूमि क्षरण निश्चित रूप से बड़ी आबादी (खासकर शुष्क क्षेत्रों में) के जीवन को प्रभावित कर रहा है. यूएनसीसीडी के कार्यकारी सचिव, मोनिक बारबूट के अनुसार, “भारत मरुस्थलीकरण से जूझ रहे देशों में से एक है. अब यह बार-बार पड़ने वाले सूखे, धूल व रेत के तूफान जैसी नई चुनौतियों का सामना कर रहा है. देश के पास बेहतर भू-उपयोग व प्रबंधन के जरिए इन चुनौतियों को अवसरों में बदलने की जबरदस्त क्षमता है और दुनिया को नेतृत्व प्रदान करने के लिए साहसिक कदम उठाने की जरूरत है.”
इसरो द्वारा 2016 में प्रकाशित राष्ट्रीय रिपोर्ट डेजर्टिफिकेशन एंड लैंड डिग्रेडेशन एटलस ऑफ इंडिया के अनुसार, भारत की 96.40 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर क्षरण की प्रक्रिया जारी है. यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 29.3 फीसदी है. इस अध्ययन के अनुसार, मरुस्थलीकरण के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार जल क्षरण है. 10.98 फीसदी क्षेत्र में मरुस्थलीकरण जल क्षरण की वजह से ही होता है. इसके बाद वनस्पति क्षरण का नंबर आता है, जिसके कारण 9.91 प्रतिशत क्षेत्र में मरुस्थलीकरण होता है, फिर वायु क्षरण (5.55 प्रतिशत क्षेत्र में), लवणता (1.12 प्रतिशत ), मानव निर्मित / बसावट (0.69 प्रतिशत) और अन्य कारणों जैसे जलभराव, अत्यधिक पाला, लोगों का दखल, बंजर और चट्टानी भूमि (2.07 प्रतिशत) आदि वजहें भी इसके लिए जिम्मेदार हैं. 2011-13 के दौरान शुष्क क्षेत्रों (शुष्क, अर्द्ध शुष्क और शुष्क अल्प आर्द्र) में मरुस्थलीकरण प्रभावित क्षेत्र 82.64 मिलियन हेक्टेयर था. 2003-05 की तुलना में 2011-13 में मरुस्थलीकरण प्रभावित क्षेत्र में 1.16 मिलियन हेक्टेयर की बढ़ोतरी हुई. इससे साफ जाहिर होता है कि भारत में मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है.
देश के कुल 9 शुष्क राज्यों में से 8 में मरुस्थलीकरण प्रभावित क्षेत्र में बढ़ोतरी दर्ज की गई है. राजस्थान में 2003-05 के बाद से क्षरण प्रभावित क्षेत्र में गिरावट आई है.
राजस्थान में मरुस्थलीकरण
देश के उत्तर पश्चिमी हिस्से में मरुस्थलीकरण की समस्या अधिक गंभीर है, जिसमें थार रेगिस्तान के भारतीय क्षेत्र के साथ ही देश का सबसे गर्म शुष्क जोन भी आता है. राजस्थान में देश के कुल शुष्क क्षेत्र (32 मिलियन हेक्टेयर) में से सबसे अधिक हिस्सा (20.8 मिलियन हेक्टेयर या 62 प्रतिशत) आता है. थार रेगिस्तान पूर्व में अरावली पर्वत शृंखला के पश्चिमी किनारे से लेकर पश्चिम में सिंधु नदी के मध्य तक स्थित है.
थार में अम्लता सूचकांक पूर्व में -66.6 प्रतिशत से लेकर पश्चिम में अधिकतम -93.7 प्रतिशत तक है. अरावली पर्वत और सिंधु नदी दोनों ही थार के पर्यावरण के क्षेत्रीय जलवायु, भू-भाग और जलीय विज्ञान को प्रभावित करते हैं. मौसमी और वार्षिक तापमान सीमा यहां काफी अधिक है. गर्मियों में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है, जबकि सर्दियों में यह -4 डिग्री सेल्सियस तक कम हो जाता है. वार्षिक औसत वर्षा भी यहां बहुत कम होती है, जो एक साल के दौरान पश्चिम में 100 मिमी से लेकर और पूर्वी भाग में 500 मिमी तक हो सकती है, लेकिन रेगिस्तान में वाष्पीकरण की अत्यधिक दर (1,800 मिमी) के चलते पानी की उपलब्धता काफी कम हो जाती है. खासकर गर्मियों में हवा की गति कभी-कभी बहुत अधिक (40-60 किमी प्रति घंटा) हो जाती है, इस दौरान कम आर्द्रता के चलते पर्यावरण असुविधाजनक हो जाता है.
वातज या रेत से ढके इलाके यहां के 80 प्रतिशत क्षेत्र में फैले हुए हैं. इस भूभाग का अधिकतर हिस्सा रेत के टीलों से ढंका हुआ है. भौगोलिक रूप से 12 जिलों और 4 कृषि-जलवायु क्षेत्रों व एक प्रमुख कृषि भूमि उपयोग वाले हिस्से में बंटे पश्चिमी राजस्थान में एक बड़ी आबादी (2011 की जनगणना के अनुसार 28 मिलियन) निवास करती है.
राज्य में मरुस्थलीकरण को बढ़ावा देने में वायु क्षरण की भूमिका भी काफी अहम है, जिससे 1,51,97,874 हेक्टेयर (44.41 प्रतिशत) क्षेत्र प्रभावित है. दिलचस्प तथ्य यह है कि 2003-05 से लेकर 2011-13 के बीच वायु क्षरण प्रभावित क्षेत्र में 1,34,180 हेक्टेयर की कमी आई है.
वायु क्षरण का खतरा
वायु क्षरण व निक्षेपण के चलते उड़ती रेत और धूल भरे तूफान थार के रेगिस्तानी पर्यावरण की विशेषता हैं. गर्मियों के दौरान इस तरह की घटनाओं की तीव्रता अधिक महसूस की जा सकती है. यह तीव्रता गर्मी की तेज हवाओं, रेतीले इलाके, अपर्याप्त और विरल वनस्पति आच्छादन और मानव गतिविधियों का परिणाम है.
क्षेत्र के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 72 प्रतिशत यानी लगभग 1.57 लाख हेक्टेयर हिस्सा वायु वायु क्षरण/ निक्षेपण से प्रभावित है, जिसमें से 5,800 वर्ग किमी क्षेत्र बहुत खतरनाक ढंग से निम्नीकृत (डिग्रेडेड) हो चुका है, 25,540 वर्ग किमी क्षेत्र गंभीर रूप से प्रभावित है, 73,740 वर्ग किमी क्षेत्र मामूली रूप से और 52,690 वर्ग किमी क्षेत्र कम प्रभावित है. वायु अथवा रेत नियंत्रण उपायों के तहत 2 स्थितियों को लेकर लक्ष्य तय किए गए हैं, जिनमें ढंके हुए बालू के टीले और रेतीले मैदान शामिल हैं.
रेतीले टीलों का स्थिरीकरण
हालांकि, रेतीले टीलों के स्थिरीकरण के लिए पहले से कुछ यांत्रिक या रासायनिक तरीके चलन में हैं, लेकिन केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (सीएजेडआरआई) की तरफ से डिजाइन किए गए वनीकरण कार्यक्रम और वनस्पति अवरोध की तकनीक थार रेगिस्तान के लिए प्रभावी पाई गई है. संस्थान ने इसके लिए पुराने (10 हजार साल पहले बने), बड़े (12 से 40 मीटर ऊंचे) और स्वाभाविक रूप से स्थिर टिब्बों पर ध्यान केंद्रित किया. इन टीलों की सालाना गतिशीलता बहुत कम (3 से 5 मीटर) है. सीएजेडआरआई की इस तकनीक में ये गतिविधियां शामिल हैं-
- खिसकते रेतीले टीलों वाले क्षेत्रों को जैविक हस्तक्षेप से बचाने के लिए बाड़ लगाना.
- स्थानीय रूप से उपलब्ध झाड़ियों और घास आदि का इस्तेमाल करके, समानांतर पट्टियों या फिर शतरंज की बिसात वाले पैटर्न में सूक्ष्म वायुरोधकों का निर्माण करना.
- टिब्बों की ढलान पर वनीकरण के लिए घास के बीजों की सीधी बुवाई और देसी व विदेशी प्रजातियों के पौधों की रोपाई करना.
- सूक्ष्म वायु अवरोधकों की ओर घास की पट्टियों को लगाना या घास के बीज व फलियों वाली लताओं का बीजारोपण करना.
- 10 से 15 वर्षों में पूरी लागत निकलने तक रेत के इन टीलों का नियमित और उचित प्रबंधन करना.
सूक्ष्म वायुरोधकों के लिए झाड़ियों के रूप में लेप्टेडेनिया पायरोटेक्निका (खींप), जिजिफस न्यूमुलेरिया (पाला), क्रोटालेरिया बुरहिया (साइनिया) और पैनिकम तुर्गिडम (मूरत), पेड़ के तौर पर अकेशिया टॉर्टिलिस, प्रोसोपिस एसपीपी, अकेशिया सेनेगल, पार्किंसोनिया आर्टिकुलेटा और तामरिस्क आर्टिकुलेटा और घास के तौर पर सेवण घास व बफेल घास की प्रजातियों को उपयुक्त माना गया है. वर्तमान में यह तकनीक जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, जोधपुर और चुरू जैसे सभी रेगिस्तानी जिलों में फैल गई है. इन जगहों पर राजस्थान के राज्य वन विभाग की मदद से 4 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में रेत के टीले स्थिर किए जा चुके हैं.
वायुरोधी खेत
वायुरोधी खेत पेड़, पौधों, अथवा झाड़ियों द्वारा बनाये गए वनस्पतिक अवरोध होते हैं और हवाओं के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने में सक्षम होते हैं. संस्थान ने इन तकनीकों का प्रयोग उन क्षेत्रों में किया जहां रेत के टीले नहीं थे. इजराइली बबूल (अकेशिया टॉर्टिलिस), नीलगिरि (यूकेलिप्टस कैमलडुलेंसिस), शीशम (डालबर्जिया सिसू) और रोहेड़ा (टेकोमेला अंडुलाटा) जैसे कई पेड़ों का लगभग 800 किमी लंबा बागान जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर, चूरू, झुंझुनूं, नागौर, अजमेर, और पाली जिले में लगाया गया.
सीकर-लोहारू, सीकर-फतेहपुर, और पलसाना-देशनोक अनुभाग की रेल पटरियों के अगल-बगल लगभग 100 किमी के क्षेत्र में वृक्षारोपण किया गया, तो वहीं मोहनगढ़ के आईजीएनपी क्षेत्र में 250 किमी के भूभाग में पेड़ लगाए गए. जैसलमेर जैसे अत्यधिक शुष्क जिलों से मिले नतीजों के अनुसार, ऐसे बगीचों ने 2 से 10 घंटों की दूरी में वायुरोधकों की सीमा पर हवा के वेग को कम कर दिया. इस तरह के वृक्षारोपण से मिट्टी की हानि में भी लगभग 76 प्रतिशत की कमी आई है.
बिना वायुरोधी बगीचों वाले क्षेत्रों की अपेक्षा वायुरोधकों की सीमा के अंदर मिट्टी कम से कम 14 प्रतिशत ज्यादा नमी थी और बाजरे की पैदावार में 70 प्रतिशत का इजाफा दर्ज किया गया. इतने अच्छे परिणामों के बावजूद, कृषि योग्य जमीनों में वायुरोधक किसानों के बीच उतने लोकप्रिय नहीं हैं, क्योंकि कई बार पेड़ खेतों में कृषि कार्यों व अन्य गतिविधियों में बाधक होते हैं. आजकल खेतों की मेढ़ों पर हवा की दिशा में पेड़ लगाने को काफी बढ़ावा दिया जा रहा है.
वृक्षारोपण से मदद?
चौखानेदार या समानांतर धारियों में लगाए गए जंगल, टिब्बों की ढलानों पर रेत की आवाजाही को रोक सकने में काफी हद तक समर्थ रहे हैं. बढ़ते हुए वनस्पतिक आच्छादन के साथ, आईजीएनपी कमांड क्षेत्र में ऐसी प्रणालियों ने सूक्ष्म जलवायु को प्रभावित किया है. वायु शक्ति में भारी गिरावट आई है और धूल भरी आंधी भी अब पिछले दिनों के 17 बार की तुलना में 5 से भी कम हो गई है. अकेले पश्चिमी राजस्थान में वायु अपरदन क्षेत्र वर्ष 2000 के दौरान 76 प्रतिशत की तुलना में 2013 में घटकर 73 प्रतिशत रह गया है.
खेती पर इसके प्रभाव के मद्देनजर, वर्ष 2011 से 2013 के दौरान वर्षा-सिंचित कृषि भूमि पर वायु अपरदन 1,00,667 हेक्टेयर तक और किसानों द्वारा सिंचित कृषि भूमि पर 21,390 हेक्टेयर तक कम हो गया. इसी तरह, वायुरोधकों के साथ वाले खेतों में शीत लहर के कारण फसल उत्पादकता में औसत नुकसान महज 17 प्रतिशत पाया गया, जबकि वायुरोधकों के बिना खेतों में ये नुकसान 30 प्रतिशत तक हुआ. रोधकों के दोनों ओर वाष्पीकरण पटल मूल्य भी गिरावट के साथ 5-14 प्रतिशत तक आ गया था. नहर के तलों पर जम आई रेत से हो रही समस्याओं को भी आंशिक रूप से हल किया गया है.
प्रयोगों के परिणामों से पता चला है कि हर स्थान पर पेड़ों और झाड़ियों का रोपण हमेशा फायदेमंद नहीं होता. पश्चिमी थार में, जहां सड़कों के दोनों ओर लगाए गए वृक्ष, रेतीले मैदानी क्षेत्रों में गर्मियों की हवा के मार्ग को बाधित करते हैं, वहां रेत राजमार्गों पर जमा हो जाया करती है.
3 से 5 मीटर तक ऊंचे और किसी भी प्रकार की वनस्पति से रहित नए टिब्बों (बरखान व हैमॉक) को नियंत्रित करना थोड़ा ज्यादा मुश्किल होता है. बरखान अधिक गतिशील होते हैं. उनकी गति 31.7 मीटर प्रति ग्रीष्म ऋतु मापी गई है. मॉनसून कि बारिशों के वक्त थार क्षेत्र में बरखान ढलानों को भी बाजरे की एकल कृषि के उपयोग में लाया जाता है.
इसके अलावा, थार मरुस्थल की सीमा में बरखान 30 से 40 मीटर ऊंचे रेत के टीलों के साथ भी पाए जाते हैं. बरखान जब तक मौजूदा ढांचों को नुकसान न पहुंचाने लग जाएं, तब तक उसे उसकी गति से छेड़छाड़ किए बिना आवाजाही करने देना किफायती और समझदारी की बात है.
भारत के मरुस्थलीय क्षेत्रों में पानी का प्रबंधन मरुभूमि निवासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है व इसे मरुस्थलीकरण का एक महत्वपूर्ण सूचक माना जाता है. आवश्यकता और उपलब्धता के अनुसार, सतही जल को पारंपरिक रूप से गांव के तालाबों (जिसे स्थानीय लोग नाड़ी कहते हैं) अथवा विभिन्न भंडारण क्षमताओं वाले मानव-निर्मित ढांचों, जैसे टंका में जमा किया जाता है.
हालांकि, इंदिरा गांधी नहर परियोजना (आईजीएनपी) प्रणालियों ने कृषि परिदृश्य को काफी हद तक बदल दिया है और इनकी वजह से आर्थिक समृद्धि में भी इजाफा हुआ है, लेकिन नहर के पानी का आखिरी छोर तक वितरण अभी तक चुनौतीपूर्ण कार्य बना हुआ है.
अब नहर के पानी के संरक्षण के लिए डिग्गी नामक छोटे आयताकार टैंक को नियमित रूप से बनाया जाता है. जल संसाधनों में इस तरह के सुधार से अधिक से अधिक क्षेत्रों को कृषि के अंतर्गत लाने की गुंजाइश बढ़ी है. आईजीएनपी और नर्मदा जैसी बड़ी नहर परियोजनाओं के माध्यम से किसानों को अब सिंचाई का पानी पहले की तुलना में बेहतर तरीके से उपलब्ध हो रहा है. अब कृषि भूमि का उपयोग का तरीका बदल गया है.
1957-58 और 2014-15 के तुलनात्मक आंकड़े पश्चिमी राजस्थान में कुछ बड़े बदलावों को दर्शाते हैं. ये बदलाव हैं, शुद्ध बोए गए क्षेत्र में 18.25 प्रतिशत (38,01,595 हेक्टेयर) की वृद्धि, दोहरी फसल क्षेत्र में 14.75 प्रतिशत (30,72,522 हेक्टेयर) की बढ़ोतरी और वन क्षेत्र में 1.61 प्रतिशत (3,35,954 हेक्टेयर) की वृद्धि दर्ज की गई है. इसके अलावा, खेती योग्य बंजर भूमि में 8.79 प्रतिशत (18,28,865 हेक्टेयर), वर्तमान में परती जमीन में 1.64 प्रतिशत (3,40,519 हेक्टेयर), व पुरानी परती जमीन में 6.9 प्रतिशत (14,35,845 हेक्टेयर) की कमी आई है.
ये आंकड़े केवल निर्वाह के लिए की जाने वाली खेती से कृषि के गहन रूप में परिवर्तन के संकेत हैं. ये आर्थिक लाभ के लिए फसल उगाने की इच्छा के सूचक हैं. किसानों की मानसिकता में इस प्रकार का आमूलचूल परिवर्तन संस्थागत समर्थन और अनुसंधानिक हस्तक्षेप की वजह से भी है. फसलों की उन्नत किस्मों का विकास, कई प्रकार की कृषि वानिकी की पहचान तथा उनका विकास, और कृषि-बागवानी, उद्यान वानिकी पशुपालन खेती प्रणालियों का विकास, किसानों को बेहतर आजीविका प्रदान कर उनकी काफी मदद कर रहा है. सीएजेडआरआई द्वारा विकसित 7 हेक्टेयर भूमि के लिए एकीकृत कृषि प्रणाली (आईएफएस) मॉडल में 845 से अधिक श्रम दिवस के लिए का रोजगार पैदा करने और 2.5 लाख रुपए वार्षिक रिटर्न देने की क्षमता है.
(लेखक जोधपुर स्थित केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान संबद्ध हैं)
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