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विस्थापन को अभिशप्त धरती

इस ज़मीन को इंसान ने ही अभिशापित किया है, मानव निर्मित. हमारी-आपकी सरकारों द्वारा रची गई. विकास के खूबसूरत खोल में लिपटी हुई त्रासदी. जब आप मध्य प्रदेश के जबलपुर से कोई 80 किलोमीटर दूर बरगी बांध की छाया में बसे गांवों की ओर बढ़ते हैं तो इस त्रासदी का कैनवास जमीन पर जहां-तहां उकेरा मिलता है. रास्ता बहुत टूटा-फूटा है लेकिन उससे भी अधिक तार-तार है यहां रह रहे आदिवासी और मछुआरे समुदाय का सरकार पर भरोसा. यहां आपकी मुलाकात समाज के उस हिस्से से होती है जो पिछले कई दशकों से लगातार विस्थापन का दर्द झेल रहा है.

हम मध्य प्रदेश में मंडला ज़िले के उन गांवों में प्रवेश करते हैं जहां पिछले कई सालों से सरकार एक परमाणु बिजलीघर लगाने की तैयारी में है. इस बिजली संयंत्र की स्थापना का मतलब है, यहां के निवासियों का एक बार फिर से उजड़ना. नर्मदा के तट पर जहां यह न्यूक्लियर पावर प्लांट प्रस्तावित है, वहां 1980 के दशक में बरगी जल विद्युत परियोजना के लिये 150 से अधिक गांवों की ज़मीन ली गई और 12,000 से अधिक लोग परिवार प्रभावित हुए.

 चुटका न्यूक्लियर पावर प्लांट की वजह से 328  आदिवासी परिवार फिर से उजड़ने की कगार पर हैं. फोटो– हृदयेश जोशी

बार-बार छोड़ना पड़ता है घर

न्यूक्लियर पावर कॉरपोरेशन (एनपीसीआईएल) का यह बिजलीघर मंडला के चुटका गांव में बनेगा. इस पावर प्लांट की घोषणा पहली बार 2009 में की गई. शुरुआत में इस परमाणु बिजलीघर की कुल क्षमता 1400 मेगावॉट (700 X 2) होगी. कॉरपोरेशन को इस संयंत्र के लिये वन और पर्यावरण संबंधी हरी झंडी तो मिल गई है लेकिन ग्रामीणों को ज़मीन देने के लिये वह नहीं मना पाई है.

कुल 21,000 करोड़ रुपये लागत का यह पावर प्लांट 497.72 हेक्टेयर ज़मीन पर फैला होगा. इस प्लांट के लिये चुटका के अलावा दो अन्य गांवों टाटीघाट और कुंडा की ज़मीन भी ली जानी है. लेकिन प्लांट की वजह से आसपास के कई और गांवों के लोगों के रोज़गार और वजूद पर भी संकट मंडरायेगा.

चुटका के आसपास रहने वाले आदिवासियों को प्रोजेक्ट की वजह से स्वास्थ्य और रोज़गार की फ़िक्र सता रही है. फोटो – हृदयेश जोशी

चुटका परमाणु विरोधी संघर्ष समिति के अध्यक्ष 56 साल के आदिवासी दादूलाल कुड़ापे आज इस क्षेत्र में लोगों को लामबन्द कर रहे हैं. कुड़ापे की 9 एकड़ ज़मीन बरगी बांध की वजह से छिन गई. अब इस प्लांट के आने से फिर उनकी कुल 16 एकड़ ज़मीन और ले ली जायेगी.

“यहां के आदिवासी काफी समृद्ध हुआ करते थे. हमारे परिवार के पास खाने पीने से लेकर रहने और कमाने के पर्याप्त साधन थे लेकिन पिछले 40 सालों में लगता है कि हमारे घर और ज़मीन पर हमला बोल दिया गया है. आज हम सबके सामने भूमिहीन होने का संकट है. हम यहां से नहीं हटना चाहते.” दादूलाल कुड़ापे बताते हैं.

दादूलाल कहते हैं कि बार-बार विस्थापन ही यहां की ज़िंदगी का सच है.  बरगी बांध के लिये कई लोगों को अपने घरों से हटाकर जिस जगह बसाया गया वह जगह भी बांध निगल गया. फिर लोगों को वहां से भी हटना पड़ा. अब लोगों को या तो फिर से हटना है या फिर उनका रोज़गार उनसे छिन जायेगा.

“30 साल पहले लोगों को बांध के कारण अपने घरों से हटाकर बसाया लेकिन अधिकारियों को अंदाज़ा ही नहीं था कि जिस जगह विस्थापितों को बसाया जा रहा है वह इलाका भी बांध के पानी में डूब जायेगा. लिहाजा एक ही परियोजना के लिये लोगों को दो बार विस्थापित होना पड़ा.” गोंड आदिवासी नॉनेलाल कुड़ापे बताते हैं. नॉनेलाल कुंडा गांव के रहने वाले हैं और उन्हें भी चुटका परमाणु योजना की वजह से हटना पड़ेगा.

इससे अच्छा अंग्रेज़ों का शासन

टाटीघाट गांव के रहने वाले मुन्ना बरमन हमें नर्मदा किनारे अपने बेटे के साथ नाव बनाते मिले. उनकी ज़िंदगी का आधार मछली पालन है लेकिन आज वह अपनी नाव को बनने से पहले डूबता देख रहे हैं. 42 साल के मुन्ना बरगी जल विद्युत परियोजना की वजह से अब तक दो बार विस्थापित हो चुके हैं और चुटका परियोजना उन्हें तीसरी बार अपने घर से हटायेगी.

“हमारे बुज़ुर्ग हमें अंग्रेज़ों के ज़माने की बातें बताया करते थे. मुझे लगता है कि अंग्रेज़ों का वक्त इससे अच्छा रहा होगा. कम से कम उन्हें (बुज़ुर्गों को) हमारी तरह बार-बार अपना घर तो नहीं छोड़ना पड़ा,” मुन्ना बरमन कहते हैं जो मछुआरा समाज के हैं.

मंडला के इस इलाके में मछली पालन और खेती पर निर्भर है. सुभाष बरमन जैसे लोगोंं का भविष्य अनिश्चित दिख रहा है. फोटो– हृदयेश जोशी

मंडला के कलेक्टर जगदीश जटिया के मुताबिक इस परियोजना की वजह से कुल 328 परिवार विस्थापित हो रहे हैं. जटिया ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि सभी प्रभावित परिवारों को पुनर्वास नीति के तहत मुआवज़ा दिया जा रहा है और उनके रहने के लिये घर बनाये जा रहे हैं.

“कुल 600 से अधिक खातेदार हैं जिनको मुआवज़ा दिया जाना था. जिनमें से साढ़े पांच सौ के खाते में मुआवज़े की रकम जमा कर दी गई है. हर खातेदार को 5 लाख रुपये मुआवज़ा दिया जा रहा है.” जटिया कहते हैं.

ग्रामीण कहते हैं कि चुटका, टाटीघाट और कुंडा के करीब 2000 लोगों को इस पावर प्लांट की वजह से फिर हटना पड़ेगा. इन लोगों के सुर में अगर सरकार के प्रति गुस्सा और कड़वाहट है तो उसके पीछे “विकास योजनाओं” की आड़ में अतीत में किया गया “धोखा” शामिल है.

“हमने बरगी बांध विस्थापितों के लिये लम्बा संघर्ष किया है. मंडला ज़िले के ही 95 गांव इस बांध से प्रभावित हुये. इन लोगों को मुआवज़ा तो मिला लेकिन ज़मीन नहीं दी गई. सच यह है कि सरकार ने उस वक्त हर परिवार को एक नौकरी और अधिग्रहित ज़मीन के बदले 5 एकड़ ज़मीन देने की बात कही थी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. इसलिये यहां लोग ठगे महसूस कर रहे हैं. ज़ाहिर है कि चुटका परियोजना कोई नहीं चाहता.” 55 साल के राजकुमार सिन्हा कहते हैं जो बरगी बांध विस्थापितों के लिये दो दशकों से संघर्ष करते रहे हैं.

ग्रामीणों ने बारम्बार विस्थापन से तंग आकर विरोध करने का मन बनाया है. फोटो – हृदयेश जोशी

कलेक्टर जटिया भी मानते हैं कि चुटका में ग्रामीणों की मांग बेहतर मुआवज़े की है. “ग्रामीण वर्तमान में दिये जा रहे 5 लाख के मुआवज़े के साथ 20 लाख रुपये मांग रहे हैं. साथ ही वह कहते हैं कि जो मकान दे रहे हो वह बड़ा घर बनाकर दो और हर परिवार के लिये नौकरी दो.”

हालात ऐसे हैं कि आदिवासियों ने प्रोजक्ट से जुड़े कर्मचारियों को गांव में न घुसने देने की ठान ली है. 52 साल की मीराबाई मरावी इस विरोध में सबसे आगे रही हैं. “जब ज़मीन का सर्वे और मिट्टी की जांच करने वह (प्रोजक्ट के कर्मचारी) गांव में घुसे तो हमने उनकी मशीन और औजार समेत उन्हें भगा दिया.” मीराबाई बताती हैं.

विस्थापन का गणित

आज़ादी के बाद से अब तक विकास योजनाओं की वजह से भारत में करीब 5 करोड़ लोग विस्थापित हुये हैं. इनमें से एक तिहाई से अधिक (करीब 35-40%) आदिवासी हैं. इनमें भी कई लोग ऐसे हैं जिन्हें बार-बार विस्थापित होना पड़ा है. जर्मनी स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ बीलेफेल्ड के लिये की गई एक रिसर्च में नागी नलिन और सुजाता गांगुली बताती हैं कि 2 करोड़ से अधिक लोग तो सिर्फ बांध, जल विद्युत, खनन, औद्योगिक प्लांट्स और वन्य जीव संरक्षण के लिये विस्थापित हुये हैं.

नर्मदा घाटी में विस्थापन की शुरुआत 1980 से हुई और अनुमान है कि आज तक पूरी घाटी में करीब 10 लाख लोग परियोजनाओं से प्रभावित हुये हैं. सबसे अधिक चोट मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में फैले सरदार सरोवर बांध की वजह हुई जिससे करीब 2 लाख लोग प्रभावित हुये हैं.

साल 2013 में बनाया गया ज़मीन अधिग्रहण और पुनर्वास कानून साफ कहता है कि किसी भी विकास परियोजना में सरकार इस बात का ख्याल रखे कि उन लोगों को फिर से विस्थापित न होना पड़े जो पहले अपनी ज़मीन से विस्थापित हो चुके हैं. इसके लिये हर योजना को लागू करने से पहले सोशल इम्पैक्ट असेसमेंट (एसआईए) किया जाना ज़रूरी होता है ताकि किसी विकास योजना के सामाजिक प्रभाव का मूल्यांकन हो सके.

ज़मीन अधिग्रहण और पुनर्वास विशेषज्ञ और फिलहाल दिल्ली स्थित द एनर्जी एंड रिसोर्सेसइंस्टिट्यूट (टीईआरआई) से जुड़ी डॉ प्रीति जैन दास कहती हैं, “एसआईए का उद्देश्य ही विस्थापन को कम करना है. इससे अधिग्रहण करने वाली एजेंसियों को विकास परियोजना के लिये वैकल्पिक जगह ढूंढ़ने में मदद मिलती है. अक्सर जब कंपनियां या अधिकारी ज़मीन पर जाकर लोगों से बात करते हैं तो उन्हें इन विकल्पों के बारे में पता चलता है. लोग खुद विकल्प सुझाते हैं लेकिन सरकारें और कंपनियां प्रोजेक्ट को लेकर सामाजिक प्रभावों को नज़रअंदाज़ करती हैं जिससे पूरी प्रक्रिया में लोगों की भागेदारी ही नहीं रहती.” ज़ाहिर तौर पर इसका नतीजा जन-आक्रोश के रूप में दिखता है जैसा कि फिलहाल चुटका में दिख रहा है.

बरगी बांध नर्मदा घाटी का पहला बड़ा प्रोजेक्ट था जो 80 के दशक में बनना शुरू हुआ. फोटो– हृदयेश जोशी

हमारे पूछने पर कलेक्टर जगदीश जटिया का कहना है सरकार यह जांच कर रही है कि चुटका के मामले में वर्तमान विस्थापितों में कितने लोग ऐसे हैं जो बरगी बांध के वक्त भी विस्थापित हुये. जटिया के मुताबिक ऐसे लोगों को दुगना मुआवज़ा दिया जायेगा.

चुटका न्यूक्लियर पावर प्लांट की वजह से ग्रामीणों के विस्थापन, पुनर्वास और मुआवज़े को लेकर हमने न्यूक्लियर पावर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया को सवाल भेजे लेकिन हमें कोई जवाब नहीं मिला. जबलपुर स्थित चुटका परमाणु योजना में जिन अधिकारियों से इस रिपोर्टर ने मुलाकात की उन्होंने भी किसी तरह की कोई जानकारी देने से मना कर दिया.

स्वास्थ्य और रोज़गार का डर

सवाल सिर्फ विस्थापन का ही नहीं है जिन लोगों को घर नहीं छोड़ना पड़ा उन्हें भी प्रोजेक्ट को लेकर कई आशंकायें हैं. खासतौर से न्यूक्लियर प्लांट की वजह से स्वास्थ्य और आबो-हवा के खराब होने की फिक्र.

“अगर (न्यूक्लियर) प्लांट से सेहत को कोई खतरा नहीं है तो फिर कॉरपोरेशन का स्टाफ अपने कर्मचारियों की कॉलोनी यहां से 11 किलोमीटर दूर सिमरिया (मानेगांव) में क्यों बना रहा है. वह भी हमारे साथ इसी इलाके में क्यों नहीं रहते.” कुंडा गांव निवासी 63 साल के रमेश मार्को कहते हैं.

प्रभावित इलाके का दौरा करने से पता चलता है कि सेहत की सुरक्षा को लेकर ग्रामीणों की आशंका दूर करने में प्रशासन और न्यूक्लियर प्लांट के अधिकारियों ने कुछ खास नहीं किया है. लोगों को लगता है कि उन्हें प्लांट शुरू होने के बाद यह क्षेत्र छोड़ना ही पड़ेगा चाहे उनकी ज़मीन न भी ली गई हो.

दूसरा सवाल रोज़गार का है. चुटका से कुछ किलोमीटर दूर पाठा गांव के सुभाष कुमार 35 साल में दो बार विस्थापित हो चुके हैं. साल 2000 में उन्होंने एक बार फिर से घर बनाया. पाठा गांव से सरकार किसी को विस्थापित नहीं कर रही लेकिन सुभाष को लगता है कि इस बार रोज़गार छिनने की वजह से उन्हें हटना पड़ेगा.

“कॉरपोरेशन वाले सुरक्षा कारणों से प्लांट की घेराबन्दी करेंगे और इससे मेरे लिये नदी में जाने के रास्ते बन्द हो जायेंगे. लगता है प्लांट के चालू होने के बाद मुझे एक बार फिर से परिवार समेत कहीं और जाना होगा.” मायूस सुभाष भर्राई आवाज़ में कहते हैं.