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पत्रकारिता पर बर्नी सांडर्स के विचार और विज़न
मीडिया के रूप और रवैए को लेकर बहस कोई नई घटना नहीं है, लेकिन भारत समेत दुनिया के विभिन्न लोकतांत्रिक देशों में पिछले कुछ सालों से यह बहस तेज़ हुई है. हमारे देश में ज़्यादातर ख़बरिया चैनलों और अख़बारों पर सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी का भोंपू होने का आरोप लगाया जा रहा है. यह कहना ग़लत नहीं होगा कि कई नामी चैनल और बड़े अख़बार बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, धुर-दक्षिणपंथ की पैरोकारी कर रहे हैं और कमज़ोर व वंचित तबक़ों की मुश्किलों से आंखें चुरा रहे हैं. विश्वसनीयता के संकट के साथ मीडिया के मालिकाना का मुद्दा भी इस बहस का हिस्सा है. अफ़सोस की बात है कि इस बहस का दायरा सीमित है और हमारी राजनीति में इस मसले पर कोई चिंता नहीं है. लेकिन यूरोप और अमेरिका में राजनीति से जुड़े प्रमुख लोगों ने मीडिया के गिरते स्तर तथा सत्ता व कॉरपोरेट जगत से उसकी सांठगांठ पर न सिर्फ़ सवाल उठाया है, बल्कि इसमें सुधार के उपाय भी सुझाए हैं. वे चर्चे हमारे लिए भी बहुत प्रासंगिक हो सकते हैं क्योंकि समस्याएं एक जैसी हैं.
कुछ ही दिन पहले अमेरिकी सीनेटर बर्नी सांडर्स ने ‘कोलंबिया जर्नलिज़्म रिव्यू’ में मौजूदा मीडिया की हालत और उसकी बेहतरी के उपायों पर एक लेख लिखा है. इस लेख को अमेरिका और यूरोप में अनेक अख़बारों और वेबसाइटों पर भी प्रकाशित किया गया है. सांडर्स अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेट पार्टी की ओर से उम्मीदवारी पाने की दौड़ में थे, लेकिन हिलेरी क्लिंटन उम्मीदवारी हासिल करने में कामयाब रही थीं. सांडर्स को तब अमेरिका के 50 में से 23 राज्यों में हिलेरी क्लिंटन से अधिक समर्थन मिला था तथा उनके पिछड़ने के कारणों में पार्टी के विवादास्पद निर्णयों और रवैए का भी योगदान माना जाता है. वे सबसे अधिक लोकप्रिय और भरोसेमंद अमेरिकी राजनेताओं में शुमार हैं. अगले साल के चुनाव में वे एक बार फिर डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी की दौड़ में है.
बर्नी सांडर्स ने अपने लेख की शुरुआत प्रसिद्ध पत्रकार वॉल्टर क्रोंकाइट के बयान से की है कि लोकतंत्र के लिए पत्रकारिता आवश्यक है. क्रोंकाइट 1960 और 1970 के दशक में अमेरिका की सबसे विश्वसनीय आवाज़ों में से एक थे. सांडर्स ने लिखा है कि वॉल स्ट्रीट, अरबपति कारोबारियों, सिलिकन वैली और डोनाल्ड ट्रंप का पत्रकारिता पर हमला एक संकट को इंगित करता है और हमें इस बाबत ठोस क़दम उठाना चाहिए. वे कहते हैं कि आज की मीडिया पर हावी गॉसिप, पंडिताई और क्लिकबैट से असली पत्रकारिता भिन्न है.
सांडर्स ने मशहूर अख़बार प्रकाशक जोसेफ़ पुलित्ज़र के बयान को उद्धृत किया है कि पत्रकारिता को ग़रीबों का पक्षधर होना चाहिए, निर्भय होना चाहिए और अपनी आज़ादी को बनाए रखना चाहिए. पत्रकारिता के पतन के एक कारण के रूप में उन्होंने अनेक अख़बारों और चैनलों के उन्हीं ताक़तों द्वारा निगलने को चिन्हित किया है, जो अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भी लूट रहे हैं. उदाहरण के तौर पर उन्होंने सिलिकन वैली के दो कॉरपोरेशनों- फ़ेसबुक और गूगल- का हवाला दिया है, जो पूरे डिजिटल विज्ञापन बाज़ार के 60 फ़ीसदी को नियंत्रित करते हैं तथा समाचार संगठनों से विज्ञापन की कमाई को अपने हिस्से में ले आते हैं.
एक कारोबारी संस्था न्यूज़ मीडिया अलायंस के अध्ययन के मुताबिक, 2018 में एक तरफ़ जहां अख़बारों की कमाई में गिरावट आयी, वहीं गूगल ने ऐसी रिपोर्टिंग पर 4.7 अरब डॉलर कमाया, जिसके लिए उसने कोई ख़र्च नहीं किया था.
आगे उन्होंने बताया है कि अमेरिका में बीते 15 सालों में 14 सौ से ज़्यादा समुदायों के अख़बार बंद हो गए. स्थानीय टेलीविज़न, रेडियो और वेबसाइट रिपोर्टिंग के लिए इन अख़बारों पर निर्भर होते थे. साल 2008 के बाद 28 हज़ार मीडियाकर्मियों के पद ख़त्म हो चुके हैं. पिछले साल मीडिया इंडस्ट्री से 32 सौ लोग निकाले गए. आज हालत यह है कि पत्रकारों से छह गुना अधिक लोग पब्लिक रिलेशन का काम कर रहे हैं. सांडर्स का कहना है कि स्वास्थ्य सेवा संकट, जलवायु संकट और आर्थिक विषमता के बारे में रिपोर्टिंग करने वाले लोगों की ज़्यादा ज़रूरत है, न कि करोड़ों डॉलर पाने वाले टेलीविज़न पंडितों की, जो तुच्छ राजनीतिक गॉसिप पर ज्ञान बघारते हैं.
सांडर्स ने डोनाल्ड ट्रंप को आड़े हाथों लेते हुए लिखा है कि उनके झूठ पर अंगुली उठानेवाले पत्रकारों को वे भला-बुरा कह कर स्वतंत्र मीडिया की अवधारणा पर हमलावर हो रहे हैं. लेकिन वे यह भी कहते हैं कि सिर्फ़ ट्रंप का विरोध करने से पत्रकारिता की समस्या दूर नहीं होंगी. इसके लिए हमें मुट्ठी भर धनकुबेरों के मीडिया पर दख़ल को चुनौती देनी होगी. वे कहते हैं कि आख़िर दवा कंपनियों से सालाना 4.5 अरब डॉलर कमाने वाले चैनल बदहाल स्वास्थ्य सेवा के बारे में क्यों रिपोर्टिंग करेंगे. जीवाश्म ईंधन उद्योग के विज्ञापनों के साथ भी यही है, सो जलवायु संकट की ख़बरें दबा दी जाती हैं.
इस संदर्भ में 2016 में प्रकाशित बर्नी सांडर्स की किताब ‘आवर होम: ए फ़्यूचर टू बिलीव इन’ के एक लेख का उल्लेख ज़रूरी है. उसमें वे लिखते हैं कि मीडिया का मतलब सिर्फ़ यह नहीं है कि क्या छापा या दिखाया गया और यह कैसे किया गया, बल्कि यह भी अहम है कि क्या नहीं छापा या दिखाया गया. इस बारे में फ़ैसले किसी आसमान में नहीं होते, इन्हें आदमी ही तय करते हैं और अक्सर इसमें उनका स्वार्थ छुपा होता है.
इस बारे में वे अनेक उदाहरण देने के बाद लिखते हैं कि 1983 में अमेरिका के 50 सबसे बड़े कॉरपोरेशनों के पास मीडिया के 90 फ़ीसदी हिस्से का नियंत्रण था. आज ऐसे कॉरपोरेशनों की तादाद घटकर सिर्फ़ छह रह गयी है, जो 90 फ़ीसदी मीडिया का मालिकाना रखते हैं. ये छह कॉरपोरेशन हैं- कॉमकास्ट, न्यूज़ कॉर्प, डिज़्नी, वायाकॉम, टाइम वार्नर और सीबीएस. उन्होंने फ़ोर्ब्स पत्रिका के एक लेख का भी हवाला दिया है, जिसमें उन 15 खरबपतियों के बारे में बताया गया है, जो अमेरिका की न्यूज़ मीडिया कंपनियों के मालिक हैं.
‘कोलंबिया जर्नलिज़्म रिव्यू’ के लेख में बर्नी सांडर्स ने यह भी बताया है कि अगर वे अमेरिका के राष्ट्रपति बनते हैं, तो पत्रकारिता की स्थिति सुधारने के लिए क्या पहल करेंगे. स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्र मीडिया को बढ़ावा देने के साथ वे बड़ी मीडिया कंपनियों के विलय पर रोक लगाने की बात कह रहे हैं. वे मीडिया स्वामित्व के नियमों में भी बदलाव तथा एकाधिकार तोड़ने का वादा कर रहे हैं. वे मीडिया संस्थानों में स्त्रियों और गैर-श्वेत लोगों के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की दिशा में क़दम उठायेंगे. सांडर्स सिलीकन वैली की बड़ी कंपनियों द्वारा मीडिया संस्थानों की कमाई हड़पने पर भी रोक लगाने के लिए नियमन करेंगे.
बर्नी सांडर्स की तरह ब्रिटेन में लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कॉर्बिन भी भारी-भरकम मीडिया संस्थानों की ताक़त और मोनोपोली को कमतर करने के हिमायती रहे हैं. पिछले साल अगस्त में उन्होंने इस संबंध में अपने विचार व्यक्त कर ब्रिटिश राजनीति और मीडिया में बड़ी बहस छेड़ दी थी. वे प्रतिष्ठित पब्लिक मीडिया संस्थान बीबीसी को अधिक स्वायत्तता देना चाहते हैं ताकि वह सरकार के दबाव से पूरी तरह मुक्त हो सके. वे सूचनाओं के सार्वजनिक करने से संबंधित क़ानूनों में भी बदलाव लाना चाहते हैं. लेबर पार्टी स्थानीय और जनहित में पत्रकारिता करनेवाली संस्थाओं को चैरिटी नियमन के तहत लाना चाहते हैं ताकि उन्हें वित्तीय संसाधन जुटाने में मदद मिल सके.
कॉर्बिन भी बड़ी टेक कंपनियों द्वारा भारी कमाई पर सवाल उठाते रहते हैं. उनका विचार है कि इन कंपनियों से विशेष अधिभार वसूला जाए और इस आय को एक स्वतंत्र कोष बनाकर अच्छी पत्रकारिता की मदद की जाए. लेबर पार्टी मीडिया कम्पनियों के मालिकों पर भी अधिक कर लगाने की चेतावनी दे चुकी है.
इस चर्चा में यह भी संज्ञान लिया जाना चाहिए कि अमेरिका और ब्रिटेन में मीडिया में किस पार्टी और नेता को कितना कवरेज मिलता है तथा किन मुद्दों पर फ़ोकस किया जाता है, इसका भी हिसाब लगाया जाता है.
बर्नी सांडर्स ने अपनी किताब में इस पहलू का उल्लेख करते हुए कहा है कि मीडिया कवरेज मतदाताओं को प्रभावित करने में बड़ी भूमिका निभाता है. इस संबंध में अनेक अकादमिक काम भी हुआ है और सर्वेक्षणों में भी यह बात सामने आयी है. धुर दक्षिणपंथ की बढ़त और घृणाजनित हिंसा की घटनाओं में बढ़ोतरी के माहौल में यूरोप और अमेरिका में अब बहस का एक मुद्दा यह भी है कि मीडिया कवरेज, पत्रकारों की भाषा और लेखों व बहस के विषयों के चुनाव से धुर दक्षिणपंथियों की उग्रता को बढ़ावा मिल रहा है.
भारत में भी अब मीडिया से जुड़े मसलों पर खुलकर चर्चा करने की ज़रूरत है, ख़ासकर राजनीतिक गलियारों में.
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