Newslaundry Hindi
भारतीय बौद्धिक चेतना पर वार
प्रतिष्ठित ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लैंसेट में कश्मीर की वर्तमान स्थिति पर छपे एक सम्पादकीय लेख ने भारत में खलबली मचा दी.
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) और इंडियन एसोसिएशन ऑफ़ सर्जन्स ने इसकी आलोचना करते हुए कहा है कि जर्नल भारत के आतंरिक मामले में ‘अवांछित’ हस्तक्षेप कर रहा है.
आईएमए ने लैंसेट के एडिटर-इन-चीफ, डॉ रिचर्ड हॉर्टन को लिखे एक पत्र में मजाकिया अंदाज में कहा, “भारत की सम्पूर्ण चिकित्सा बिरादरी की तरफ से इंडियन मेडिकल एसोसिएशन लैंसेट से वो सम्मान वापस लेता है जो उसे पहले दिया जाता था.”
किसी जर्नल से सम्मान वापस लेने का निर्णय लेने वाला संगठन बौद्धिक परिपक्वता के मामले में कहां खड़ा है, इस विषय पर दोनों संस्थाओं और उनके सदस्यों को गंभीरता से विचार करना चाहिए. मुझे यहां ये बताने की जरूरत नहीं है कि किसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ऐसे अजीब, अपरिपक्व बयान देने से पहले आम सहमति बनानी चाहिए.
भारत जैसे विविधता वाले देश में आईएमए के पास सम्पूर्ण चिकित्सा बिरादरी की ओर से ‘सम्मान वापस लेने’ जैसा बयान देने का कोई अधिकार नहीं है. मुझे इस बात में संदेह लगता है कि आईएमए ने लैंसेट पर हमला बोलने से पहले देश भर में फैले अपने तीन लाख सदस्यों से किसी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के तहत आम सहमति बनाने का प्रयास किया होगा. दुर्भाग्यवश, भारत में सर्वसम्मति बनाने की संस्कृति अब तेजी से ख़त्म होती जा रही है लिहाजा आईएमए से इस तरह की उम्मीद करना भी मूर्खता होगी.
मेडिकल एसोसिएशन की दागी राजनीति
भारत के तमाम मेडिकल एसोसिएशनों भ्रष्ट और कुटिल राजनीति किसी से छिपी नहीं है. परिवारवाद, सामंती सोच और भ्रष्टाचार की बीमारी से ये संस्थाएं बुरी तरह पीड़ित हैं. चिकत्सा सम्मेलनों की मेजबानी में पैसे का गबन और संगठनात्मक चुनावों को प्रभावित करने के लिए छल-फरेब करना आम बात है. इस संस्कृति का एक चमकता उदाहरण, आईएमए के अध्यक्ष और पूर्ववर्ती मेडिकल कॉउन्सिल ऑफ़ इंडिया के प्रमुख, डॉ केतन देसाई का मामला है जिन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार किया गया था.
विडंबना यह है कि यह समाचार भी एक अन्य ब्रिटिश प्रकाशन ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ था. मुझे पता नहीं कि उस वक्त भी आईएमए के ‘आत्मसम्मान’ को इसी तरह से ठेस लगी थी या नहीं.
दूसरा महत्वपूर्ण सवाल जो कि कई लोगों ने उठाया कि चिकित्सा (और मेडिकल जर्नल भी) को वर्तमान की राजनीति से दूर रखना चाहिए या नहीं? इस पर गंभीर विचार-विमर्श और स्पष्ट सोच की आवश्यकता है. छत्तीसगढ़ के मशहूर डॉक्टर-एक्टिविस्ट डॉ बिनायक सेन के कारावास के दौरान मैंने खुद देश के कई मेडिकल / सर्जिकल जर्नलों के सम्पादकों से व्यक्तिगत रूप से संपर्क किया था और उनको स्थिति समझाई थी और उनके प्रकाशनों में सम्पादकीय या लेख छापने का आग्रह किया था.
दुर्भाग्यवश, उस समय अधिकांश भारतीय जर्नलों ने ऐसा करने से मना कर दिया था. मजे की बात यह थी कि ज्यादातर ने एक जैसा ही तर्क दिया- कि डॉक्टरों को राजनीति में नहीं पड़ना चाहिए.
कुछ लोगों ने विचित्र तर्क दिए. उनका मानना था कि डॉक्टरों को राजनीतिक विचारधाराओं से परहेज करना चाहिए खासकर उनसे जो सत्ताधारी पर सवाल उठाते हों. सीधे शब्दों में, चिकित्सा बिरादरी के लोगों को, चाहे वो सत्ता के पक्षधर हों, राजनीतिक रूप से तटस्थ होना चाहिए.
डॉक्टरों की राजनीतिक तटस्थता केवल तब तक ही बनी रहती है जब तक वे खुद अन्याय का सामना नहीं करते.
इस प्रकार, वही आईएमए जो कभी आदिवासियों, मुस्लिमों या दलितों के खिलाफ हिंसा पर आंसू नहीं बहाता, लेकिन वो तब अचानक से सक्रिय हो जाता है जब पश्चिम बंगाल में डॉक्टरों के खिलाफ हिंसा होती है. आईएमए का अपने पश्चिम बंगाल के सदस्यों के लिए खड़ा होना प्रशंसनीय है, लेकिन मेरे लिए यह समझ पाना मुश्किल है कि यही संस्था मुंबई की डॉ पायल तड़वी की जाति-आधारित आत्महत्या पर या देश के अन्य हिस्सों में लगातार डॉक्टरों पर हो रही हिंसा पर एक निंदा प्रस्ताव जारी करने भी क्यों विफल रहा.
डॉक्टरों के लिए वैचारिक/ राजनीतिक पक्ष लेना आवश्यक है. साथ ही, लोकतान्त्रिक लोकाचार के लिए यह भी जरूरी है कि जो लोग वैज्ञानिक शिक्षा और इसके प्रचार में शामिल हैं वो असुविधाजनक स्थिति में भी उचित राजनीतिक टिप्पणी करें. डॉक्टरों को सिर्फ सामाजिक-ऐतिहासिक कारणों की वजह से राजनीतिक होना चाहिए.
आयरलैंड में जन्मे एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी के खोजकर्ता, डॉ जॉन डी बर्नल ने विज्ञान के सामाजिक कार्यों, जिसमें वैज्ञानिकों के जीवन में राजनीति की भूमिका भी शामिल है, पर काफी कुछ लिखा था. वे मानते थे कि बिना दर्शन और राजनीति के, विज्ञान ठीक से नहीं चल सकता. उन्होंने दार्शन और राजनीति की उन धारणाओं को मानने से इनकार कर दिया था जो इन तीनों को अलग-अलग देखा जाता है.
जर्मन नाटककार, कवि और दार्शनिक, बर्तोल्त ब्रेख्त ने भी राजनीतिक अज्ञानता की तीखी आलोचना की है:
“सबसे बड़ा अनपढ़ वो है जो राजनीतिक रूप से अनपढ़ है. वह न सुनता है, न बोलता है, न ही राजनीतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेता है. उसको यह तक नहीं पता कि आंटे का, मछली का, किराये का, जूतों का और दवाओं यहां तक कि जीवन का मूल्य भी राजनीति पर निर्भर करता है. राजनीतिक रूप से अनपढ़ व्यक्ति इतना मूर्ख होता है कि वह इस बात को बड़े गर्व से बोलता है कि उसे राजनीति से नफरत है.”
हमारे देश के राजनीतिक रूप से तटस्थ डॉक्टरों के लिए इससे बड़ी कोई सच्चाई नहीं हो सकती.
खैर, लैंसेट ने अपने सम्पादकीय में जो प्रकाशित किया है उसे समझना जरूरी है. इसमें अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के दौरान संचार साधनों पर रोक और मानवाधिकारों के हनन की बात की गई है. असल में, इस लेख में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय द्वारा मानवाधिकारों के हनन पर 8 जुलाई, 2019 को जारी की गई रिपोर्ट का जिक्र है जो कि 5 अगस्त, 2019 से पहले का है.
मुझे नहीं पता कि आईएमए के किसी भी अधिकारी ने एक बार भी यह सोचा होगा कि जब लेख में यूएनएचआर का सन्दर्भ दिया गया है उसके बाद उनके बयान का क्या प्रभाव हो सकता है. इस लेख में कश्मीर के अच्छे स्वास्थ मानकों के बारे में भी बात की गई है, वो भी पूरे देश के मानकों से तुलना करके. ऐसा लगता है कि आईएमए इस बात से व्यथित है कि लैंसेट ने भारत के आंतरिक मामले में दखल देने का साहस दिखाया है.
यह बिल्कुल निरर्थक है. आंतरिक मामला तब ‘आंतरिक मामला’ नहीं रह जाता जब उनमें बुनियादी मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है, जैसा कि कश्मीर में हुआ. ऐसे कई उदाहरण हैं जब इस तरह की घटनाओं पर पूरा गुस्सा या चिंता जता चुका है.
चीन के थियेनआनमेन चौक में लोकतंत्र के समर्थकों पर कार्रवाई, यमन में युद्ध के दौरान बच्चों की मौत, सीरिया में शरणार्थी संकट, पाकिस्तान की स्वात घाटी में लड़ाई कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं. असल में, आईएमए को यह पता होना चाहिए कि लैंसेट का स्वास्थ्य क्रांति और राजनीतिक मुद्दों पर लिखने का पुराना इतिहास रहा है और उसने उपरोक्त लगभग सभी सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं पर सम्पादकीय छापे हैं.
आईएमए को यह समझना चाहिए कि एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था सिर्फ अन्धराष्ट्रभक्ति से नहीं बनती बल्कि उसके लिए स्वास्थ्य पर सरकारी नीतियों की आलोचना, उनका मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन जरूरी है. राजनीति डॉक्टर का एक अभिन्न अंग है. राजनीति से अनभिज्ञ होने का मतलब है लोगों के स्वास्थ्य से अनभिज्ञ होना.
(शाह आलम खान एम्स, नई दिल्ली में ऑर्थोपेडिक्स के प्रोफेसर हैं और अनॉउंसिंग द मॉन्स्टर किताब के लेखक हैं.)
Also Read
-
100 rallies, fund crunch, promise of jobs: Inside Bihar’s Tejashwi Yadav ‘wave’
-
What do Mumbai’s women want? Catch the conversations in local trains’ ladies compartment
-
Another Election Show: What’s the pulse of Bengal’s youth? On Modi, corruption, development
-
एनएल चर्चा 319: मुंबई होर्डिंग हादसा, स्वाति मालीवाल विवाद और मोदी का हिंदू-मुस्लिम संकट
-
Hafta 485: Political ads, Amethi-Rae Bareli fight, Kejriwal’s return