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छठवीं क़िस्त: ‘तिरंगा उठाने वाले बचे-खुचे लोगों को भी अपना दुश्मन बना दिया भारत ने’
“च्यून एज़त – म्यून एज़त, त्रेहथ सतथ – त्रेहथ सतथ’ यानी कि ‘तेरी इज़्ज़त – मेरी इज़्ज़त, 370 – 370.’ ये नारा कश्मीर की मुख्यधारा की राजनीति का सूत्र-वाक्य हुआ करता था. यहां के तमाम नेता इस नारे से ही लोगों को चुनावों में वोट देने के लिए प्रेरित भी करते थे और उन्हें विश्वास भी दिलाते थे कि जब तक अनुच्छेद 370 है तब तक कश्मीर के लोगों के अधिकार, उनकी पहचान और उनका आत्म-सम्मान सुरक्षित है. नेशनल कॉन्फ़्रेंस से लेकर पीडीपी तक तमाम पार्टियां कश्मीरी लोगों को जो न्यूनतम दे सकती थी वो यही था कि वे 370 पर कोई आंच नहीं आने देंगी. 370 यहां की मुख्यधारा की राजनीति की रीढ़ थी. अब ये रीढ़ ही टूट गई है तो मुख्यधारा की राजनीति का भविष्य क्या होगा, आप समझ सकते हैं.”
कश्मीर पुलिस सर्विस (केपीएस) के एक युवा अधिकारी का ये जवाब इस सवाल पर आता है कि ‘अनुच्छेद 370 हटने के बाद यहां की राजनीति की तस्वीर कैसी होगी?’ अपने जवाब में ये अधिकारी आगे जोड़ते हैं, “भाजपा के लिए 370 उनकी नाक का सवाल था. इसके हटने से कश्मीर में क्या माहौल होगा, ये उनकी चिंता न पहले थी न अब है. पिछले कुछ दशकों में भाजपा ने देश की जनता को ये विश्वास दिला दिया था कि 370 ही कश्मीर की मूल समस्या है और इसके हटने से कश्मीर का मुद्दा सुलझ जाएगा. इसीलिए 370 के हटने से देश भर में जश्न मनाया जा रहा है. लेकिन कश्मीरियों के लिए 370 के मायने बहुत अलग थे. ये एकमात्र मुद्दा था जो लोगों को मुख्यधारा की राजनीति से जोड़ता था और अलगाववादियों की उग्र मांगों से बचे रहते हुए उन्हें चुनावों में भाग लेने को प्रेरित करता था.”
कश्मीर के लोग भी अब नहीं जानते कि आने वाले समय में उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व कैसा होगा. अनुच्छेद 370 हटने के बाद उन्हें इतना तो मालूम है कि अब जम्मू-कश्मीर एक ऐसा केंद्र शासित प्रदेश होगा जिसकी अपनी विधानसभा होगी लेकिन इस विधानसभा में कौन लोग होंगे, ये कोई नहीं जानता. घाटी के तमाम मुख्यधारा के नेता अभी या तो जेलों में हैं या अपने ही घरों में नज़रबंद कर दिए गए हैं. उन्हें न तो अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से मिलने दिया जा रहा है और न ही अपने परिजनों से. मोबाइल, इंटरनेट और फ़ोन जैसे संपर्क के तमाम माध्यम भी ठप पड़े हैं लिहाज़ा कोई भी दल अपना राजनीतिक स्टैंड जनता तक नहीं पहुंचा पा रहा है. ऐसे में जनता अपने प्रदेश के राजनीतिक भविष्य के सिर्फ़ क़यास ही लगा रही है और इसमें भी निराशा का भाव ही ज़्यादा है.
उमर अब्दुल्ला, तस्वीर साभार- @JKNC
मीर आगे कहते हैं, “आज की तारीख़ में पूरे कश्मीर में फ़ारूख अब्दुल्ला से बड़ा हिंदुस्तानी तो कोई दूसरा नहीं था घाटी में. वो खुल कर पाकिस्तान की बुराई करता था, भारत की तरफ़दारी करता था और हमेशा भारतीय होने की बात करता था. जब भारत ने उसी को धोखा दे दिया तो बाक़ी कश्मीरियों का कैसे होगा?”
ख़ुर्शीद अहमद मीर जो बात कह रहे हैं वो इन दिनों लगभग हर कश्मीरी की ज़ुबान पर चढ़ी हुई है. हर दूसरा व्यक्ति ये कहते मिलता है कि ‘शेख़ अब्दुल्ला ने भारत से हाथ मिलाकर बहुत बड़ी भूल की थी और ये आज भारत की सरकार ने ख़ुद साबित कर दिया.’ मुख्यधारा की पार्टियों के प्रति रोष भी लोगों में ख़ूब देखा जा रहा है.
उमर अब्दुल्ला की गिरफ़्तारी और उन पर पीएसए (पब्लिक सेफ़्टी ऐक्ट) लगाए जाने की सम्भावना पर यहां के अधिकतर लोग कहते मिलते हैं कि ‘उमर अब्दुल्ला पर पीएसए लग ही जानी चाहिए. आख़िर उन्हें भी पता चले कि जो पीएसए उसके दादा यहां लेकर आए उस काले क़ानून ने कैसे हज़ारों कश्मीरी नौजवानों को कई-कई साल जेलों में क़ैद रखा. अब वही क़ानून अब्दुल्ला परिवार को झेलना पड़े तो बेहतर ही है.’
जम्मू कश्मीर के तमाम नेता फारुख अब्दुल्ला के आवास पर. तस्वीर साभार- @JKNC
ऐसा ही रोष लोगों में घाटी की दूसरी बड़ी पार्टी पीडीपी के प्रति भी है जो कुछ समय पहले तक भाजपा के साथ ही सरकार में शामिल थी. यहां अधिकतर लोग मान रहे हैं कि आने वाले समय में जो विधानसभा चुनाव होंगे उनमें ये दोनों ही मुख्य पार्टियां चुनावों का बहिष्कार करते हुए इसमें भाग नहीं लेंगी. ऐसे में संभावना ये बनेगी कि कई सीटों पर निर्विरोध ही कोई चुना जाएगा तो कहीं एक-दो प्रतिशत वोटिंग होने पर भी विधायक बना दिए जाएंगे. बारामूला के पूर्व मेयर रियाज़ नागू कहते हैं, “जैसा पंचायत चुनावों में हुआ वैसा ही अब विधानसभा में होगा. अपने ही लोगों को चुनाव में उतार कर ये सरकार बना तो लेंगे लेकिन ऐसी सरकार बस नाम की ही होगी, जनता को उससे कोई लेना-देना नहीं होगा.”
रियाज़ नागू की ही तरह कश्मीर के कई लोग मानते हैं कि आने वाले वक़्त में जो भी सरकार कश्मीर में बनेगी, उसे जनता का न्यूनतम समर्थन ही प्राप्त होगा. पुलवामा के रहने वाले और केसर के बड़े व्यापारी शकील अहमद कहते हैं, “यहां तो पहले भी लोग सरकार से ज़्यादा हुर्रियत की सुनते थे. हुर्रियत अगर हड़ताल की कॉल देती थी तो पूरा कश्मीर बंद होता था जबकि सरकार के लाख कहने पर भी उनकी सुनने वाला कोई नहीं था. अब तो हुर्रियत पहले से भी ज़्यादा मज़बूत होगी क्योंकि मुख्यधारा के जिन नेताओं का थोड़ा-बहुत जनाधार था वो भी 370 हटने के बाद नहीं रहा है. चुनाव और मुख्यधारा के नेता फ़िलहाल यहां अप्रासंगिक हो गए हैं.”
चुनाव और अन्य संवैधानिक प्रक्रियाओं के प्रति मोहभंग इन दिनों लगभग हर कश्मीरी में देखा जा सकता है. श्रीनगर हाईकोर्ट में वकालत करने वाले वसीम अहमद कहते हैं, “संवैधानिक प्रक्रिया से यहां के लोगों का मोहभंग क्यों न हो? कश्मीर को दुनिया की सबसे ज़्यादा सैन्य तैनाती वाला युद्ध क्षेत्र बनाकर, यहां के लोगों को घरों में क़ैद करके, कर्फ़्यू घोषित करके और इंटरनेट-मोबाइल जैसे सभी साधन काट कर उनके भविष्य का फ़ैसला तमाम संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर दिल्ली से सुना दिया जाता है और आप इसे गणतंत्र कहते हैं? ये खुले-आम तानाशाही है. इसे भी अगर संविधान का हवाला देकर जायज़ ठहराया जा रहा है तो ऐसे संविधान पर कोई कश्मीरी कैसे भरोसा करे?”
कश्मीर घाटी में पहले भी चुनावों के प्रति लोगों में ज़्यादा उत्साह नहीं रहता था. अलगाववादी लगातार चुनावों का बहिष्कार करते थे और बड़ी संख्या में लोग उनकी बात मानते भी थे. लेकिन इसके बावजूद भी कश्मीर की मुख्यधारा की राजनीति को कई लोग उम्मीद से देखते थे और पूर्व आईएएस अधिकारी शाह फ़ैसल इस बात के सबसे बड़े प्रतीक हैं जिन्होंने कुछ समय पहले ही अपनी सिविल सेवा की नौकरी से इस्तीफ़ा देकर राजनीति में क़दम रखा था.
जम्मू कश्मीर सरकार में कुछ साल पहले ही अपर निदेशक नियुक्त हुए श्रीनगर निवासी तारिक शेख़ कहते हैं, “बीते कुछ सालों में यहां के युवा मुख्यधारा की राजनीति में ज़्यादा दिलचस्पी लेने लगे थे. शाह फ़ैसल के राजनीति में आने से भी कई युवा प्रेरित हुए थे. मैं ख़ुद इस साल की शुरुआत में सोच रहा था कि सरकारी नौकरी छोड़ कर राजनीतिक जीवन शुरू करूं क्योंकि लोगों में भी युवाओं की स्वीकृति ज़्यादा है. लेकिन केंद्र सरकार के इस एक फ़ैसले ने प्रदेश की मुख्यधारा की राजनीति को पूरी तरह ग़ैरज़रूरी बना दिया है. अब कश्मीरी अवाम को राजनेता पहले से ज़्यादा ग़ैरज़रूरी लग रहे हैं और अलगाववादी पहले से ज़्यादा सही.”
कश्मीर में कई लोग ये भी मान रहे हैं कि अनुच्छेद 370 हटाने के फ़ैसले ने कश्मीर के नेताओं को एक तरह से आपस में जोड़ने का काम भी किया है. पूर्व कांग्रेसी ख़ुर्शीद अहमद मीर कहते हैं, “पहले यहां हर पार्टी का अपना अलग एजेंडा होता था लेकिन अब हर पार्टी का एक ही एजेंडा हो चुका है. आप देखते जाइए अब तो अलगाववादी और मुख्यधारा के नेता भी एक होंगे. 370 हटने से आज़ादी की लड़ाई मज़बूत हुई है. यहां के कथित मुख्यधारा के नेता भी अब अगर खुलकर आज़ादी की पैरवी करें तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.”
अधिवक्ता वसीम अहमद की राय इससे कुछ अलग है. वे कहते हैं, “केंद्र सरकार किसी भी तरह से यहां जोड़-तोड़ से चुनाव तो करवा ही देगी. हो सकता है उन चुनावों में पांच-दस प्रतिशत मतदान भी न हो लेकिन कहने को तो विधायक चुन ही लिए जाएंगे. इसलिए सम्भव है कि एनसी और पीडीपी जैसी पार्टियां भी इनमें भाग लें क्योंकि बहिष्कार का मतलब तो भाजपा और उसके सहयोगी दलों को वॉकओवर देना ही होगा. हालांकि अब यहां सरकार चाहे जो भी बनाए, जनता की नब्ज़ अब सरकार से बाहर बैठे लोगों के हाथ में पहले से भी ज़्यादा होगी.”
पिछले बीस दिनों से कर्फ़्यू में क़ैद कश्मीर के कई इलाक़ों से अब विरोध प्रदर्शन और पत्थरबाज़ी की ख़बरें भी आने लगी हैं. इसके बाद भी सरकार लगातार ये बता रही है कि कश्मीर में ‘हालात सामान्य हो रहे हैं.’ इस पर सोपोर निवासी 24 वर्षीय जुनैद कहते हैं, “कश्मीर में हालात असामान्य किए किसने? क्या यहां के लोगों ने किए? यहां के लोगों को तो अपनी बात तक कहने का मौक़ा नहीं मिला है. ये हालात फ़िलहाल जो भी हैं, जैसे भी हैं दिल्ली सरकार ने ही किए हैं. लेकिन मीडिया में ऐसे दिखाया जा रहा है जैसे कश्मीरी लोगों ने हालात बिगाड़ रखे हैं. यहां के लोगों ने तो अब तक अपनी प्रतिक्रिया भी नहीं दी है क्योंकि अभी पूरा कश्मीर जेल बना दिया गया है.”
कश्मीर के सौरा में प्रदर्शन करती महिलाएं
अनुछेद 370 हटने के बारे में आप जैसे कश्मीरी नौजवान क्या सोचते हैं? इस सवाल के जवाब में जुनैद कहते हैं, “इस फ़ैसले ने क्या किया है, ये आने वाला वक़्त बता देगा. हम जब छोटे थे तब से आज़ादी के नारे सुन रहे हैं. लेकिन तब हमें कुछ भी पता नहीं होता था कि आज़ादी क्या है और हमें किससे आज़ादी चाहिए. लेकिन इस फ़ैसले ने यहां के बच्चे-बच्चे को बता दिया है कि आज़ादी क्या है और किससे आज़ादी चाहिए. आप ख़ुद सोचिए कि बिना कुछ किए जब बीते दो हफ़्तों से घरों में क़ैद बच्चे अपने मां-बाप से पूछते होंगे कि हम ऐसे क्यों बंद हैं तो घर वाले क्या जवाब देते होंगे? रुकिए, आप ख़ुद किसी बच्चे से पूछ लीजिए.”
ये कहने के साथ ही जुनैद पास खड़े एक सात-आठ साल के बच्चे को बुलाकर पूछते हैं, ‘हम क्या चाहते?’
बच्चा जवाब देता है- ‘आज़ादी’.
जुनैद आगे पूछते हैं, ‘किससे आज़ादी चाहिए और क्यों चाहिए आज़ादी?’
बच्चा कहता है, ‘इंडिया से चाहिए. इंडिया ने ज़ुल्म किया है और धोखा दिया है.’
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