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ख़य्याम : ‘बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों मुहब्बतों के दिये जला के’

ख़य्याम के संगीत में एक ख़ास क़िस्म की रवानगी थी, जो उनके दूसरे समकालीनों से सर्वथा भिन्न थी. वे पहले ऐसे संगीतकार के रूप में जाने जाते हैं, जिनके यहां पहली बार पहाड़ के सौंदर्य का रूप निर्धारण करने में वहां के लोक-संगीत का निहायत मौलिक प्रयोग किया गया. उन्होंने कुल्लू की वादियों में बजने वाले वहां के देशज वाद्यों से उठने वाली नितांत देसी आवाज़ों को अपने संगीत में समाहित किया, जिसके चलते पहाड़ी धुनों में रची जाने वाली उनकी अधिकांश मोहक रचनाओं में वहां के घरेलूपन की अनुगूंजें सुनाई पड़ती हैं. यह ख़य्याम का सबसे प्रतिनिधि स्वर रहा है, जो लगभग हर दूसरी फ़िल्म में उनकी धुनों के माध्यम से व्यक्त भी हुआ. कई बार यह भी देखा गया है कि लोकधुनों एवं पहाड़ के प्रति अपने अगाध प्रेम के चलते उनके संगीत में एक हद तक एकरसता भी पाई गई.

दरअसल, ख़य्याम संगीत की पाठशाला के ऐसे चितेरे रहे हैं, जिनके यहां कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति अपने सबसे उदात्त अर्थों में संभव हुई. वे भावुकता की हद तक चले जाने का जोखिम उठाकर कोमलता को इतने तीव्रतम स्तर पर जाकर व्यक्त करते थे कि सुनने वाले को जहां एक ओर उनकी धुनों में माधुर्य के साथ चरम मुलायमियत के दर्शन होते थे, वहीं कई बार उनकी शैली पिछले को दोहराती हुई थोड़ी पुरानी भी लगती थी. कई बार यह भी देखा गया है कि समकालीन अर्थों में व्याप्त संगीत को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करते हुए ख़य्याम बिल्कुल अपनी शर्तों पर स्वयं को संबोधित संगीत ही रचते रहे. शायद इसलिए भी कइयों को उनके संगीत के साथ सामंजस्य बनाने में दिक्कत होती है और कई बार उसकी बारीकियों को गंभीरता से समझने में वे चूक भी जाते हैं. 60 व 70 के दशक में जब शंकर जयकिशन, एसडी बर्मन, चित्रगुप्त, रोशन, ओ.पी. नैय्यर, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आरडी बर्मन, मदन मोहन एवं कल्याणजी-आनंदजी जैसे संगीतकार अपनी फ़िल्मों में काफ़ी हद तक युवाओं को ध्यान में रखकर अपना संगीत रच रहे थे. साथ ही उस संगीत में शोख़ी, मस्ती, चंचलता, रूमानियत और आनंद के ढेरों पल संजोने का एक फड़कता हुआ दौर सृजित करने में मसरूफ़ थे, तब उस समय ख़य्याम जैसे कलाकार अपनी सादगी भरी लोकरंजक धुनों के माध्यम से जिस वातावरण की सृष्टि करने में तल्लीन नज़र आए, उसमें सुकून, धीरज, और संजीदगी के आवरण में लिपटी अवसाद की महीन बुनावट का काम हो रहा था.

यह अकारण नहीं है कि इसी के चलते उस दौर में गंगा-जमुना, घराना, जंगली, संजोग, एक मुसाफ़िर एक हसीना, ज़बक़, बर्मा रोड, दिल ही तो है, बंदिनी, चित्रलेखा, गाईड, हक़ीक़त, लीडर, वो कौन थी, दिल दिया दर्द लिया, आम्रपाली, अनुपमा, वक्त, आए दिन बहार के, मेरे सनम जैसी तमाम ख़ूबसूरत संगीतमय फ़िल्मों के बरअक्स ख़य्याम उसी स्तर पर बिल्कुल नए मुहावरों में शांत क़िस्म का ज़हीन संगीत अपनी फ़िल्मों शोला और शबनम, फिर सुबह होगी, शगुन, मोहब्बत इसको कहते हैं एवं आखि़री ख़त के माध्यम से पेश कर रहे थे.

आशय यह कि बिल्कुल अलग ही धरातल पर थोड़े गम्भीर स्वर में रूमानियत का अन्दाज़ लिए हुए ख़य्याम की कम्पोज़ीशन्स हमसे मुख़ातिब होती है. वहां पर मौज़ूद धुनों की नाज़ुकी भी इसी बात पर टिकी रहती है कि किस तरह संगीतकार ने अपनी शैली के अनुरूप उसे अंडरटोन में विकसित किया है, जिससे शायरी और संगीत दोनों की ही कैफ़ियत पूरी तरह खिलकर सामने आई है. इस लिहाज़ से हमें उनके ढेरों ऐसे गीतों को याद करना चाहिए, जो अपनी संरचना में एक अनूठा विन्यास लिये हुए हैं. मसलन ‘है कली-कली के लब पर तेरे हुस्न का फ़साना’, ‘प्यास कुछ और भी भड़का दी झलक दिखला के’ (लाला रुख़) ‘रंग रंगीला सांवरा मोहे मिल गया जमुना पार’ (बारूद), ‘पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है’, ‘बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों मुहब्बतों के दिये जला के’ (शगुन), ‘जीत ही लेंगे बाज़ी हम-तुम खेल अधूरा छूटे ना’ (शोला और शबनम) एवं ‘बहारों मेरा जीवन भी संवारों’ (आखि़री ख़त) जैसे भाव में भीगे हुए अत्यंत मधुर गीतों पर ख़य्याम की कारीगरी देखते ही बनती है.

अपना मुहावरा स्थापित कर लेने के बाद ख़य्याम ने सत्तर और अस्सी के दशक में सर्वाधिक उल्लेखनीय संगीत दिया जो कई बार उनकी स्वयं की बनाई हुई पिछले समय की सुंदर कृतियों को भी पीछे छोड़ देता है. उपर्युक्त फ़िल्मों के संगीत से अलग इस संगीतकार ने संकल्प (1974), कभी-कभी (1976), शंकर हुसैन (1977), त्रिशूल (1978), चंबल की क़सम (1979), दर्द, उमराव जान (1981), बाज़ार (1982), रज़िया सुलतान (1983) एवं अंजुमन (1986) जैसी उत्कृष्ट फ़िल्मों से अपने संगीत में कुछ और मौलिक किस्म की स्थापनाएं पिरोईं.

यह देखना ज़रूरी है कि किस तरह शगुन (1964) से लेकर रज़िया सुलतान (1983) तक आते-आते ख़य्याम के यहां ग़ज़ल की संरचना में भी गुणात्मक स्तर पर सुधार हुआ और वह पहले की अपेक्षा कुछ ज़्यादा अभिनव ढंग से चमक कर निखर सकी.

इस दौरान ख़य्याम का संगीत कुछ ज़्यादा ही सहज ढंग से रेशमी होता गया है, जिसमें प्रणय व उससे उपजे विरह की संभावना को कुछ दूसरे ढंग की हरारत महसूस हुई है. ऐसा महीन, नाज़ुक सुरों वाला वितान, जो सुनते हुए यह आभास देता है कि वह बस हाथ से सरक या फिसल जाएगा; अपनी मधुरता में दूर तक बहा ले जाता है.

इसी मौलिकता को बरक़रार रखने के जतन में ख़य्याम अपनी धुनों को लेकर इतने चौकस हैं कि गलती से भी कहीं दूसरे प्रभावों या कि समवर्ती संगीतकारों की शैली से मिलती-जुलती कोई बात कहने में सावधान बने रहते हैं. शायद इसीलिए उनके हुनर से विकसित कोई प्रेम-गीत हो या ग़ज़ल, दर्द भरा नग़मा हो या फिर उत्सव का माहौल रचने वाला गाना- सब कुछ जैसे किसी गहन वैचारिकी के तहत अपना रूपाकार पाता है.

इस बात की पड़ताल के लिए हम आसानी से शंकर हुसैन, नूरी, कभी-कभी, संकल्प, रज़िया सुल्तान, उमराव जान, थोड़ी सी बेवफ़ाई और बाज़ार के गीतों से मुख़ातिब हो सकते हैं. अनायास ही इन फ़िल्मों के गाने अपनी शाइस्तगी को बयां करते हैं, जब कभी भी उनके चंद मिसरे या टुकड़े कानों में पड़ जाते हैं. ‘आप यूं फ़ासलों से गु़ज़रते रहे’, ‘अपने आप रातों में चिलमनें सरकती हैं’, (शंकर हुसैन), ‘तू ही सागर है तू ही किनारा’ (संकल्प), ‘अंग-अंग रंग छलकाए’ (सन्ध्या), ‘कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है’ (कभी-कभी), ‘ऐ दिले नादां’ (रज़िया सुल्तान), ‘इन आंखों की मस्ती के’ (उमराव जान), ‘हज़ार राहें मुड़ के देखीं’ (थोड़ी सी बेवफ़ाई), ‘देख लो आज हमको जी भर के’ (बाज़ार) एवं ‘गुलाब ज़िस्म का यूं ही नहीं खिला होगा’ (अंजुमन) जैसे कुछ गीत अपनी सांगीतिक बुनावट को अपनी संरचना के हर टुकड़े और पंक्ति में व्यक्त करते हैं.

ख़य्याम के सन्दर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी रेखांकित करने योग्य है कि उन्होंने अपने पूरे फ़िल्मी कॅरियर में नयी से नयी आवाज़ों को मौक़ा दिया. कई बार उन्होंने नयापन लाने के लिए कुछ ऐसी आवाज़ों का भी इस्तेमाल किया, जो गायन के लिहाज़ से एक प्रयोग ही माना जायेगा. जैसे, अंजुमन फ़िल्म के लिए अभिनेत्री शबाना आज़मी से बेहद सुर व लय में गीत गवाने का उपक्रम. यह ख़य्याम ही थे, जिन्होंने लता मंगेशकर, तलत महमूद, आशा भोंसले और मोहम्मद रफ़ी के अलावा जगजीत कौर, सुमन कल्याणपुर, सुलक्षणा पण्डित, हरिहरन, अनूप जलोटा, येसुदास, तलत अज़ीज, शब्बीर कुमार एवं कब्बन मिर्ज़ा से भी उतने ही बेहतरीन गीत गवाये हैं.

ख़य्याम के निधन से उस पीढ़ी का लगभग अन्त हो गया है, जो शास्त्रीय ढंग से पारम्परिक क़िस्म का संगीत संजोने में विश्वास करती थी. सलिल चैधरी, रोशन, जयदेव आदि की परम्परा के आखिरी सबसे हुनरमन्द संगीतकार का अवसान फ़िल्मी गीतों और ग़ज़लों की नायाब दुनिया को सूना कर गया है. हालांकि उनका किया हुआ गम्भीर और उत्कृष्ट काम हमेशा ही संगीत प्रेमियों को सुकून के साथ-साथ कुछ सीखने और नया करने के लिए आगे भी उजाला देता रहेगा.