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पांचवीं क़िस्त : क्या चल रहा है घाटी के अल्पसंख्यकों (कश्मीरी पंडित, सिख और बकरवाल-गुर्जर) के मन में

उत्तर कश्मीर के बारामुला शहर में जो चुनिंदा दुकानें खुली हैं उनमे से एक लक्ष्मी मेडिकल हॉल भी है. ये दुकान इसलिए भी ध्यान खींचती है क्योंकि यहां ऐसी दुकानें बिरले ही दिखती हैं, जिनके नाम से उनकी हिन्दू पहचान जाहिर होती है. लक्ष्मी मेडिकल हॉल के मालिक एक कश्मीरी पंडित हैं, जिनका नाम भवानी शंकर वली है. साल 1990 में जब तमाम कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ना पड़ा था तब भवानी शंकर भी अपने परिवार के घाटी छोड़कर जम्मू चले गए थे.

वो बताते हैं, “हम चले तो गए लेकिन हमारा सब कुछ यहीं था. बाहर जाकर गुज़ारा करना भी मुश्किल हो रहा था इसलिए साल 1992 में हम लोग हालात देखने वापस लौटे. तब हम पंद्रह दिनों तक यहां पुलिस लाइन में रहे थे. लेकिन इसी दौरान हमारे एक साथी को गोली मार दी गई जो कुछ समान लेने बाहर निकला था. इस घटना से हम समझ गए कि अभी हमारे लिए कश्मीर में कोई जगह नहीं हैं और हम एक बार फिर से वापस लौट गए लेकिन हालात कुछ बेहतर हुए तो साल 1996 में हम एक बार फिर लौटे और तबसे यहीं हैं.”

भवानी शंकर के साथ साल 1996 में दर्जनों कश्मीर पंडित घाटी वापिस लौटे थे. इनमें से अधिकतर तो अपनी संपत्ति बेचकर हमेशा के लिए चले गए. लेकिन सात-आठ परिवार यहीं रुक गए और वो आज भी यहां रहकर अपना व्यापार कर रहें हैं. लेकिन इन तमाम परिवारों की ज़िंदगी अब वैसी बिल्कुल नहीं रह गई जैसी 1990 के पहले हुआ करती थी. आज इस समय ये परिवार बारामुला के एक मंदिर में रहने को मजबूर हैं. इस मंदिर परिसर में छोटे- छोटे कमरे बने हुए हैं जहां ये लोग पिछले दो दशक से ज्यादा से रह रहे हैं. मंदिर में 24 घंटे सुरक्षा बलों का जबरदस्त पहरा रहता है.

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भवानी शंकर का अपना तीन मंज़िला मकान और कुछ ज़मीन आज भी बारामुला में है लेकिन उस पर अब सीआरपीएफ के जवान रहते हैं. सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून (आफस्पा) के तहत भवानी शंकर का मकान सीआरपीएफ के कब्ज़े में है जिसका उन्हें पच्चीस हज़ार रुपए सलाना किराया मिलता है. ये किराया 90 के दशक से इतना ही हैं. कभी बढ़ाया नहीं गया. भवानी शंकर खुद मंदिर परिसर के एक छोटे से कमरे में पिछले करीब 25 साल से रह रहे हैं.

इसी मंदिर परिसर में रहने वाले पुष्करनाथ गंजू की स्थिति और भी ज्यादा भयावह है. पुष्करनाथ जब साल 1996 में वापस कश्मीर लौटे तो उनका घर पूरी तरह से जलाया जा चुका था. इसके बाद उन्हें अपनी ज़मीन भी बेचनी पड़ी और तबसे वे अपनी पत्नी के साथ एक ऐसे कमरे में रहने को मज़बूर हैं जिसका क्षेत्रफल एक डबल बेड से भी कम है. बिल्कुल ऐसी ही स्थिति रमेश कुमार गंजू की भी है जो सात बाई सात फुट के कमरे में अपनी बीवी और अपनी मां के साथ रहने को मजबूर हैं. कभी इसी शहर में उनका बाईस कमरों वाला एक तीन मंज़िला मकान हुआ करता था. इन तमाम परिवारों में से सिर्फ भवानी शंकर ही एक ऐसे हैं जिनकी दुकान कर्फ्यू के इस दौर में भी खुली हैं क्योंकि वो मेडिकल का काम करते हैं.

रमेश कुमार कहते हैं, “हम लोग कपड़ों का व्यापार करते हैं इसलिए फिलहाल दुकानें नहीं खोल सकते. हमें भी यहां के स्थानीय लोगों के साथ मिलकर चलना होता है. फिलहाल हड़ताल है और सभी दुकानें बंद हैं तो हमें भी दुकान बंद ही रखनी पड़ती हैं.”

अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले ने इन लोगों में एक उम्मीद भरी है कि शायद आने वाले समय में यहां अन्य कश्मीरी पंडित भी वापस लौट सकेंगे और पंडितों की ओर प्रशासन  ज्यादा ध्यान देगा.

रमेश कुमार कहते हैं, “यहां चाहे जिसकी सरकार रही हो हमारी ओर कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया. हम दशकों से ऐसे कमरों में रह रहे हैं जो बकरियों के रहने वाले लायक भी नहीं हैं. हम ये चाहते हैं कि कश्मीरी पंडितों को झेलम के किनारे एक साथ बसाया जाए. एक ऐसी जगह हो जहां भारत माता की जय के नारे गूंजे और हमारा पुनन कश्मीर (अपना कश्मीर) का सपना पूरा हो सके.”

90 के दशक के बाद से कश्मीर में रहने का अनुभव साझा करते हुए भवानी शंकर बताते हैं, “1990 के दशक में जो हुआ वो भयानक था, लेकिन जबसे हम लौटे हैं यहां के लोगों ने बहुत मदद की है और हर सुख-दुःख में साथ दिया है. ऐसा कभी नहीं हुआ कि हमें पंडित होने कि कारण यहां असुरक्षा महसूस हुई हो या लोगों ने हमसे कोई भेदभाव किया हो.”

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स्थानीय लोगों के बारे में ऐसी ही राय उन कश्मीरी पंडितों को भी है जिन्होंने कभी कश्मीर नहीं छोड़ा और जो 90 के दशक में भी घाटी में ही रहे. ऐसा ही एक परिवार सोपोर से करीब तीन किलोमीटर दूर शिवांग गांव में रहता है. विनोद कुमार भट्ट के इस परिवार के बाद कश्मीरी पंडितों का पलायन न करने वाला परिवार पांच किलोमीटर दूर बुलगाम में मिलता हैं. 1990 से पहले सिर्फ सोपोर के बटकोरा इलाके में ही कश्मीरी पंडितों के सैंकड़ों परिवार रहा करते थे. लेकिन आज पूरे जिले में बमुश्किल दस-बारह कश्मीरी पंडित ही ऐसे मिलते हैं जिन्होंने आतंकवाद के चरम दौर में भी कश्मीर नहीं छोड़ा.

साल 1990 में विनोद कुमार 14 साल के थे. वो बताते हैं, “मुझे अच्छे से याद हैं तब जो जुलूस यहां से निकला करते थे उसमें ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान’ जैसे नारे गली-गली में गूंजते थे. वो बेहद खौफनाक दौर था. हम लोग भी तभी यहां से चले गए होते लेकिन पिताजी के कुछ पैसे फंसे हुए थे और पैसों के बिना जाना मुमकिन नहीं था. लिहाज़ा मज़बूरी में हम यहीं रुक गए. लेकिन हमारे आस पास के लोगों ने कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया कि हम यहां अल्पसंख्यक हैं और हमें यहां कोई ख़तरा हो सकता है.’’

“साल 2007 में जब मेरे पिताजी की मौत हुई तो दस हज़ार से ज्यादा लोग उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए थे.” कश्मीरी भाईचारे का उदाहरण देते हुए विनोद भट्ट बड़े गर्व से ये बात बताते हैं.

370 हटने के बारे में वो कहते हैं, “इस फैसले से क्या बदलेगा यह अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन फिर भी मैं इसे एक अच्छे फैसले की तरह देखता हूं. हालांकि इस फैसले का आतंकवाद से कोई लेना देना नहीं हैं और ये नहीं कहा जा सकता की इससे मिलिटेंसी में कोई कमी आएगी. बल्कि इसके बढ़ने की गुंजाइश ही ज्यादा है. लेकिन इससे रोज़गार के माध्यम भी जरूर बढ़ेंगे. अगर यहां के युवाओं को अच्छा रोजगार मिलेगा तो स्थिति जरूर पहले से बेहतर हो सकती है.’’

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370 हटने के फैसले से कई कश्मीरी पंडित खुश नज़र आ रहे हैं, लेकिन कई ऐसे भी हैं जो इस फैसले को पूरी तरह गलत कह रहे हैं. विनोद कुमार की पत्नी लवली भट्ट कहती हैं, “370 हटने से कश्मीरी पंडितों को कुछ नहीं मिलेगा बल्कि जो मिलता था वो भी छीन जायेगा. 2010 से प्रधानमंत्री पैकेज के तहत कश्मीरी पंडितों को नौकरी दी जा रही थी. ऐसी तीन हज़ार नौकरियां निकाली गईं जिसमें अधिकतर पर भर्ती भी हो चुकी है और सैंकड़ों कश्मीरी पंडित इन नौकरियों के कारण घाटी में वापस आ चुके हैं. अब 370 हटने के बाद पंडितों के लिए नौकरियों में वो आरक्षण भी नहीं रह जायेगा. ऐसे में कोई क्यों वापिस लौटेगा.’’

लवली भट्ट आगे कहती हैं, ‘‘कई लोगों ने 370 को भावनाओं का मुद्दा बना दिया था इसलिए अभी वो खुश हो रहे हैं और इनमें से ज्यादातर ऐसे लोग हैं जो अपना सब कुछ बेचकर पहले ही बाहर जा बसे हैं. ये लोग कहने को तो कश्मीरी पंडित हैं लेकिन इनका अब कश्मीर से कोई लेना देना नहीं है. 370 हटने के बाद अगर सरकार यहां कोई कॉलोनी बनाकर पंडितों को बसाती भी है तो वो लोग यहां खाएंगे क्या? सब कुछ तो वो बेच चुके हैं. इससे कहीं ज्यादा बेहतर पीएम पैकेज के तहत मिलने वाली नौकरी ही थी क्योंकि ऐसी हर नौकरी का मकसद था एक पंडित परिवार का वापस घाटी लौटना अब 370 ही नहीं रहा तो कश्मीरी पंडितों की वो नौकरियां भी गई.”

कश्मीर में अपने निजी अनुभवों के बारे में लवली भट्ट कहती हैं, “मेरे पति का परिवार तो हमेशा यहीं था लेकिन मेरे परिवार को 90 के दौर में कश्मीर छोड़ना पड़ा था. मैं तब पांचवी में पढ़ती थी. जब हमें कश्मीर छोड़ कर जम्मू जाना पड़ा और वहां तम्बुओं में रहना पड़ा. मैंने बहुत बुरा दौर देखा है लेकिन जब शादी के बाद मैं कश्मीर वापस आई तो यहां के लोगों ने परिवार जैसा प्यार दिया.”

अपने कानों से लटकती सोने की चैन को अपने हाथ से उठाते हुए लवली कहती हैं, “इसे अठअठोर कहते हैं और ये कश्मीरी पंडित महिलाओं की निशानी होती हैं. यहां मैं बिना किसी के डर के इसे पहनती हूं लेकिन जब मैं अपने मायके जम्मू जाती हूं तो मेरी मां कहती हैं कि ये कश्मीर नहीं जम्मू है. यहां ये मत पहनाकर वर्ना कोई लूट लेगा. अब इससे बेहतर कश्मीर के माहौल के बारे में आपको क्या बता सकती हूं.”

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लवली भट्ट और अन्य कश्मीरी पंडितों के अनुभव भले ही कश्मीर के बहुसंख्यक समुदाय के साथ बेहद सहज रहे हैं, लेकिन कुछ समुदाय ऐसे भी हैं जिनके अनुभव यहां अच्छे नहीं रहे. सिख समुदाय के कई लोग ये बताते हैं कि बीते कुछ सालों में कश्मीर का माहौल जिस तरह से बदला हैं उसमें अब उन्हें पहले जैसा सुरक्षित महसूस नहीं होता.

उत्तर कश्मीर में पतंजलि का व्यापार करने वाले हरविंदर सिंह बताते हैं, “हम लोग मूलरूप से पाकिस्तान के रावलपिंडी के रहने वाले थे. विभाजन के काफी पहले ही हमारे पूर्वज यहां कश्मीर में आ बसे थे. हम पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं लेकिन अब यहां माहौल पहले जैसा नहीं रहा. आप शायद ये जानकर हैरान होंगे कि कश्मीर घाटी में रहने वाले सिख समुदाय के 95 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन्होंने अभी जम्मू और कहीं बाहर ज़मीन खरीदकर मकान बना लिए हैं. सिर्फ इस डर के कारण कि कभी भी कुछ ऐसा हो सकता है कि हमें रातों-रात कश्मीर छोड़ना पड़ सकता है.”

अपने अनुभव साझा करते हुए हरविंदर सिंह कहते हैं, “कश्मीर घाटी में बारामुला ही एक ऐसा जिला था जहां सिख समुदाय इतनी बड़ी संख्या में रहता था. हमें किसी से दबने की जरूरत नहीं थी. लेकिन अब ऐसा माहौल हो गया है कि अगर हमारी गाड़ी किसी दूसरी गाड़ी से टकरा जाए तो गलती भले किसी की हो हमें ही झुकना पड़ता है. साल 2000 के बाद ही बदलाव तेज़ हुआ है और कश्मीर की जो नई पीढ़ी है वो हमसे पहले की पीढ़ी जैसा भाईचारा नहीं रखती.’’

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हरविंदर सिंह आगे कहते हैं, “मैं पहले महिंद्रा एन्ड महिंद्रा में नौकरी करता था. एक दिन मैंने एक ग्राहक को गाड़ी दिखाई और उसके बाद उन्हें अपना कार्ड देते हुए कहा की आप जब भी मन बना लें तो मुझे फोन कर लीजिये. कुछ देर बाद मेरे सीनियर ने मुझे वही कार्ड देते हुए कहा कि जिन साहब को तुमने कार्ड दिया था वो ये कार्ड मुझे दे गए और उन्होंने कहा कि मैं किसी काफिर का कार्ड अपने जेब में नहीं रख सकता. उस दिन मुझे इतना बुरा लगा कि मैं बयान नहीं कर सकता. ये सुनकर मै पूरी तरह टूट गया.”

अनुच्छेद 370 को हटाये जाने पर हरविंदर कहते हैं, “ये बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था. 370 हटने से कई फायदे होंगे जिनमें से एक तो यही है कि सरकारी नौकरियों में मनमानियां और भाई-भतीजावाद खत्म होगा. यहां सालों से ऐसा होता था कि अधिकारी अपने ही लोगों को पहले संविदा पर नियुक्त करते थे और कुछ साल बाद उन्हें स्थाई नियुक्ति मिल जाती थी. सरकारी विभागों में यहां एक समुदाय का एकाधिकार हो गया था.”

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हरविंदर ये भी कहते है कि 370 हटने से पत्थरबाजी की घटनाओं में भी कमी आएगी क्योंकि पहले स्थानीय नेता और अधिकारी पत्थरबाजों को बचाते थे जो कि अब मुमकिन नहीं होगा.

केंद्र सरकार के इस फैसले को अपनी पहचान से जोड़ते हुए हरविंदर कहते हैं, “इस स्वतंत्रता दिवस पर मेरी बेटी ने कहा कि मुझे पुलिस की परेड देखनी है. मैं सुबह-सुबह उसे पुलिस लाइन ले गया जब मैंने तिरंगा लहराते देखा तो पहली बार तिरंगे को देखकर मेरे रोंगटे खड़े हुए और मेरी आंखों में आंसू आ गए. मुझे पहली बार एहसास हुआ कि अब हमें कश्मीर में अपनी पहचान मिली है.”

अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद से कश्मीर के गुर्जर और बकरवाल समुदाय का ज़िक्र भी कई बार आया है. केंद्रीय मंत्रियों ने कई बार इन लोगों का हवाला देते हुए कहा है कि अब इनके अधिकार पहले से मजबूत होंगे. लेकिन गुर्जर समुदाय के अधिकतर लोग इस फैसले से नाखुश नज़र आते हैं. उत्तर कश्मीर में सम्भलिबाला नाम का गांव हैं जहां सौ से ज्यादा गुर्जर परिवार रहते हैं.

इस गांव के रहने वाले गुलज़ार खान कहते हैं, “गुर्जरों को आरक्षण देने की जो बात सरकार कह रही है वो पहले से इन्हें मिलता था. मेरा बेटा ज़ाकिर हुसैन इसी साल वन विभाग में लगा है. अनुसूचित जाति आरक्षण के कारण जो हमे मिलता आया है. अब 370 हट जाने से हमारा नुकसान ही ज्यादा होगा क्योंकि अब देश भर की अनुसूचित जनजाति वाले यहां नौकरी का आवेदन कर सकेंगे. पहले ये आरक्षण सिर्फ हम कश्मीरी जनजातियों को ही मिलता था.”

इसी गांव के रहने वाले चौधरी मोहम्मद सखी जो कि कश्मीरी गुर्जरों के राज्यस्तरीय नेता भी रह चुके हैं, कहते हैं, “इस फैसले से कश्मीरियों को या गुर्जरों को क्या फायदा होगा ये तो मुझे अभी नहीं दिखता. हां इसके नुकसान पहले दिन से दिखने लगे हैं. हड़ताल के कारण हमारा व्यापार ठप्प पड़ा है, फोन बंद है तो बाहर रह रहे बच्चों की खबर तक नहीं मिल पा रही और माहौल खराब होने की गुंजाइश भी अब और बढ़ गई है.”

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कश्मीर के बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय में अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के चलते भारी रोष है वो इस फैसले को खुद के साथ हुए धोखे के तौर पर देख रहे हैं. जो बात इन दिनों लगभग हर कश्मीरी मुस्लिम की ज़ुबान पर चढ़ी हुई है वह यही है कि ‘‘शेख अब्दुल्ला ने भारत के साथ हाथ मिलाकर बहुत बड़ी गलती की थी और ये बात खुद भारत सरकार ने आज साबित कर दी है.”

लेकिन कश्मीर के अल्पसंख्यक समुदायों में आमतौर पर इस फैसले का स्वागत हो रहा है. विशेष तौर से कश्मीरी पंडित और सिख समुदाय के लोग इस फैसले को जीत के तौर पर देख रहे हैं. लेकिन उसमें साथ-साथ ये भी बयान कर देते है कि इस फैसले से अलगाववादियों को पहले से ज्यादा मजबूती मिलने की गुंजाइश और बढ़ गई है.