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हानिकारक सल्फर डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में नंबर एक है भारत

 प्रतीकात्मक तस्वीर

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि स्वास्थ्य के लिये खतरनाक सल्फर डाइऑक्साइड यानि SO2 उत्सर्जन के मामले में भारत दनिया में पहले नंबर पर है. आज दुनिया में मानवजनित कुल 15% SO2 उत्सर्जन हमारे देश से हो रहा है जबकि कुछ साल पहले तक अमेरिका और चीन इसके लिये सबसे अधिक ज़िम्मेदार थे. देश में उत्सर्जित हो रहे SO2 का अधिकांश हिस्सा पावर प्लांट्स या दूसरे उद्योगों में जलाए जा रहे कोयले से पैदा हो रहा है.

यह बात ग्रीनपीस के ताज़ा विश्लेषण में सामने आई है जिसमें नासा के ओज़ोन मॉनिटरिंग इंस्ट्रूमेंट (ओएमआई) सैटेलाइट के आंकड़ों का अध्ययन करने पर पाया कि भारत में इस गैस का मानवजनित उत्सर्जन पिछले 12 सालों में तेज़ी से बढ़ा है.

आज भारत जहां दुनिया के 15.4% SO2 उत्सर्जन के लिये ज़िम्मेदार है तो दूसरे नंबर पर रूस (12.3%) है. इसके बाद चीन (8.6%) और अमेरिका (3.2%) का नंबर आता है.

क्या है SO2 और क्यों है यह ख़तरनाक?

यह गैस कोयला आधारित बिजलीघरों, उद्योगों और वाहनों के इंजन में जलने वाले ईंधन से निकलती है. वायु प्रदूषण के लिये ज़िम्मेदार गैसों में SO2 का अहम रोल है क्योंकि इसकी वजह से आंख, नाक, गले और सांस की नलियों में तकलीफ होती है. इसका सबसे बड़ा असर अस्थमा के मरीज़ों और बच्चों पर पड़ता है.

इसके अलावा SO2 गैस उत्सर्जन के कुछ ही घंटों के भीतर सल्फर के अन्य प्रकारों में बदल कर पार्टिकुलेट मैटर (जिसे PM भी कहा जाता है) की संख्या को तेजी से बढ़ाता है. इसकी वजह से PM 2.5 जैसे हानिकारक कणों का स्तर हवा में और तेज़ी से बढ़ता है जिसका असर दिल्ली और एनसीआर समेत देश के तमाम हिस्सों में बहुत अधिक दिख रहा है.

कहां फैल रहा है ख़तरा ?

नासा सैटेलाइट तस्वीरों और आंकड़ों से पता चला है कि 97% SO2 उत्सर्जन वहां पर है जहां कोयला बड़ी मात्रा में जलाया जा रहा है. ऐसे सभी हॉटस्पॉट भारत के थर्मल पावर प्लांट वाले इलाके हैं. सिंगरौली, कोरबा, झारसुगुड़ा, कच्छ, चेन्नई, रामागुंडम, चंद्रपुर और कोराड़ी इसके प्रमुख केंद्र हैं.

SO2 उत्सर्जन के मामले में तमिलनाडु सबसे ऊपर है. उसके बाद उड़ीसा, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र का नंबर है.

सर्वाधिक SO2 उत्सर्जन करने वाले राज्य (किलोटन/वर्ष)

जानकार कहते हैं कि तमिलनाडु के बिजलीघरों में कम गुणवत्ता वाले कोयले लिग्नाइट को जलाये जाने से SO2 का स्तर अधिक है. ग्रीनपीस की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत के अलावा रूस, दक्षिण अफ्रीका और ईरान में ऐसे कई शहर हैं जो बड़ी मात्रा में पर्यावरण में SO2 छोड़ रहे हैं.

सरकार की ढिलाई

दिसंबर 2015 में पर्यावरण मंत्रालय ने पहली बार कोयला आधारित बिजलीघरों के लिये SO2 की सीमा तय की और कहा कि 2 साल के भीतर यानी दिसंबर 2017 तक बिजलीघर SO2 को काबू करने वाले उपकरण लगाएं. फिर बिजली मंत्रालय के अनुरोध पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली-एनसीआर के बिजलीघरों के लिये यह समय सीमा दिसंबर 2019 तक बढ़ा दी गई और देश के बाकी हिस्सों में पावर प्लांट्स को 2022 तक का वक्त दे दिया गया. बिजलीघरों का अभी जो हाल है उसे देखते हुए नहीं लगता कि पावर प्लांट इस डेडलाइन का पालन भी करेंगे.

आज दुनिया की 90% से अधिक आबादी ऐसी हवा में सांस ले रही है जिसमें प्रदूषण विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय सुरक्षित मानकों से अधिक है. महत्वपूर्ण है कि पूरे विश्व में हर साल 42 लाख लोग प्रदूषित हवा के कारण हो रही बीमारियों से मर रहे हैं. लांसेट और स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर रिपोर्ट ( एसओजीए ) कह चुकी हैं कि वायु प्रदूषण से हो रही बीमारियों के कारण भारत में करीब 12 लाख लोग हर साल मर रहे हैं. पिछले साल इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की रिपोर्ट से भी इन आंकड़ों की पुष्टि हुई. सल्फर और नाइट्रोजन प्रदूषकों के स्तर में वृद्धि न रोक पाना वायु प्रदूषण रोकने की मुहिम में बड़ी नाकामी है.

ग्रीनपीस के सुनील दहिया कहते हैं, “हम वायु प्रदूषण को काबू करने में पिछड़ रहे हैं. कोयले के प्रयोग को कम करने की ज़रूरत है और कोयला बिजलीघरों को सख्त मानकों का पालन करना चाहिए लेकिन अब तक सरकार का रवैय्या बहुत ढीला रहा है जो चिंता की बात है.”

महत्वपूर्ण है कि पिछले कुछ सालों में चीन जैसे देशों ने फ्ल्यू गैस डीसल्फराइजेशन ( एफजीडी ) तकनीक का इस्तेमाल कर हवा में SO2 स्तर को काफी कम किया है. चीन ने साल 2006 से ही इस तकनीक की मदद ली और साल 2012 तक उसके बिजलीघरों से SO2 उत्सर्जन करीब 40% कम हो गया. आज चीन के 90% से अधिक उद्योगों और बिजलीघरों में एफजीडी यंत्र फिट हैं. यह आंकड़ा अमेरिका से भी बेहतर है.

आईआईटी कानपुर की 2015 की रिपोर्ट में कहा गया कि अगर दिल्ली के 300 किलोमीटर के दायरे में मौजूद 13 बिजलीघरों से SO2 उत्सर्जन को 90% कम कर दिया जाये तो इससे हानिकारक PM 2.5 की मात्रा प्रतिघन मीटर 35 माइक्रोग्राम कम हो जायेगी. इसका महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हवा में PM 2.5 की अधिकतम सीमा सालाना 10 माइक्रोग्राम ही हो सकती है.