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‘हम 24 घंटे बंदूक थामे रहते हैं इसीलिए ये बात बेहतर समझते हैं कि अमन बंदूक से नहीं आ सकता है’

जिस एसओजी (स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप) कैंप की तरफ हम बढ़ रहे हैं वो कश्मीर के सबसे कुख्यात इलाकों में से एक में स्थित है. ये ऐसा इलाका अलगाववादियों का गढ़ कहा जाता है. यहां से पत्थरबाजी की सबसे ज्यादा ख़बरें आती हैं. यहां के दर्जनों लड़के आतंकी संगठनों में शामिल रहने के कारण सुरक्षा बलों द्वारा मारे जा चुके हैं. ऐसे इलाके के बीचोबीच बसे इस एसओजी कैंप पर न जाने कितने बार आतंकी हमले हो चुके हैं.

इस कैंप की कमान इन दिनों डीएसपी माजिद शेख (बदला हुआ नाम) के हाथों में है. माजिद शेख एसओजी के उन अफसरों में शामिल हैं जिनका नाम कई आतंकी संगठनों की हिट लिस्ट में सबसे ऊपर दर्ज है. बीते छह सालों में माजिद ने 30 से ज्यादा आतंकरोधी ऑपरेशन को अंजाम दिया है. उन्हें अब तक दो दर्जन से ज्यादा सक्रिय आतंकियों को मार गिराने के लिए जाना जाता है.

माजिद से हमारी मुलाकात रात साढ़े आठ बजे तय हुई है. लेकिन हम आठ बजे ही उनके कैंप के पास पहुंच चुके है क्योंकि उनतक पहुंचने के लिए हमें करीब दस सुरक्षा घेरों को पार करना है. इनमें से छह सुरक्षा घेरे हम अपनी गाड़ी में बैठे हुए ही पार करते हैं और फिर चार सुरक्षा घेरे गाड़ी से उतरने के बाद. तब जाकर हम उस इमारत के सामने पहुंचते है जिसकी दूसरी मंजिल पर माजिद रहते हैं.

इस इमारत में दाखिल होते ही दाहिने हाथ पर लोहे की सलाखों वाला एक कमरा है. पूछने पर बताया जाता है कि इस कमरे में इंटेरोगेशन के अलावा उन लोगों को भी रखा जाता है जिन्हें एसओजी गिरफ्तार करती है. बिलकुल ऐसे ही चार अन्य कमरों के सामने से गुजरने के बाद हम उन सीड़ियों के पास पहुंचते है जिनसे ऊपर जाते ही माजिद शेख का कमरा बिलकुल सामने दिखता है.

बमुश्किल पन्द्रह बाई पन्द्रह के इस कमरे में एक लकड़ी की अलमारी और एक सिंगल तख्त के अलावा कोई अन्य फर्नीचर नहीं है. जमीन पर कश्मीरी कालीन बिछी है. आलमारी के उपर एक हेलमेट रखा है जो बना तो हॉकी के गोलकीपर के लिए है लेकिन कश्मीर में पत्थरबाजों का सामना करने के लिए इस्तेमाल होता है. इसके साथ की कुछ पैड और एल्बो गार्ड भी अलमारी के ऊपर रखे हुए हैं. कमरे के कोने में एक-47 रायफल खड़ी है और माजिद के बिस्तर पर उनके तकिये के पास पन्द्रह राउंड वाली एक ऑस्ट्रेलियन मेड रिवाल्वर रखी है.

स्पोर्ट्स लोवर और टीशर्ट पहने माजिद अपने कमरे में पूरी गर्मजोशी से हमारा स्वागत करते हैं और फिर न्यूज़लॉन्ड्री से उनकी बातचीत का एक लम्बा सिलसिला शुरू होता है.

ईद मुबारक. आप ईद के मौके पर घर नहीं गए?

शुक्रिया, आपको भी ईद मुबारक. घर जाना मेरी किस्मत में नहीं. मैं आम दिनों में ही अपने घर नहीं जा सकता. इस बार तो हालात भी ठीक नहीं हैं.

ऐसा क्यों? आम दिनों में घर क्यों नहीं जा सकते हैं?

मैं श्रीनगर के डाउनटाउन का रहने वाला हूं. पूरे कश्मीर में वो जगह पत्थरबाजी के लिए सबसे ज्यादा बदनाम है. और अलगाव की भावना लोगों में बहुत जबर्दस्त है. वो जानते हैं कि मैं एसओजी में हूं और इसलिए मुझे अपना दुश्मन मानते हैं. कई लोग तो गद्दार तक कहते हैं. इतने सुरक्षा के कारण मैं बाहर नहीं जाता. बस एक दो महीने में जाकर घर वालों से मिल आता हूं. वो भी रात के अंधेरे में.

आपके घर वाले आपके लिए काफी चिंतित रहते होंगे?

मेरी मां नहीं जानती कि मैं एसओजी में हूं. उन्हें बस इतना पता है कि मैं पुलिस में काम करता हूं. एसओजी के नाम से उन्हें बहुत नफ़रत है. उसे मालूम चलेगा कि मैं भी एसओजी में हूं तो बहुत अफ़सोस करने लगेगी.

वो एसओजी से क्यों नफरत करती हैं?

दरअसल एसओजी को पहले एसपीएफ कहा जाता था. एसपीएफ का जब गठन हुआ तब लोगों के जेहन में एक इख्वानियों के अत्याचार बसे हुए थे. इख्वानी वो स्थानीय लोग थे जिन्हें नब्बे के दशक में सरकार ने आतंकियों से लड़ने के हथियार दिया था लेकिन ये बात कभी सरकार ने स्वीकार नहीं किया. इख्वानी आतंकियों से भी ज्यादा बर्बर साबित हुए और यहां कई मासूमों की जान ली. हालांकि इख्वानियों का एसपीएफ से कोई सीधा-सीधा लेना देना नहीं था लेकिन कई लोगों ने समझा कि जो काम इख्वानी अनाधिकारिक रूप से कर रहे थे उसी काम के लिए एसपीएफ का आधिकारिक गठन किया जा रहा है. तो कई लोगों के मन में आज भी एसपीएफ या एसओजी की यही छवि बनी हुई है कि ये अपने ही लोगों को मारने वाले लोग हैं.

क्या यह आरोप आपको अक्सर झेलना पड़ता है कि आप अपने ही लोगों को मार रहे हैं?

हां. यहां कई लोगों को लगता है कि मिलिटेंट कश्मीर की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं. और हम जैसे अफसर इस लड़ाई को कमजोर कर रहे हैं. इसलिए वो हमें गद्दार कहते हैं.

आप व्यक्तिगत तौर पर इस लड़ाईके बारे में क्या सोचते हैं?

देखिए, कश्मीर का इतिहास विवादों से घिरा है. इसे नाकारा नहीं जा सकता है. इसलिए यहां के लोग अगर आज़ादी की मांग करते हैं तो उसमें कोई हैरानी की बात नहीं है. लेकिन आज़ादी के लिए कोई अगर हथियार उठाता है तो उससे हमारे ही लोग मारे जाते हैं. इसलिए ऐसे एक-एक आदमी को खत्म करना और अपने लोगों की हिफाजत करना मुझ जैसे सिपाहियों का फर्ज है.

अपना यही फर्ज निभाते हुए आपने हिजबुल मुजाहिदीन, लश्करे तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठनों की हिट लिस्ट में सबसे ऊपर आ गए हैं? अपनी जान हथेली पर रखकर आप कश्मीर की सुरक्षा में तैनात रहते हैं. इसके बाद भी जब यहां के लोगों के लिए बुहरान वानी हीरो होता है, आप जैसे लोग नहीं, तो आपका मनोबल कमजोर नहीं होता.

बुहरान जैसे लोग सोशल मीडिया द्वारा बनाए हुए है. वो अभी इसलिए हीरो हैं क्योंकि लोग उनकी सच्चाई नहीं जानते है. सीमा पार से जितने आतंकी यहां आते हैं वे यहां के लोगों को भड़काते हैं. उनकी ही घरों में रहते हैं. उनका इस्तेमाल करते हैं और उनकी बेटियों के साथ अवैध रिश्ते बनाते हैं. लेकिन ये हकीकत कम ही लोग जानते हैं क्योंकि उन्हें तो लगता है कि ये मुजाहिद अल्लाह की राह पर हैं. इनमें से ज्यादतर लड़के किसी न किसी व्यक्तिगत कारण से मिलिटेंसी की राह पर बढ़ते हैं.

किस तरह के व्यक्तिगत कारण?

कई तरह के कारण हैं. मैं आपको एक उदाहरण बताता हूं. इसी साल हमने एक लड़के को पकड़ा था जो हिजबुल मुजाहिदीन के सम्पर्क में था और उनके साथ निकलने वाला था. उसका कम्युनिकेशन ट्रेस करके हमने उसे गिरफ्तार किया और कई दिन यहां रखा. तब उसने बताया कि उसका लीवर ख़राब है जिसके इलाज में दो लाख रुपए खर्च हो चुके हैं. उसके परिवार के पास अब और पैसा नहीं है. उसे लगता है कि बीमारी में मरने से बेहतर है जिहाद करते हुए मर जाऊं. ऐसे ही और भी व्यक्तिगत कारण है. इन लडकों की उम्र मुश्किल से 14-15 साल होती है जो इस तरफ आकर्षित होने लगते हैं. इनमें से कई ऐसे है जिनका गर्लफ्रेंड से ब्रेकअप हो जाता है तो उन्हें लगता है कि अब जिंदगी खत्म हो गई. बस यही एक राह बची है. कई ऐसे भी हैं जिनमें सुरक्षा बलों के प्रति बदले की भावना है. कई बार हमारे जवानों से भी ज्यादती हो जाती है. किसी लड़के से बहस हो जाती है या जवान किसी पर हाथ उठा देते हैं. तो लड़के इसे मन में रख लेते हैं और बदला लेने के लिए उन्हें आतंक की राह सही लगने लगती है.

ये ज्यादती महज हाथ उठाने तक सीमित नहीं है. सुरक्षाबलों पर ज़रूरत से ज्यादा बल प्रयोग के आरोप कई बार लगते हैं. निर्दोष लोगों को मारे जाने की ख़बरें लगातार आती रहती है और पेलेट से कई लोगों की आंखें ख़राब हुई हैं. इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता है?

मैंने दो दर्जन से ज्यादा ऑपरेशन किए हैं. मैं आपको लिखकर दे सकता हूं कि इसमें एक भी निर्दोष नहीं मारा गया. इन ऑपरेशन में कम से कम पांच तो ऐसे थे जिनमें हमें उस घर को ही ब्लास्ट कर उड़ाना पड़ा जहां मिलिटेंट रुके थे लेकिन एक भी सिविलियन को खरोच तक नहीं आई.  हमारे कई ऑपरेशन लगातार तीन चार दिन तक चले हैं. और इसलिए की हम कोई भी सिविलियन कैजुअलिटी नहीं चाहते थे. ऑपरेशन की जगह को हम खाली करना निश्चित करते हैं फिर चाहे उसमें कितना ही समय लग जाए. इन्सान तो क्या हम पालतू जानवरों तक को निकालते हैं और फिर ऑपरेशन करते हैं.

लेकिन ये भी एक सच है कि सुरक्षा बलों द्वारा पेलेट के इस्तेमाल से कई लोगों की आंखें ख़राब हुई हैं. जिसमें दो तीन साल के बच्चे तक शामिल हैं.

यह मैं स्वीकार करता हूं. यह दुर्भाग्यपूर्ण है. इसका मुझे भी उतना ही अफ़सोस होता है जितना किसी दूसरे को होगा. वैसे हम कभी भी पेलेट चलाते हुए कमर के ऊपर टारगेट नहीं करते. लेकिन पंप गन के साथ ये दिक्कत है कि जिस तरह से टॉर्च की रोशनी आगे जाकर फ़ैलती जाती है ठीक वैसे ही इससे निकलने वाले पेलेट भी फैलते हैं. कई बार नीचे की जमीन से टकराकर भी ये छर्रे लोगों के चेहरे को चोटिल कर देते हैं. लेकिन हम लोग मजबूर में ही पेलेट चलाते हैं. पेलेट नहीं चले तो गोली चलाने की नौबत आ पड़ती है, ये स्थिति ज्यादा खतरनाक है.

अनुच्छेद 370 हटाने के बाद पैलेट चलाने की ज़रूरत कितनी जगहों पर पड़ी?

बहुत कम. शुरुआती दिनों में कुछ जगह प्रदर्शन हुए लेकिन इस बार हमने गली-गली तक जाकर तैनाती कर दी थी. लोगों को एक जगह जमा होने का मौका ही नहीं दिया तो प्रदर्शन का सवाल ही नहीं है. ईद के दिन हमने सुबह चार बजे से ही अपने जवानों को गली-गली में तैनात कर दिया था.

अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले को आप व्यक्तिगत तौर पर कैसे देखते हैं?

देखिए, 370 कोई आखिरी सच नहीं था. इसे आज नहीं तो कल जाना ही था. पंडित नेहरु ने ही कहा था कि यह एक दिन घिस-घिस कर खत्म हो जाएगा. यह काफी हद तक खत्म हो भी चुका था. लेकिन केंद्र सरकार ने जिस तरह से इसे हटाया है ये ठीक नहीं हुआ. इससे यहां के लोगों में ये संदेश गया कि उनके साथ बेमानी हुई है. 370 यहां के लोगों के इमोशन से ज्यादा जुड़ा था. ये उन्हें एहसास दिलाता था कि उनकी अपनी एक अलग पहचान है. और संविधान उस पहचान की सुरक्षा कर रहा है. अब उन्हें लग रहा है कि उनकी पहचान उनसे छीनी जा रही है.

प्रदेश की सुरक्षा व्यवस्था को आप बारीकी से समझते हैं. उसपर इस फैसले का क्या प्रभाव होगा? क्या 370 हटने से आतंकवाद पर रोक लगेगी, जैसा की केंद्र सरकार दावा कर रही है?

इस फैसले से आतंकवाद और ज्यादा बढ़ने वाला है. 370 तो मेनस्ट्रीम का मुद्दा था. वो खत्म हो गया तो मेनस्ट्रीम से लोगों का अलगाव और बढ़ेगा. हुर्रियत तो पहले ही कहती थी कि हमें 370 से कोई मतलब नहीं है. ये रहे या जाए हमारा मांग आज़ादी की है. 370 हटने के साथ ही यहां के मुख्यधारा के नेताओं की राजनीति लगभग खत्म हो गई है और अलगाववादियों की प्रासंगिकता बढ़ रही है. युवा अब उन्हें पहले से ज्यादा समर्थन देंगे और सीमा पार से घुसपैठ भी बढ़ जाएगी.

अंतरराष्ट्रीय सीमाएं तो फौज की सख्त निगरानी में रहती हैं. उस पार से घुसपैठ आखिर होती कैसे है?

यहां ऐसी-ऐसी जगहें है जहां बॉर्डर लाइन की तारों को चेक करने के लिए एक चक्कर ही दो दिन में पूरा होता है. सुरक्षा बल अपनी तरफ पूरी चौकसी रखते है लेकिन फिर भी घुसपैठ को पूरी तरह से रोकना असंभव है.

तो ये खूनी संघर्ष अभी जारी रहने वाला है?

फ़िलहाल तो इसके खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे हैं. अभी तो पूरा कश्मीर नजरबंद है. इसलिए सब समान्य लग रहा है. बड़े से लेकर छोटे-मोटे नेता तक कैद हैं. यहां तक की पत्थरबाजों का नेतृत्व करने वाले गली मुहल्लों के लड़के भी फ़िलहाल बंद कर दिया गया है. इसीलिए अभी के हालात देखकर ये नहीं कहा जा सकता कि सब समान्य हो गया है. ये पहरे हटेंगे तो असली स्थिति सामने आएगी.

घाटी में जब आज़ादी की मांग के नारे गूंजते है तो लाखों आवाजें इन नारों को समर्थन देती है. आप इस मांग के बारे में क्या सोचते हैं?

हमारा संविधान हर किसी को अपनी बात कहने की आज़ादी देता है. कश्मीरी लोगों को यदि लगता है कि ऐतिहासिक तौर पर उनके साथ कुछ गलत हुआ है तो उन्हें अहिंसक तरीके से अपनी बात कहनी चाहिए. मुझे तो लगता है कि अगर कश्मीर में हिंसा न हो और लोग शांति से अपनी बात कहें तो पूरा हिंदुस्तान उन्हें सुनेगा और उनका साथ देगा. हिंदुस्तान के अगर दस प्रतिशत लोग साम्प्रदायिक हैं तो नब्बे प्रतिशत लोग सेकुलर हैं. ये तमाम लोग कश्मीरियों के साथ खड़े होंगे अगर मिलिटेंसी न हो. लेकिन भारतीय फौज के जवान अगर यहां मारे जाते रहेंगे तो हर भारतीय का खून खौलना और उन्हें गुस्सा आना जायज है.

कश्मीर में जब भी कोई मिलिटेंट मारा जाता है तो उसकी अंतिम विदाई में जनसैलाब उमड़ पड़ता है और बड़ी संख्या में कश्मीरी समाज उसके परिजनों के साथ खड़ा होता है. लेकिन आप जैसे कश्मीरी के शाहदत में ऐसा नहीं होता. ये बाद कितनी चुभती है कि आपका समाज ही आप लोगों की शाहदत की कीमत नहीं समझ रहा?

ये बात चुभती लेकिन हम जानते हैं कि हम जो कर रहे हैं वो सही है. मेरे कई दोस्त जो मुझे आज़ादी के लिए नौकरी छोड़ने की सलाह देते हैं तो मैं उन्हें जवाब देता हूं कि जब आज़ादी मिल जाएगी तो मुझे गद्दार घोषित करके लाल चौक पर फांसी दे देना. मैं हंसते-हंसते झूल जाऊंगा. क्योंकि मैं जनता हूं कि मैं जो कर रहा हूं वो अपने लोगों की भलाई के लिए कर रहा हूं. मैंने जितने भी लोगों को मारा है वो मेरे समाज के दुश्मन थे. मेरे लोगों की जान लेने वाले था. मुझे अपने काम पर गर्व है और मुझे फर्क नहीं पड़ता की इस काम की कीमत कितने लोग समझते है.

क्योंकि आप यहां के हैं और तमाम आतंकी संगठनों के निशाने पर हैं तो क्या कभी अपने घर वालों की भी सुरक्षा की चिंता सताती है?

मिलिटेंट हमें निशाना बनाते हैं, हमारे परिवार को नहीं. ये एक अनकही संधि जैसा है. हां, बीच में एक दौर आया था जब स्थानीय पुलिस वालों के परिवार को भी टारगेट करने लगे थे. लेकिन तब हमारे एक अफसर ने प्रेस कांफ्रेंस करके साफ़ कहा था कि मिलिटेंट्स को ये नहीं भूलना चाहिए की परिवार उनके भी हैं. इसके बाद से ऐसा कभी नहीं हुआ. हम भी उनके परिजनों को कभी निशाना नहीं बनाते है.

कश्मीर में अमन की बहाली के लिए केंद्र सरकार को आप कुछ सुझाव देना चाहते हैं?

सबसे पहले सरकार को चाहिए की कश्मीर के लिए जल्द से जल्द विशेष आर्थिक नीतियां लाई जाए. ये नीतियां ऐसी ना हो जो अधिकारियों तक ही सीमिति रहें बल्कि ऐसी हों जो अच्छे से ट्रिकल डाउन हो सके. दूसरा, जब हिमाचल प्रदेश और कई अन्य राज्यों को विशेष व्यवस्था दी जा सकती है तो कश्मीर को क्यों नहीं? संवैधानिक दायरे में जितना भी संभव है उतनी स्वायत्तता यहां के लोगों को दी जाएगी तो उनका विश्वास और मजबूत होगा. इसके उल्टा अगर उन्हें ये संदेश दिया जाएगा कि डंडे के जोर पर उन्हें हांक सकती है तो इससे अलगाव बढ़ेगा. हम चौबीसों घंटे बंदूक हाथों में थामे रहते है इसीलिए ये बात सबसे बेहतर समझते हैं कि अमन बंदूक से नहीं आख़िरकार प्यार से ही आ सकता है.