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ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री: मंदी और बंदी में फंसी आम ज़िंदगी 

अर्थव्यवस्था को बुखार सा लग गया है जिसे किसी एक पैरासीटामोल के गोली से उभारा नहीं जा सकता है. इसमें किसी यूरोपियन नीतिगत दवाई भी काम करती नज़र नहीं आ रही है. इस बुखार को उतारने के लिए कामगारों से लेकर बड़े कॉरपोरेट हेड तक को देसी मंथन के फार्मूले से सुलझाना होगा. और सरकार ही इसको अंजाम तक पहुंचा सकती है. इस बुखार को खारिज करने वाले अर्थशास्त्री, राजनेता और अन्य अफसर इससे कन्नी नहीं काट सकते क्योंकि अब इस बुखार ने अर्थव्यवस्था के सीने को जकड़ लिया है.

ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री के बिक्री में आई गिरावट लगभग हर कंपनी की कहानी है. मारुति जिससे पूरे ऑटोमोबाइल सेक्टर को उसकी स्थिति से मापा जाता है उसमें 36 प्रतिशत की गिरावट आई है. महिंद्रा (ट्रेक्टर) में 12%, अशोक लेलैंड (ट्रक) में 14% की गिरावट आई है. टाटा मोटर्स ने भी ‘ब्लॉक क्लोजर’ के बहाने इस साल कई बार अपनी कंपनी बंद रखी है. फेडरेशन ऑफ ऑटोमोबाइल डीलर्स के मुताबिक देश में 286 डीलर्स को अपना बोड़िया-बिस्तर बांध कर बाज़ार छोड़ कर जाना पड़ा. इससे 32 हज़ार नौकरियों का नुकसान पहुंचा और आने वाले समय मे 2 लाख नौकरियों के नुकसान हो सकता है.

शेयर बाज़ार में 2002 के बाद यह महीना सबसे ज्यादा आर्थिक गिरावट वाला माना जाता है. फिस्कल डेफिसिट नामक एक आंकड़ा है जो देश की आर्थिक सेहत में आई कमी को दर्शाता है. इस आंकड़े को देख कर निवेशक अपना मूड बनाता है. कैग (सीएजी) ने माना है कि  फिस्कल डेफिसिट का आंकड़ा 5.9% बढ़ गया है जो की सरकार के हिसाब से 3-4% के आस पास था. इससे बाज़ार के निवेशक बेहद निराश हैं. आम तौर पर बाज़ार के बड़े कॉरपोरेट सुझाव देते हैं, उभरने के कुछ नए रास्ते सुझाते हैं लेकिन इस वक़्त वे ज्यादा कुछ बोलने की स्थिति में नहीं दिख रहे हैं. आम जनता भी कुछ ज्यादा अपेक्षा नहीं कर रही है और यह इसीलिए पता चल रहा है क्योंकि बड़े निवेश और डिमांड में भारी गिरावट आई है.

ऐसा दशकों बाद हो रहा है जब इतनी शक्तिशाली बहुमत की सरकार जो संसद में धड़ाधड़ बिल पास कर रही है, जो कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दे को यूं ही एक बिल से सुलझाने की आत्मबल दिखा रही है वही मोदी सरकार बिज़नेस कॉन्फिडेंस बढाने में असमर्थ दिख रही है.

पर क्या यह पूर्णतः सरकार की जिम्मेवारी है? मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि इसकी पूरी जिम्मेवारी सरकार की है. इसका बड़ा हिस्सा सरकार का हो सकता है, लेकिन इसमें कई पहलू हैं.

मैं जिस शहर से आता हूं वहां इसका सबसे सटीक उदाहरण मिलता है. जमशेदपुर जिसे टाटानगर भी कहा जाता है वहां टाटा मोटर्स पिछले कई महीनों से ब्लॉक क्लोजर कर रहा है. खास बात यह है कि आदित्यपुर इंडस्ट्रियल एरिया जहां सैकड़ों कंपनी टाटा मोटर्स के उत्पादन पर निर्भर है वो भी इस चक्र में फंस चुके है.

आदित्यपुर के एक इंडस्ट्री के मालिक बताते हैं कि उन्हें इस तरह के ब्लॉक क्लोजर की जानकारी जब तक मिलती है तब तक उनके पास खुद को संभालने का समय नहीं होता. कल अगर बंदी होनी है तो आज खबर मिलती है. इससे हुए घाटे का भी कोई भरपाई नहीं करता. प्रबंधन में ऐसी चूक के कारण मंदी और बंदी के जाल चक्र में फंसे सैकड़ों कम्पनियां  बंद होने के कगार पर आ गए हैं. इससे हज़ारों घरों के सपनों पर पानी पड़ सकता है क्योंकि आने वाले 6 महीनों में इससे उभरने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है.

टाटा मोटर्स में डिवीज़नल मैनेजर के पद से सेवानिवृत्त हुए एन.सी.मिश्रा जिन्हें इस सेक्टर में सालों का अनुभव है वो बताते हैं कि ब्लॉक क्लोजर या सरल भाषा मे कहें तो कंपनी बंदी सालों पहले फैक्ट्री में मशीन और बाकी सारे उपकरणों के मेंटेनेन्स के लिए किया जाता था वो भी साल में एक बार. इसमें भी वर्कर यूनियन से पूरी बात होती थी और सटीक योजना के तहत ब्लॉक क्लोजर किया जाता था. आज जब गाड़ियों की मांग नहीं है तो हाल कुछ ज्यादा बुरा है. उनके हिसाब से आने वाले साल में ऐसी ही हालत रहने वाली है. ऐसे समय में जब बिक्री ही नहीं है तो अति उत्पादन के बाद और बाज़ार में डिमांड के कमी के कारण एक समय आता है जिसके बाद इंतज़ार के अलावा और कुछ करने को नहीं होता है.

इससे निकलने के कई रास्ते हैं, लेकिन उसके लिए सरकार और इंडस्ट्री दोनों को तैयार रहना होगा. हर व्यवसाय में एक रूखा अंत आएगा, लेकिन उससे उभरने के लिए बाजार को दृष्टि देने वालों की जरूरत है. ऐसे निवेशक, पूंजीपति या बड़े कॉरपोरेट हेड की की भी जरूरत है जो आने वाले समय की मांग को समझे और कुछ नए तकनीक या उपलब्ध तकनीक को उभारने में वक़्त दें.

अलग अलग कंपनियों में ब्लॉक क्लोजर की लड़ी जलने के बाद क्या कोई ऐसा रास्ता निकाला जा सकता है जिससे इस हानिकारक धुंए को हटाया जा सके? क्या नए औजार बनाए जा सकते हैं या कामगारों को रिसर्च एंड डेवलपमेंट के किसी प्रोजेक्ट में लगाया जा सकता है? क्या ऑटोमोबाइल सेक्टर में बिजली से चलने वाली गाड़ियों पर शोध या अन्य काम नहीं हो सकता? क्या जीवन मे मोटर इंजन के दूसरे उपयोग पर सोचा नहीं जा सकता है? क्या आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस का कोई सकारात्मक उपयोग हो सकता है?

अगर इन सवालों पर सोच गया तो हम मोबाइल क्रांति के बाद ऑटो मोबाइल क्रांति में भी पूरी दुनिया के लिए बड़ा बाजार बन सकते हैं. लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो आम जनता अभिमन्यु और यह मंदी एक चक्रव्यूह!