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Exclusive: सौरा में 9 अगस्त के बाद भी जारी है विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला
जम्मू-कश्मीर सरकार ने वीडियो जारी किया कि घाटी में शांतिपूर्वक ईद मनाई गई. घाटी में दिखाए जा रहे तमाम न्यूज़ चैनलों मसलन रिपब्लिक टीवी, न्यूज़-एक्स के रिपोर्टरान ने अपने दर्शकों को बताया कि कश्मीर के मुसलमानों ने ईद का त्यौहार राजी-खुशी मनाया. खरीदारी के लिए दुकानें खुली रहीं और लोगों ने मस्जिदों में नमाज़ अता की. लेकिन हम जैसे रिपोर्टर जो कश्मीर के अलहदा हिस्सो में मौजूद हैं, या फिर यहां के बाशिंदों के लिए टीवी पर दिखाई जा रही कश्मीर की यह तस्वीर उतनी ही सच है जितनी महाभारत की लड़ाई में युधिष्ठिर का द्रोणाचार्य को यह बताना कि अश्वत्थामा मारा गया और यह छुपा लेना कि नर या कुंजर, और इसी दौरान कृष्ण का शंख बजा देना. यहां न्यूज़ चैनल युधिष्ठिर और कृष्ण दोनों की भूमिकाएं निभा रहे हैं.
पांच अगस्त को मोदी सरकार द्वारा जम्मू कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने और भारत के संविधान से अनुच्छेद 370 का वह हिस्सा हटा देने के बाद जो जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देता है, से एक रात पहले ही पूरी घाटी में सभी सेल्यूलर फ़ोन, इंटरनेट, केबल टीवी और लैंडलाइन नेटवर्क को बंद कर दिया गया. लोग किसी भी अच्छी या बुरी ख़बर के लिए या तो डिश टीवी और रेडियो पर निर्भर हैं या फिर पुलिस की गाड़ियों और मस्जिदों से होने वाली घोषणाओं पर. हालांकि डिश टीवी भी जल्द ही बंद हो जाएंगे क्योंकि इंटरनेट न होने की वजह से इनके रीचार्ज होने की सूरत नहीं बची है.
इतने बड़े फैसले के बाद लोगों की दबी हुई प्रतिक्रिया और खास विरोध नहीं होने के सवाल पर सोपोर के सेब व्यापारी मुहम्मद रसूल कहते हैं, “जब सबकुछ पहले ही बंद कर दिया है तो लोग कैसे प्रोटेस्ट कर पाएंगे. पर इसका मतलब ये बिलकुल नहीं है, जो इंडियन न्यूज़ चैनल दिखा रहे हैं, कि यहां सब ठीक है. हालात बहुत तनावपूर्ण हैं.”
एक सच्चाई यह भी है कि ब्लॉक स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के मुख्यधारा के नेताओं को या तो गिरफ़्तार कर घाटी से बाहर ले जाया गया है या स्थानीय जेलों में रखा गया है. कश्मीर चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़ के पूर्व अध्यक्ष मुबीन शाह, कश्मीर इकनॉमिक अलायंस के अध्यक्ष यासीन खान, एडवोकेट मियां कयूम और प्रोफ़ेसर हमीदा नईम जैसे सिविल सोसाइटी के तमाम लोगों को क़ैद कर कथित तौर पर आगरा भेज दिया गया है. हालांकि इसकी पुष्टि किसी सरकारी स्रोत से नहीं हुई है. इसके अलावा सोपोर के उन तमाम स्थानीय युवाओं को जिनका नाम पत्थरबाजी से जुड़ा रहा है उन्हें भी पांच अगस्त से पहले ही उनके घरों से उठा कर क़ैद कर लिया गया था. ऊपर से संचार के सभी साधनों को बंद कर दिया गया है, इसलिए किसी तरह के विरोध की आवाज़ें कम या बिल्कुल ही सुनाई नहीं दे रही हैं.
मुहम्मद रसूल जो बात कहते हैं उसे हम ईद से एक दिन पहले (11 अगस्त) मस्जिद जिनाब साहेब आंचार, सौरा में कम से कम 200 लोगों की भीड़ को एक साथ कहते हुए सुनते हैं. श्रीनगर के पॉश इलाकों में शुमार सौरा की यह वही मस्जिद हैं जहां 9 अगस्त को बड़े पैमाने पर भीड़ के जलूस निकालने और उस पर फायरिंग की ख़बर बीबीसी और अल जजीरा ने चलाई. इसका वीडियो वायरल हुआ तो वीडियो की सत्यता को लेकर कई शंकाएं खड़ी की गईं. न्यूज़-एक्स और रिपब्लिक जैसे न्यूज़ चैनल अपने दर्शकों को बता रहे हैं कि वीडियो में पीओके का झंडा दिखाई दे रहा है, यह फ़ुटेज जम्मू कश्मीर का नहीं बल्कि पीओके का है. यह रिपोर्टर घटना के दूसरे दिन एक बार फिर से सौरा के उसी जिनाब साहेब मस्जिद में पहुंची.
हमने पाया कि जिनाब साहेब मस्जिद के बाहर पीओके का वही झंडा लगा हुआ है. झंडे के सामने खड़ी करीब 200 स्थानीय लोगों का समूह सरकार के इस फ़ैसले के विरोध में नारे लगाता दिखा. आज भी किसी छोटे-मोटे विरोध सभा का दृश्य मौजूद है. भीड़ में मौजूद लोग जो इस फ़ैसले से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते, उनका कहना है कि हमें हर तरीके से बाकी दुनिया से काट कर यह फ़ैसला हमारे ऊपर थोपने की कोशिश की जा रही है, हम इसे हरगिज़ नहीं मानेंगे. वे कहते हैं कि हम इसके खिलाफ लड़ाई जारी रखेंगे.
मस्जिद परिसर में बड़ी संख्या में महिलाएं भी मौजूद थीं जो लगातार सरकार के इस फैसले के खिलाफ नारेबाजी कर रही थीं.
इस मसले पर भारतीय न्यूज़ चैनलों के एक हिस्से द्वारा दिखाए रहे झूठ को लेकर सिर्फ आम कश्मीरी ही नहीं बल्कि कश्मीरी पत्रकार भी नाराज़गी जताते हैं. श्रीनगर में एक अंतरराष्ट्रीय मीडिया समूह के लिए काम करने वाले एक वीडियोग्राफर अपना नाम नहीं उजागर करने की शर्त पर हमें ईद के दिन सुबह-सुबह जिनाब साहेब में निकले एक और विरोध प्रदर्शन की वीडियो और तस्वीरें दिखाते हुए बताते हैं, “रिपब्लिक टीवी जैसे चैनलों के झूठ से पर्दा उठाने के लिए इस बार विरोध कर रहे लोगों ने अपनी तख्तियों पर तारीख़ें लिखकर प्रदर्शन किया. प्रदर्शन में पाक अधिकृत कश्मीर और जैश ए मुहम्मद का झंडा भी लोगों ने ले रखा था.” वो आगे बताते हैं, “हिंदुस्तानी मीडिया में जबर्दस्त प्रोपगैंडा चल रहा है. वे सच नहीं दिखा रहे हैं. उल्टे वे सच बोलने वालों के खिलाफ देश की आवाम को इतना भड़का देंगे कि भीड़ सच बोलने-दिखाने वालों की जान की दुश्मन बन जाएगी.”
जिनाब साहेब के सामने जुटी भीड़ हमसे पूछने लगती है- अगर आपकी सरकार और मीडिया को लगता है कि सब ठीक है तो यहां इतनी फ़ोर्स क्यों लगा रखी है. क्यों फ़ोन और इंटरनेट बंद है. कुछ युवक पत्रकारों से कहते हैं कि वे उनकी बात पूरी दुनिया तक पहुंचाएं. वे यह भी कहते हैं कि जिस दिन कर्फ़्यू हटेगा, उस दिन सब देखेंगे कि कश्मीर के असली हालात क्या हैं. इस भीड़ में 9 तारीख़ के प्रदर्शन के दौरान पैलेट से घायल हुए लोग भी शामिल हैं. सोपोर में एक बुज़ुर्ग शिक्षक कहते हैं, “आप सवाल पूछने की बजाय खुद देखिए. ये रेस्ट्रिक्शंस अपनी कहानी खुद बयान करते हैं.”
दक्षिण कश्मीर के हालात
लोगों के पक्ष के साथ-साथ न्यूज़ चैनलों के दावों और हक़ीक़त के फ़र्क़ को समझने के लिए हमने श्रीनगर, पूर्व मुख्यमंत्री महबूब मुफ़्ती के गृहनगर, दक्षिणी कश्मीर के अनंतनाग और हुर्रियत नेता सैयद अली गिलानी के इलाके और जमात-ए-इस्लामी के गढ़, उत्तरी कश्मीर के बारामूला क्षेत्रों का भी दौरा किया. चाहे दक्षिण हो या उत्तर, पूरी बातचीत में लोगों की हताशा, निराशा और इस फैसले के प्रति दबे हुए ग़ुस्से के इर्द-गिर्द रही. हमने लोगों से प्रधानमंत्री और सरकार के नुमाइंदों द्वारा किए जा रहे उन वादों की तफ्तीश भी की कि इस फैसले से कश्मीर का देश के साथ एकीकरण और मजबूत होगा, विकास और अमन की बहाली होगी, लेकिन बातचीत में लोगों का इन दावों से दूर-दूर तक सरोकार नजर नहीं आता.
अनंतनाग ज़िले के संगम इलाके के रशीद भट और उनके दोस्त पहले तो इस मसले पर बात नहीं करना चाहते, लेकिन कुछ देर बाद वे कहते हैं, “हमें इससे क्या, ये हमारा मसला नहीं है. कश्मीर के लोगों को कल भी हिंदुस्तान से आज़ादी चाहिए थी, आज भी वही चाहिए. 370 रहे या जाए. जिन नेताओं को हिंदुस्तान ने अब जाकर गिरफ्तार किया है उन्हें फांसी दे देनी चाहिए. इन्हीं लोगों ने हमें बेचा है. अब इनके साथ जो हो रहा है ठीक हो रहा है.”
अनंतनाग दक्षिण कश्मीर का इलाका है, जाहिर है लंबे समय से यह आतंकवादियों का गढ़ भी रहा है. यहां भारत विरोधी भावनाएं ज्यादा मुखरता से सामने आती हैं. इस इलाके के ज़्यादातर लोग मुख्यधारा के नेताओं से बेहद नाराज़ दिखे. रशीद कहते हैं, “कश्मीर के लोग अभी चुप बैठे हैं. हिंदुस्तान अपना कार्ड खेल चुका है, अब पाकिस्तान जो करेगा उसके बाद यहां लोग तय करेंगे कि उन्हें क्या करना है.”
अपना नाम न बताते हुए श्रीनगर के नट्टीपोरा इलाके के एक बुज़ुर्ग कहते हैं, “अब हिंदुस्तान की सरकार हमें और झांसा नहीं दे सकती है. पहले उन्होंने हमें प्लेबेसाइट का झांसा दिया, फिर हमारा प्रधानमंत्री हमसे छीना, धीरे-धीरे 370 को डाइल्यूट किया और अब जब पूरी किताब फाड़ देने के बाद जो कवर बचा था वो भी हमसे छीन लिया.” उनके मुताबिक़ अनुच्छेद 370 हिंदुस्तान और कश्मीर के बीच रिश्ते का आख़िरी पुल था जिसे तोड़ दिया गया है. उनके साथ मौजूद उनके एक और साथी कहते हैं, “अब तक हम फिर भी लीगली इंडिया के साथ थे, अब उन्होंने पूरी तरह हमारे ऊपर नाजायज़ क़ब्ज़ा कर लिया है.” इस बदलाव को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने की बात पर वे कहते हैं कि उन्हें अब हिंदुस्तान पर और भरोसा नहीं रहा है.
जनसांख्यिकी में बदलाव का डर
पूरी घाटी में आम लोग यह डर ज़ाहिर कर रहे हैं कि 370 हटाए जाने के बाद यहां बाकी हिंदुस्तान से लोगों को लाकर बसाया जाएगा. बिजबिहरा के रशीदुद्दीन कहते हैं, “यहां लोगों में डर है कि अब कश्मीर की सालमियत ख़तरे में है. अब उनकी ज़मीनें बाहर वाले आकर उनसे छीन लेंगे.” इसके अलावा लोग अपनी तहज़ीब और संस्कृति के कमज़ोर हो जाने का भी डर ज़ाहिर करते हैं. सोपोर की सादिया कहती हैं, “बाहर के लोग आएंगे तो कश्मीर का कल्चर धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा, लड़कियां वेस्टर्न कपड़े पहनेंगी और भी न जाने क्या-क्या होगा.”
जनसांख्यिकी में बदलाव का मसला सिर्फ डर तक सीमित नहीं है, यह कश्मीरियों में बाकी हिंदुस्तानियों के खिलाफ बढ़ती नफ़रत का कारण भी बनता है.
इस डर पर बात करते हुए श्रीनगर के एक प्रशासनिक अधिकारी ऑफ द रिकॉर्ड कहते हैं कि कश्मीर घाटी के हालात ऐसे रहे हैं कि यहां किसी भी बाहर वाले के लिए आना इतना आसान नहीं होगा. वे कहते हैं, “कश्मीर में अभी बाहर के आम लोग नहीं आएंगे, यहां उद्योगपतियों को ज़मीन मिलेगी. आम लोग जम्मू इलाके में ज़मीनें ख़रीदेंगे.” कश्मीरी पंडितों के घाटी वापस लौटने के बारे में वे कहते हैं अब शायद सरकारी ज़मीनों पर हाउसिंग कॉलोनियां बनाई जा सकेंगी जहां पंडित परिवार घर ख़रीदना चाहेंगे.
श्रीनगर से निकलने वाली एक अंग्रेज़ी पत्रिका के संपादक कहते हैं कि रातों रात इस फ़ैसले ने कश्मीर को सांप्रदायिक बना दिया है. वे कहते हैं, “अब तक सिर्फ भारत सरकार और सुरक्षा बलों को दुश्मन समझा जाता था, अब उनके लिए हर हिंदुस्तानी दुश्मन हो गया है, चाहे वो यहां काम करने वाले पांच लाख बिहारी मज़दूर हों या सैलानी या फिर यात्री.”
भारत में सोशल मीडिया पर चल रही मीम्स कि अब वे गुलमर्ग में ज़मीन ख़रीदेंगे या कश्मीर की गोरी लड़की से शादी करेंगे, ने भी इस ग़ुस्से को आंच देने में अपनी भूमिका निभाई है. इंटरनेट बंद होने के बावजूद ईद पर घर लौटे कश्मीरियों के ज़रिए ये मीम्स बाकी लोगों तक पहुंच रही हैं.
सरकार के इस क़दम से प्रशासन के लोग सहमत
उत्तरी कश्मीर में तैनात एक वरिष्ठ पुलिस अफ़सर की मानें तो यह पुलिस के लिए बेहद फ़ायदेमंद क़दम है. वे कहते हैं, “अब पुलिस पर स्थानीय नेताओं का दबाव नहीं रह जाएगा. पहले जब हम पत्थरबाज़ों को पकड़ते थे तो किसी नेता की सिफ़ारिश आ जाती थी कि इसे छोड़ दो या उसे छोड़ दो. केंद्र सरकार के नीचे पुलिस ज़्यादा निष्पक्ष ढंग से क़ानून व्यवस्था लागू कर सकेगी.”
वे यह भी कहते हैं कि 370 ही अलगाववाद की असली जड़ थी, इसे बहुत पहले हटा देना चाहिए था. अब लोग समझ जाएंगे कि उनका मुस्तकबिल हिंदुस्तान के साथ ही है. एक और प्रशासनिक अधिकारी कहते हैं कि अब हमें सरकारी योजनाओं के लिए पूरा पैसा केंद्र से मिलेगा, हमें राज्य सरकार की हां का इंतज़ार नहीं करना होगा. इससे तेज़ी से विकास होगा.
मिलिटेंसी पर क्या असर होगा?
ज़्यादातर लोगों का मानना है कि आने वाले वक्त में कश्मीर में एक बार फिर ख़ून-ख़राबा होगा. बारामूला के एक सरकारी कर्मचारी अपना नाम न बताते हुए कहते हैं, “आपका टीवी चाहे कुछ दिखाए, चाहे आप पूरी दुनिया से हमारी हक़ीक़त अंधेरे में रख लें, पर यहां लोग चुप नहीं बैठेंगे. आप यहां आर्मी लाते जा रहे हैं और आप सोच रहे हैं कि हम डर के चुपचाप आपके फ़ैसले मान लेंगे. कभी तो यहां ढील होगी. आप देखिए कितने लोग हथियार उठाएंगे.”
ऑफ द रिकॉर्ड बात करते हुए स्थानीय पुलिस अफ़सर भी मानते हैं कि बहुत मुमकिन है कि लोग हथियार उठाएंगे और सीमापार से घुसपैठ की कोशिशें भी बढ़ेंगी. बहुत से लोग अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के जाने और तालिबान और पाकिस्तान के बीच चल रही शांतिवार्ताओं से भी इस बदलाव को जोड़ कर देखते हैं. उनके मुताबिक़ अफ़ग़ान मिलीशिया कश्मीर का रुख़ कर सकता है. स्मार्ट सिटी प्रॉजेक्ट में काम करने वाले एक अधिकारी कहते हैं, “हम सुन रहे हैं कि पाकिस्तान इस मसले को यूएन सीक्योरिटी काउंसिल में ले जाएगा और इस मसले पर उसे वीटो किया जाएगा. तब वे कश्मीर में गुरिल्ला वॉर शुरू करेंगे. कहेंगे कि आपने टेबल पर मसला नहीं सुलझने दिया, यह उसी का नतीज़ा है.”
साल 2008, 2010 और 2016 के दौरान काफी नुक़सान झेल चुका घाटी का सभ्रांत तबक़ा यह महसूस कर रहा है कि कश्मीर अब उनके बच्चों और उनके व्यापार के लिए ठीक नहीं रह गया है. श्रीनगर व अन्य शहरों के कई व्यापारी परिवार कश्मीर छोड़ कर जाने की बात करते हैं. श्रीनगर के एक व्यापारी अपना नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, “वो लोग काफी समझदार थे जो 2016 की एजीटेशन के बाद कश्मीर छोड़ कर चले गए. अब हमें भी अक़्ल आ रही है, ये जगह अब रहने लायक़ नहीं बची.” व्यापारी का यह डर आने वाले समय में कश्मीर में पैदा होने वाले हालात का इशारा हैं.
इस सवाल पर कि वे कहां शिफ्ट होना चाहते हैं, वे छूटते ही कहते हैं कि इंडिया तो हरगिज़ नहीं. ईद पर परिवार के साथ इकट्ठा हुए सोपोर के एक फल व्यापारी कहते हैं कि बाकी सब नुक़सान तो फिर भी हम झेल लेते हैं लेकिन लगभग हर साल हालात बिगड़ते हैं और बच्चों की पढ़ाई का नुक़सान बहुत ज़्यादा होता है. वे बताते हैं, “इस ईद पर हमारे ज़्यादातर परिवारों में यही बात हो रही है कि हमें अब कहीं बाहर शिफ़्ट हो जाना चाहिए.”
10 अगस्त के बाद नहीं छपे हैं अख़बार
घाटी के सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले अंग्रेज़ी अख़बार ‘ग्रेटर कश्मीर’ के ऑनलाइन संपादक दानिश नबी बताते हैं, “न रिपोर्टर्स को फ़्री मूवमेंट है, न स्थानीय विज्ञापन मिल रहे हैं, ना ही इंटरनेट है. कम से कम 20 पन्नों में छपने वाला अख़बार पांच से दस तारीख़ तक सिर्फ छह पन्नों में छप रहा था. फिलहाल मैनेजमेंट को 16 अगस्त तक अख़बार का प्रकाशन रोकने का फ़ैसला लेना पड़ा है. ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ है.” इसी तरह राइज़िंग कश्मीर व अन्य अख़बार भी चार पन्नों तक सिमटने के बाद अखबार का प्रकाशन रोकने का फ़ैसला ले चुके हैं.
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