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दीपक डोबरियाल: ‘बेइज्जती’ सहो, उन्हें स्वीकार करो, कभी रिएक्ट मत करो और खुद में सुधार करो
2003 में आई विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘मकबूल’ में थापा का किरदार निभाने के पहले दीपक डोबरियाल ने अनुराग कश्यप की ‘गुलाल’ में राजेंद्र भाटी और अमृत सागर की ‘1971’ में फ्लाइट लेफ्टिनेंट गुर्टू की भूमिकाएं निभा ली थीं. कैमरे से उनका सामना हो चूका था. संयोग कुछ ऐसा बना कि इन दोनों फिल्मों से पहले विशाल भारद्वाज की ‘ओमकारा’ रिलीज हो गई. इस फिल्म में लंगड़ा त्यागी(सैफ अली खान) के साथ वह राजेश तिवारी की भूमिका में दिखे. इस भूमिका में उन्हें भरपूर सराहना और फिल्म फेयर का स्पेशल अवॉर्ड मिला. ‘ओमकारा’ में उनके नाम के पहले ‘इंट्रोड्यूसिंग’ लिखा गया था, जिसे देखकर अनुराग कश्यप ने अफसोस और खुशी जाहिर की थी. दरअसल, ‘गुलाल’ नहीं अटकती और समय पर रिलीज हो जाती तो दीपक डोबरियाल को’ इंट्रोड्यूस’ करने का श्रेय अनुराग कश्यप को मिल जाता.
बहरहाल, ‘ओमकारा’ ने उत्तराखंड के गढ़वाल जिले के कबरा गांव में जन्मे दीपक डोबरियाल के कैरियर को आवश्यक गति दे दी. इस फिल्म के लिए मिली सराहना और पुरस्कार के बावजूद बड़ी पहचान बनाने में दीपक डोबरियाल को चार साल लग गए. 2010 में दीपक डोबरियाल को बेला नेगी के निर्देशन में आई ‘बाएं और दाएं’ में नायक रमेश मजीलता और ‘तनु वेड्स मनु’ में पप्पी की भूमिकाएं मिलीं. पहली फिल्म में वह नायक थे, लेकिन ‘बाएं और दाएं’ सीमित रिलीज की वजह से कम देखी गई. वहीं आनंद राय की ‘तनु वेड्स मनु’ की लोकप्रियता ने पप्पी को दर्शकों का प्रिय बना दिया. पप्पी को बहुत पसंद किया गया. पांच सालों के बाद ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ में फिर से पप्पी की भूमिका ने दीपक डोबरियाल को दोहरी ख्याति के के साथ छवि का शिकंजा भी दिया. उन्हें कॉमिक रोल के कलाकार के पाश में बांधने की कोशिश की गयी. वे सचेत रहें उन्होंने प्रसिद्धि कायम रखने की आसान राह नहीं चुनी. दुनियावी तौर पर खुद का नुकसान सहा और बेहतरीन किरदार के इंतजार में रहे. मुहावरों में ही ‘सब्र का फल मीठा’ नहीं होता. इंतजार और लगन से जिंदगी में भी मिठास आती है. ‘हिंदी मीडियम’ में दीपक डोबरियाल को अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का बड़ा मौका दिया. साथ में इरफ़ान थे तो समुचित और समक्ष परफॉर्मेंस के लिए उत्साह भी रहा. इरफ़ान ने सहअभिनेता को प्रदर्शन का पूरा मौका दिया. इस फिल्म में उनका किरदार श्याम प्रकाश कोरी निखर कर दर्शकों के बीच पहुंचा और सहानुभूति व सराहना ले गया. सभी ने माना कि दीपक ने इरफ़ान को टक्कर दी. दीपक मानते हैं कि इरफ़ान भाई से सीखने का मौका मिला.
‘बाबा’ की रिलीज के पहले दीपक डोबरियाल फिर से इरफान के साथ ‘अंग्रेजी मीडियम’ की शूटिंग कर रहे थे. कैंसर की बीमारी से स्वस्थ होकर लौटे इरफान ने ‘अंग्रेजी मीडियम’ के लिए हामी भरी तो उनके प्रशंसकों को सुकून के साथ खुशी मिली. दीपक डोबरियाल और इरफान की केमिस्ट्री फिर से इस फिल्म में दिखेगी. दीपक इस फिल्म के बारे में बताते हुए भावुक हो जाते हैं. उनके लिए एक फ्रेम में इरफान के साथ आना किसी ने नेमत से कम नहीं है. दीपक बताते हैं,’ उन्होंने पूरे फन और एनर्जी के साथ काम किया. इस बार उनका सुर अलग ही दर्जे का है. कहीं भी नहीं लगता कि वे किसी चीज से जूझ रहे हैं. थोड़े दार्शनिक भाव में रहते हैं और शांत हो गए हैं. उन्होंने हमें इतना केयर और प्यार दिया. सेट पर हंसी-खुशी का माहौल रहता था. शॉट लेने से पहले हमारी बैठकी में हंसी-मजाक के फव्वारे फूटते थे. सभी उस में भीग जाते थे. माहौल बन जाता था. मेरी तो यही दुआ है कि वे जल्दी से जल्दी पहले की तरह एक्टिव हो जाएं. दर्शकों को उनका अंदाज दिखे.’ दीपक डोबरियाल इरफ़ान को ‘बाबा’ दिखाना चाहते हैं. इरफ़ान की प्रतिक्रिया और सराहना की उम्मीद से अधिक दीपक को विश्वास है कि ‘मेरी फिल्म देखकर वे बहुत खुश होंगे. वे मुझे इतना मानते और स्नेह देते हैं कि उनकी खुशी की कल्पना से ही मैं अभिभूत रहता हूं
‘हिंदी मीडियम’ के बाद दीपक डोबरियाल ‘लखनऊ सेंट्रल’, ‘कालाकांडी’ और ‘बागी 2’ में दिखे. पिछले साल उनकी ‘कुलदीप पटवाल आई डिड नॉट डू इट’ आई थी. भूमिका बड़ी थी,फिल्म छोटी थी. बड़ी रिलीज नहीं मिलने से यह अधिक दर्शकों तक नहीं पहुंच सकी. इस बीच राज गुप्ता ने उनसे मिलने और ‘बाबा’ की स्क्रिप्ट सुनाने की अनेक कोशिशें कीं. दीपक के डेढ़ महीने के टालमटोल को समझते हुए एक दिन राज ने सीधे शब्दों में कह दिया, ‘आपको मना ही तो करना है. एक बार सुन लो.’ दीपक बताते हैं,’ राज की यह बात मुझे चुभ गई. मुझे लगा कि नया लड़का है. जरूर कोई बात होगी. मैंने स्क्रिप्ट सुनी और फिर अभी फिल्म सभी के सामने है. अब तो मैंने तय कर लिया है कि कोई भी स्क्रिप्ट हो. मैं सुनूंगा जरूर. नए बंदों को भी अनदेखा नहीं करूंगा.’ दीपक यारी रोड के एक कैफ़े में नितमित रूप से से नए कलाकारों से मिलते हैं और उन्हें गाइड करते हैं.
दीपक नहीं चाहते कि नए लड़के अनावश्यक झेंप और संकोच में न रहें . फिल्म इंडस्ट्री के भौकाल से ना डरें.
बातचीत के मुख्या अंश
‘बाबा’ में नायक की भूमिका है आपकी. इस फिल्म की रिलीज को अपनी उपलब्धि के तौर पर लेंगे या सिर्फ आंतरिक खुशी मिली है कुछ कर पाने की?
मेरे लिए आंतरिक खुशी का वक्त है. हमें और आपको मालूम है कि इंडस्ट्री में हमारे जैसे कलाकारों को कैसे रोल मिलेंगे? इस कमरे से उस कमरे में जाते हुए मैं कभी सोचता और विजुलाइज करता हूं कि क्या कोई मेरे मुताबिक रोल ले आएगा. मराठी फिल्म ‘बाबा’ में मुझे मेरी सोच और कल्पना का रोल मिल गया है. मैं खुद को सौभाग्यवान मान रहा हूं कि यह स्क्रिप्ट मेरे पास आई.
उत्तराखंड के कबरा गांव से मुंबई के यारी रोड तक के सफर को पलट कर देखें तो क्या एहसास पनपते हैं?
शुरू में तो कुछ सोच ही नहीं पाता था. तब केवल काम चाहिए था. थोड़ा काम मिला… बाद में कुछ और काम मिला. तब एक एहसास और गर्व होता था कि मैं आगे आया हूं. कबरा गांव से यहां तक आ गया. मेरी ही तरह मेरे गांव और दिल्ली के दोस्तों को लगता होगा कि मेरी तरक्की हो रही है, लेकिन सच कहूं तो यही लगता है कि असली खुशी छोड़ आई जगहों में रह गयी है. आगे बढ़ने और पीछे रह जाने के भेद से मैं निकल चुका हूं. अब मुझे छूट गई चीजों की कदर पता चलने लगी है. अभी पिछले दिनों गांव गया तो झड़ते पहाड़ों को देखकर दुख हुआ. वहां पलायन जारी है. स्खलन से पहाड़ नंगे हो रहे हैं. मेरे घर के पास का 800 साल पुराना पेड़ गिर गया. मैंने वहां एक पेड़ लगाया. उसका लहलहाना देख कर जोश आया और मैंने डेढ़ सौ पेड़ लगाए. आम. लीची. आडू, कटहल के पेड़ लगाए हैं. अपने गांव से फिर से जुड़ गया हूं. कुछ और स्थिरता आ जाये तो तीन-चार महीने वहीँ रहूँगा.
फिर भी दुनियावी पहचान और कामयाबी तो आगे बढ़ना है ही….
कहां सर? अभी मैंने लंदन में वैन गॉग की पेंटिंग ‘स्टारी नाइट’ देखि. देखकर दंग रह गया. वह पेंटिंग हिप्नोटाइज कर लेती है. उसे देखते हुए लगा कि मैं किस बात पर इतरा रहा हूं. अभी मैंने किया ही क्या है. यहां फिल्म के दिग्गजों का काम देख कर एहसास ए कमतरी होती है. मीडिया और अखबार दिखला रहे हैं कि आज के लोकप्रिय स्टार/एक्टर फलां हैं. लेकिन एक एक्टर के तौर पर मुझे तो दिख ही जाता है कि कौन क्या है? बलराज साहनी को ले लें. उन्होंने किस डिग्निटी के साथ ‘गर्म हवा’ की भूमिका निभाई है? उन्होंने कैसे निभाई होगी? फिर उन्हीं को आप ‘दो बीघा जमीन’ में देखते हैं. गंवई किसान और रिक्शावाला के रूप में.. और फिर ‘वक्त’ में उनका अंदाज देख लें. मुझे मालूम है कि मेरे जैसा कौन खाता था? यहां तो स्टार को एसिडिटी हो रखी है और वह चौड़े होकर चला जा रहा है. उधार की उर्जा लेकर आगे नहीं बढ़ना चाहता मैं. 10 सालों के बाद यह एहसास नहीं चाहता कि अरे मैं तो भटक गया था. मैं अपनी कमजोरी, आकांक्षा, समाज के जोर से अनचाहे रास्ते पर नहीं जाऊंगा. इरफान भाई को देख लें. उन्हें लंबा वक्त लगा, लेकिन उन्होंने हिला कर रख दिया, एक बार उनसे मैंने पूछ दिया कि अपनी ‘बेइज़्ज़तियों’ के बारे में बताइए. वे खूब हंसे मेरे सवाल पर. उन्होंने मजे लेकर कई किस्से सुनाए.
इरफान की ‘बेइज्ज़ती’ तो आप नहीं बताएंगे. अपनी बताएं. आपकी कैसी और कब ‘बेइज्जती’ हुई?
मेरे भी कई किस्से हैं. एक तो शुरुआती दिनों का है. दिल्ली के सराय रोहिल्ला में ‘एक्टिंग सीखो’ बोर्ड लगा हुआ था. उसे देख कर मैं उनके यहां पहुंचा. पता किया तो मालूम हुआ कि हर महीने 150 रुपये देने होंगे और छह महीने के बाद नाटक होगा तो रोल मिलेगा. छह महीनों तक मैं डेढ़ सौ रुपये’ देता रहा. फिर नाटक हुआ तो मुझे पांच दिनों पहले बताया गया कि तुम इसमें शैतान का रोल कर रहे हो. और तुम्हारे दाएं बाएं दो गुर्गे होंगे. मेरा रोल हिंदू-मुसलमान में भेद डालकर दंगा करवाने का था. ऐवान ए गलिन में शो था. मैंने दोस्तों को बता दिया. वे नाटक देखने आये. मुझे स्टेज पर देखकर वे सभी हंसते हुए पागल होते रहे. नाटक ख़त्म होने के बाद मैंने अपने काम के बारे में पूछा तो सब ने मेरा मजाक उड़ाया और हँसे. उनकी हंसी मेरे दिल में चुभ गई. बड़ी बेइज्जती महसूस हुई. वहां से मैं सीधे मंडी हाउस गया. पहले अरविंद गौड़ और फिर एक्ट वन में मैंने काम किया. दोनों जगहों पर मेर ट्रेनिंग हुई. ढाई सालों के बाद पुराने दोस्तों में से दो ने किसी पोस्टर पर मुझे देखा तो नाटक देखने आए. नाटक देख कर दोनों अचंभे में रह गए..फिर एक संतुष्टि हुई. मैंने तभी सीख लिया कि ‘बेइज्जती’ सहो, उन्हें स्वीकार करो, कभी रिएक्ट मत करो और खुद में सुधार करो. मुंबई की हर ‘बेइज्ज़ती’ को अपनी असफलता मानकर मैंने सीखने की कोशिश की. महंगाई और प्रतियोगिता के इस शहर में कुढ़ने से काम नहीं चलेगा. अपने अनुभव नए लोगों में बाँटता हूं. उन्हें बताता हूं कि संकोच ना करो. मैं इंडस्ट्री का हौआ शांत कर देता हूं. मुझे ऐसा कोई नहीं मिल पाया था. बाकी ‘बेइज्ज़ती’ के कितने किस्से सुनाऊं? अपनी फिल्म के प्रीमियर पर रोक दिया गया हूं. अपमानित होता रहा हूँ.
दिल्ली में रंगमंच की सक्रियता के दिनों में किन लोगों ने आप को तराशा?
सबसे पहले अरविंद गौड़ का नाम लूंगा. फिर एनके शर्मा, पियूष मिश्रा, शाहिद अनवर(अब नहीं रहे). शाहिद भाई से मेरा याराना था. उन्होंने शायरी और किताबों से प्रेम करना सिखाया. वह हमेशा साथ रहे. एनएसडी के राम गोपाल बजाज रोबिन दास, प्रसन्ना… प्रसन्ना के साथ मैं काम नहीं कर पाया. सीनियर और अनुभवी के साथ रहो तो एनर्जी बचती है. खुद खोजने और सोचने में वक्त बिताने से बेहतर है कि गुरुओं से पूछ लो. उनसे निर्देश ले लो. संगत का बहुत असर रहा है मुझ पर.
ऐक्टर होने के आरंभिक तैयारी के पाठ क्या थे?
परस्पर ऑब्जर्वेशन… मैं तो नाटक देख कर ही सीखता गया. एनएसडी के प्ले नहीं छोड़ता था. बाकी थिएटर ग्रुप के भी नाटक देखा करता था. यशपाल शर्मा, चितरंजन गिरि, मुकेश तिवारी, विजय राज आदि से काफी कुछ सीखा, हम कलाकारों ने आपसी विवाद और विमर्श से बहुत कुछ सीखा और खुद को सुधारा. समीक्षकों की भाषा अधिक समझ में नहीं आती थी. जो समझ में नहीं आता था उसके बारे में पता करता था. अब जैसे रोबिन दास ने एक बार कहा कि कलाकारों को ‘कलात्मक पूर्वाग्रह’ छोड़ना चाहिए. मुझे लगा कि हम भी कलाकार हैं तो हमें यह छोड़ना चाहिए, लेकिन समझ में नहीं आया कि क्या छोड़ना है? तो उनसे ही पूछने चला गया. दिल्ली के दिनों में फिल्मों में आने की बात सोची भी नहीं थी मैंने.
आपने रंगमंच से अभिनय सीखा. फिर आप फिल्मों में आ.ए फिल्मों का अभिनय थोड़ा अलग होता है. क्या और कैसे बदलना पड़ा खुद को?
नाटक में प्रोजेक्शन पर जोर रहता है. फिल्मों में रिएक्शन का खयाल रखना पड़ता है. बारीक़ फर्क है, लेकिन कैमरा बहुत संवेदनशील होता है. बारीक से बारीक रिएक्शन भी पकड़ लेता है. फिल्म का अभिनय किफायती होता है. मुझे लगता है कि फिल्मों में आने और निरंतर काम से भी अभिनय में सुधार और निखार आता है. फिल्मों में अभिनय की निजी शैली विकसित हो जाती है. वह ज़रूरी है. सिनेमा के अभिनय में शब्दों के दृश्य साहचर्य को समझना बहुत जरूरी है.
शुरुआती दिनों में कैसी दिक्कतें रहीं? मुंबई आ रहे हैं कलाकारों को अपने अनुभव से क्या बताना चाहेंगे? क्या मंत्र देंगे?
कोई मंत्र पर काम नहीं आता. सभी अपनी यात्रा तय करते हैं. फिर भी मुझे लगता है कि बाहर से आए कलाकारों को ‘कस्बाई संकोच’ छोड़ देना चाहिए. यहां आने पर मेरे दोस्त कहते थे कि दिल्ली के परिचितों को फोन कर… जाकर मिल. मैं संकोच में नहीं जाता था. मुझे लगता है कि ‘कस्बाई संकोच’ नहीं रहना चाहिए. विनम्र भाव से अप्रोच करने में दिक्कत नहीं है. ज्यादा से ज्यादा इंकार ही तो मिलेगा. हां,बदतमीजी नहीं होनी चाहिए. बाहर से आए लोगों में एक फालतू अकड़ भी रहती है. मुझे चार साल लगे. संघर्ष के दिनों में एक कमरे में हम छह लोग साथ रहते थे. एक ही बिस्तर था कोई एक करवट बदलता था तो बाकी पांच को भी करवट बदलनी पड़ती थी. बिस्तर पर करवट की लहर चलती थी समुद्र की लहरों की तरह.
उस दौर का कोई प्यारा और सुखी अनुभव भी तो रहा होगा?
क्या बताऊं? ‘ओमकारा’ के लिए फिल्म फेयर का विशेष पुरस्कार मिला तो सारे खोए-बिछड़े दोस्त मिल गए. सभी अपने संघर्ष और सफलता के बिलों से निकलकर मिलने आए. उन्होंने पार्टी और सेलिब्रेशन के लिए अपने डेबिट और क्रेडिट कार्ड मुझे दे दिए. ऐसी दरियादिली कहां मिल सकती है? आज भी सोचता हूं तो आंखें नम हो जाती हैं. वह सुख और वह प्यार ही तो पूंजी है.
इस सफर में किन फिल्मों का उल्लेख करना चाहेंगे?
सबसे पहले ‘ओमकारा’…. इस फिल्म ने तो पूरी जिंदगी बदल दी. इस फिल्म ने मुझे बताओ एक्टर और इंसान…मेरी जिंदगी… सब कुछ ही बदल दिया. ‘तनु वेड्स मनु’ से पॉपुलर पहचान बनी, लेकिन ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ के बाद यही पहचान फांस बन गई. इंडस्ट्री और प्रशंसकों ने बतौर एक्टर बांधने की कोशिश की. पप्पी की छवि से निकलना जरूरी हो गया था. ‘हिंदी मीडियम’ से यह मुमकिन हुआ. उस फिल्म से आदर और सम्मान मिला. इरफान भाई के साथ आना बड़ी बात रही. उन्होंने बहुत मदद की. उस रोल को निभाने में मजदूरों के बीच में किए नाटक और उनसे मेल-मुलाकात का अनुभव काम आया. ‘बाबा’ में मेरा काम लोगों को पसंद आ रहा है. इस फिल्म के लिए मैंने विराम लिया था और लगभग दो सालों का इंतजार किया. तीन-चार चालू किस्म की फिल्में छोडीं और आर्थिक नुकसान सहा.
‘बाबा’ की भूमिका निभाते समय क्या कभी संजीव कुमार और नाना पाटेकर की फिल्मों की याद आई. उनके प्रभाव या उनसे बचाव की कोई कोशिश करनी पड़ी?
हर भूमिका निभाते समय सामान्य बातें तो एक ही तरीके से जहन में आती हैं. हमें अपनी भाषा तय करनी होती है. संजीव कुमार के साथ गुलजार साहब ने और नाना पाटेकर के साथ संजय लीला भंसाली ने अपने समय के मूक-वधिर की कहानी कही. मुझे राज गुप्ता के मूक-वधिर को पर्दे पर लाना था. हमारे फिल्मकारों ने मूक-वधिरों की अधिक कहानी नहीं कही. गिनती की फिल्में आ पाई हैं. प्रभाव का बोझ नहीं लेता मैं. इस फिल्म के लिए राज गुप्ता से बातचीत में तय हुआ कि माधव इतना गरीब है कि वह साइन लैंग्वेज भी नहीं सीख सकता. हमें इस किरदार को पर्दे पर थोड़े अलग भाव और अंदाज में पेश करना पड़ा.
पुनःश्च : शब्दों का दृश्य साहचर्य
इस बातचीत में दीपक ने शब्दों के दृश्य साहचर्य(विजूअल) की बात की है. इसके उदहारण के रूप में उन्होंने पानी का उल्लेख किया. संवाद में या जीवन में पानी बोलते समय आज के शहरी या मुंबई में पले-बढे कलाकार के मानस में बोतल.नल और समंदर के पानी का दृश्य साहचर्य होगा. मैं पहाड़ से आता हूँ. मेरे लिए पानी के साथ झरना,वेगवती नदी.शांत नदी,तालाब,लोटे,बाल्टी और कुंए’ के पानी का दृश्य साहचर्य बनेगा. उससे पानी बोलते समय मेरा अनुभव कुच्छ और होगा. कलाकार की इन्द्रियां कितनी जागृत हैं और आप ने कितना पढ़ा या देखा है? इनसे बहुत फर्क पड़ता है.
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