Newslaundry Hindi
रिसर्च : हिंदी मीडिया में वंचित समुदायों का प्रतिनिधित्व न्यूनतम, शीर्ष पदों से गायब दलित और पिछड़े
हाल ही बीबीसी हिंदी में दलित और ओबीसी पत्रकारों की संख्या को लेकर सवाल खड़े हुए. लोगों ने आरोप लगाये कि बीबीसी हिंदी में ज़्यादातर पत्रकार सवर्ण बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले हैं.
लेकिन यह स्थिति सिर्फ बीबीसी हिंदी की नहीं, लगभग सभी मीडिया संस्थानों की है. चाहे हिंदी टेलीविजन हो, अख़बार हो या ऑनलाइन हर जगह सवर्ण बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले लोगों का दबदबा है. शीर्ष पदों पर तो 90 प्रतिशत से ज़्यादा सवर्ण ही मौजूद है.
यह खुलासा हुआ है, न्यूज़लॉन्ड्री, टीमवर्क और ऑक्सफैम द्वारा कराये गये एक रिसर्च में. इस रिपोर्ट में कुछ चौकाने वाले आंकड़े सामने आये हैं, जो मीडिया के चरित्र पर ही सवाल खड़े करते हैं. रिपोर्ट बताती है कि किस तरह सबके अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले मीडिया संस्थाओं में ही देश की एक बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व गायब है. एक खास समुदाय के लोग ही सबकी बात कर रहे हैं.
यह रिसर्च अक्टूबर 2018 से मार्च 2019 के दौरान प्रसारित और प्रकाशित कंटेंट के आधार पर किया गया है.
टेलीविजन
आम जन को सबसे ज़्यादा प्रभावित करने वाले माध्यम टेलीविजन में सवर्ण समुदाय का वर्चस्व साफ़ नज़र आता है. हालत ये है कि तमाम संस्थानों में शीर्ष पदों पर सौ फीसदी सवर्ण समुदाय के लोग मौजूद है.
रिसर्च में छह बड़े हिंदी चैनल, आज तक, न्यूज़ 18 इंडिया, एनडीटीवी इंडिया, राज्यसभा टीवी, रिपब्लिक भारत और ज़ी न्यूज़ को शामिल किया गया है.
सिर्फ शीर्ष पदों पर ही नहीं, बल्कि ज़्यादातर एंकर भी सवर्ण समुदाय से ताल्लुक रखने वाले हैं. रिसर्च में सामने आया है कि टेलीविजन पर आने वाले प्राइम टाइम कार्यक्रम को एंकर करने वालों में दस में से आठ एंकर सवर्ण ही होते है. यही नहीं, टीवी चैनलों पर होने वाले डिबेट शो में भी शामिल होने वाले ज़्यादातर वक्ता और विशेषज्ञ भी सवर्ण समुदाय से ही संबंध रखने वाले होते है. चैनलों की बहसों में शामिल होने वाले लोगों में से दो-तिहाई से अधिक उच्च जाति से होते हैं. राज्यसभा टीवी में तो 10 में से नौ पैनलिस्ट सवर्ण होते हैं.
रिसर्च के अनुसार सबसे ज़्यादा 89.1 प्रतिशत सवर्ण समुदाय के पैनलिस्ट राज्यसभा चैनल के अलग-अलग डिबेट में हिस्सा लिए, जिन्हें जाति के मुद्दे पर बात रखने के लिए बुलाया जाता है. वहीं सबसे कम 64.1 प्रतिशत सवर्ण समुदाय के लोग न्यूज़ 18 इंडिया के डिबेट कार्यक्रम में शामिल हुए. एनडीटीवी इंडिया के अलग-अलग कार्यक्रमों में 65.9 प्रतिशत सवर्ण समुदाय के लोग शामिल हुए.
जिन सात चैनलों को रिसर्च में शामिल किया गया, उनमें हुए 1184 डिबेट कार्यक्रम में 1,248 लोगों ने हिस्सा लिया. राज्यसभा टीवी के कार्यक्रम में जहां 70 प्रतिशत वक्ता सवर्ण समुदाय से रहे, वहीं बाकी चैनलों पर 80 प्रतिशत वक्ता सवर्ण समुदाय से ताल्लुक रखने वाले शामिल थे.
अख़बार
टेलीविजन की तरह अख़बारों में भी दलित, अति पिछड़े वर्ग की उपस्थिति बेहद कम है. रिसर्च के लिए दैनिक भास्कर, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर, पंजाब केसरी, और हिंदुस्तान को चुना गया. इन सभी अख़बारों के शीर्ष नेतृत्व में एक भी दलित, आदिवासी या ओबीसी पत्रकार नहीं है.
अख़बारों में काफी संख्या में बिना बाइलाइन की खबरें दिखीं. खबर को लिखने वाले का नाम नहीं होने के कारण रिसर्च में शामिल नहीं किया गया है. हालांकि, रिसर्च में सामने आया है कि हिंदी अख़बारों की स्थिति अंग्रेजी अख़बारों से बेहतर है. हिंदी अख़बार, अंग्रेजी अख़बारों की तुलना में पिछड़े और दलित समुदाय के लोगों को ज्यादा मौके देते नज़र आये हैं. पंजाब केसरी और राजस्थान पत्रिका में 12 प्रतिशत आर्टिकल एससी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लोगों ने लिखा है.
रिसर्च में आये आंकड़ों में खेल और बिजनेस वाले पेज में सवर्ण समुदाय का वर्चस्व साफ़ नजर आता है. खेल वाले पेज पर 58 प्रतिशत खबरें सवर्ण समुदाय के लेखकों की बाइलाइन के साथ प्रकाशित हुई और 80 प्रतिशत लेख इन्हीं सवर्ण समुदाय से ताल्लुक रखने वाले पत्रकारों द्वारा लिखवाया गया. वहीं अल्पसंख्यक समुदाय के किसी भी शख्स का कोई भी लेख खेल पृष्ठ पर नज़र नहीं आया. कुछ-कुछ यही स्थिति बिजनेस वाले पेज पर भी नज़र आयी.
रिसर्च में जिन सात अख़बारों को शामिल किया गया, उनमें बाइलाइन के साथ छपी लगभग आधी ख़बरें राजनीति और पब्लिक लाइफ से जुड़ी मिलीं और इसे लिखने वाले लगभग 60 प्रतिशत लेखक सवर्ण समुदाय से जुड़े हुए हैं. वहीं, ज़्यादातर लोगों की जाति का पता नहीं चल पाया.
सबसे हैरान करने वाली बात ये सामने आयी कि जाति के मसले को लेकर प्रकाशित लेखों को लिखने वाले भी ज़्यादातर सवर्ण समुदाय के ही लोग हैं. जाति पर चर्चा करते हुए नवभारत टाइम्स में 76 प्रतिशत और राजस्थान पत्रिका में 90 प्रतिशत लेख सवर्ण समुदाय के लोगों ने लिखा है.
डिजिटल मीडिया
डिजिटल मीडिया में जातिगत भेदभाव के अध्ययन के 11 वेबसाइट फ़र्स्टपोस्ट, न्यूज़लॉन्ड्री, स्क्रॉल.इन, स्वराज्य, द केन, द न्यूज़ मिनट, द प्रिंट, द क्विंट, और द वायर अंग्रेजी, न्यूज़लॉन्ड्री (हिंदी) और सत्याग्रह को लिया गया.
टेलीविजन और अख़बार की तरह डिजिटल मीडिया में भी शीर्ष पदों पर सवर्ण समुदाय के लोगों का ही कब्जा है.
अख़बारों के तरह डिजिटल मीडिया में भी जाति के उपर चर्चा करते हुए ज़्यादातर सवर्ण लेखकों द्वारा ही लिखे गये लेख प्रकाशित किये गये हैं. सत्याग्रह में हर चार में से तीन लेख, जो जाति के मुद्दे पर आधारित हैं, सवर्ण समुदाय से ताल्लुक रखने वाले पत्रकार द्वारा लिखवाये जाते रहे हैैं.
यही नहीं, द केन, न्यूज़लॉन्ड्री, न्यूज़लॉन्ड्री (हिंदी) और सत्याग्रह में प्रकाशित ज़्यादातर लेख सवर्ण समुदाय के ही लेखकों द्वारा लिखा गया है.
डिजिटल मीडिया में भी दलित-आदिवासी लेखकों की भागीदारी प्रिंट और टेलीविजन मीडिया की तरह कम ही है.
इस रिसर्च टीम का नेतृत्व करने वाले सार्थक भाटिया बताते हैं कि हमने देखा कि हर जगह चाहे प्रिंट हो, टेलीविजन हो, पत्रिका हो या डिजिटल मीडिया हर जगह सवर्ण समुदाय का कब्जा है. जाति को लेकर होने वाले कार्यक्रमों और उसपर लिखे जाने वाले लेखों को लेकर हमने सोचा था कि शायद पिछड़े वर्ग के लोगों की मौजूदगी ज़्यादा होगी, लेकिन वहां भी सवर्ण समुदाय के लोग ही नज़र आये.’’
सार्थक आगे बताते हैं, ‘‘टेलीविजन पर चर्चा किसी भी मुद्दे पर हो, उसमें शामिल ज़्यादातर लोग सवर्ण समुदाय से ही होते हैं. ब्यूरोक्रेट्स हों या वकील हों, हमें ये तो मालूम है कि ऐसे प्रोफेशन में हर समुदाय के लोग हैं लेकिन डिबेट में बुलाये जाने वाले ज़्यादातर एक्सपर्ट सवर्ण समुदाय के ही रहे.’’
सार्थक बताते हैं कि “मीडिया के लोग अक्सर कहते हैं कि हम भारत के हर नागरिक को रिप्रजेंट कर रहे हैं, लेकिन रिसर्च के दौरान हमने देखा यहां ज़्यादातर लोग सवर्ण समुदाय से ताल्लुक रखने वाले हैं, जो ‘सबकी’ बात कर रहे हैं. डिजिटल में पिछड़े वर्ग के लोग लिख तो रहे हैं, लेकिन उनका प्रतिशत भी बेहद कम है. जबकि हम सोच रहे थे कि डिजिटल में छात्र, एक्टिविस्ट वगैरह लिखते हैं तो वहां वंचित समुदाय को ज्यादा स्पेस मिलता होगा, लेकिन ऐसा नहीं है.’’
कुल मिलाकर इस रिसर्च में जो सामने आया है, वह चिंता का विषय है कि आख़िर सबकी बात करने का दावा करने वाली मीडिया में सबकी भागीदारी क्यों नहीं है. एक खास समुदाय के लोग ही सबकी बात क्यों कर रहे हैं.
यह रिपोर्ट ऑक्सफैम के सहयोग से तैयार हुई है. ‘द मीडिया रम्बल’ में इसे जारी किया गया है जो कि न्यूज़लॉन्ड्री और टीम वर्क आर्ट्स का संयुक्त आयोजन है.
Also Read
-
Since Modi can’t stop talking about Nehru, here’s Nehru talking back
-
Indigo: Why India is held hostage by one airline
-
2 UP towns, 1 script: A ‘land jihad’ conspiracy theory to target Muslims buying homes?
-
‘River will suffer’: Inside Keonjhar’s farm resistance against ESSAR’s iron ore project
-
Who moved my Hiren bhai?