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आर्थिक रूप से बदहाल पाकिस्तान से क्या सच में भारत को खतरा है?
केंद्र सरकार सारे देश को सुरक्षित एवं बहादुर बनाने में जुटी हुई है. लोकसभा में नए गृहमंत्री अमित शाह की चीख-चीख कर गरजती आवाज़ देश को धमकाती है कि वह बहादुर बने और उनके पीछे चले. लेकिन न देश बहादुर बनता है, न इनके पीछे चलता है. पहले भी ऐसा ही था कि येन केन प्रकारेण चुनाव जीत गये लोग खुद को देश मान बैठते थे और अपनी आवाज को देश की आवाज मान कर चीखते-चिल्लाते थे. आज भी ऐसा ही हो रहा है.
नए गृहमंत्री ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुहावरों को अमली जामा पहनाने की शुरुआत कर दी है. प्रधानमंत्री ने मुहावरा गढ़ा था , ”घर में घुस कर मारेंगे”. नये गृहमंत्री ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी विधेयक को पारित कराते हुए कहा कि वे कमरों में घुस कर, चुन-चुन कर, एक-एक अवैध घुसपैठियों को देश से बाहर करेंगे. उन्होंने हैदराबाद के सांसद असादुदीन ओवैसी को धमकाते हुए कहा कि आज तक जो लोग हमारी सुनते नहीं थे, उन्हें अब सुनना ही पड़ेगा. क्यों सुनना पड़ेगा ? क्योंकि सत्ता अब आपके पास है ? क्योंकि अब आप उस कुर्सी पर बैठे हैं जिस पर बैठने का आपका अधिकार कभी संशय के घेरे में था ? वैसी तीखी ज़बान और जहरीले तेवर में बातें करते गृहमंत्री को सुनना एक नया ही अनुभव था.
अब देश के प्रधानमंत्री एक ऐसे आदमी हैं जो पाकिस्तान के होश ठिकाने लगा रहे हैं. गृहमंत्री एक ऐसे आदमी हैं जो बांग्लादेश के घुसपैठियों की अक्ल ठिकाने लगा रहे हैं. अब आप यह मत पूछ बैठिएगा की सीमा पर हमें ललकारता शत्रु पाकिस्तान है कितना बड़ा? पूरा पाकिस्तान हमारे उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान जैसे दो-चार प्रांतों को मिला दें तो उसमें ही समा जाएगा. यह वही पाकिस्तान है जिसे हमने दो-दो बार युद्ध में धूल चटाई है. और यही पाकिस्तान है कि जिसके आक़ा बने फौजी हुक्मरान देखते रह गये थे और पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गये. मुल्क टूटा भी, बिखरा भी. सत्ता के क्रिकेट मैच में अचानक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बन गये क्रिकेटर इमरान खान को जब कभी अपनी तूफानी बोलिंग का कीड़ा काटता है तो वे सच बोल जाते हैं. उन्होंने कई दफा अपनी तरह से कहा है कि पाकिस्तान राजनीतिक रूप से बिखराव की कगार पर खड़ा और आर्थिक रूप से दिवालिया होता जा रहा है. ऐसा पाकिस्तान हमारे लिए क्या सच में ऐसा खतरा बन गया है कि जिससे हम डरे रहें और जिसे दिखा-दिखा कर हम दूसरों को डराते रहें ? लेकिन देश का मन ऐसा बनाया जा रहा है कि सवाल मत पूछो, बस प्रधानमंत्री व गृहमंत्री को सुनो. कायरों के देश में अब यही दो बहादुर बचे हैं जो देश को बहादुर और अभेद्य बना कर ही छोड़ेंगे.
यह भी कोई क्यों पूछे कि बांग्लादेश से चोरी-छिपे आने वाले लुटे-पिटे, दरिद्रता की चक्की में बारीक पिसे शरणार्थी देश के भीतर घुस कैसे आते हैं ? क्या सीमा पर हमारे सैनिक नहीं हैं,क्या देश और असम दोनों में ही भारतीय जनता पार्टी के नरेद्र मोदी की सरकार नहीं है ? प्रधानमंत्री मोदी के होते हुए क्या बांग्लादेशी इतना बड़ा खतरा बन गए हैं कि जिनसे निपटने के लिए हमें अपने देश का कानून बदलना पड़ रहा है ? क्या सच में इतना कमजोर है यह देश कि इसे कानूनी तिकड़म का सहारा ले कर बांग्लादेश का मुकाबला करना पड़ रहा है ? बांग्लादेश में तो प्रधानमंत्री मोदी की मित्र-सरकार है न ? यह भी मत पूछिए कि आखिर ऐसा क्यों है कि पाकिस्तान हो कि बांग्लादेश कि श्रीलंका कि बर्मा कि नेपाल – हमारे एकदम निकट के सभी पड़ोसी हमारी तरफ नहीं बल्कि कहीं और देखते हैं ? और वे जहां देख रहे हैं वहां से हमें अच्छी नजर से नहीं देखा जाता है, यह हम भी जानते हैं और वे भी. और हम सब जानते हैं कि पिछले पांच से अधिक सालों से देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू नहीं, नरेंद्र मोदी हैं !
डर किसका है- सीमा पार की ताकतों का या सीमा के भीतर की विकराल समस्याओं का जिनका कोई हल सरकार को सूझ नहीं रहा है ? बाहरी डर दिखा कर, आंतरिक डर से शुतुरमुर्ग की तरह बचने की कोशिश न कभी कामयाब हुई है, न हो रही है.
चुनाव जीतने से समस्याएं नहीं जीती जाती हैं, कानून बनाने से देश नहीं बनता है और मन की बात से देश का मान नहीं जुड़ता है, यह सच्चाई आप कबूल करें कि न करें, सच्चाई बदलती नहीं है. इसलिए बहादुरी का आज का आलम किसी कायर का दंभ बन जाता है. हम जानते हैं कि संसद में बहुमत का बहादुरी से, लोक-स्वीकृति से और देशहित से कोई नाता नहीं होता है. हमने इससे कहीं बड़ी बहुमत की सरकारों की मिट्टी पलीद होते देखा है. यह खोखले शब्दों की सरकार है और शब्दों की मार अचूक होती है. लेकिन हम यह न भूलें कि शब्द खोखले भी होते हैं. शब्दों में शक्ति ईमानदारी से और मजबूत कामों से आती है. आतंकवाद को, अवैध घुसपैठ को रोकने के लिए पारित कानूनों के पीछे ईमानदारी नहीं है.
70 से अधिक साल पुराने हमारे लोकतंत्र का अनुभव बताता है कि हर सरकार, नागरिक अधिकारों को निरस्त करने का अतिरिक्त अधिकार पाते ही, उसका बेजा इस्तेमाल करती है. जयप्रकाश नारायण से ले कर हम सब दलविहीन लोग और अटल-आडवाणी-मोरारजी-चंद्रशेखर-मधु लिमये जैसे राजनीतिक दलों के सितारे व कार्यकर्ता ऐसे ही गैर-वाजिब अधिकार के डंडे से पीट कर, 1975-1977 तक जेलों में रखे गये थे. संविधान तब भी उनके साथ था, लेकिन जनता नहीं थी, और जब जनता साथ नहीं होती है तब सत्ता का अहंकार भी 1977 होने से रोक नहीं पाता है.
हमारा संविधान इतना परिपूर्ण और समयसिद्ध है कि लोकतांत्रिक मानस की कोई भी सरकार उसमें ही वे सारे अधिकार व उपाय ढूंढ और पा सकती है जिससे परिस्थिति पर काबू पाया जा सके. जब भी कोई सरकार सामान्य लोकतांत्रिक परिचालन के लिए संवैधानिक व्यवस्था से बाहर जा कर, अपने लिए नया संवैधानिक अधिकार हथियाने की कोशिश करती है वह एक डरी हुई व निरुपाय सरकार बन जाती है. इसे ही कायरों की बहादुरी कहते हैं. यह सरकार, देश व लोकतंत्र के लिए अशुभ है.
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