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जातिगत भेदभाव के आरोपों की जांच करेगा बीबीसी

पिछले लगभग एक पखवाड़े से मीडिया के एक वर्ग और सोशल मीडिया पर बीबीसी हिंदी के पत्रकारों की जातीय-वर्गीय पहचान को लेकर कई तरह की बातें सुनने को मिली.

न्यूज़लॉन्ड्री को मिली जानकारी के मुताबिक बीबीसी हिंदी में जातीय आधार पर होने वाले कथित भेदभाव को लेकर एक सामाजिक कार्यकर्ता तारिक अनवर ने बीबीसी के लंदन स्थित मुख्यालय को एक लंबा मेल लिखकर शिकायत की थी. न्यूज़लॉन्ड्री के पास वह पत्र मौजूद है.

इसके जवाब में बीबीसी लंदन मुख्यालय से एक मेल भेजा गया जिसका मजमून कुछ यूं है, “बीबीसी हिंदी के संदर्भ में हमसे संपर्क करने के लिए आपने समय दिया, इसके लिए धन्यवाद. आपकी शिकायत की जांच एक योग्य टीम द्वारा की जा रही है, जल्द ही हम तय प्रक्रियाओं के तहत आपसे संपर्क करेंगे. हम इस मामले में आपके धैर्य की तारीफ करते हैं. हमसे संपर्क करने के लिए एक बार फिर से धन्यवाद.” न्यूज़लॉन्ड्री के पास यह मेल भी मौजूद है.

बीबीसी का जवाब

यह अपने आप में महत्वपूर्ण बात है कि बीबीसी के लंदन स्थित मुख्यालय ने उस शिकायत की जांच करने का आश्वासन दिया है जिसके मुताबिक बीबीसी हिंदी में कथित तौर पर नियुक्तियों में जाति के आधार पर भेदभाव होता है.

गौरतलब है कि बीबीसी ने अपने यहां कार्यरत एकमात्र दलित महिला पत्रकार की सेवाएं इसी जुलाई महीने में समाप्त करने के निर्णय लिया है. कई लोग इसे जातिगत आधार पर किया जा रहा भेदभाव बता रहे हैं. हालांकि इस मामले से संबंधित महिला पत्रकार ने अपनी तरफ से इस आरोप पर कोई टिप्पणी करने से इनकार किया है. लेकिन उनको लेकर कई मीडिया प्लेटफॉर्म्स और वरिष्ठ पत्रकारों ने इस पर बड़े-बड़े लेख लिखकर बीबीसी के न्यूज़रूम में कुछेक सवर्ण जातियों के प्रभुत्व पर सवाल खड़ा किया है. इसके साथ ही बीबीसी के दिल्ली स्थित न्यूज़रूम में जातीय संरचना को लेकर एक बहस छिड़ गई है.

बीबीसी हिंदी के सूत्रों के मुताबिक वहां फिलहाल सिर्फ एक महिला दलित पत्रकार थीं जिनकी सेवाएं 31 जुलाई को समाप्त हो जाएंगी और एकमात्र अति पिछड़ा वर्ग से आने वाले पत्रकार को परफॉर्मेंस रिव्यू का नोटिस दे दिया गया है. दोनों पत्रकारों का नाम यहां जानबूझकर छिपाया गया है.

टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस (टिस) में दलित और आदिवासियों के मसले पर अध्ययन कर चुके तारिक अनवर ने बीबीसी के लंदन स्थित मुख्यालय में निदेशक टोनी हॉल को भेजे गए मेल में लिखा है, “बीबीसी के भारतीय भाषाओं के विभाग में एडिटोरियल पोजीशन पर ब्राह्मणों और कायस्थों का कब्जा है. 6 शीर्ष पदों में से 5 पर ब्राह्मण और एक पर कायस्थ है. जबकि 60 में से लगभग 30 पत्रकार ब्राह्मण हैं.”

अपने लंबे चौड़े मेल में तारिक लिखते हैं, “भारत की 85 फीसदी जनसंख्या दलित पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखती है लेकिन बीबीसी में सिर्फ एक दलित पत्रकार हैं जिनकी सेवाएं 31 जुलाई को समाप्त हो रही हैं, और एक पिछड़े वर्ग के पत्रकार हैं. भारत में बड़े पैमाने पर सामाजिक विविधता पायी जाती है. जबकि बीबीसी में एक ही जाति के लोगों का प्रभुत्व है. ऐसे में बीबीसी से पत्रकारीय वस्तुनिष्ठता की उम्मीद कैसे की जा सकती है?”

हालांकि इस दावे का दूसरा सच यह भी है कि भारत के लगभग सभी मुख्यधारा के मीडिया संस्थानों में न्यूज़रूम की संरचना कमोबेश ऐसी ही है, बीबीसी कोई अपवाद नहीं है. महत्वपूर्ण बात यह है कि बीबीसी ने इस मामले में जांच की बात कही है, वरना बाकी संस्थान इस समस्या को संज्ञान भी नहीं लेना चाहते. साल 2006 में वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया, जितेन्द्र कुमार और सीएसडीएस से संबद्ध रहे योगेंद्र यादव ने देश के 37 मीडिया संस्‍थानों में 315 संपादकीय पदों का सर्वेक्षण कर पता लगाया था कि मीडिया के निर्णय लेने वाले शीर्ष पदों पर एक प्रतिशत अन्‍य पिछड़ा वर्ग के लोग हैं,  जबकि नीचे के पदों पर उनकी मौजूदगी महज चार फीसदी पाई गई थी. जाहिर है बाकी पदों पर सवर्ण जातियों का कब्जा था.

न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए अनिल चमड़िया कहते हैं, “लोकतान्त्रिक व्यवस्था के भीतर उन्हीं संस्थानों को लोकतान्त्रिक कहा जा सकता है जो खुद विविधता को अपने भीतर जगह देते हैं, प्रगतिशील बातें करना और उन पर अमल करना दो अलग चीजें हैं.”

न्यूजलॉन्ड्री से बातचीत करते हुए शिकायतकर्ता तारिक कहते हैं. “ये सिर्फ उस महिला पत्रकार की बात नहीं है, बीबीसी एक पब्लिक फंडेड ऑर्गेनाइजेशन है जो जनता के पैसे से चलता है तो बीबीसी जिस डायवर्सिटी की बात करता है वो कहां हैं? ये भागीदारी सुनिश्चित करने का मसला है.”

बीबीसी ने विविधता और समावेशीकरण के लिए डायवर्सिटी एंड इन्क्लूजन स्ट्रैटजी 2016-2020 की घोषणा है जिसके तहत 2020 तक महिलाओं का अनुपात 50% तक इसके अलावा ब्लैक, एशियाई और अल्पसंख्यक जातीय समूह के लोगों के लिए 15%  प्रतिनिधित्व का लक्ष्य रखा गया है. भारत के सन्दर्भ में पिछड़ा और दलित जातियों को रखा गया है. लेकिन इन वर्गों की स्थित प्रतिनिधित्व के मामले में बीबीसी हिंदी के न्यूजरूम में हाशिये पर है. इस स्ट्रैटेजी की घोषणा के बाद ब्रॉडकास्टिंग इक्वलिटी के सिमॉन अलबुरी ने द गार्जियन में संशय जताते हुए लिखा था कि बीबीसी की डॉयवर्सिटी और इन्क्लूजन स्ट्रैटेजी हर बार अच्छी-अच्छी बातों से भरी होती है लेकिन हालिया अनुभव बताते हैं कि संस्थान अपनी योजनाओं को मूर्त रूप नहीं दे पाता है.

2016 में जब बीबीसी में महिलाओं और पुरुषों का अनुपात 50:50 करने का लक्ष्य निर्धारण हुआ तो बीबीसी भारत में काम करने वाली महिलाकर्मियों को भी इसका फायदा मिला और एडिटोरियल पोजिशन पर महिलाएं पहुंची. 2016-17 में बड़े पैमाने पर महिलाओं को ब्रॉडकास्ट जर्नलिस्ट के पद पर नियुक्त किया गया. लेकिन इसमें जातीय विविधता समाहित नहीं हो पायी.

इस पूरे मामले के केंद्र में आई महिला पत्रकार से न्यूजलॉन्ड्री ने उनका पक्ष जानने की कोशिश की तो उन्होंने बीबीसी की पेशेवर गाइडलाइन का हवाला देकर मामले पर कोई प्रतिक्रिया देने से मना कर दिया. हांलाकि उन्होंने यह बात स्वीकार की कि उन्हें क्लीयरेंस फार्म भरने जैसी फॉर्मेलिटी पूरा करने के लिए कह दिया गया है, साथ ही ये बता दिया गया है कि 31 जुलाई उनका आखिरी दिन है.

न्यूजरूम में प्रतिनिधित्व के मामले पर न्यूजलॉन्ड्री ने बीबीसी हिंदी के एडिटर मुकेश शर्मा से उनका पक्ष जानना चाहा तो उन्होंने टेक्स्ट मैसेज के जरिए बताया कि वो इस तरह के किसी भी प्रश्न का जवाब देने के लिए सक्षम नहीं हैं, इसके लिए बीबीसी प्रेस कार्यालय से संपर्क करें. मैसेज के साथ उन्होंने बीबीसी प्रेस कार्यालय की ई-मेल आईडी भी भेज दिया.

न्यूजलॉन्ड्री ने इस संदर्भ में बीबीसी प्रेस कार्यालय और बीबीसी के निदेशक टोनी हॉल को छह सवालों का एक मेल भेजा. इसका जवाब बीबीसी के कम्युनिकेशन विभाग के हेड पॉल रासम्युसेन ने दिया है. रासम्युसेन के जवाब का अविकल अनुवाद यहां दिया जा रहा है- “बीबीसी एक विविधतापूर्ण संस्थान है, हमारी हरसंभव कोशिश रहती है कि यहां उपलब्ध अवसर सबको मिलें, चाहे उनकी पृष्ठभूमि कुछ भी हो. एक अंतरराष्ट्रीय संस्था के तौर पर कुछ न कुछ कमी हमेशा रह जाती है. इसके बाद भी हमने कर्मचारियों की नियुक्ति में विविधता को स्थान देने में उल्लेखनीय प्रगति की है. हम यहां किसी विशिष्ट मामले की बात नहीं करेंगे लेकिन यह जरूर कहना चाहेंगे कि बीबीसी जिन भी देशों में संचालित होता है वहां के श्रम कानूनों का पूरी तरह से पालन करता है, भारत भी इसमें शामिल है. बहुत सारे लोग यहां सीमित अवधि के कॉन्ट्रैक्ट पर काम करते हैं. इनके कॉन्ट्रैक्ट का नवीनीकरण कई तथ्यों पर निर्भर करता है मसलन संपादकीय जरूरत और उपलब्ध संसाधन. बीबीसी की संपादकीय नीति सभी कर्मचारियों पर एक सरीखी लागू होती है, चाहे उनकी पृष्ठभूमि कुछ भी हो और हमारा लक्ष्य होता है सटीकता, निष्पक्षता और विविधता को शामिल करना.”

इस जवाब और न्यूज़लॉन्ड्री के छह सवालों का अंतरसंबंध जोड़ना संभव नहीं है क्योंकि यह जवाब काफी हद तक आदर्शवादी बातें हैं, कमोबेश सभी संस्थान इसी तरह की बातें या दावे करते हैं. मुद्दा विशेष पर बात न करने की क्या मजबूरी हो सकती है, किसी को नहीं पता. फिलहाल सबको इंतजार है उस जांच की रिपोर्ट का जिसे करने का मेल बीबीसी ने शिकायतकर्ता तारिक अनवर को भेजा है.

(बसंत कुमार के सहयोग के साथ)