Newslaundry Hindi
मखौल या मज़ाक नहीं है मीडिया प्रतिबंध
कंगना रनौत इन दिनों अपनी लोकप्रियता में आये ‘विघ्न’ से निपटने का प्रयास कर रही हैं. कंगना पिछले दिनों अपनी फिल्म ‘जजमेंटल है क्या’ के सॉन्ग लॉन्च पर एक पत्रकार के सवाल पूछने से पहले ही उसे नीचा दिखाने और जलील करने की कोशिश करने लगी थीं. उनके आरोपों से पत्रकार के इंकार करने पर वह अतीत में की गयी उसकी टिप्पणियों और समीक्षाओं का उल्लेख कर बताने लगीं कि वह उनके ख़िलाफ़ ‘स्मीयर कैंपेन’ कर रहा है. इस तू-तू मैं-मैं में आज के दौर के फिल्म कलाकारों और पत्रकारों के संबंधों की विद्रूपता सामने आयी. दरअसल, कंगना रनौत समेत हर कलाकार अपनी तारीफ़ से जितना खुश होता है, उससे कहीं ज़्यादा अपनी आलोचना से नाराज़ और दुखी होता है, इस विवाद के बाद एंटरटेनमेंट जर्नलिस्टों के समूह ने कंगना रनौत और एकता कपूर से माफी मांगने की अपील की. एकता कपूर ने तो माफी मांग ली, लेकिन कंगना रनौत की बहन रंगोली चंदेल ने चुनौती भरे अंदाज़ में ट्वीट किया कि कंगना कभी माफी नहीं मांगेगी. इसके अलावा कंगना ने एक वीडियो जारी किया, जिसमें फिल्म पत्रकारों के ख़िलाफ़ अपनी भड़ास निकालते हुए उनको ‘बिकाऊ’, ‘नालायक’ और ‘देशद्रोही’ तक कहा. एंटरटेनमेंट जर्नलिस्टों ने उन्हें ‘बैन’ करने की अपील की. फिलहाल दोनों पक्षों की तरफ से यह मामला प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के पास विचाराधीन है.
मीडिया और फिल्म स्टार के बीच यह टकराहट पहली बार सामने नहीं आयी है. पहले भी झड़पें होती रही हैं. कभी मुखर तो कभी दबे-ढके रूप से. पुराने समय की मशहूर फिल्म पत्रिका ‘फिल्म इंडिया’ के संपादक बाबूराव पटेल के अम्लीय संपादकीय और समीक्षाओं से तत्कालीन स्टार और प्रोड्यूसर नाराज़ होते थे, लेकिन उन्हें बाबूराव पटेल की बातें स्वीकार करनी पड़ती थीं, क्योंकि एक तो ज़्यादातर सही होते थे और उनकी टिप्पणियां सटीक रहती थीं. हिंदी सिनेमा के आरंभिक 50 वर्षों में फिल्म पत्रकारिता का दृष्टिकोण गंभीर और अर्थपूर्ण रहता था. वही एक माध्यम भी था. पत्रिकाओं के रंगीन होने के साथ कुछ फिल्मी पत्रिकाओं में गॉसिप कॉलम आरंभ हुए तो मीडिया और फिल्म बिरादरी के बीच मनमुटाव और मतभेद नज़र आने लगे. कभी सच्ची ख़बरों और कभी आलोचनाओं से फिल्म बिरादरी बिफर जाती थी, लेकिन उनके पास पत्रिकाओं के अलावा दर्शकों/पाठकों तक पहुंचने का कोई दूसरा तरीका नहीं था. पत्रिकाएं ही फिल्म स्टार की छवि बनाती और बाज़ दफ़ा बिगाड़ती भी थीं.
एक बार धर्मेंद्र ने फ़िल्म पत्रकार कृष्णा की रिपोर्ट से नाराज़ होने के बाद उन्हें पीट दिया था. कृष्णा ने एक रिपोर्ट में हेमा मालिनी के लिए कुछ अपमानजनक और निंदात्मक मुहावरे (रात की बासी रोटी) का इस्तेमाल किया था. देवयानी चौबल की गॉसिप पत्रकारिता से भी फिल्म स्टार नाराज़ होते थे. धर्मेंद्र और देवयानी चौबल के बीच की झड़प का किस्सा मशहूर है. हेमा मालिनी के बारे में ही उनका लिखा धर्मेंद्र को पसंद नहीं आया था और उन्होंने एक चंदा बटोरने के लिए निकले जुलूस में देवयानी चौबल को दौड़ा दिया था. देवयानी चौबल का कॉलम ‘फ्रेंकली स्पीकिंग’ फिल्म स्टारों की बखिया उधेड़ने के साथ उनके बेडरूम के किस्से भी ज़ाहिर कर देता था. देवयानी चौबल का आलम यह था कि अनिल कपूर के शुरुआती दिनों में उन्होंने टिप्पणी की थी कि ‘अनिल कपूर का चेहरा किसी छोटे-मोटे पाकिटमार जैसा है’. ऐसी भद्दी टिप्पणियों पर भड़कने के बावजूद फिल्म स्टार कुछ खास नहीं कर पाते थे.
फिर एक दौर आया जब मीडिया ने अमिताभ बच्चन पर प्रतिबंध लगा दिया था. यह प्रतिबंध लगभग 15 सालों तक चला था. दरअसल, आपातकाल के समय मीडिया को भनक लगी थी कि अमिताभ बच्चन की सलाह पर ही आपातकाल और प्रेस की आज़ादी पर पाबंदी लगायी गयी है. अमिताभ बच्चन की राय में मीडिया की जानकारी बेबुनियाद थी. मीडिया ने उन पर प्रतिबंध लगा दिया तो उन्होंने इसे चुनौती के रूप में लिया और अपनी तरफ से भी मीडिया से बातचीत बंद कर दी. इस दरमियान फिल्म पत्रिकाओं में अमिताभ बच्चन की फिल्म और उनके नाम तक का कोई उल्लेख नहीं होता था. हालांकि इसी दौर में आयी अमिताभ बच्चन के अधिकांश फिल्में हिट हुईं. ‘कुली’ की दुर्घटना के बाद मीडिया का रुख बदला. ‘स्टारडस्ट’ पत्रिका के मालिक ने वक्तव्य दिया था, ‘हम चाहते थे कि वे असफल हो जाएं, पर उनकी मौत कभी नहीं चाहते थे.’ लंबे समय के बाद अमिताभ बच्चन ने मीडिया से दोस्ती ज़रूरी समझी और फिर उसके चहेते बन गये, जबकि उनकी फिल्में पिटने लगीं.
बहरहाल, मीडिया और फिल्म स्टार की तुनकमिजाज़ी में कई बार दोनों पक्षों में गलतफहमी और नाराज़गी कायम रही है, प्रतिबंध लगाया गया है, लेकिन यह प्रतीकात्मक और नैतिक दबाव बनाने के लिए ही रहा है. सलमान खान के साथ तो कई बार ऐसा हो चुका है, जब अपने मुंहफट स्वभाव और बेलाग व्यवहार से उन्होंने पत्रकारों और फोटोग्राफरों को नाराज़ किया. ठीक पांच साल पहले जुलाई के महीने में ही ‘किक’ की रिलीज़ के समय सलमान और मीडिया की तनातनी हो गयी थी. सैफ अली खान और करीना कपूर खान, श्रद्धा कपूर, पुलकित सम्राट और दूसरे अनेक फिल्म कलाकारों के साथ मीडिया की अनबन होती रही है. कलाकारों के एटीट्यूड से ऐसा होता रहा है. इन मामलों में दोनों पक्षों के बीच ठनी ज़रूर, लेकिन कभी भी मामला इस बार की तरह विद्रूप नहीं हुआ था. किसी स्टार ने मीडिया के लिए अपशब्द नहीं निकाले.
मुंबई में एंटरटेनमेंट जर्नलिस्ट गिल्ड के प्रतिबंध की घोषणा के बाद कंगना रनौत ने ‘राष्ट्रवाद’ का कवच लगा लिया है. वह आलोचक मीडिया को ‘सूडो लिबरल’ और ‘सूडो सेक्यूलर’ संबोधित कर रही हैं. भगवा ब्रिगेड भी असहमत पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को यही नाम देता है. ‘मणिकर्णिका’ फिल्म के नापसंद करने को रानी लक्ष्मीबाई का अपमान साबित करने के लिए ‘देशद्रोहिता’ जैसे नये शब्द गढ़ रही हैं. फिल्म के प्रचार में नाहक प्रसंग ले आती हैं कि मैं मोदी जी की समर्थक हूं. तात्पर्य है कि अगर आप मुझे या मेरे काम को नापसंद कर रहे हैं तो प्रकारांतर से आप नरेंद्र मोदी को नापसंद कर रहे हैं. इससे अधिक बचकाना तर्क क्या हो सकता है?
मुंबई में लगे प्रतिबंध के बाद कंगना रनौत ने अपने हित में दिल्ली का रुख किया और वहां ‘राष्ट्रवाद समर्थक’ टीवी चैनलों में एक-एक कर इंटरव्यू भी दिया. उसके बाद की भेड़चाल में सभी प्रमुख मीडिया ठिकानों ने उन्हें प्यार से पीढ़े पर बिठाया और उनका आत्मालाप सुना. अपनी बातचीत का बड़ा हिस्सा वह अपने झटपट बयान में हुई ‘भूल की भरपाई’ पर खर्च कर रही हैं. अब वह कह रही हैं कि मूवी माफिया समर्थित एक मीडिया ग्रुप और खासकर अंग्रेजी मीडिया उनके विरोध लामबंद हो गया है. यह सिर्फ असुरक्षा बोध है. सच्चाई यह है कि एंटरटेनमेंट जर्नलिस्ट गिल्ड में हिंदी पत्रकारों की संख्या ज़्यादा है और उसका नेतृत्व भी उन्हीं के हाथों में है. हर कोई कंगना रनौत को देख-सुन रहा है तो उसे इस विवाद का एक ही पक्ष मालूम हो रहा है.
आज के दौर में कारोबारी मीडिया सिर्फ अपना हित और मुनाफा देखती है. पत्रकारिता के उसूलों और एका से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है. पत्रकारों के समूह और संगठन के बयान और अपील के बावजूद संस्थान और संपादक के आदेश पर उन्हें प्रतिबंधित कलाकारों से भी बात करनी पड़ेगी या नौकरी छोड़नी पड़ेगी. इस बार तो संपादक ही सवाल पूछने के लिए आतुर दिखे और उनके सवालों में समान बातों की पुनरावृत्ति थी. मीडिया को भी आत्ममंथन करना चाहिए कि स्टार और फिल्म बिरादरी से कैसे पेश आया जाये, अपनी पेशेवर ज़रूरतों के लिए. प्रतिबंध निदान या समाधान नहीं है.
आज का माहौल
पीआर की भूमिका और प्रभाव बढ़ने से फिल्म बिरादरी और फिल्म पत्रकारों के बीच दूरी और गलतफहमी बढ़ी है. यह संबंध एकतरफा और दमनकारी हो गया है. फिल्म के फर्स्ट लुक से लेकर फिल्म प्रीव्यू शो तक आधे दर्जन से अधिक इवेंट होते हैं. इन इवेंट में फिल्म पत्रकारों की हाज़िरी लाज़मी होती है. पीआर चाहता है और सुनिश्चित करता है कि ऐसे इवेंट को अच्छा मीडिया कवरेज मिले, ताकि निश्चित शुक्रवार को दर्शक फिल्म देखने पहुंचें. ऐसी भी सूचना है कि मनचाहा कवरेज नहीं मिलने पर पत्रकारों को अगली बार नहीं बुलाने की चेतावनी तक दी जा रही है. ट्विट, ख़बर और रिव्यू डिलीट करवाये जा रहे हैं. ये इवेंट फिल्म की जानकारी तो क्या देंगे? सिर्फ फोटो ऑप और मज़ाकिया सवाल-जवाब के रूप में इनका इस्तेमाल होने लगा है.
ऐसे इवेंट किसी मल्टीप्लेक्स में आयोजित किये जाते हैं. पत्रकारों के साथ प्रशंसकों और यूनिट के सदस्यों को भी बुला और बिठा लिया जाता है. गंभीर और ज़रूरी सवालों के मज़ाकिया जवाब दिये जाते हैं. स्टार के जवाब पर पत्रकार समेत प्रशंसक भी हंसने के लिए तैयार रहते हैं. कुल मिलाकर ये इवेंट हास्यास्पद कार्यक्रम बन गये हैं. दो मिनट के ट्रेलर के लिए दो से तीन घंटे बर्बाद होते हैं. पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस में राजनीतिक संवाददाता सम्मेलनों की तरह सवाल-जवाब होते थे और फिल्म बिरादरी की पूरी तैयारी रहती थी. अभी पूरा माहौल ही मखौल और मज़ाक का बन गया है.
Also Read
-
TV Newsance 311: Amit Shah vs Rahul Gandhi and anchors’ big lie on ‘vote chori’
-
No POSH Act: Why women remain unsafe in India’s political parties
-
Himanta family’s grip on the headlines via Northeast India’s biggest media empire
-
7 FIRs, a bounty, still free: The untouchable rogue cop of Madhya Pradesh
-
South Central 40: Election Commission’s credibility crisis and the nun who took Bishop Franco to court