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कुली बाज़ार 7: हार का संसार 

गये कुछ वर्ष भारतीय समयानुसार बुद्धि के परास्त होने के वर्ष हैं. वह समाज, संस्कृति, राजनीति… सब जगह पराजित है. यह अलग तथ्य है कि इस दरमियान समाचारों ने इस बात को इस प्रकार दर्ज़ नहीं किया है. यह इसलिए है क्योंकि समाचारों की मुख्यधारा बुद्धि की पराजय में ही अपनी विजय देख रही है; और यह कठिन समय है, यह कठिन समय है, यह कठिन समय है… कहते हुए बुद्धिजीवी मौसमी फलों में स्वास्थ्य की तलाश में व्यस्त हैं. 

हार के संसार में शिथिलता स्वाभाविक है. यहां वे बदलाव किये जाते हैं, जिनकी फ़िलहाल कोई ज़रूरत नहीं होती. यहां त्यागपत्र पराजय के साथ संलग्न रहते हैं, लेकिन उनका किसी त्याग से कोई लेना-देना नहीं होता. 

यहां यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि इस तरह की स्थितियों में बुद्धि तत्काल पराभव-विश्लेषण में सक्रिय हो जाती है, ताकि वह जल्द से जल्द बग़ैर प्रायश्चित के शिथिल हो सके. ये विश्लेषण उन बहसों को जन्म देते हैं, जो पहले भी कई बार हो चुकी हैं और मौक़े-बेमौक़े इनके बार-बार होते रहने की आशंका बनी रहती है. इन बहसों को देखकर ट्रेन के पीछे भागते कुत्तों का बिंब सामने आता है. प्रश्न यह नहीं है कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं, प्रश्न यह है कि अगर उन्होंने ट्रेन को पकड़ लिया तब वे क्या करेंगे?

गये कुछ वक़्त में संभव राजनीति, सिनेमा, साहित्य, पत्रकारिता और खेल से जुड़ी हुई बहसों को देखें, तब सब कुछ समय की बर्बादी नज़र आता है—उस समय की बर्बादी जो कुछ खो देने, ख़ाली हो जाने और हताश कर देने वाले अनुभवों से बना और बन रहा है. इस दृश्य में राजनीति में असफल लोग मौन के साधक हैं, सिनेमा में असफल लोग सिने-आलोचक हैं, साहित्य में असफल लोग क्रांतिकारी हैं, पत्रकारिता में असफल लोग सीटीआरएल-सी और सीटीआरएल-वी में सफल हैं और खेल में असफल लोग अब किसी भी चीज़ से खेलने को तैयार हैं. सब कुछ इस क़दर प्रभावशाली भ्रम और व्यर्थताओं से गतिशील है कि ‘नव-साधारण’ और ‘उत्तर-सत्य’ जैसी अवधारणाएं कालजयी लगने लगी हैं. हिंदी कवि शमशेर बहादुर सिंह के शब्दों में कहें, तब कह सकते हैं कि यह नैतिकता के पतझड़ के बाद नागरिक सत्ता का शिशिर है. 

ज़्यादातर बहसें अब किसी न किसी तरह की स्क्रीन पर चल रही हैं. उनसे गुज़रने पर यह साफ़ महसूस होता है कि उनमें नाटकीयता का तत्व पर्याप्त है. इस तत्व को कैसे सतत बरक़रार रखा जाये, हमारे प्रमुख समाचार-माध्यमों का यही मुख्य कार्यभार है. इस स्थिति में संभव हुई बहसों में संलग्न जन को देखिये, उन्हें देखकर आसानी से यह समझा जा सकता है कि ये बहसें उनके और जन के जीवन के वास्तविक मुद्दों से संदर्भित नहीं हैं. हिंदी-अंग्रेज़ी के चिंतक-विचारक टाइप जीवों पर नज़र मारिये, क्या कहीं से लगता है कि वे जनता को समझते हैं या जनता जिन्हें चाह रही है, उन्हें समझते हैं? 

दरअसल, यह सब कुछ इतने धीमे-धीमे संभव हुआ है कि पता नहीं चला : कब हम एक ऐसे संसार में प्रवेश कर गये जहां लोग जो महसूस करते हैं, उसका समझदारी से कोई संबंध ही नहीं है. मिसालतन उन बौद्धिकों और पत्रकारों की वह भाषा रातोरात कैसे बदल सकती है, जिसमें कल रात तक गहरी वैचारिक प्रतिबद्धता थी? अचानक उनकी उम्र और उनकी गुफ़्तगू में संपर्क कैसे टूट सकता है? कैसे यह लगने लग सकता है कि आजकल के बच्चे भी उनसे ज़्यादा समझदार हैं? आख़िर कैसे अब उन्हें सुनकर बार-बार मस्तिष्क सन्न रह जायेगा और मुंह ‘अजीब है’ कहने के लिए खुलेगा और फिर बहुत देर तक नहीं खुलेगा. 

हार के इस संसार में अब बेचैनियां और अचरज रोज़ की ज़रूरतें हैं. बौद्धिकों की चाल इसमें कोई उथल-पुथल उत्पन्न नहीं कर रही, क्योंकि उनके लिए हार कोई नयी बात नहीं है. उनकी हार में भी जली हुई रस्सी-सा बल है. लेकिन इस पर सोचने की आवश्यकता है कि आख़िर इतने अनुभवों के बाद भी उनके निशाने सही लगते क्यों नहीं, जबकि वे अपने सबसे बढ़िया दांव आज़मा रहे हैं. क्यों अब यह (एक विशिष्ट वर्ग को छोड़ दें तो) एक सर्व-स्वीकार्य तथ्य बन चुका है कि वे भारतीय समय को अंधकार में धकेलने वाले जीव हैं—बहुत उच्चकोटि के स्वार्थी और संभ्रांत. वे जिनकी निगाहें मुख़ातिब से बात करते वक़्त, तमाम जिस्म के कपड़े उतार लेती है. (शैली साभार : बशीर बद्र) 

बहरहाल, अब बुद्धि बहुत ऊब चुकी है और यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि वह किसी भी व्यवस्था में ऊब सकती है; उस व्यवस्था में भी जिसमें उसकी ऊब की ज़रूरत नहीं है, लेकिन वह ऊब रही है और यही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में हमारी हार का संसार है, जहां हो चुकी बहसों में हो चुके संसर्गों-सी उत्तेजना है.