Newslaundry Hindi
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा
गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं
हम चराग़ों की तरह शाम से जल जाते हैं
जब भी आता है मेरा नाम तेरे नाम के साथ
जाने क्यों लोग मेरे नाम से जल जाते हैं… (क़तील शिफ़ाई)
दिल में दर्ज हो जाने वाली शायरी करने वाले शायर क़तील शिफ़ाई की आज अठारहवीं बरसी है और यह साल 2019 उनका शताब्दी वर्ष भी है. क़तील ने 11 जुलाई, 2001 को लाहौर में वफ़ात पाई थी. लाहौर की जिस गली में वे रहते थे, उनके इंतक़ाल के बाद उस गली का नाम ‘क़तील शिफ़ाई स्ट्रीट’ रख दिया गया. पाकिस्तान के हजारा जिले में 24 दिसंबर, 1919 को पैदा हुए क़तील शिफ़ाई एक कारोबारी के बेटे थे और उन्होंने भी खेल का सामान बेचने का कारोबार किया, लेकिन वे उसमें नाकामयाब रहे. उसके बाद वे रावलपिंडी चले गये, जहां उन्होंने ट्रांस्पोर्ट कंपनी में काम किया, लेकिन उनका शायर मन वहां भी नहीं टिक पाया.
क़तील को खूब लिखने का शौक था, इसलिए आज़ादी का साल आते-आते पाकिस्तानी फिल्मों में गाने लिखने की ओर मुड़े. लाहौर के फिल्म निर्माता दीवान सरदारी लाल ने जनवरी 1947 में उनको अपनी फिल्म में गाना लिखने के लिए कहा और जिस पहली फिल्म में क़तील ने गाने लिखे, वो थी- तेरी याद, जो 1948 में रीलीज हुई थी. उसके बाद तो वे पाकिस्तानी सिनेमा के बेहतरी गीतकारों में शुमार हो गए और कई अवॉर्ड भी उनके नाम हुए. यहीं से उनकी मक़बूलियत बढ़ी और उनके गीतों का क़ाफ़िला बॉलीवुड की फिल्मों तक आ पहुंचा, जहां उन्होंने कई बेहतरीन फिल्मों के लिए एक से बढ़कर एक गाने लिखे. इश्क़ में फना होने को क़तील ने एक नया ही अदब-ओ-आदाब बख्शा है-
ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा…
क़तील शिफ़ाई का असली नाम औरंगज़ेब खान था. औरंगज़ेब खान से क़तील शिफ़ाई बनने की भी एक कहानी है. ‘क़तील’ के माने होते हैं- ‘जिसका क़त्ल हो गया हो’, यानि जो इश्क़ में फ़ना हो गया हो और ‘शिफ़ाई’ लफ्ज़ उन्होंने अपने उस्ताद शायर हकीम मोहम्मद याहया शिफ़ा ख़ानपुरी से लिया था, जिनसे वे शायरी पर इसलाह लेकर उसे बाकमाल बना देते थे. इन दोनों मौजूं ने मिलकर औरंगज़ेब खान को साल 1938 में ‘क़तील शिफ़ाई’ की शक्ल दे दी, जिसने उर्दू शायरी को एक अलहदा मुकाम दिया. क़तील साहब ने अहमद नदीम कासमी की सरपरस्ती में रहकर भी अपनी शायरी को निखारा, जो उनके सबसे अच्छे दोस्तो में शुमार किये जाते हैं. ‘क़तील’ को ही उन्होंने अपना तखल्लुस भी बना लिया-
‘क़तील’ अपना मुकद्दर ग़म से बेगाना अगर होता
तो फिर अपने पराये हम से पहचाने कहां जाते
अंग्रेजी के मशहूर पोएट विलियम वर्डस्वर्थ कहते हैं- ‘पोएट्री इज दि स्पोंटेनियस ओवरफ्लो ऑफ पावरफुल फीलिंग्स’, यानी हमारे शदीद एहसास का खुद-ब-खुद यूं ही ज़ेहन में उतर आना ही कविता है. इस ऐतबार से कहें, तो शायरी हमारे ज़ेहन-ओ-दिल में उठने वाले जज़्बात का वह नाम है, जिसे काफिया-रदीफ के पैमाने में उतारकर लय और बहर के साथ किसी खूबसूरत गज़ल या नज़्म की शक्ल दी जाती है. लेकिन हर शायर या लेखक के साथ ऐसा नहीं होता और वो कुछ लिखने के लिए पहले अपना मिज़ाज बनाते हैं, जिसके लिए उनके अपने-अपने अलहदा तरीक़े और सलीक़े हैं. अल्लामा इक़बाल फर्शी हुक्का भरकर पलंग पर लेट जाते थे और अपने मुंशी को शेर लिखवाना शुरू कर देते थे. जोश मलीहाबादी अलसुबह बाग़ में सैर करते थे और क़ुदरत के नायाब मंज़रों को देखकर उन्हें शायरी का हिस्सा बना लेते थे. कई शायरों के बारे में तो यह भी कहा जाता है कि वे शराब की घूंट लिये बगैर तो लिखते ही नहीं थे, मानो उनके ज़ेहन में छुपे नाज़ुक ख़यालात क़लम के रास्ते बाहर आने के लिए शराब की क़ीमत मांगते हों. मिर्ज़ा ग़ालिब तो क़र्ज़ लेकर शराब पीने के लिए बदनाम थे. मगर मशहूर शायर क़तील शिफ़ाई के मिज़ाज बनाने का अंदाज़ सबसे जुदा है.
क़तील शिफ़ाई सुबह चार बजे ही उठकर दंड-बैठक करते और अपने जिस्म पर खूब तेल मालिश करते थे, उसके बाद ही कहीं शे’र लिखना शुरू करते थे. ताज्जुब की बात यह है कि जिस्म से हट्टे-कट्टे, एकदम पहलवान नज़र आने वाले और सुबह-सवेरे दंड-बैठक करने वाले क़तील शिफ़ाई की शायरी में फूलों जैसी महक, महबूबा की कमर जैसी लोच, झरनों का सा संगीत और दर्द में डूबी एक बेवा की जवानी जैसी ग़मज़दा सलाहियतें कहां से आती थीं? जांघों पर खम ठोंकने और फुर्ती से पैंतरे बदलने वाले क़तील शिफ़ाई के कमरे से आने वाली पहलवानी आवाज़ की जगह अगर उनमें दर्द से भरी और बेपनाह मुहब्बत में डूबी हुई गज़लों और नज़्मों की गुनगुनाहट मचलती थी, तो ज़ाहिर है, क़तील का ज़ेहन उनके जिस्म की मसह मांगता रहा हो. किसी की याद में रातभर जागने की बेचैनी और सुबह उठकर पहलवानी करने की आदत के दरमियान वो कैसे अपने दर्द भरे लम्हे को जीते थे, उसकी बानगी उनके इस शे’र में है…
परेशां रात सारी है सितारों तुम तो सो जाओ
सुकूत-ए-मर्ग तारी है सितारों तुम तो सो जाओ
क़तील शिफ़ाई की ज़िंदगी में मुहब्बत ने जगह तो बनाई, लेकिन ज़्यादा वक्त तक उन्हें रास नहीं आई. अपने ज़माने की फिल्म एक्ट्रेस चंद्रकांता से बिछड़ने के बाद तो जैसे वो सदमें में आ गये. और महबूब से जुदाई के उस गम ने उनकी शायरी में बेइंतहा रूमानियत भर दी. क़तील ने इस बात का इकरार करते हुए एक दफा कहा था- ‘अगर चंद्रकांता मुझे छोड़कर नहीं गयी होती तो मैं अभी तक एक ढर्रे वाली ही शायरी कर रहा होता, जिसमें हकीकत की बजाय बनावट ज्यादा होती. चंद्रकांता से बिछड़ने के बाद की शायरी में बेख्याली के लिए कोई जगह नहीं है.’ सचमुच! दर्द में डूबी उनकी गज़लों में ज़िंदगी का फलसफा साफ दिखायी देता है. महबूब से बिछड़ने को अजनबियत का नाम देना तो कोई क़तील से सीखे-
किया है प्यार जिसे हमने ज़िंदगी की तरह
वो आशना भी मिला हमसे अजनबी की तरह
शायरी के लिए उनकी दीवानगी का आलम यह था कि बीवी-बच्चों की परवरिश के लिए जी-तोड़ मेहनत करने वाले क़तील क़लम उठाना कभी नहीं भूलते. उनके इस अंदाज़ ने ज़माने की रुसवाईयों को दरकिनार कर दिया-
चलो अच्छा हुआ काम आ गयी दीवानगी अपनी
वगरना हम ज़माने भर को समझाने कहां जाते
क़तील शिफ़ाई वैसे तो पाकिस्तान के थे, लेकिन उन्हें पाकिस्तान और हिंदुस्तान दोनों जगह मक़बूलियत हासिल हुई. उनकी मक़बूलियत ने उन्हें फिल्मों में गीत लेखन का बेहतरीन मौक़ा दिया. बालीवुड में बड़े दिलवाला, औजार, पेंटर बाबू, फिर तेरी कहानी याद आई, शीरी फरहाद, गुमान जैसी कामयाब फिल्मों के गीतकार रहे क़तील शिफ़ाई को भारत और पाकिस्तान के कई अकादमिक पुरस्कारों से भी नवाज़ा गया. भारत में उन्हें ‘अमीर खुसरो पुरस्कार’ से नवाज़ा गया था. जगजीत सिंह, चित्रा सिंह और गुलाम अली जैसे गज़ल गायकों ने तो उनकी गज़लों से अपनी आवाज़ को और शीरीं बनाया था. अब भी जगजीत सिंह की पुरकशिश आवाज़ में क़तील की यह ग़ज़ल कहीं सुनाई देती है, तो दिल उनकी शायरी की तरफ रुजू हो जाता है-
अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूं तेरा नसीब अपना बना ले मुझको
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